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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
गाडी सुखोंका उपभोग करेगा। अशुभ अनुवंध हो तो अगाडी दुःख गना पडेगा।
(१.) 'पापानुबंधी पाप' इस समय दु.ख और पीछे भी दु.ख । (२) 'पापानुबंधी पुण्य' इस समय सुख और पीछे दुख । (३) पुण्यानुबंधी पाप' इस समय दु.खं और फिर सुख । (४) 'पुण्यानुबंधी पुण्य' इस समय सुख और फिर भी सुख ।
इस प्रकारके कर्मोंसे या तो दु ख मिलता है या सुख मिलता है, रन्तु मोक्षके अव्यावाध सुख जो कि कभी समाप्त नहीं होते, ऐसा आत्मिक न्स पानेके अर्थ शारीरिक सुखोंका भोग छोडना चाहिये । अर्थात् पाप पुण्यका य करके आत्मखरूपमें रहना सीखिये, और किसी भी प्रकारका अनुबंध बाधना चाहिये। यदि अनुबंध डालना हो तो पुण्यका ही वाघना चाहिये। आपका अनुबंध तो बिल्कुल ही न डालना चाहिये क्योंकि पुण्यके अनुवंधसे छ ऐसा बल प्राप्त करता है कि जिससे कर्मोंका क्षय भी कर सकता है।
॥अथाऽऽलोचनापुष्पाञ्जली योगस्य पुष्टये ॥ वीतरागोऽसि विज्ञानमयो गुरुवरोऽसि त्वम् । गुणागारोऽसि देवेश ! दा भव्यावने रत ॥१॥ इत्यं ते स्मरणानित्यं, नरा यान्ति भवाम्बुधेः। रं सुखेन श्रीवीर ! नान्योपायोऽस्ति भूतले ॥ २ ॥ शुभाऽऽनन्दस्य केलिस्त्वं, णोत्तमंगृहं जिन! सुरासुरनरैस्त्वं हि, सेव्योऽस्यवनिमण्डले ॥ ३ ॥ त्वदीये रणाम्भोजे, मतिम स्यादकामतः । सर्वोच्चकोऽसि सर्वज्ञो, रक्ष संसार
र्पत ॥ ४ ॥ महोदधि कलावुद्धरादर्शस्त्वं शुभस्य च । आचारस्याऽनवस्थि, सस्ते? खभखकः ॥ ५ ॥ वैद्यो लोकत्रयस्यैव, रत्नाकर ! जयोऽस्तु ते। पीशो जिनवरोऽसि त्वं, कृपाकर ! दयानिधे । ॥ ६ ॥ कर्मन्नो जातसर्वज्ञ ! वेज्ञप्तिम त्वयि प्रभो! वीतरागमयोऽसि त्वं, दुर्बुद्धेर्मे निशामयं ! ॥ ७ ॥ वेज्ञोऽति हे प्रभो ! देहि, वर चामयदं शुभम् । पित्रोरग्रे शिशु स्पष्टं, नोच्चायति किं ? पुनः ॥ ८॥ मोदाय तस्य किं लीला, न भवेत्त्वं विचारय। हे न.! खसुवृत्तं च, रीतिं चैव स्वकीयकीम् ॥ ९॥ नम्रो भूत्वा वयं प्रीति, वेभो कुरु मुदाऽनिशम् । भवेऽस्मिन्नहं शुद्धन, मनसा दत्तवान्नु किम् ॥ १० ॥ दानं किञ्चित्सदाचारो, ज्ञानं नैव तपश्च मे। पवित्रं नो मनो मेऽलं, कथमाराचये विभुम् ॥ ११॥ अद्यापि वासनाहानिर्न जाता पुद्गलेषु च । भ्रमान्मे