Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 159
________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह १६७ भुजिवि भुंजेइ भुंजतो भोत्तुं । भोत्तण सं० कृ० वि० ल० व० कृ० स० कृ. भुंज-भुज (भोग करना) ११५, ३०३, ३१७, ८५, १५६, २०५, २८१, इत्यादि १७२-मरण %3D मन् (मानना) व० कृ० व० ल० सं० कृ० १७३–मर = मृ (मरना) १५१, १८२, १८६, १२६, १३० इत्यादि २६४ १५३, १७४-मह = मह (पूजना) व० ल० सं० कृ० सं० कृ० २६३, २३६, कृ० प्र० मपणतो मर मरिऊण मरित्ता मरेइ महिऊण मुणिऊण मुणेऊण मुण्यव्वा मुणेयवो मुणेयवं मुणेह मुणेहि मुणंति मुत्तण मुयह मुयह मुयंति मेल्लंता १२, १४ इत्यादि ४७, ३५१, ६, ४४, इत्यादि १७५-मुण%Dमुण, ज्ञा (जानना) आ० ल. २२१, ११० २६, १७६--मुंच = मुच् (छोड़ना) १७७–मुत्र = मुच (छोड़ना) " " व० ल० स० कृ० व० ल० आ० ल० व० ल० व० कृ० १४६, ३७, १५०, १७८-मेल्ल = मिल (मिलना) (देखो नं. १७६) मोत्तूण ६०, २६६, सं० कृ० ३९७,४०१, ४०७, ४४५, १७६-रय = रचय (रचना) वि० ल० ४२१, स० कृ० १८० --रक्ख-रक्ष (रक्षा करना) • १८१-रड = रट (रोना चिल्लाना) । रइयं रपज्ज रक्खिडं रडिऊण रडतं रमा रमित्रो रमियं २००, १५२, १४८, १६६, ०० भू० कृ० . १८२ ---रम = रम् (क्रीडा करना) .. व० ल. व० कृ० १४३, '१४६ ५०६, १२६ '६४ १८३ ११३, १६५ . रमंता रमंतस्स राखेदि रुया (देखो नं० १८०) १८३- रु = रुद् (रोना) व० ल०

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