Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन-ग्रन्थमाला [ प्राकृत ग्रन्थाङ्क ३ ] सिरि वसुणंदि आइरिय विरइयं उवासयज्झयणं वसुनन्दि-श्रावकाचार हिन्दी-भाषानुवाद सहित IN SUSHBHARA DHARATIYAJNANAPITH 944 सम्पादक पं० हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ भा र ती य ज्ञा न पीठ का शी प्रथम आवृत्ति एक सहस्र प्रति । वैसाख वीर नि० सं० २४७८ वि० सं० २००६ . अप्रैल १९५२ मूल्य ५) रु० . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा र ती य ज्ञा न पीठ का शी स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में तत्सुपुत्र सेठ शान्तिप्रसादजी द्वारा संस्थापित ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन-ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमालामें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड, तामिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक. जैन साहित्यका अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन और उसका मूल और यथासंभव अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन होगा। जैन भण्डारोंकी सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, विशिष्ट विद्वानोंके अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित होंगे। ग्रन्थमाला सम्पादक-[प्राकृत और संस्कृत-विभाग] डॉ० हीरालाल जैन, एम० ए०, डी० लिट० डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, एम० ए०, डी० लिट्० anahahahahahanda प्राकृत ग्रंथांक ३ प्रकाशक .. अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस ४ मुद्रक-देवताप्रसाद गहमरी, संसार प्रेस, काशीपुरा, बनारस स्थापनाब्द फाल्गुण कृष्ण ६ बीर नि० २४७० । सर्वाधिकार सुरक्षित विक्रम से ०.२००० । १८ फरवरी १९४४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० मर्तिदेवी, मातेश्वरी सेठ शान्तिप्रसाद जैन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JNAN A-PITHA MURTIDEVI JAINA GRANTHAMALA PRAKRIT GRANTHA No. 3 VASUNANDI SHRAVAKACHARA OF ACHARYA VASUNANDI WITH HINDI TRANSLATION Translated and Edited BY PANDIT HIRALAL JAIN, Siddhant Shastri, Nyayatirtha REALHARATIYA JAKARTA Published by Bharatiya Jnanapitha Kashi wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwrooke W oW First Edition) 1000 Sopies. VAISHAKH, VIR SAMVAT 2478 VIKRAMA SAMVAT 2009 APRIL, 1952. VTERAWA SAW SAMMALT 2478 Price Rs. 5/ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATĪYA JNANA-PĪTHA KASHI FOUNDED BY SETH SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE BENEVOLENT MOTHER SHRĪ MŪRTI DEVI JŅĀNA-PĪTHA MŪRTI DEVI JAIN GRANTHÄMALÀ IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAIN AGAMIC PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRANSA, HINDI, KANNADA & TAMIL ETC, WILL BE PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES AND CATALOGUES OF JAIN BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES OF COMPETENT SCHOLARS & POPULAR JAIN LITERATURE ALSO WILL BE PUBLISHED General Editors of Prakrit and Samskrit Section Dr. Hiralal Jain, M. A. D. Litt. Dr. A. N. Upadhye, M. A. D. Litt. AAAAAAARAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA