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, वीरस्तुतिः ।
लोकके अग्रभागमें [गते] जा विराजे, [ साइमणंत] और आदि-अनन्त, तथा [परमं ] उत्कृष्ट [ सिद्धिं ] मोक्षको [नाणेण ] ज्ञान [ सीलेण] चरित्र [य] और [ दंसणे ] दर्शनके द्वारा प्राप्त हुए ॥ १७ ॥
भावार्थ-भगवान्ने क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और क्षायिकचरित्र द्वारा सर्वोत्तम लोकाग्रभागमें धारण करनेवाली मुक्तिको सकल कर्मोंका अन्त करके उसे पाया, वह मुक्ति सादि अनन्त है, कई लोक मोक्षसे वापिस आना मानते हैं, किन्तु वह युक्कि संगत नहीं है, क्योंकि ससारमें रुलानेवाले राग-द्वेष-क्रोध-मान-मायादि विकार हैं, जहातक ये विकार हैं वहांतक मोक्ष नहीं, और मुक्तात्मामें कोई विकार
नहीं है । अत: विकार रहित आत्मा ससारमें क्योंकर पुनरावर्तन कर सकता है ? 'यदि उसमें रागादिका सद्भाव मानाजाय तो वह मोक्ष नहीं, यदि मोक्ष होनेपर पुनः
अवतरित होते हों तो वहमी ठीक नहीं,क्योंकि विकारोंको विकारही पैदा कर सकते हैं, जब मुक्तात्मा निर्विकार है तो विकारकी उत्पत्ति क्योंकर हो सकती है ॥१७॥
भाषा-टीका-भगवान् शैलेशी अवस्थासे शुक्लध्यानके चतुर्थ मेदको पानेके अनन्तर आदि अनन्त मोक्षरूप अपुनरावृत्ति धाममें जा विराजे । लोकके अग्रभागमें व्यवस्थित होनेसे वह परमप्रधान है, उसे उस सर्वज्ञ-महर्षि ने देहको तपसे तपा कर जानावरणीयादि आठ कर्मोका विशोधन करके ( वह भी अपने निजी पुरुषार्थ से,) फिर ज्ञान, दर्शन चरित्र के द्वारा सिद्धि गति-मोक्षको पाया । - आकाश सबमें अनन्त है, उस पूर्ण लोकालोकाकाशमे सिद्ध परमात्माका ज्ञान घनीभूत होकर भरा पड़ा है। उस सिद्धावस्थाके होने पर वे निद्रा, तन्द्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीडा, संशयसे रहित हो जाते हैं। तथा शोक, मोह, जरा, जन्म, मरण, आदि भी नहीं रहते है । क्षुधा, तृषा, खेद, मद, उन्माद, मूर्छा, मत्सर का भी अत्यन्ताभाव है। इनकि आत्मामें अव घटावटी भी नहीं है, इनका आत्म वैभव कल्पनातीत है । सिद्ध भगवान् शरीर रहित हैं, इन्द्रिय रहित हैं, विकल्प, संकल्प नहीं है, अनन्तवीर्यत्व प्राप्त हैं, अपने खभावसे कमी स्खलित नहीं होते। सहज और नित्य आनन्दसे आनन्द रूप हैं । जिनके मुखमें कमी 'विच्छेद नहीं होता है । परमपद में विराजित हैं, ज्ञानके प्रकाशसे प्रकाशित हैं। परिपूर्ण, सनातन, ससारकी खटपटसे रहित हैं एवं जिनको अव कुछ भी करना वरना नहीं है, अचला स्थिति है, आत्म प्रदेशों की क्रियासे रहित हैं । सन्तृप्त हैं,