Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 166
________________ १७४ ४१५ ३२६ १७२ अणुराय अणुरूव अणुलोह अणुवट्ठ अणुवेहण अणुव्वय *अणुहविऊण प्रणयविह अराणोण्ण अणंगकीडा अणंत अणंतचउट्टय १७० अत्त अत्ता अतिहि अत्थ अत्थ-पज्जय अत्थु अदन अदत्त अदीणवयण अधम्म वसुनन्दि-श्रावकाचार अनुराग प्रेम, प्रीति अनुरूप अनुकूल, योग्य, उचित अणुलोभ सूक्ष्म लोभ ५२३ अन्वर्थ सार्थक अनुप्रेक्षण चिन्तवन २८४ अणुव्रत स्थूलव्रत २०७ अनुभूय अनुभव कर २६६ अनेकविध नाना प्रकार १३ अन्योन्य परस्पर अनङ्ग-क्रीडा अप्राकृतिक मैथुन सेवन अनन्त अनन्तरहित अनन्तचतुष्टय अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य प्राप्त सत्यार्थ देव, आत्मा, आर्त-पीडित, आत्म दुखनाशक, सुख-उत्पादक, आत्त-गृहीत श्राप्त, अात्मा ज्ञानादि गुण-सम्पन्न आत्मा, जीव ७७६ अतिथि तिथिके विचार-रहित साधु २१६ अर्थ, अस्त्र, अस्त वस्तु, धन, प्रयोजन, अस्त्र, भोगना, बैठना २८ अर्थपर्याय सुक्ष्मपर्याय अस्तु हो, रहा आवे १८६ अदय निर्दय अदत्त नही दिया हुआ २०८ अदीन वचन दीनता-रहित वचन अधर्म द्रव्य, पाप कार्य आधा अर्धा आधेका आधा, चौथाई अर्धपथ अर्ध-मार्ग अपर्याप्त पर्याप्तियोकी पर्णतासे रहित, असमर्थ अपात्र अयोग्य, पात्रता-रहित २२३ अप्रवेश प्रवेशका अभाव २४ आत्मा, अल्प, प्राप्त आत्मा, आप्त, पिता, बाप २४१, २८५ अप्रमत्त सातवाँ गुणस्थान श्रात्मा जीव अपृष्ट (नही पूछा हुआ, अस्पृष्ट नही छुआ हुआ अपूर्ण अधूरा १५३ अपूर्वकरण परिणाम विशेष, आठवाँ गुणस्थान अस्पर्श स्पर्शका अभाव अभ्यंग तैल-मर्दन, मालिश ३३८ अभ्युत्थान आदरके लिए खड़ा होना अभ्युदय उन्नति, उदय, स्वर्गीय सखोंकी प्राप्ति अभिभूत पराभूत, पराजित १२६ ० ० 66xnxn ० ० अधर्म अर्ध अद्धद्ध अद्धवह अपज्जत्त अपत्त अपवेस अप्प अप्पमत्त अप्पा ०. W xm m ० अपुट ५१८ ३२७ अपुण्ण अपुव्वकरण अफरस अब्भंग अब्भुटाण अब्भुदय अभिभूय ३२८

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