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हिन्दू धर्म-ग्रंथों में अहिंसा
मानव जाति के हृदय में दया का स्त्रोत स्वाभाविक गति से बह रहा है। चाहे कर से क्रूर मनुष्य क्यों न हो उसके हृदय में भी दया का संचार अवश्य होगा। फिर भी संसार में बहुत से मनुष्यों की प्रवृत्ति इसके विपरित देखने में आती है अर्थात् किसी को शिकार, किसी को माँसाहार, किसी को देवियों के आगे पशु वध करते हुए और किसी को यज्ञ के निमित्त जीव-हिंसा करते हुए देखा जाता है। इसका कारण क्या है ? जो शास्र जगत के समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझने की आज्ञा देते हैं, जो शास्र ‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उपदेश देते हैं, क्या वे किसी भी काल में जीवों की हिंसा में धर्म बता सकते हैं ? क्या शास्रीय सिद्धान्त और युक्तियां ऐसा करने की छूट देते हैं ? इन्हीं बातों पर विचार करना इस विषय का प्रमुख लक्ष्य है। ।
इस विषय के प्रतिपादन में शास्रीय प्रमाणों के साथ-साथ युक्तियों का भी आश्रय लिया जायेगा क्योंकि नीतिकारों का कहना है कि केवल शास्रों का आश्रय लेकर ही किसी विषय का निर्णय नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि युक्ति रहित विचार से धर्म की हानि होती है । ___वैदिक काल के इतिहास का अवलोकन करने पर विदित होता है कि उस काल में लोगों का धार्मिक कृत्य यज्ञ था। यज्ञ शब्द यज धातु' को 'न' प्रत्यय लगने पर बनता है और इसका अर्थ होता है-पूजा अथवा दान । यज्ञ में भोजन के पदार्थ वृक्ष के नीचे या खुले आकाश में देवताओं को अर्पित किये जाते थे। प्रारम्भ में तो यज्ञ की विधि बड़ी सादी थी। यह अनुष्ठान देवताओं १. अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो देवो बलि भौंतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।। ७ ।। मनुस्मृति हिन्दी टीका पं. रामेश्वर भट्ट अध्याय ३
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