Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 208
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार सयं ३०४ आप, खुद सम्पूर्ण कमल सयल सयवत्त सया सयसहस्स सयास नित्य स्वय सकल शतपत्र सदा शतसहस्त्र सकास सर. शरण सर MA.6 0.00 XNAI GK सूत्वा लाख समीप सरोवर आश्रय जाकर समान सरसो लक्षण, अपना रूप प्रसिद्ध महापुरुप जल काय-कषायको कृश करना शत्रु, प्रतिपक्षी सौगध, प्रतिज्ञा समस्त सदृश सर्पप स्वरूप शलाकापुरुष सलिल सल्लेखना सपत्न ८८१ ३१, ३४५ ४२२ २७२ ४६१ शपथ सर्व मर्वव्याप्त ४६२ सरण सरिऊण सरिस सरिसव सरुव सलायपुरुष' सलिल सल्लेखण सवत्त सवह सव्व सव्वग सव्वगत सव्वंग सव्वत्थसिद्धि सव्वत्थ सव्वदा सव्वस्स सम्वोसहि सविवाग सविसेस ससमय ससंक ससंवेय ससि सहण सहस्स सहाव साइय सामरण सामाइय सामि सामित्त सायर सायरोपम ८६ ३४६ सर्वग सर्वगत सर्वाङ्ग सर्वार्थसिद्धि सर्वत्र सर्वदा सर्वस्त्र सर्वौषधि सविपाक सविशेष स्वसमय शशाङ्क ससंवेग शशि सहन सहस्त्र स्वभाव स्वाद्य सामान्य सामायिक ५४० mr सर्वशरीरमे व्याप्त सर्वार्थसिद्धि नामक कल्पातीत विमान सर्व स्थानपर सदाकाल सर्वधन एक ऋद्धिविशेष फल देनेवाली निर्जरा विशेषता-युक्त अपना सिद्धान्त चन्द्रमा सवेग-सहित चन्द्र सहना हजार प्रकृति आस्वादन योग्य विशेषता-रहित एक नियम, वृत विशेष अधिपति आधिपत्य मापविशेष, एक माप अलौकिक माप-विशेष २७८ ८२६ १०० २३४ ३३५ स्वामी " ०५ स्वामित्व सागर सागरोपम १७५

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