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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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प्रतिकूल कुछ अच्छा नहीं प्रतीत होता है, तव औरों को उनके प्रतिकूल आचरण कब इष्ट है।"
"सवको अपने प्राण ही प्रिय हैं, राज्य नहीं"-"प्राणी अपने प्राणोंकी रक्षाके लोभमें राज्य को भी तृणकी तरह छोड देता है। अत एवं किसीके प्राणोंका नाश करनेसे जो पाप होता है वह समस्त पृथ्वी दान कर देनेसे भी दूर नहीं होता।" |
"मरनेवालेकों चाहे राज्य भी प्रदान करो, या सुवर्ण का पहाड अर्पण करदो, परन्तु जीवनके सन्मुख वे वस्तुएँ उसे कुछ भी अच्छी नहीं लगतीं, इसी लिए वह उन सब को छोड कर जीवित रहनेकी 'अपील' करता है।"
पीडा-"जरासा काटा पैर में लग जाता है, मगर वह सारे अगों में भारी पीडा उत्पन्न कर देता है, परन्तु जो निरपराध जीवोंको तीक्ष्ण शस्त्रसे मौतके घाट उतार देता है, उस मरनेवालेके दुखका क्या ठिकाना है। उसे तो अवश्य अनिर्वचनीय वेदना होती है।"
"यह कहा की नीति है जो अशरण, निरपराध, दुर्वल प्राणी वलवान् के द्वारा मारा जाता है, हाय ! हमें तो कष्ट के साथ कहना पडता है कि-जगत् में अराजकता छा गई है, अव यहा न्यायको कहां स्थान रह गया है।"
"यदि कोई किसीके कानोंको यह सुनादे कि तू मरजा! तव सुननेवाला यह सुनते ही काप उठता है, शरीर भयभीत और दुखी हो जाता है । जो पैनें
और कठोर शस्त्रसे किसीको मारने लगता है तब उसकी क्या दशा होती होगी। उसके दुखका अनुभव सिवाय उसके भला और कौन कर सकता है।"
- "हाथका कट जाना अच्छा है, विना पैर रहना भी कुछ बुरा नहीं, मगर सम्पूर्ण शरीरके अगोंको पाकर हिंसा करनेवाला पुरुष सर्वथा निकम्मा है, अर्थात् वह किसी कामका नहीं है।" ' . .
मतलव साधने की हिंसा भी हानिकर है-"विघ्नकी शान्तिके लिए की गई हिंसा भी विघ्नके लिए ही होगी। वहुतसे यह कह डालते है कि हमारे कुलका यही 'आचार' चला आता है, मगर वह कुछ कुलकी भलाईके लिए नहीं है, वह तो कुल नाश के लिए ही होगा, शान्तिके लिए नहीं। अपने वंशम चली आनेवाली कुलक्रमागत हिंसाको जो भी प्राणी छेड केर शुद्ध हो