Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 111
________________ ११२ वसुनन्दि-श्रावकाचार चतुर्विध आहारको त्यागकर उपवास नियमसे करता है ॥ ३०३ ॥ पात्रको प्रक्षालन करके चर्याके लिए श्रावकके घरमें प्रवेश करता है और आगनमें ठहरकर 'धर्म-लाभ' कहकर स्वयं ही भिक्षा मांगता है ॥३०४॥ भिक्षा-लाभके अलाभमें अर्थात् भिक्षा न मिलनेपर, अदीनमख हो वहांसे शीघ्र निकलकर दूसरे घरमे जाता है और मौनसे अपने शरीरको दिखलाता है ॥ ३०५ ॥ यदि अर्ध-पथमे, अर्थात् मार्गके बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घरसे प्राप्त अपनी भिक्षाको खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावकके अन्नको खावे ॥ ३०६ ॥ यदि कोई भोजनके लिए न कहे, तो अपने पेटके पूरण करनेके प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य अन्य श्रावकोंके घर जावे । आवश्यक भिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात् किसी एक घरमें जाकर प्रासुक जल मांगे ॥ ३०७ ॥ जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्नके साथ अपने पात्रको प्रक्षालनकर गुरुके पासमें जावे ॥ ३०८ ॥ यदि किसीको उक्त विधिसे गोचरी करना न रुचे, तो वह मुनियोंके गोचरी कर जानेके पश्चात् चर्याके लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षाके नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्याके लिए किसी श्रावक जनके घरमें जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले, तो उसे प्रवृत्ति-नियमन करना चाहिए, अर्थात फिर किसीके घर न जाकर उपवास का नियम कर लेना चाहिए ॥ ३०९॥ पश्चात् गरुके समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध (आहारके त्यागरूप) प्रत्याख्यान ग्रहण कर पुनः प्रयत्नके साथ सर्वदोषोंकी आलोचना करे ॥ ३१०॥ एमेव होइ बिइयो णवरिबिसेसो कुणिज्ज शियमेणा । लोचं धरिज पिच्छं भुजिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥३११॥(1) इस प्रकार ही अर्थात् प्रथम उत्कृष्ट श्रावकके समान ही द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है, केवल विशेषता यह है कि उसे नियमसे केशोंका लोंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्रमें खाना चाहिए ॥३११॥ दियापडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु माथि अहियारो। सिद्धत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदायां ॥३१२॥(२) दिनमें प्रतिमायोग धारण करना अर्थात नग्न होकर दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मुनिके समान गोचरी करना, त्रिकाल योग अर्थात् गर्मी में पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, और सर्दीमें नदीके किनारे ध्यान करना, सिद्धान्त-ग्रन्थोंका अर्थात् केवली, श्रुतकेवली-कथित गणधर, प्रत्येकबुद्ध और अभिन्नदशपूर्वी साधुओंसे निर्मित ग्रन्थोंका अध्ययन और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, इतने कार्योंमें देशविरती श्रावकोंका अधिकार नहीं है ॥ ३१२ ॥ उद्दिवपिंडविरो दुवियप्पो सावो समासेण । एयारसम्मि ठाणे भणिो सुत्ताणुसारेण ॥३१३॥ १ प. ब. विरयाणं। (१) द्वितीयोऽपि भवेदेवं स तु कौपीनमात्रवान् । कुल्लोचं धरेपिच्छं पाणिपात्रेऽशनं भजेत् ॥१७॥ (२) वीरचर्या-दिनच्छाया सिद्धान्ते नियसंश्रुतौ । त्रैकालिके योऽवयोगेऽस्य विद्यते नाधिकारिता ॥१८॥ -गुण० श्राव

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224