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वीरस्तुतिः।' भावार्थ-खामी अर्थात् शासनपति, अर्हन् प्रभु, श्रीमहावीर भगवान्के गुणोंको पहचान कर जो प्राणी अरिहंतको भजता है उनकी सेवा करताहै, वह दर्शन अर्थात् सावरण केवलज्ञान सम्यक्त्व खखरूपकी झांकी अवश्य प्राप्त करता है। उसे दर्शनकी निर्मलता होती है, यथार्थ आत्म ज्ञान भासता है, चरित्र खखरूपमे रमण करता है, तप तत्वकी एकाग्रताको प्राप्त करता है, वीर्य आत्मसामर्थ्यका उद्भव करता है, उसके उल्लाससे ज्ञानावरणादि कर्मोको जीत (क्षय कर) ता हुआ मोक्ष-निरावरण रूप सम्पूर्णसिद्धतारूप अपुनरावृत्ति धाममें जाकर निवास करता है ॥ ५ ॥
जगद् वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभु चरणने शरण वास्यो। तारजो बापजी ! विरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो॥६॥
भावार्थ-जगत् त्रय वत्सल (हितकारी) चौवीसवें महावीर जिनवरके गुणोंको सुनकर मेरा मन प्रभुके चरण (चरित्र) रूपी शरण (मनन) मे वस गया है, अतः हे प्रभो ! भो परमेश्वर ! मेरा आत्मा पलटा खाकर आत्मका समस्तसाधन करे, ऐसी शक्तिका उद्भव तो मुझमे नहीं दीख पडता, इसीलिए सरल भतिका आश्रय लेकर कहता हूं कि वापू! मुझ दासको आप ही पारकरना, और आप अपनी तारकताका विरुद सुरक्षित रखनेके लिए इस दासकी सेवना (भकि) के सामने मत देखना, जो आपकी आज्ञानुसार भक्ति करता है वह निस्सन्देह पार होता है, परन्तु जगत्तारक ! मेरे लिए यह सब कुछ होना दुर्लम है, लेकिन जिसप्रकार काठकी समातिसे लोह और पत्युरभी पार हो जाते हैं इसी प्रकार आपके संयोगसे पार हो जाऊंगा, और मुझे अंव नियमरूपसे यही एक अन्तिम आधार प्रगटरूपमें दीख रहा है ॥६॥
विनति मानजो शक्ति ए आपजो, भाव स्याद्वादता शुद्ध भासे। साधि साधकदशा सिद्धता अनुभवी, "देवचन्द्र विमल प्रभुता प्रकाशे ॥ ७॥