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वीरस्तुतिः।' ' .
इसके अतिरिक्त असत्य की विवक्षा होने पर कषाय असत्य निमित्त वन जाता है, कषायका उदय आनेपर असत्यका प्रयोग अवश्य, किया जाता है। अतः क्रोध-लोभ-मान-राग-द्वेष-मोहादिके कारणसे असत्य. बोलनेका त्याग करना सत्याणुव्रत कहलाता है।
हंसीमें, कठोर शब्द का प्रयोग करते समय, चुगली करते समय, अप्रशस्त वचन कहते समय, झूठा वाक्य कहना अनिवार्य हो जाता है, और देहधारीको आत्म स्थिति उस समय प्राप्त होती है जब दूसरा अणुव्रत स्वीकार कर लिया जा सके।
कीसी ने कहा है कि-जिसे मूढता के कारण धर्म के नामसे पुकारता है, और जो म्लेच्छोंमें भी निन्द्य समझा जाता है, उस असत्य को मन, वचन-कायसे त्याग देना ही उचित है, यदि हितको अपनानेकी अभिलाषा है तो असत्य न कह कर मौनको स्वीकार करले। क्योंकि इतने स्थानों पर सव मौन भाव भजते हैं,
जैसे-“प्रतिक्रमण करते समय, मलमूत्र त्यागते वक्त, पापके कार्यको छोडते समय, निरन्तर मौन रख लेवे, क्योंकि मौन कर लेनेसे वाणीके दोषोंका नाश हो जाता है।" 'मौनसे क्लेश नष्ट होता है, सन्तोष भाव जागृत हो जाता है, वैराग्यका प्रदर्शन होता है, सयमकी पुष्टि हो जाती है।' 'जिह्वाके खाद छोडनेसे ही तपकी वृद्धि होती है। अमिमानकी रक्षा होजाती है, समता आनेसे मनकी सिद्धि हो जाती है ।' 'वाणी मनोरमा वनजाती है, आदेय होकर प्रशंसा पात्र बन जाता है, मौन रखने वालेके चरणयुगल वन्दनीय होते हैं। परन्तु मौन देश और कालको विचार कर करना चाहिए। यदि कहीं बोलनेसे ससारको सद्बोध और चरित्रका लाभ हो तो वहा चुप न रहना चाहिए। मगर वाणी सदा सत्यवती होनी चाहिए।'
__ गृहस्थके लिए त्याज्य असत्य क्या है ? "गृहस्थ को कन्या, पशु, पृथ्वी, के सम्बन्धमें असत्य कुछ भी न कहना चाहिए, न ही उसे कमी झूठी गवाही देनी चाहिए, कमी किसी की थापन-यानी धरोहर मार कर उसे कोरा जवाब न देना चाहिए, इन पांच वातोंको ध्यानमें रखने वाला सल्याणुब्रती है। यदि अपने या अन्यके ऊपर सत्य कहनेसे आपत्ति आ सकती हो तो उम समय सत्य न कह कर मौन कर लेना उचित है।"