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वीरस्तुतिः।
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जाता है, वह काल सूर कसाईके पुत्र 'सुलस' की तरह सब मनुष्योंमें पवित्र और श्रेष्ठ गिना जाता है।"
- "जो इन्द्रियोंको तो वश रखना चाहता है, तथा देव और गुरु की आत्मीय सेवा करता है, यथा शक्य दान भी देता है, तत्वको पढ कर पढाता भी है, तप भी करता है, परन्तु जरासी भी हिंसाको यदि धर्म मान्यतासे कर देता है तव तो उपरोक्त सवकी सव क्रियाएँ निष्फल हैं, अत. सिद्ध हुआकि धर्मके नाम पर की गई हिंसा भयंकर पापकारिणी है।" ___"जिस शास्त्रमें धर्मका नाम लेकर हिंसा करनेका उपदेश क्रिया हो वह शास्त्र न होकर कुशास्त्र समझा जाना चाहिए अर्थात् वह शस्त्र है शास्त्र नहीं।" . ___ "यह कितना आश्चर्य है कि मनुष्य तक को मार देनेवाले, लोभान्ध होकर पथ भ्रष्ट होजाने वाले, हिंसा विधायक शास्त्र बनाकर, तथा पाप करनेका उपदेश ठेकर, लोकोंको मूर्ख बना रहे हैं, अन्ध विश्वासी बनाकर मानो नरकके कूडेमें डाल रहे हैं।"
अहिंसाका माहात्म्य-"अहिंसा माता की तरह सवकी पालिका और हितकारिणी है। अहिंसा ही शत्रुओंके मनमें अमृतका सचार करनेवाली है। अहिंसा दु.खरूपी दवानलको वुझानेमें अमोघ और प्रधान मेघ है, संमार भ्रमणा यानी जन्म मरणके रोगसे पीडितोंके लिए तो आरोग्यता देनेमे समर्थ औषधि' है।"
अहिंसाका फल-"लम्बी आयु, खच्छ और सुन्दर रुप, नीरोगता, ससारमें निर्मल यशः कीर्ति, इत्यादि सामग्रिएँ अहिंसा पालन करनेके उपलक्षमें ही तो मिली हैं। अधिक क्या कहा जाय अहिंसा सव मनोरथ पूर्ण करनेवाली है।" . किसीने ठीक ही कहा है कि-"पहाडोंमें सुमेरु, अमृत पीने वालोंमें ठेवता, मनुष्योंमें चक्रवर्ती, ज्योतिष् चक्रमें चाद, ठंढी छायां देनेवालोंमें फलदार वृक्ष, ग्रहोंमें सूर्य, जलाशयोंमें समुद्र, सुर-असुर-मनुप्य तथा चक्रवर्तियोंमें वीतराग के पदकी तरह सव व्रतोंमें 'अहिंसा' को सवमें बडप्पन तथा प्रधानता प्राप्त है। अर्थात् इससे वढ कर और वडा व्रत क्या हो सकता है।" - निष्कर्ष-इन सब शास्त्रोंका मीलान करनेसे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि-हिंसा सव शास्त्रोंमें वर्जित है; जैनोंने तो इसका नाम प्राणातिपात कहा है,