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वसुनन्दि-श्रावकाचार इस प्रकरणमे उन्होने सिद्धचक्रयत्र आदि पूजा-विधानका, चारों दानोंका, उनकी विधि, द्रव्य, दाता और पात्रकी विशेपताका, तथा दानके फलका विस्तारसे वर्णन किया है। और अन्तमे पुण्यका फल बताते हुए लिखा है कि पुण्यसे ही विशाल कुल प्राप्त होता है, पुण्यसेही त्रैलोक्यमे कीर्ति फैलती है, पुण्यसे ही अतुलरूप, सौभाग्य यौवन और तेज प्राप्त होता है, अतः गृहस्थ जब तक घरको और घर-सम्बन्धी पापोको नहीं छोड़ता है, तब तक उसे पुण्यके कारणोंको भी नहीं छोड़ना चाहिए,' अर्थात् सदा पुण्यका संचय करते रहना चाहिए।
यदि एक शब्दमे कहा जाय तो श्रा० देवसेनके मतानुसार पुण्यका उपार्जन करना ही श्रावकका धर्म है। और श्रा० कुन्दकुन्दके समान पूजा और दान ही श्रावकका मुख्य कर्त्तव्य है ।
आचार्य अमितगति श्रा० सोमदेवके पश्चात् संस्कृत साहित्यके प्रकाण्ड विद्वान् श्रा० अमितगति हुए हैं। इन्होंने विभिन्न विषयोपर अनेक ग्रन्थोकी रचना की है। श्रावकधर्मपर भी एक स्वतंत्र उपासकाध्ययन बनाया है, 'जो अमितगतिश्रावकाचार' नामसे प्रसिद्ध है। इसमे १४ परिच्छेदोके द्वारा श्रावकधर्मका बहुत विस्तारके साथ वर्णन किया है। संक्षेपमे यदि कहा जाय, तो अपने पूर्ववर्ती समन्तभद्र के रत्नकरण्डक, उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका सप्तम अध्याय, जिनसेनका महापुराण, सोमदेवका उपासकाध्ययन और देवसेनका भावसंग्रह सामने रखकर अपनी स्वतंत्र सरणिद्वारा श्रावकधर्मका प्रतिपादन किया है और उसमे यथास्थान अनेक विषयोंका समावेश करके उसे पल्लवित एवं परिवर्धित किया है।
श्रा० अमितगतिने अपने इस ग्रन्थके प्रथम परिच्छेदमे धर्मका माहात्म्य, द्वितीय परिच्छेदमे मिथ्यात्वकी अहितकारिता और सम्यक्त्वकी हितकारिता, तीसरेमें सप्ततत्त्व, चौथेमें आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि और ईश्वर सृष्टिकतत्वका खडन किया है। अन्तिम तीन परिच्छेदोंमे क्रमशः शील, द्वादश तप और बारह भावनाओंका वर्णन किया है। मध्यवर्ती परिच्छेदोमें रात्रिभोजन, अनर्थदंड, अभक्ष्य-भोजन, तीन शल्य, दान, पूजा और सामायिकादि षडावश्यकोंका विस्तारके साथ वर्णन किया है । पर हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि श्रावकधर्मके आधारभूत बारह व्रतोंका वर्णन एक ही परिच्छेद में समाप्त कर दिया गया है। और श्रावकधर्मके प्राणभूत ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णनको तो एक स्वतन्त्र परिच्छेदकी भी आवश्यकता नहीं समझी गई है, मात्र ११ श्लोकोमै बहुत ही साधारण ढंगसे प्रतिमाओंका स्वरूप कहा गया है। स्वामी समन्तभद्रने भी एक एक श्लोकके द्वारा ही एक-एक प्रतिमाका वर्णन किया है, पर वह सूत्रात्मक होते हुए भी बहुत स्पष्ट और विस्तृत है। प्रतिमाओंके संक्षिप्त विवेचनका आरोप सोमदेव सूरिपर भी लागू है। इन श्रावकाचार-रचयिताओंको ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करना क्या रुचिकर नहीं था या अन्य कोई कारण है, कुछ समझमे नहीं आता ?
श्रा० अमितगतिसे सप्तव्यसनोंका वर्णन यद्यपि ४६ श्लोकोंमें किया है, पर वह बहुत पीछे। यहाँ तक कि १२ व्रत, समाधिमरण और ११ प्रतिमाओंका वर्णन कर देनेके पश्चात् स्फुट विषयोंका वर्णन करते हुए। क्या अमितगति वसुनन्दिके समान सप्त व्यसनोंके त्यागको श्रावकका आदि कर्त्तव्य नहीं मानते थे ? यह एक प्रश्न है, जिसके अन्तस्तलमें बहुत कुछ रहस्य निहित प्रतीत होता है। विद्वानोंको इस ओर गंभीर एवं सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेकी आवश्यकता है।
१ पुरणेण कुलं विउलं कित्ती पुण्णेण भमइ तइलोए।
पुरणेण रूवमतुलं सोहग्गं जोवणं तेयं ॥५८६।। जाम ण छडइ गेहं ताम ण परिहरइ इंतयं पावं । पावं अपरिहरंतो हेो पुण्णस्स मा चयउ ॥३९३॥
-भावसंग्रह