PRAKRIT GRANTHA NO. 3 MMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMUMUM PUBLISHER AYODHYA PRASAD GOYALIYA SECY., BHĀRATIYA JNĀNAPĪTHA, DURGAKUND ROAD, BANARAS No. 4. wwwwwwwwwwwwwwwwWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWWW Founded in Phalguna Krishna 9, All Rights Reserved. Vikrama Samv. t 2000 Vira Sam. 2470 18th Feb. 1994 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण परम उदासीन प्रशान्तमूर्ति सचेल साधु श्रद्धेय, पूज्य, श्री पं० गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य कर - कमलों में सविनय समर्पक हीरालाल Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थानुक्रमणिका पृष्ठांक 8 १३-६४ 9u tor सम्पादकीय.वक्तव्य प्रस्तावना १. आदर्श प्रतियोंका परिचय २. ग्रन्थ-परिचय ग्रन्थ-परिमाण ४. ग्रन्थकार-परिचय ५. नयनन्दिका परिचय और वसुनन्दिका समय उपासक या श्रावक ७. उपासकाध्ययन या श्रावकाचार ८. श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार ६. वसुनन्दि-श्रावकाचारकी विशेषताएं १०. अष्टमूल गुणोंके विविध प्रकार ११. शीलका स्वरूप १२. पूजन-विधान १३. वसुनन्दिपर प्रभाव १४. वसुनन्दिका प्रभाव १५. श्रावकधर्मका क्रमिक विकास ... श्रा० कुन्दकुन्द ,, स्वामी कार्तिकेय , उमाखाति , स्वामी समन्तभद्र , जिनसेन , सोमदेव "देवसेन . , अमितगति "अमृतचन्द्र वसुनन्दि सं० आशाधर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार १६. श्रावक प्रतिमाओंका आधार ... १७. प्रतिमाओंका वर्गीकरण १८ क्षुल्लक और ऐलक ग्रन्थ-विषय-सूची वसुनन्दि-उपासकाध्ययन (मूलग्रन्थ और अनुवाद) परिशिष्ट १. विशेष टिप्पण २. प्राकृत-धातु-रूप-सग्रह ३. प्राकृत शब्द-संग्रह। ४. ऐतिहासिक-नाम-सूची ५. भौगोलिक-नाम-सूची ६. व्रत-नाम सूची ७. गाथानुक्रमणिका .." ७१-१४२ ...१४३-२२२ १४५ १५७ १७२ ૨૨૨ ૨૨૨ २२२ २२३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य सन् १६३६ के प्रारम्भमै डॉ० श्रा० ने० उपाध्याय धवला-संशोधन-कार्यमे सहयोग देनेके लिए अमरावती आये थे। प्रसंगवश उन्होंने कहा कि 'वसुनन्दि-श्रावकाचार के प्रामाणिक संस्करणकी आवश्यकता है और इस कार्यके लिए जितनी अधिकसे अधिक प्राचीन प्रतियोंका उपयोग किया जा सके, उतना ही अच्छा रहे । मेरी दृष्टिमे श्री ऐलक पन्नालाल-सरस्वती-भवन झालरापाटन और ब्यावरकी पुरानी प्रतियां थी, अतः मैंने कहा कि समय मिलते ही मै इस कार्यको सम्पन्न करूँगा। पर धवला-सम्पादन-कार्यमै संलग्न रहनेसे कई वर्ष तक इस दिशामें कुछ कार्य न किया जा सका। धवला-कार्यसे विराम लेनेके पश्चात् मैं दुवारा उज्जैन आया, ऐलक-सरस्वती भवनसे सम्बन्ध स्थापित किया और सन् ४४ मे दोनों भंडारोंकी दो प्राचीन प्रतियोंको उज्जैन ले आया । प्रेसकापी तैयार की और साथ ही अनुवाद भी प्रारंभकर आश्विन शुक्ला १ सं० २००१ ता० १८-६-४४ को समाप्त कर डाला। श्री भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशनके विषयमें प्रारम्भिक बात-चीत भी हुई, पर मैं अन्य कार्यों में उलझा रहने से ग्रन्थ तैयार करके भी ज्ञानपीठ को न भेज सका। सन् ४८ मे एक घरू-कार्य से प्रयाग हाईकोर्ट जाना हुआ। वर्षों से भारतीय ज्ञानपीठ काशी के देखने की उत्सुकता थी, अतः वहाँ भी गया । भाग्यवश ज्ञानपीठ मै ही संस्था के सुयोग्य मंत्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय से भेंट हुई। चर्चा छिड़ने पर उन्होने कोई ग्रन्थ संस्था को प्रकाशनार्थ देने के लिए कहा। बसुनन्दि-श्रावकाचार की पांडुलिपि मेरे साथ थी, अतः मैंने उनके हाथों में रख दी। संस्था के नियमानुसार वह पांडुलिपि प्राकृत-विभाग के प्रधान सम्पादक डॉ श्रा• ने. उपाध्याय के पास स्वीकृति के लिए भेज दी गई। पर प्रस्तावना लिखनी शेष थी, प्रयत्न करने पर भी उसे मैं न लिख सका । सन् ५१ के प्रारम्भ मे उसे लिखकर भेजा। डॉ० सा० ने प्रो० हीरालाल जी के साथ इस वर्ष के ग्रीष्मावकाश मे उसे देखा, और आवश्यक सूचनाश्रो वा सत्परामर्शके साथ उसे वापिस किया और श्री गोयलीयजीको लिखा कि पं० जी से सूचनाओं के अनुसार संशोधन कराकर ग्रन्थ प्रेस में दे दिया जाय । यद्यपि मैंने प्रस्तावना व परिशिष्ट आदि मे उनकी सूचनाओं के अनुसार संशोधन और परिवर्तन किया है, तथापि दो-एक स्थल पर अाधार के न रहने पर भी आनुमानिक-चर्चा को स्थान दिया गया है, वह केवल इसलिए कि विद्वानों को यदि उन चर्चाओं के आधार उपलब्ध हो जाये तो वे उसकी पुष्टि करें, अन्यथा स्वाभिप्रायो से मुझे सूचित करें । यदि कालान्तर में मुझे उनके प्रमाण उपलब्ध हुए या न हुए ; तो मैं उन्हें नवीन संस्करण में प्रकट करूँगा। विद्वजनों के विचारार्थ ही कुछ कल्पनाओ को स्थान दिया गया है, किसी कदाग्रह या दुरभिसन्धि से नहीं। स्वतंत्रता से सहाय-निरपेक्ष होकर ग्रन्थ-सम्पादन का मेरा यह प्रथम ही प्रयास है। फिर श्रावक-धर्म के क्रमिक-विकास और क्षुल्लक-ऐलक जैसे गहन विषय पर लेखनी चलाना सचमुच दुस्तर सागर में प्रवेश कर उसे पार करने जैसा कठिन कार्य है । तथापि जहाँ तक मेरे से बन सका, शास्त्राधार से कई विषयों पर कलम Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार चलाने का अनधिकार प्रयास किया है। अतएव चरणानुयोग के विशेष अभ्यासी विद्व जन मेरे इस प्रयास को सावकाश अध्ययन करेंगे और प्रमादवश रह गई भूलों से मुझे अवगत करावेंगे, ऐसी विनम्र प्रार्थना है। मैं भारतीय-ज्ञानपीठ काशी के अधिकारियों का आभारी हूँ कि जिन्होने इस ग्रन्थ को अपनी ग्रन्थमाला से प्रकाशित करके मेरे उत्साह को बढ़ाया है। मेरे सहाध्यायी श्री० पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने प्रस्तावना के अनेक अंशों को सुना और आवश्यक परामर्श दिया, श्री पं० दरबारीलाल जी न्यायाचार्य देहली ने प्रति मिलानमे सहयोग दिया, पं० राजाराम जी और पं० रतनचन्द्र जी साहित्यशास्त्री मड़ावरा (झासी) ने प्रस्तावना व परिशिष्ट तैयार करनेमे। श्री पं० पन्नालालजी सोनी ब्यावर, बा० पन्नालालजी अग्रवाल देहली और श्री रतनलालजी धर्मपुरा देहलीके द्वारा मूल प्रतियाँ उपलब्ध हुई, इसके लिए मैं सर्व महानुभावोंका आभारी हूँ। डॉ० उपाध्यायने कुछ और भी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ संशोधन एव परिवर्द्धनके लिए दी थीं। किन्तु पहले तो लगातार चार मास तक पत्नीके सख्त बीमार रहनेसे न लिख सका। पीछे उसके कुछ स्वस्थ होते ही पच्चीसवर्षीय ज्येष्ठ पुत्र हेमचन्द्रके ता० ७-६-५१ को सहसा चिर-वियोग हो जानेसे हृदय विदीर्ण और मस्तिष्क शून्य हो गया। अब लम्बे समय तक भी उन्हें पूरा करनेकी कल्पना तक नहीं रही। फलतः यही निश्चय किया, कि जैसा कुछ बन सका है, वही प्रकाशनार्थ दे दिया जाय । विद्वजन रहीं त्रुटियोको सस्नेह सूचित करेंगे, ऐसी आशा है। मैं यथावसर उनके परिमार्जनार्थ सदैव उद्यत रहेगा। साढूमल, पो० मड़ावरा) . झाँसी (उ० प्र०) ३०-६-५१ विनम्र हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रकाशन-व्यय ७६०॥)। कागज २२x२६%२८ पौड ३३.