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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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भाषा-टीका-प्रभुका ज्ञान कोष अक्षय था, क्योंकि उनकी बुद्धि भी केवलज्ञानरूपा थी। जो कि आदि-अनन्त थी। जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावकी पूर्ण अनन्तता थी। विस्तीर्ण और खच्छ तथा गंभीर खयम्भूरमण समुद्र की सदृश प्रभु गंभीर तथा अक्षोभ्य और पवित्र गुणोंमें उससे भी अनन्तगुण अधिक थे । आपका अनुभव, विचार तथा ज्ञान जल अनाविल यानी कालुष्यता-पूर्वापर विरोधरहित था, जिसमें कर्म मलका लेश कोई खोजेसे भी न पा सके। ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्म-बन्धनसे रहित होनेके कारण आपमें कषाय कहां हो। इसीसे आप जीवन मुक्त थे। आप तीनों लोकोंके पूज्य होने पर भी निरवद्य भिक्षा लेते । आप शूरवीर शकेंद्रकी तरह द्युतिमान् और प्रतापी-महापुरुष थे। और यह वात विश्व विख्यात थी ॥ ८॥
गुजराती अनुवाद-प्रभुनो ज्ञान भण्डार अखूट हतो, कारणके तेमनी बुद्धि पण केवलज्ञान रूपे हती, जे सादि-अनन्त हती । जेम स्वयंभूरमण नामे मोटो समुद्र अनन्त-अपार अने निर्मल जलवाळो छे, तेमज प्रभु गंभीरअक्षोभ्य-अने पवित्रं गुणोमा तेनाथी पण अनन्तगणा अधिक हता। तेओर्नु अनुभव-विचार तथा ज्ञान जल अत्यन्त निर्मल हतुं । शोधवा छतां पण कर्मरूप मेल तेमा मळी शके नहि । ज्ञानावरणीयादिक कर्मवन्धनथी रहित थवाने कारणे तेमो अकषायी-कषाय रहित हता। तेथी आप जीवन्मुक्त हता, त्रिलोक पूज्य होवा छतां आप निरवद्य मिक्षाए आजीविका करनार हता । देवोना खामी शकेन्द्रनी पेठे तेओ तेजस्वी तथा अनन्त प्रतापी अने महापुरुष हता ॥ ८॥
से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसबसेठे। सुरालएवासि मुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए ॥९॥
संस्कृतच्छाया ' स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः, सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः।. । सुरालयवासिमुदाकरः स, विराजतेऽनेकगुणोपपेतः ॥९॥