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३५८ .:, वीरस्तुतिः। -
यह योग अनादि , कालसे चला आ रहा है, और इसके आदि प्रवर्तक आदिनाथ अर्थात् आदि तीर्थंकर श्रीऋषभदेवजी जिनराज हो गये हैं। उन्होंने मनो निग्रहका आदेश सर्व प्रथम देकर यह फर्माया है कि अधिकतर बहुतसे जीवोंका जगत्के सन्मुख दृष्टि द्वारा क्षोम प्राप्त मन अक्षुब्ध होकर आत्माके सम्मुख प्रवर्तित होता है, और वह फ़िर अनन्त सुखका साक्षात्कार पाकर उसका अनुभव करता है अतः मेनका निरोध करना ही योग है। भगवान् पतंजलिने भी योगका यही लक्षण बताया है।
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।" 'चित्तवृत्तिका निरोध करना योग है।''
इस अत्युत्तम योगके पात्र स्त्री पुरुष या चारों वर्णके लोक हैं। योग साधनामें जाति मेदकी कोई आवश्यकता नहीं है। चाण्डाल जाति भी योगी महात्मा हो सकता है। २५०० वर्ष पूर्व हरिकेशी मुनि जातिके चाण्डाल थे तथापि योगके द्वारा महात्मा पदको पा गये। यथा
सोवागकुलसंभूओ, गुणुत्तरधरो मुणि। (उत्तराध्ययन)
भावार्थ-चाण्डाल कुलमें जन्म लेनेपर भी हरिकेशी मुनि उच्च गुणके धारणकरनेवाले मुनि थे, पुनश्च । ' • सक्खं खुदीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाई विसेसु कोई । सोवागपुत्र हरिएससाहूं, जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा॥ .
(३७, उत्तराध्ययन १२ “योगका महात्म्य आखों आगे प्रत्यक्षमें दीख पड रहा है जिसमें जातिकी कोई आवश्यकता विशेष नहीं है। हरिकेशयोगी चाण्डाल जाति है। परन्तु इसके योग ऋद्धिके सामने सवकी आंखें चौंधिया गई हैं।" ।
__ परन्तु तामस वृत्तिवालोंसे योग साधना नहीं हो सकती। अत. योग विद्याके जिज्ञासुओंको घी, दूध, तेल, प्राशुक भोजन आदि सात्विक आहारका उपयोग करना चाहिये। यथा
आयुःसत्ववलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः, रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः।
(गीता श्लोक १७, अध्याय ८) रसयुक्त, चिकना, स्थिर, हृद्य आहार सात्विक जनोंको प्रिय है, क्योंकि इनसे आयुष्य, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिकी वृद्धि होती है।"