रीम ११०२) छपाई ४॥) प्रति पृष्ठ ५५०) जिल्द बँधाई ५०) कवर कागज १००) कवर डिजाइन तथा ब्लाक ६०) कवर छपाई ४४०) सम्पादन पारिश्रमिक ३००) कार्यालय व्यवस्था प्रूफ संशोधनादि ३५०) भेंट आलोचना ७५ प्रति ७५) पोस्टेज ग्रंथ भेट भेजनेका २५०) विज्ञापन ११२५) कमीशन २५ प्रतिशत ५१६२॥)। कुल लागत १००० प्रति छपी । लागत एक प्रति ५-)॥ मूल्य ५) रुपये Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वसुनन्दि-श्रावकाचार मावि-यापार RAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAADATA Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १-आदर्श प्रतियोंका परिचय वसुनन्दि श्रावकाचारके प्रस्तुत संस्करणमे जिन प्रतियो का उपयोग किया गया है, उनका परिचय इस प्रकार है इ-यह उदासीन आश्रम इन्दौर की प्रति है, संस्कृत छाया और ब्र० चम्पालालजी कृत विस्तृत हिन्दी टीका सहित है। मूल पाठ साधारणतः शुद्ध है, पर सन्दिग्ध पाठोंका इससे निर्णय नहीं होता । इसका अाकार ६४१० इंच है। पत्र संख्या ४३४ है । इसके अनुसार मूलगाथाओं की संख्या ५४८ है। इसमें गाथा नं०१८ के स्थानपर २ गाथाएँ पाई जाती हैं जो कि गो० जीवकांडमें क्रमशः ६०२ और ६०१ नं० पर साधारण से पाठभेद के साथ पाई जाती हैं। झ-यह ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन झालरापाटन की प्रति है। इसका आकार १.४६ इंच है। पत्र संख्या ३७ है। प्रति पत्रमें पंक्ति-संख्या ६-१० है। प्रत्येक पंक्तिमै अक्षर-संख्या ३०-३५ है। प्रति अत्यन्त शुद्ध है। दो-चार स्थल ही संदिग्ध प्रतीत हुए। इस प्रतिके अनुसार गाथा-संख्या ५४६ है। इसमें मुद्रित प्रतिमें पाई जानेवाली ५३८ और ५३९ नं० की गाथाएँ नहीं हैं। तथा गाथा नं० १८१ के आगे "तिरिएहि खजमाणो" और "अण्णोण्ण खजंतो" ये दो गाथाएँ और अधिक पाई जाती हैं। पर एक तो वे दिल्लीकी दोनों प्रतियोंमें नहीं पाई जाती हैं, दूसरे वे स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें क्रमशः ४१ और ४२ नं० पर पाई जाती हैं। अतः इन्हें मूलपाठमे सम्मिलित न करके वहीं टिप्पणीमे दे दिया गया है । इसके अतिरिक्त गाथा नं० १८ और १९के स्थानपर केवल एक ही गाथा है। इस प्रतिके अन्तमें लेखनकाल नहीं दिया गया है, न लेखक-नाम ही। परन्तु कागज, स्याही और अक्षरोंकी बनावट देखते हुए यह प्रति कमसे कम ३०० वर्ष पुरानी अवश्य होनी चाहिए । कागज मोटा, कुछ पीले रंगका और साधारणतः पुष्ट है । प्रति अच्छी हालतमे है। इस प्रतिके श्रादि और मध्यमें कहीं भी ग्रन्थका नाम नहीं दिया गया है। केवल अन्तमें पुष्पिका रूपमें "इत्युपासकाध्ययनं वसुनन्दिना कृतमिदं समाप्तम्" ऐसा लिखा है । और इसी अन्तिम पत्रकी पीठपर अन्य कलम और अन्य स्याहीसे किसी भिन्न व्यक्ति द्वारा "उपासकाध्ययनसूत्रम् दिगम्बरे" ऐसा लिखा है। प्रतिमें कहीं कहीं अर्थको स्पष्ट करनेवाली टिप्पणियाँ भी संस्कृत छाया रूपमे दी गई हैं जिनकी कुल संख्या ७७ है । इनमें से कुछ अर्थबोधक आवश्यक टिप्पणियाँ प्रस्तुत संस्करणमें भी दी गई हैं। ध-यह प्रति धर्मपुरा दिल्लीके नये मन्दिर की है । इसका आकार ५॥४१० इंच है। पत्रसंख्या ४८ है। प्रत्येक पत्रमें पंक्ति-संख्या ६ है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ३६-४० है। अक्षर बहुत मोटे हैं । इस प्रतिके अनुसार गाथाओंकी संख्या ५४६ है। मुद्रित प्रतिमें पाई जानेवाली गाथा नं० ५३८ (मोहक्खएण सम्म) और गाथा नं० ५३६ (सुहुमं च णामकम्मं ) ये दोनों गाथाएँ इस प्रतिमें नहीं हैं। प-यह प्रति पंचायती मंदिर देहलीके भंडार की है। इसका श्राकार ५॥ १०॥ इंच है। पत्र-संख्या १४ है। प्रत्येक पत्रमें पंक्ति-संख्या १५ है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ५० से ५६ तक है। अक्षर बहुत छोटे हैं, तथा कागज अत्यन्त पतला और जीर्ण-शीर्ण है। इसके अनुसार भी गाथाओं की संख्या Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वसुनन्दि-श्रावकाचार ५४६ है। इस प्रतिम भी मुद्रित प्रतिवाली उपर्युक्त ५३८और ५३६ न की गाथाएँ नहीं पाई जाती हैं। इस प्रतिमे यत्र-तत्र अर्थबोधक टिप्पणियाँ भी पंक्तियों के ऊपर या हाशिये मे दी गई हैं जो कि शुद्ध संस्कृतमे है। इस प्रतिमे कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोकी समानार्थक और अर्थबोधक गाथाएँ और श्लोक भी हाशियेमें विभिन्न कलमोसे लिखे हुए है। उदाहरणार्थ-ब्रह्मचर्य प्रतिमा स्वरूप-प्रतिपादक गाथापर निशान देकर "सव्वेसिं इत्थीणं" इत्यादि 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' की गाथा न० ३८४ दी है। इसीके साथ "लिंगम्मि य इत्थीण" इत्यादि सूत्रपाहुड की २४वीं गाथा और “मलबीजं मलयोनि" इत्यादि रत्नकरण्डकका १४३वां श्लोक दिया है। गाथा नं० ५३१-३२ पर समुद्धातका स्वरूप और सख्यावाली गो० जी० की ६६६-६७वीं गाथाएँ भी उद्धत हैं । इनके अतिरिक्त गाथा न० ५२९ पर टिप्पणी रूपसे गुणस्थानो की कालमर्यादा-सूचक दो गाथाएँ और भी लिखी है । जो कि किसी अज्ञात ग्रन्थकी हैं, क्योंकि दि० सम्प्रदायके ज्ञातप्राय ग्रन्थोकी जो प्राकृत पद्यानुक्रमणी हाल हीमे वीर सेवा मन्दिर सरसावासे प्रकाशित हुई है, उसमे कहीं भी उनका पता नहीं लगता। वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार है छावलियं सासाणं समये तेत्तीस सायरं चउत्थे । देसूण पुवकोडी पंचम तेरस संपन्नो ॥ १॥ . लघु पंचक्खर चरमे तय छुट्टा य वारसं जम्मि । ए अढ गुणहाणा अंतमुहुत्त मुणेयव्वा ॥२॥ इन दोनों गाथाओंमें प्रथम को छोड़कर शेष तैरह गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल बताया गया है, वह यह कि-दूसरे गुणस्थानका छह श्रावली, चौथेका साधिक तेतीस सागर, पाँचवें और तेरहवेंका देशोन पूर्वकोटि, चौदहवेंका लघुपंचाक्षर, तीसरे और छठेसे लेकर बारहवें तकके आठ गुणस्थानोका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों गाथाओंमे पहले गुणस्थानका काल नहीं बताया गया है, जो कि अभव्य जीवको अपेक्षा अनादि-अनंत, अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यकी अपेक्षा अनादि-सान्त और सादि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सादि सान्त अर्थात् देशोन अर्धपुदगल परिवर्तन है। इन टिप्पणियोंसे टिप्पणीकारके पाडित्यका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। एक स्थलपर शीलके १८००० भेद भी गिनाये गये हैं। प्रतिकी अत्यन्त जीर्णावस्था होनेपर भी भंडारके संरक्षकोंने कागज चिपका चिपका करके उसे हाथमे लेने योग्य बना दिया है। इस प्रतिपर भी न लेखन-काल है और न लेखकनाम ही। पर प्रति की लिखावट, स्याही और कागज आदिकी स्थितिको देखते हुए यह ४०० वर्षसे कमकी लिखी हुई नहीं होगी, ऐसा मेरा अनुमान है। बाबू पन्नालालजी अग्रवालके पास जो इस भंडारकी सूची है, उसपर लेखन-काल वि० सं० १६६२ दिया हुआ है। संभवतः वह दूसरी रही हो, पर मुझे नहीं मिली। ब-यह प्रति ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन ब्यावर की है। इसका प्राकार ४४१० इंच है। पत्र-संख्या ४१ है। प्रत्येक पत्र में पंक्ति-संख्या