Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार धर्मके प्रतिपादन करनेवाले तीनों प्रकारोका एक साथ वर्णन करते हुए उनके निर्वाहका सफल प्रयास किया है, अतः श्रापके सागारधर्मामृतमे यथास्थान सभी तत्व समाविष्ट हैं। आपने सोमदेवके उपासकाध्ययन, नीतिवाक्यामृत और हरिभद्र सूरिकी श्रावकधर्म-प्रज्ञप्ति का भरपूर उपयोग किया है। अतीचारों की समस्त व्याख्याके लिए आप श्वे० श्राचार्योंके आभारी हैं। सप्तव्यसनोके अतीचारोंका वर्णन सागारधर्मामृतके पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थमे नहीं पाया जाता । श्रावककी दिनचर्या और साधककी समाधि व्यवस्था भी बहुत सुन्दर लिखी गई है। उनका सागारधर्मामृत सचमुचमे श्रावकोंके लिए धर्मरूप अमृत ही है। १६-श्रावक-प्रतिमाओंका आधार श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका श्राधार क्या है, और किस उद्देश्यकी पूर्ति के लिए इनकी कल्पना की गई है, इन दोनो प्रश्नों पर जब हम विचार करते हैं, तो इस निर्णय पर पहुंचते है कि प्रतिमाओंका आधार शिक्षाव्रत है और शिक्षावतोका मुनिपदकी प्राप्तिरूप जो उद्देश्य है, वही इन प्रतिमाओंका भी है। शिक्षाबतोंका उद्देश्य-जिन व्रतोके पालन करनेसे मुनिव्रत धारण करनेकी, या मुनि बननेकी शिक्षा मिलती है, उन्हे शिक्षावत कहते हैं। स्वामी समन्तभद्रने प्रत्येक शिक्षाव्रतका स्वरूप वर्णन करके उसके अन्तमे बताया है कि किस प्रकार इससे मुनि समान बननेकी शिक्षा मिलती है और किस प्रकार गृहस्थ उस व्रतके प्रभाव से 'चेलोपसृष्टमुनिरिव' यति-भावको प्राप्त होता है। गृहस्थका जीवन उस व्यापारीके समान हैं, जो किसी बड़े नगरमै व्यापारिक वस्तुएँ खरीदनेको गया । दिन भर उन्हें खरीदनेके पश्चात् शामको जब घर चलनेकी तैयारी करता है तो एक बार जिस क्रमसे वस्तु खरीद की थी, बीजक हाथमे लेकर तदनुसार उसकी सम्भाल करता है और अन्तमे सबकी सम्भाल कर अपने अभीष्ट ग्रामको प्रयाण कर देता है । ठीक यही दशा गृहस्थ श्रावक की है। उसने इस मनुष्य पर्यायरूप ब्रतोंके व्यापारिक केन्द्रमे आकर बारह व्रतरूप देशसंयम सामग्री की खरीद की। जब वह अपने अभीष्ट स्थानको प्रयाण करनेके लिए समुद्यत हुअा, तो जिस क्रमसे उसने जो व्रत धारण किया है उसे सम्भालता हुआ आगे बढ़ता जाता है और अन्तमें सबकी सम्भाल कर अपने अभीष्ट स्थानको प्रयाण कर देता है। श्रावकने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनको धारण किया था, पर वह श्रावकका कोई व्रत न होकर उसकी मूल या नींव है । उस सम्यग्दर्शनरूप मूल या नींवके ऊपर देशसंयम रूप भवन खड़ा करने के लिए भूमिका या कुरसीके रूपमें अष्ट मूलगुणोको धारण किया था और साथ ही सप्त व्यसनका परित्याग भी किया था । संन्यास या साधुल्वकी ओर प्रयाण करनेके अभिमुख श्रावक सर्वप्रथम अपने सम्यक वरूप मुलको और उसपर रखी अष्टमूलगुणरूप भूमिकाको सम्भालता है। श्रावकको इस निरतिचार या निर्दोष संभालको ही दर्शन-प्रतिमा कहते हैं। - इसके पश्चात् उसने स्थूल वधादि रूप जिन महापापोंका त्यागकर अणुव्रत धारण किये थे, उनके निरतिचारिताकी संभाल करता है और इस प्रतिमाका धारी बारह व्रतोका पालन करते हुए भी अपने पाँचों अणुव्रतोंमें और उनकी रक्षाके लिए बाढ़ स्वरूपसे धारण किये गये तीन गुणवतोंमे कोई भी अतीचार नहीं लगने देता है और उन्हींकी निरतिचार परिपूर्णताका उत्तरदायी है। शेष चारो शिक्षाव्रतोंका वह यथाशक्ति अभ्यास करते हुए भी उनकी निरतिचार परिपालनाके लिए उत्तरदायी नहीं है। इस प्रतिमाको धारण करनेके पूर्व ही तीन शल्योंका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है। तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जिसमें कि सामायिक नामक प्रथम शिक्षाव्रतकी परिपूर्णता, त्रैकालिक साधना और निरतिचार परिपालना अत्यावश्यक है। दूसरी प्रतिमामें सामायिक शिक्षाव्रत अभ्यास दशामें था, अतः वहाँपर दो या तीन बार करनेका कोई बन्धन नहीं था; वह इतने ही काल तक सामायिक करे, इस प्रकार १ सामयिके सारम्भाः परिप्रहाः नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ॥१०२॥-रत्नकरण्डक

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224