________________
३८
.
वीरस्तुतिः। ...,
रूपसे मैत्री भाव पैदा करनेका स्वभाव होजाता है। इसके अनन्तर मोह, अवि.. वेक, चित्त विकारके पर्दै तोड डालता है। मोहका सर्वथा नाश होनेपर चित्त . निर्मल और पवित्र हो कर स्थिर होता है, पवित्र चित्तवाला कामदेवका नाश करता है। जिसके ज्ञान-आत्माका उदय होगया हो उसमे इतनी क्रियाओंका भी मननात्मक उदय हो जाता है, इससे ज्ञानी अटल सुखके पदको पानेका पूर्ण साधक बन जाता है।" ____ 'जो आत्माको राग द्वेपसे निकालकर निश्चय हेतु बन जाता है बुद्धिमानोंने उसे भी ज्ञान कहा है।'
__ 'जिससे सत् अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यका और असत्का विवेक हो उठता है, उसे भी ज्ञान ही कहा है।'
, ज्ञान विशेष वस्तुका बोध कराता है, लोक और अलोकके परदे खुल जाते हैं। हथेली पर रक्खे हुए आमलेकी भाति ससारका सब खरूप और घटनात्मक भाव जानने लगता है । वह सपूर्ण ज्ञान केवलज्ञान या ब्रह्मनान है। इससे वढकर ज्ञानकी और कोई भूमिका नहीं है। केवल नाम भी पूर्णताका है, वह 'जान असाधारण है, निरपेक्ष और परमशुद्ध है, सब पर्यायों और भावोंका
जापक है । इससे लोक और परलोक अवगम्य है । जानसे' सहज और उत्कृष्ट 'अनन्त आनन्द मिलता है। यही ज्ञान प्राणिओंके मंबन्धका समय, तथा उनके शुभाशुभ फलका वोव कराता है। तथा सूक्ष्म-चादर, चर-अचरकी पूरी खवर रखने वाला सर्वन कहलाता है। दर्शन
जिसमें किसी प्रकारका व्यभिचार नहीं पाया जाता, संशय, विपर्यय, मिथ्यात्व-या अनध्यवसाय आदि दोपो से रहित हो, इन्द्रिय और मनके विषय भूत समस्त पदार्थोकी दृष्टि श्रद्धारूप प्राप्तिको, अथवा सगत युक्तिसे सिद्ध दर्शनको सम्यग्दर्शन कहते हैं। तथा जीव आदि नव पदार्थोंके भावों पर श्रद्धान पूर्वक 'यथानुरूप धारण करना, जिससे कि-समता भाव अस्थिर वस्तुओंसे विरक्ति दिलानेवाला वैराग्य, कर्म वन्धसे मुक्त होने की निरन्तर अमिलापा, शत्रु मित्रके जटिल प्रश्नको उठाकर अमेट रूप अनुकम्पा और आत्मीय कर्मोका उदय होने पर ही सुख दुख होता है इस रीतिका आन्तिव्यादि लक्षणोंका समुदय