है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ३२से ३६ है । कागज साधारण मोटा, पुष्ट और पीलेसे रंगका है। यह प्रति वि० सं० १६५४ के ज्येष्ठ सुदी तीज सोमवारको अजमेर में लिखी गई है। यह प्रति आदर्श प्रतियोंमे सबसे अधिक प्राचीन और अत्यन्त शुद्ध है। इसीको आधार बनाकर प्रेस कापी की गई है। म प्रतिके समान इस प्रतिमे भी "तिरिएहिं खजमाणो" और "अण्णोरणं खजंता" इत्यादि गाथाएँ पाई जाती हैं। इसके अन्तमें एक प्रशस्ति भी दी हुई है, जो यहॉपर ज्योंकी त्यों उद्धत की जाती है। जिसके द्वारा पाठकोंको अनेक नवीन बातोंका परिचय प्राप्त होगा। पूरी प्रशस्ति इस प्रकार है प्रशस्ति:-शुभं भवतु | सं० १६५४ वर्षे आषाढमासे कृष्णपक्षे एकादश्यां तिथौ ११ भौमवासरे अजमेरगढ़मध्ये श्रीमूलसिंघे ( संघे) नन्द्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनन्दिदेवाः, तत्० भ० श्रीशुभचन्द्रदेवाः, त० भ० श्री जिनचन्द्रदेवाः, त० भ. श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः, त० भ० श्रीचन्द्रकीर्तिदेवाः, तत्पट्टे मण्डलाचार्य श्रीभुवनकीर्ति तत्पट्टे मण्डलाचार्य श्रीधर्मकीर्ति त० मं० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-परिचय १५ श्रीविशालकीर्ति, त० मं० श्रीलिखिमीचन्द्र, त० मं० सहसकीर्ति, त० मण्डलाचार्य श्री श्री श्री श्री श्रीनेमिचन्द्र तदाम्नाये खण्डेलवालान्वये पहाड्यागोत्रे साह नानिग, तस्य भार्या शीलतोयतरङ्गिणी साधवी लाछि, तयोः पुत्रत्रय प्रथम पुत्र शाह श्रीरंग, तस्य भार्या दुय २ प्रथम श्री यादे द्वितीय हरषमदे । तयोः पुत्र शाह रेडा, तस्य भार्या रैणादे । शाह नानिग दुतिय पुत्र शाह लाखा, तस्य भार्या लाडमदे, तयो पुत्र शाह नाथ, तस्य भार्या नौलादे, शाह नानिग तृतीय पुत्र शाह लाला तस्य भार्या ललितादे, तयो पुत्र २, प्रथम पुत्र चि० गागा, द्वितीय पुत्र सागा । एतेषां मध्ये शाह श्रीरंग तेन इद वमुनन्दि (उ-)पासकाचार ग्रन्थ ज्ञानावरणी कर्मक्षयनिमित्तं लिख्यापितं । मण्डलाचार्य श्री श्री श्री श्री श्री नेमिचन्द्र, तस्य शिष्यणी वाइ सवीरा जोग्य घटापितं । शुभं भवतु । मांगल्यं दद्यात् । लिखितं जोसी सूरदास । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं नियाधिः भेपजाद्भवेत् ॥ १॥ सम्यक्त्वमूलं श्रुतपीठबन्धः दानादिशाखा गुणपल्लवाया । जस्ल (यशः) प्रसूनो जिनधर्मकल्पद् मो मनोऽभीष्टफलादवुस्त (फलानि दत्त)॥ हाशियामे इतना संदर्भ और लिखा है . "संवत् १६५४ ज्येष्ठ सुदि तीज तृतीया तिथौ सोमवासरे अजमेरगढ़मध्ये लिखितं च जोसी सूरदास अर्जुनसुत ज्ञाति बुन्दीवाल लिखाइतं च चिरंजिव । उपर्युक्त प्रशस्ति संस्कृत मिश्रित हिन्दी भाषामे है। इसमें लिखानेवाले शाह नानिग, उनके तीनो पुत्रों और उनकी स्त्रियोंका उल्लेख किया गया है। यह प्रति शाह नानिगके ज्येष्ठ पुत्र श्रीरंगने जोसी सूरदाससे लिखाकर संवत् १६५४ के अाषाढ़ वदी ११ मंगलवारको श्रीमण्डलाचार्य भट्टारक नेमिचन्द्रजीकी शिष्यणी सबीराबाईके लिए प्रदान की थी। प्रशस्तिके अन्तिम श्लोकका भाव यह है-"यह जिनधर्मरूप एक कल्पवृक्ष है, जिसका सम्यग्दर्शन मूल है, श्रुतज्ञान पीठबन्ध है, व्रत दान आदि शाखाएँ हैं, श्रावक और मुनियों के मूल व उत्तरगुणरूप पल्लव हैं, और यशरूप फूल हैं। इस प्रकारका यह जिनधर्मरूप कल्पद्रुम शरणार्थी या आश्रित जनोको अभीष्ट फल देता है।" म-यह बा० सूरजभान जी द्वारा देवचन्दसे लगभग ४५ वर्ष पूर्व प्रकाशित प्रति है। मुद्रित होने से इसका सकेत 'म' रखा गया है। हमने प, भ और ध प्रतियोके