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वीरस्तुतिः।
एवं वृक्ष-वायु-पृथ्वी आदिमें जीव है यह सिद्ध किया है, और जैनदर्शनके प्राणभूत स्याद्वाद-सिद्धान्तका सम्यक् दिग्दर्शन कर दिखाया है ॥ ४ ॥ श्रीसुधर्माचार्य वीर प्रभुके गुणों को प्रकट करते हैं !
भाषा-टीका-सर्वज्ञ-वीर भगवान्ने ऊर्ध्वलोक, मानवलोक, अधो-लोक के सब जीवोंका स्वरूप इस भान्ति वर्णन करके बताया है कि-"जीव" यद्यपि जीवसमूह शुद्ध निश्चयनयसे आदि, मध्य और अन्त से रहित, अपने
और परके गुणोंका प्रकाशक, उपाधिरहित और शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) रूप निश्चय प्राणसे ही जीवित है, तथापि अशुद्ध- निश्चयनयसे अनादि कर्मबन्ध के वशसे जो अशुद्ध द्रव्यप्राण और भाव प्राण हैं उनसे जीवित रहने के कारणयह जीव है। उपयोगमय
यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे परिपूर्ण तथा निर्मल ज्ञान और दर्शन ही उपयोग हैं इसी से जीवसंज्ञा है, तो भी अशुद्ध-नयसे क्षायोपशमिकज्ञान और दर्शनसे बना हुआ है, इस लिए ज्ञानदर्शनोपयोगमय है। अमूर्त
यद्यपि व्यवहारनयसे यह जीव मूर्त कर्मों के अधीन होने से स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णवाली मूर्तिके द्वारा रचित रहनेके कारण मूर्त है तथापि निश्चय नयसे अमूर्त, इन्द्रियोंसे अगोचर, शुद्धरूप खभावका धारक होने से अमूर्त है। कर्ता
यद्यपि जीव निश्चयनयकी दृष्टिसे किया रहित, उपाधिरहित जाननेके खभावका धारक है । तथापि व्यवहारनयसे मन, वचन तथा कायके व्यापारको उत्पन्न करनेवाले कर्मोसे युक्त होनेके कारण शुभ और अशुभ कर्मोंका करनेवाला है, अत कर्ता है।। सदेह परिमाण
यद्यपि जीव निश्चयनयपूर्वक खभावसे उत्पन्न शुद्धलोकाकाशके समान है और असख्य प्रदेशोंका धारक है, तथापि शरीर नाम कर्मके उदयसे उत्पन्नसंकोच तथा विस्तारके अधीन होने से घडे आदि पात्रोंमें रहे हुए दीपककी सदृश अपने देहके परिमाण जितना है।