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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता ६७ सच्चा वीर रस पैदा करते। देव, मनुष्य, पशु और नरकके आयुके लम्बे तारोंको तोड फोड कर नष्ट कर. दिया । क्योंकि जब वीजको सैंक भून दिया जाता है तब उसे बोया भी जाय तव भी वह अकुर नहीं देता अर्थात् उसकी सृष्टि अगाडी नहीं बढती, इसी प्रकार कर्मवीज नष्ट होने पर ससारका संकुर अर्थात् जन्म और मरण नष्ट हो जाता है ॥ ५॥
गुजराती अनुवाद-२२ परिषह, शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रागादिक तथा ज्ञानावरणीयादिक आन्तरिक शत्रुओने जीतीने प्रभु केवलज्ञानी थया, अने ज्ञानने प्रमुख पद आपीने संसारने क्रियानु पण भान कराव्यु, अने सिद्ध करी बताव्यु के ज्ञान भने क्रियाथी मोक्ष छे, मूल तथा उत्तरगुणे दोष रहित सयमना पाळनारा, धैर्यवान् , सर्व कर्म नाश थवाथी स्थित आत्मवान् , सर्व 'जगत्ने विषे प्रधान ज्ञानवान् , वाह्य मने अभ्यन्तर परिग्रह रहित तेमज कर्मग्रन्थीनो मर्वथा नाश करवाथी निर्ग्रन्थ थया आ कारणे बौद्धादिक आपनुं 'निग्गण्ठ' (निर्ग्रन्थ) एवा नामथी स्मरण करे छे, आप सात भय रहित थया, अने बीजाओने निर्भय बनाववाने माटे उपदेश देता, अने लोकोमा साचो वीर रस पेदा करता, चार गतिना आयुष्य रहित ज्ञातृपुत्र श्रीमहावीर देव हता, कारणके ज्यारे बीजने शेकी नाखवामा आवे त्यारे तेने वाववामां आवे तो पण ते उगतुं नधी, आ रीते कर्मवीजनो नाश थई जवाथी ससारना अंकुर जन्म-मरण "नाश पामी जाय छे ।।
से भूइपन्ने अणिए अयारी,
ओहंतरे धीरे अणंतचक्खु । अणुत्तरे तप्पइ सुरिए वा, वइरोइणिंदे व तमं पगासे ।। ६॥
संस्कृतच्छाया स भूतिप्रज्ञोऽनियतवारी, 'ओघेतरो धीरोऽनन्तचक्षुः। अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र श्व तमः प्रकाशः ॥६॥