अनुसार गाथाओं की संख्या ५४६ ही रखी है। २-ग्रन्थ-परिचय ग्रन्थकारने अपने इस प्रस्तुत ग्रन्थका नाम स्वयं 'उपासकाध्ययन' दिया है, पर सर्व-साधारणमें यह 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' नामसे प्रसिद्ध है। उपासक अर्थात् श्रावकके अध्ययन यानी अाचारका विचार जिसमें किया गया हो, उसे उपासकाध्ययन कहते हैं। द्वादशांग श्रुतके भीतर उपासकाध्ययन नामका सातवाँ अंग माना गया है, जिसके भीतर ग्यारह लाख सत्तर हजार पदोंके द्वारा दार्शनिक श्रादि ग्यारह प्रकारके श्रावकोंके लक्षण, उनके व्रत धारण करने की विधि और उनके श्राचरणका वर्णन किया गया है। वीर भगवान्के निर्वाण चले जानेके पश्चात् क्रमशः ६२ वर्षमैं तीन केवली, १०० वर्षमे पाँच श्रुतकेवली, १८३ वर्षमे दशपूर्वी और २२० वर्षमें एकादशांगधारी प्राचार्य हुए। इस प्रकार वीर-निर्वाणके (६२+ १०० + १८३ + २२० = ५६५) पांच सौ पैंसठ वर्ष तक उक्त उपासकाध्ययनका पठन-पाठन श्राचार्यपरम्परामें अविकलरूपसे चलता रहा। इसके पश्चात् यद्यपि इस अंगका विच्छेद हो गया, तथापि उसके एक देशके ज्ञाता श्राचार्य होते रहे और वही श्राचार्य-परम्परासे प्राप्त ज्ञान प्रस्तुत ग्रन्थके कर्त्ता प्राचार्य वसुनन्दिको प्राप्त हुआ, जिसे कि उन्होने धर्म-वात्सल्यसे प्रेरित होकर भव्य-जीवोंके हितार्थ रचा। उक्त पूर्वानुपूर्वीके प्रकट १. देखो प्रशस्ति । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार करनेके लिए ग्रन्थकारने अपने इस ग्रन्थका नाम भी उपासकाध्ययन रक्खा, और सातवें अंगके समान ही ग्यारह प्रतिमाओंको श्राधार बनाकर श्रावक धर्मका प्रस्तुत ग्रन्थमें वर्णन किया । यद्यपि इस ग्रन्थमें प्रायः श्रावकके सभी छोटे-मोटे कर्त्तव्योका वर्णन किया गया है, तथापि सात व्यसनोंका और उनके सेवनसे प्राप्त होनेवाले चतुर्गति-सम्बन्धी महा दुःखोंका जिस प्रकार खूब विस्तारके साथ वर्णन किया गया है, उसी प्रकारसे दान, दान देनेके योग्य पात्र, दातार, देय पदार्थ, दानके भेद और दानके फलका; पंचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधानोंका, पूजनके छह भेदोंका और बिम्ब-प्रतिष्ठाका भी विस्तृत वर्णन किया गया है। ग्रन्थ की भाषा सौरसेनी प्राकृत है जिसे कि प्रायः सभी दि० ग्रन्थकारोंने अपनाया है। ३-ग्रन्थका परिमाण प्राचार्य वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थका परिमाण प्रशस्तिकी अन्तिम गाथा द्वारा छह सौ पचास (६५०) सूचित किया है, मुद्रित प्रतिमें यह प्रमाण अनुष्टुप् श्लोकोंकी अपेक्षा कहा गया है। परन्तु प्रतिपरिचय में जो पृष्ठ, प्रति पृष्ठ पंक्ति, और प्रतिक्ति-अक्षरसख्या दी है, तदनुसार अधिकसे अधिक अक्षरसंख्यासे गणित करनेपर भी ग्रन्थका परिमाण छह सौ पचास श्लोक प्रमाण नहीं पाता है। उक्त सर्व प्रतियोका गणित इस प्रकार है : प्रति पत्र पंक्ति अक्षर योग श्लोक प्रमाण म ३७४१०४३५ % १२६५०३२ %3D ४०५ ध ४८४ ६४४१ = ११८०८:३२% ३६६ प १४४१५४५६ - ११७६०३२%3D३६७॥ ब ४१४६४३६ % १३२८४-३२ = ४१५ ऐसी दशामें स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि ग्रन्थकारने अपने ग्रन्थका स्वयं जो परिमाण दिया है, वह किस अपेक्षासे दिया है ? यह प्रश्न उस अवस्थामें और भी जटिल हो जाता है जब कि सभी प्रतियोमें 'छच्चसया पण्णासुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाणं पाठ एक समान ही उपलब्ध है। यदि यह कल्पना की जाय, कि ग्रन्थकारने उक्त प्रमाण अपने ग्रन्थकी गाथा-संख्याओंके हिसाबसे दिया है सो भी