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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता
देशकालवयोवस्थाबुद्धिशक्त्यनुरूपतः
धर्मोपदेशभैषज्य, वक्तव्यं धर्मपारगैः ॥ इति वृद्धाः । निष्पकम्पां चारित्राचलनस्वभावं धृति संयमे धैर्य, अथ वा प्रतिज्ञायाः पालने दृढत्वं धैर्यम् । "धृतिर्धारण-धैर्ययोरित्यमरः।" संयमे धृति रतिमेतीति, तत्प्रणीतां प्रेक्षख सम्यगवबुध्य पालोचयेति भावः। यदि श्रमणैस्तैः सुधर्मखामिभिः कथितस्तत्त्वं भगवतो यशखिनश्चक्षुःपथे स्थितस्य धर्म धृतिं चाववुध्यसे तथैव रीत्यास्माकं कथयेति संगतिः ॥ ३॥
अन्वयार्थ- [से ] भगवान् महावीर [सेयने ] सेद अथवा क्षेत्रआत्माके जानने वालोंमे [कुसले ] प्रवीण [महेसी] महर्पि [ अणतनाणी ] अनन्त-ज्ञानयुक्त [अणंतदंसी ] अनन्त-दर्शनसमन्वित [य] और [ जसतिणो] यशस्वी थे, अत. अर्हन्दशामें ही भगवान्को [चक्नुपहे ] आखोंके विपयरूपसे [ठियस्स ] स्थित [जाणाहि ] जान ! (च) और (धम्म) भगवान्के प्रतिपा. दित धर्मको (च) और (धिई) संयमकी दृटताको देख !
भावार्थ-आर्य-सुधर्माने आठजम्बूसे प्रभुके ज्ञान-दर्शन-चरित्रके तथा यश कीर्तिके सम्बन्धमें यह वर्णन किया कि वीरप्रभु जगत्के दु खोंको कोंके फलसे पैदा होना मानते थे, क्योंकि उनको आत्मासे अलग करनेका उपदेश करते थे। आत्माके सत्-चित्-सुखात्मक स्वरूपके ज्ञाता थे। कर्मरूपी कुशाको उखाडनेमें उद्यमशील थे, महान् ऋषि थे, अनन्त-पदार्थोको एक समयमें जाननेके कारण अनन्तज्ञानी थे, अनन्तदर्शन-केवलदर्शनसमन्वित थे, तथा अखंडकीर्तियुक्त थे, इसलिए भगवान्को अर्हन्दशा में आखोके समान सूक्ष्मपदार्थ दीखते थे, अत ' उनके कहे हुए धर्मको तथा चरित्र सम्बन्धी स्थिरताका. श्रद्धायुक्त दृढविचार करो ॥ ३ ॥
"भापाटीका-ज्ञातनन्दन महावीर प्रभु शासनके पति ३४ अतिशय युक्त और ३५ वाणीके गुणोंसे अलंकृत एवं शोभित थे।