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वसुनन्दि-श्रावकाचार
एरिसरो श्चिय परिवारवज्जिो खीरजलहिमज्झे वा। वरखोरवण्णकंदुत्थ' करिणयामझदेसहो ॥४७॥ खीरुवहिसलिलधाराहिसेयधवलीकयंगसन्वंगो।
जं शाइज्जइ एवं रूवत्थं जाण तं झाणं ॥४७५॥ (१) आकाश और स्फटिकमणिके समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीरकी प्रभारूपी सलिलनिधि (समुद्र) में निमग्न, मनुष्य और देवोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंकी किरणोंके समूहसे अनुरजित है चरण-कमल जिनके, ऐसे, तथा श्रेष्ठ आठ महाप्रातिहायोसे परिवृत, समवसरणके मध्यमें स्थित, परम अनन्त चतुष्टयसे समन्वित, पवन मार्गस्थ अर्थात् आकाशमें स्थित, अरहन्त भगवान्का जो ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है। अथवा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभासे समन्वित किन्तु समवसरणादि परिवारसे रहित, और क्षीरसागरके मध्यमे स्थित, अथवा उत्तम क्षीरके समान धवल वर्णके कमलकी कर्णिकाके मध्यदेशमे स्थित, क्षीरसागरके जलकी धाराओंके अभिषेकसे धवल हो रहा है सर्वाग जिनका, ऐसे अरहन्त परमेष्ठीका जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४७२-४७५॥
रूपातीत-ध्यान वण्ण रस-गंध-फासेहिं वज्जिो णाण-दसणसरूवो ।
ज झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरहियं ति ॥४७६॥(२) वर्ण, रस, गध और स्पर्शसे रहित, केवल ज्ञान-दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठीका या शुद्ध आत्माका ध्यान किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान है ॥४७६॥
अहवा आगम-णोआगमाइ भेएहिं सुत्तमग्गेण ।
णाऊण भावपुज्जा कायव्वा देसविरएहिं ॥४७७॥ अथवा आगमभावपूजा और नोआगमभावपूजा आदिके भेदसे शास्त्रानुसार भावपूजाको जानकर वह श्रावकोंको करना चाहिए ॥४७७॥
एसा छब्बिहपूजा णिच्चं धम्माणुरायरत्तेहिं ।
जहजोगं कायव्वा सम्वेहिं पि देसविरएहिं ॥४७८।।(३) इस प्रकार यह छह प्रकारकी पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशव्रती श्रावकोंको यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए ॥४७८॥
एयारसंगधारी जीहसहस्सेण सुरवरिंदो वि। पूजाफलं ग सका णिस्सेसं वएिणउ जम्हा ॥४७९॥ तम्हा हणियसत्तीए थोयवयणेण किं पि वोच्छामि ।
धम्माणुरायरत्तो भवियजणो होइ ज सम्बो ॥४०॥ जब कि ग्यारह अंगका धारक, देवोंमे सर्वश्रेष्ठ इन्द्र भी सहत्र जिह्वाओंसे पूजाके समस्त फलको वर्णन करनेके लिए समर्थ नहीं है, तब मै अपनी शक्तिके अनुसार थोड़ेसे वचन द्वारा कुछ कहूँगा, जिससे कि सर्व भव्य जन धर्मानुरागमें अनुरक्त हो जावें ॥४७९-४८०॥ १ ब. कंदुट्ट। २ . ब. णोश्रागमेहिं । ३ ध. सव्वे ।।
(१) तीराम्भोधिः क्षीरधाराशुभ्राशेषाङ्गसङ्गमः।
एवं यञ्चिन्त्यते तत्स्याद् ध्यानं रूपस्थनामकम् ॥२४२॥ २) गन्धवर्णरसस्पर्शवर्जितं बोधङ्मयम् ।
यश्चिन्त्यतेऽहंद्र पं तद्ध्यानं रूपजितम् ॥२४३॥ इत्येषा षडविधा पूजा यथाशक्ति स्वभक्तितः । यथाविधिविधातच्या प्रयतैर्देशसंयतैः ॥२५॥-गुण० श्राव०