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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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जो जितेन्द्रिय संयमी सदैव अपने आत्माका विनयसमाधि-श्रुतसमाधि-तपः समाधि और आचारसमाधिमें रमण करते हैं वास्तवमें वे सच्चे पण्डित होते हैं. - विनय समाधिके चार प्रकार-विनय समाधिके चार मेद इस प्रकार हैं जिस गुरुके पाससे शिक्षण प्राप्त किया है, उस गुरुको महा उपकारी समझकर उसकी सेवा करे, उसके समीपमें रहकर विनयका समाचरण करे। गुरुके वचनका यथार्थ रूपमें पालन करे। और विनयी होनेपर अहंकारी न वने । मोक्षार्थी साधक सदा हितशिक्षाकी इच्छा रखता है, उपकारी गुरुकी सेवा करताहै, गुरुके समीपमें रह कर उनके वचनका पालन करता है, और अभिमानमें मदसे गर्विष्ठ नहीं बनता। वही विनय समाधिका आराधक समझा जाता है।
श्रुत समाधिके चार प्रकार-"अभ्यास करनेसे मुझे सूत्र सिद्धा. न्तका परिपक्क ज्ञान होगा" यह समझ कर अभ्यास करता है, "अभ्यास फरनेसे मेरे मनकी एकाग्रता होगी" यह जानकर श्रुतका अभ्यास करता है। "अपने आत्माको उत्तम और सद्धर्ममें परिपूर्णतया स्थिर करूंगा" यह मान कर अभ्यास करता है, यदि में समता पूर्वक धर्ममें स्थिर रहूंगा तो औरोंको भी धर्ममें स्थापन करसकूँगा। श्रुतसमाधिमें अनुरक्त रहनेवाला साधु सूनोंको पढकर ज्ञानकी, एकाग्र चित्तकी, धर्मस्थिरताकी तथा औरोंको धर्ममें स्थिर करनेकी शक्तिका सम्पादन करता है, अत साधकको श्रुतसमाधिमें तल्लीन रहना चाहिए।
तपः समाधिके चार प्रकार-सच्चा साधक इस लोकके स्वार्थसुखके लिए तप नहीं करता, परलोक वर्ग सुखके लिए तप नहीं करता; कीर्ति, वर्णन (श्लाघा) के लिए भी तप नहीं करता, और पाप कर्मको बखेरनेवाली निर्जराके अतिरिक्त किसी भी अन्यकारणसे तप नहीं करता, वही तपसमाधिके योग्य होता है । तपसमाधिमें सदैव लगारहनेवाला साधक भिन्नभिन्न प्रकारके सद्गुणोंके भण्डाररूप तपमें सदैव तन्मय होता है। किसी भी प्रकारकी आशा रक्खे विना कर्मक्षीण करानेवाली निर्जरा भावनाके लिए प्रयत्न करे तो तपकेद्वारा वह पुराने पापकर्मीको दूर कर सकता है।
आचार समाधिके चार प्रकार-कोई भी साधक इस लोकके खार्थकी पूर्तिके अर्थ श्रमणके सदाचारोंका सेवन नहीं करता, पारलौकिक