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वीरस्तुतिः। कुशने कापवामां कुशल छ । निर्जरानो मार्ग वताववामां समर्थ छे, धर्मोपदेश देवामा मंगलप्रद छ। आशुप्रज्ञ
तेओनो उपयोग अनन्त होवाथी आशुप्रज्ञ छ । परन्तु ते उपयोग छमस्थोना जेवो होतो नथी । [छमस्थ तो थोडो समय विचारणा कर्या वाद जाणे छ। कार्मण वर्गणाओ द्वारा आत्म स्वरूप पर पडदो पडता कर्म सहित ससारी आत्माने छद्मस्थ कहे छ । परन्तु भगवान् तो "वियट्ट छडमाण" ए दोष थी मुक्त छ । महर्पि
अत्यन्त उग्र तपश्चर्या करवाथी अनुकूल प्रतिकूल परिषह तथा उपसर्ग सहन करवाथी नाना प्रकारना दुःखो सहवाथी तत्ववस्तुनुं वास्तविक रूप प्रगट करवाथी, सत्यवाणी बोलतां होवाथी, तेओ महर्षि हता।
भूत-भविष्य अने वर्तमानना अनन्त स्वरूप जाणवानी अपेक्षाए तेओ अनन्तज्ञानी तथा सामान्य अर्थनुं भिन्नकरण करवाथी अनन्तदर्शी हता।
तेमना अक्षय अने अतुल यशनुं गान मनुष्य-सुर-असुर विगेरे सर्वे मळीने करता हता।
लोकने चक्षुभूत एवा श्रीमहावीरदेवना परूपेला वर्मने तथा तेमनी धीरजने जाण अने देख।
, धर्म
ससारना प्राणिओने दु समाथी उद्धार करवानो तेनो स्वभाव छ । ज्ञान अने क्रिया ए वे प्रकारनो धर्म छे । समता-तप-सन्तोष-सरळता-उत्तम क्षमाविगेरेने पण धर्म कहेवामा आवे छ । धीरज राखवी-शान्तिधारण करवी-अकिचनवृत्ति भजवी-इंद्रिय दमन-आत्माने खराव विचारोथी हटावीने पवित्रवनाववोआत्मदोषनिग्रह-बुद्धि द्वारा सत्-असत्-युक्त अयुक्तनो निर्णय, निष्पाप-निस्पृह-सत्य, क्रोध निष्फल करवो-एम दश प्रकारनो धर्म मनुए पण वतावेलो छ ।
धर्म पारगत पुरुषोए देश-काल अवस्था-बुद्धिष्शक्तिने अनुरूप धर्मोपदेश आप्यो छे।
महावीरप्रभुनी चारित्रमा निश्चलता, धीरता एटले तेओ पोतानी प्रतित्रामा हमे दृढ रहता हता, सदैव सयममाज तेओ मम रहता।