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श्रावकधर्म प्रतिपादनके प्रकार
२३ तत्त्वार्थसूत्र और उपासकदशासूत्रमें एक समता और पाई जाती है और वह है मूलगुणोके न वर्णन करनेकी । दोनो ही सूत्रकारोंने आठ मूलगुणोंका कोई वर्णन नहीं किया है। यदि कहा जाय कि तत्त्वार्थसूत्रकी संक्षिप्त रचना होनेसे अष्टमूलगुणोंका वर्णन न किया गया होगा, सो माना नहीं जा सकता । क्योकि जब सूत्रकार एक-एक व्रतके अतीचार बतानेके लिए पृथक् पृथक सूत्र बना सकते थे, अहिसादि व्रतोंकी भावनाओंका भी पृथक्-पृथक् वर्णन कर सकते थे, तो क्या अष्टमूलगुणोंके लिए एक भी सूत्रको स्थान नहीं दे सकते थे ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके साथ ही सूत्रकारने श्रावककी ग्यारह प्रतिमाश्रो का भी कोई निर्देश नहीं किया ? यह भी एक दूसरा विचारणीय प्रश्न है।।
तत्त्यार्थसूत्र से उपासकदशासूत्र में इतनी बात अवश्य विशेष पाई जाती है कि उसमे ग्यारह प्रतिमाअो का जिक्र किया गया है। पर कुन्दकुन्द या स्वामिकार्तिकेय के समान उन्हें आधार बनाकर श्रावकधर्म का वर्णन न करके एक नवीन ही रूप वहाँ दृष्टिगोचर होता है। वह इस प्रकार है :
अानन्द नामक एक बड़ा धनी सेठ भ० महावीर के पास जाकर विनयपूर्वक निवेदन करता है कि भगवन्, मै निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ और वह मुझे सर्व प्रकार से अभीष्ट एवं प्रिय भी है। भगवन् के दिव्य-सान्निध्य मे जिस प्रकार अनेक राजे महाराजे और धनाढ्य पुरुष प्रव्रजित होकर धर्म-साधन कर रहे हैं, उस प्रकार से मैं प्रबजित होने के लिए अपने को असमर्थ पाता हूँ। अतएव भगवन् , मैं आपके पास पाच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ।' इसके अनन्तर उसने क्रमशः एक एक पाप का स्थूल रूप से प्रत्याख्यान करते हुए पांच अणुव्रत ग्रहण किये और दिशा आदि का परिमाण करते हुए सात शिक्षाव्रतों को ग्रहण किया। तत्पश्चात् उसने घर में रहकर बारह व्रतों का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत किये। पन्द्रहवें वर्ष के प्रारम्भ मे उसे विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने जीवन का बड़ा भाग गृहस्थी के जंजाल में फंसे हुए निकाल दिया है। अब जीवन का तीसरा पन है, क्यो न गृहस्थी के संकल्प-विकल्पो से दूर होकर और भ० महावीर के पास जाकर मैं जीवन का अवशिष्ट समय धर्म साधन मे व्यतीत करूँ ? ऐसा विचार कर उसने जातिके लोगोको आमन्त्रित करके उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्रको गृहस्थीका सर्व भार सौंप कर सबसे बिदा ली और भ० महावीरके पास जाकर उपासकोंकी 'दंसणपडिमा' आदिका यथाविधि पालन करते हुये विहार करने लगा। एक एक 'पडिमा' को उस उस प्रतिमाको संख्यानुसार उतने उतने मास पालन करते हुए आनन्द श्रावकने ग्यारह पडिमाओंके पालन करनेमें ६६ मास अर्थात् ५॥ वर्ष व्यतीत किये । तपस्यासे अपने शरीरको अत्यन्त कृश कर डाला। अन्तमें भक्त-प्रत्याख्यान नामक संन्यासको धारण कर समाधिमरण किया और शुभ परिणाम वा शुभ लेश्याके योगसे सौधर्म स्वर्गमें चार पल्योपमकी स्थितिका धारक महर्द्धिक देव उत्पन्न हुआ।
इस कथानकसे यह बात स्पष्ट है कि जो सीधा मुनि बनने में असमर्थ है, वह श्रावकधर्म धारण करे और घरमें रहकर उसका पालन करता रहे । जब वह घरसे उदासीनताका अनुभव करने लगे और देखे कि अब मेरा शरीर दिन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है और इन्द्रियोकी शक्ति घट रही है, तब घरका भार बड़े पुत्रको सॅभलवाकर और किसी गुरु आदिके समीप जाकर क्रमशः ग्यारह प्रतिमाअोका नियत अवधि तक अभ्यास करते हुए अन्तमें या तो मुनि बन जाय, या संन्यास धारण कर श्रात्मार्थको सिद्ध करे ।
१ सहहामि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं; पत्तियामि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं; रोएमि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं । एवमेयं भंते, तहमेयं भंते, अवितहमेयं भते, इच्छियमेयं भंते, पडिच्छियमेयं भंते, इच्छिय-पडिच्छियमेय भंते, से जहेय तुब्भे वयह त्ति कटु जहा णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे राईसरतलवर-मांडविक-कोडुम्बिय-सेटि-सत्थवाहप्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइया; नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जस्लामि । उपासकदशासूत्र अ०१ सू० १२.
२ देखो उपासकदशा सूत्र, अध्ययन १ का अन्तिम भाग।