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३५६ : - वीरस्तुतिः। . . * • भावार्थ:: प्रत्येक प्राणी सुखकी इच्छा प्रकट करता हैं, इतना ही . नहीं बल्कि सुखकी प्राप्तिके लिये अनेक उपाय करता हैं। उन उपायोंसे जव वह सफलीभूत होता है और अनन्त सुखको पाता है तव वह सर्वथा कृतकृत्य हुआ समझा जाता है । सुखको पानेके लिये अनेक साधनोंमें धर्म सर्वतो मुख्य साधन है। वर्तमान समयमें अनेक मत, पंथ, वाडावंदी- सम्प्रदाय, संघाड़ा, गच्छ, टोला, पार्टीवाजी आदि जो धर्मके नामपर चलकर अमर शहीद बनने जा रही हैं, वे सब सुखके साधनसे विमुख वनकर अपने शिष्योंको सुखका साधन प्राप्त कराने में असमर्थसे ही हैं। मात्र अपनी सम्प्रदाय :
और टोलेको निभाने के लिये अमुक अमुक क्रियाएँ रच डाली हैं। उन्हींको परम्पराके अनुसार अपने शिष्योंको भी बताते रहते हैं, और वे शिष्य भी उस परम्पराके अरघट्ट चक्रके अनुसार उन क्रियाओंको उनके इशारेपर नाच. नाचकर करते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें जो क्वचित् क्वचित् सुखकी इच्छावाले प्राणी हैं उनको सन्तोष नहीं होता। सन्तोष न होनेसे ऐसे भद्रपरिणामवाले जीवोंको सुखके साधनके लिये खून पसीना एक करना पड़ता है। बहुत कुछ धूल खाक उड़ानेपर भी सुखके सच्चे साधन समयपर मिलते हैं और नहीं भी मिलते। इस प्रकार उनकी दयनीय स्थितिपर स्पष्ट समझा जा सकता है कि स्थायी सुखके वास्तविक और सच्चे साधनोंके प्रचार करनेकी जगत्के लिये पूरी आवश्यकता है।
सुखके साधनोंमें योग सवसे भारी और अद्वितीय चमत्कारिक तथा सर्वमान्य साधन है। यदि इन साधनोंका गुरुगम द्वारा उपयोग किया जाय तो अवश्यमेव अल्प समयमें सनातन अखंड सुखंकी प्राप्ति हो सकती है। योग एक ऐसी वस्तु है कि वह अपने आप नहीं सीखा जा सकता, अतः किसी महात्मा, योगनिष्ठ, आत्मवित् पुरुषके द्वारा उसे सीखना चाहिये । आजकल योगी पुरुष इस भारतमें सब जगह नहीं मिलते अतः सतत प्रयास द्वारा योगियोंकी शोध करनी पडेगी, परन्तु नकली योगिओंसे तो सावधान ही नहीं बल्कि दूर रहना चाहिये और किसी सच्चे योगीको खोजकर साध्यकी साधना करनी चाहिये । एवं इतना स्मरण रहे कि योगकी साधनाके विना सत्य सुखको कोई भी नहीं प्राप्त कर सकता, परन्तु वह सत्य सुख , अपने पास और अपनी आत्मामें ही है, और योग - अन्तर्दृष्टिके अभ्यास द्वारा उसे वता