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वीरस्तुतिः। ... चरित्र
उत्तराध्ययनना २८ मां अध्यायमां श्रीवीरप्रभुए खयं प्रतिपादन करेलं है के मिथ्यात्व, अव्रत, कपाय, प्रमाद अने मन-वचन-कायना अशुद्ध योगथी जे पापकर्म बंधाएला छे के जेना शुभाशुभ फलमा परिवर्तन करवानी सत्ता आपणा हाथमा नथी रही, ते कोनो पुरुषार्थवळथी नाश करीने आत्माने कपायात्मा अने योगात्माथी अलग करी देवो, तेनुं नाम चरित्र छे, चरित्रथी भविष्यनी प्रवृत्तिमार्गनो अवरोध करीने जेम अग्निथी सुवर्णनो मेल दूर थाय छे, तेम । तपथी जन्मान्तरना कर्मोनो नाश करीने आत्मा सर्व दु खोथी रहित थाय छे। ।
आ चरित्रना अणुव्रत तथा महाव्रत एम वे मेद छे, पोताना भावोने कषायरहित करवाथी मूल गुण तथा उत्तरगुण रुप चरित्र एक देश अथवा सर्वथा संयम गुण प्राप्त करे छे ।
जम्बूमुनि सुधर्माचार्य ने पूछे छे के भगवान् ज्ञातृपुत्र-महावीरनुं रत्नत्रय केयूँ तुं? शाहपुत्र
तेओ ज्ञातृ वंगना क्षत्रिय कुलमा जन्म्या होवाथी ज्ञातृपुत्र कहेवाता | हता, मुनि वनीने नातृपुत्र कोई वस्तुनी वियोग दशामा शोक नहोता करता, जातृपुत्र कोईने वा न थता, पण सदैव स्वावलवी रहेता, तेमनी भावना रागद्वेष रहित मध्यस्थ हती। तेओ अनुकूल प्रतिकूल प्रसंगो पर ध्यान आप्या वगर संयम मार्गमा स्थिर रहीने पोतानी वर्मप्रतिजाओमा हमेशा प्रवृत्त रहेता हता।
तेथी हे आचार्य भगवन् ! मे तेमनां जान-दर्शन अने चरित्र सम्बन्धी जे प्रश्न कर्यो छे, तेनो आपे यथानुरूप अनुभव प्राप्त कर्यो छे ते जेम तमे सांभब्यु होय अने धार्यु होय ते शान्त चित्ते मने कहो।
खेयन्नए से कुसले महेसी, अणंतनाणीय अणंतदंसी। जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, - जाणाहि धम्मं च धिइं च पेहि ॥ ३ ॥... ।