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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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इच्छानिरोधरूप उपवासादि तप करवाथी छकायनो आरम्भ वंध थतां ते दिवसे अनन्त जीवोने अभयदान मले छे, तेथी तप करवाथी पण दानधर्मर्नु अनायासे पालन यई जाय छ। --भाव धर्म तो दानधर्म छेज
प्रवृत्तिने रोकी करुणा राखवी तथा अप्रमत्तयोगथी जीव तथा अजीवनी रक्षा करवी, तेनुं नाम भाव छे, त्या पण भावनी दृष्टिए वधाने अभयदान मळे छे, तेथी प्राणीरक्षानुं नामज भाव अथवा भावशुद्धि छ । शुं साधु पण दान दे छे?
हा, जैन मुनि पण हमेशा उपदेशदान, ज्ञानदान, शिक्षादान, रूढिच्छेदक दान दे छे, अने तेथी मानवसमाजपर महान् उपकार करे छ, कोई वखते लोको एम पण कहे छे, के साधुने नहि पण दानी अथवा राजानेज अनदाता कहेवा जोइए, साधु शु कोईने भोजन पाणी आपी शके छ ? पण एटलं तो जरूर समजी लेवू जोइए के शु अनाज मात्र भोजन कहेवाय छ ? चीजी कोई वस्तु नहि, तृप्ति शुं मात्र अनाजथीज थाय छ ? खरी रीते आत्मानो खोराक अन्न पण नथी, ए तो पर वस्तु तथा मात्र देहमुंज पोषण करनारी पौगलिक वस्तु छे पण आत्मानो पोतानो खोराकतो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शम, सवेद, निर्वेद, अनुकंपा, आस्तिक्य छ। ते वास्तविक खोराकनी प्राप्तिथी भात्मानी हमेशने माटे तृप्तिज थई जाय छे। तेथी पूज्य मुनिवर ज्ञान, दर्शन चरित्ररूपी आत्मीय खोराक आपता होवाथी तेओने अन्नदाता पण कही शकाय, भने आ दानरूपी सुन्दर कार्यना संचालक मुनिज होय छ, के जे वंने प्रकारे निर्द्वन्द्व होय छे ।
शील तप तेमज भाव गुप्तरीते दानमां समायेला छे तेथी चारे धर्ममा दानने प्रथम स्थान आपवामा आवेल छ, परन्तु दान, शील, तप पण भावन सद्भावथी एटले के पवित्र भावरूपी सुंदर लहर आववाथी सफल वनी शके छ, बीजी रीते नहि। धर्मरत
चतुर्विध अमूल्य धर्मरत्न मेळवीने श्रेष्ठकुल तेमज इन्द्रियादिकनी अनुकूल सामग्री प्राप्त भयेल, मनुष्य, कर्तव्य छै के अनेकान्तवादनी शैलीने समनीने