नहीं बनता, क्योंकि किसी भी प्रतिके हिसाबसे गाथाओंका प्रमाण ६५० नहीं है, बल्कि भ, ध, प प्रतियोंके अनुसार गाथाओंकी संख्या ५४६ और इतथा ब प्रतियोंके अनुसार ५४८ है। और विभिन्न प्रतियोंमे उपलब्ध प्रक्षिप्त गाथाश्रोको भी मिलाने पर वह संख्या अधिकसे अधिक ५५२ ही होती है। मेरे विचारानुसार स्थूल मानसे एक गाथाको सवा श्लोक-प्रमाण मान करके ग्रन्थकारने समग्र ग्रन्थका परिमाण ६५० कहा है । संभवतः प्रशस्तिकी ८ गाथाओंको उसमें नहीं गिना गया है। अब हम विभिन्न प्रतियोंमें पाई जानेवाली गाथाओंकी जाँच करके यह निर्णय करेंगे कि यथार्थमे उन गाथाओंकी संख्या कितनी है, जिन्हें कि श्रा० वसुनन्दिने स्वयं निबद्ध किया है ? इस निर्णयको करनेके पूर्व एक बात और भी जान लेना आवश्यक है, और वह यह कि स्वयं ग्रन्थकारने भावसंग्रहकी या अन्य ग्रन्थोंकी जिन गाथाओंको अपने ग्रन्थका अंग बना लिया है, उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थ की ही मूल गाथाएँ मान लिया जाय, तब भी कितनी और प्रक्षिप्त गाथाओंका समावेश मूलमें हो गया है ? उक्त निर्णयके लिए हमें प्रत्येक प्रतिगत गाथाओंकी स्थितिका जानना आवश्यक है। (१) ध और प प्रतियोंके अनुसार गाथाओंकी संख्या ५४६ है। इस परिमाणमें प्रशस्तिसम्बन्धी ८ गाथाएँ भी सम्मिलित हैं। इन दोनों प्रतियोंमें अन्य प्रतियोंमें पाई जानेवाली कुछ गाथाएँ नहीं हैं; जिन पर यहाँ विचार किया जाता है : झ और ब प्रतियोंमें गाथा नं० १८१ के बाद निम्न दो गाथाएँ और भी पाई जाती हैं : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकार का परिचय तिरिएहिं खज्जमाणो दुहमणुस्सेहिं हम्ममाणो वि। सव्वत्थ वि संतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीमं ॥ अण्णोणं खज्जंतो तिरिया पार्वति दारुणं दुक्खं । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखेदि ॥ अर्थ-संगतिकी दृष्टि से ये दोनों गाथाएँ प्रकरणके सर्वथा अनुरूप हैं। पर जब हम अन्य प्रतियोंको सामने रखकर उनपर विचार करते हैं, तब उन्हें संशोधनमे उपयुक्त पाँच प्रतियोमैसे तीन प्रतियोंमें नहीं पाते हैं। यहाँ तक कि बाबू सूरजभान वकील द्वारा वि० सं० १९६६ में मुद्रित प्रतिमे भी वे नहीं है। अतः बहुमतके अनुसार उन्हे प्रक्षिप्त मानना पड़ेगा। _ अब देखना यह है कि ये दोनों गाथाएँ कहाँ की हैं और यहाँ पर वे कैसे आकर मूलग्रन्थका अंग बन गई ? ग्रन्थोंका अनुसन्धान करनेपर ये दोनों गाथाएँ हमें स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामे मिलती हैं जहाँ पर कि उनकी संख्या क्रमशः ४१ और ४२ है और वे उक्त प्रकरणमें यथास्थान सुसम्बद्ध हैं। ज्ञात होता है कि किसी स्वाध्यायप्रेमी पाठकने अपने अध्ययन की प्रतिमें प्रकरणके अनुरूप होनेसे उन्हे हाशियामे लिख लिया होगा और बादमें किसी लिपिकारके प्रमादसे वे मूलग्रन्थका अंग बन गई। (२) गाथा नं० २३० के पश्चात् श्राहार-सम्बन्धी चौदह दोषोंका निर्देश करनेवाली एक गाथा झध ब प्रतियोंमे पाई जाती है, और वह मुद्रित प्रतिमे भी है। पर प प्रतिमें वह नहीं है और प्रकरणकी स्थितिको देखते हुए वह वहाँ नहीं होना चाहिए। वह गाथा इस प्रकार है-- ___णह-जंतु-रोम-अटुट्ठी-कण-कुंडय-मंस-रुहिर चम्माइं। कंद-फल-मूल-बीया छिण्णमला चउहसा होति ।। यह गाथा मूलाराधना की है, और वहां पर ४८४ नं० पर पाई जाती है। (३) मुद्रित प्रतिमें तथा झ और ब प्रतिमें गाथा नं० ५३७ के पश्चात् निम्नलिखित दो गाथाएँ अधिक पाई जाती हैं : मोहक्खएण सम्मं केवलणाणं हणेइ अण्णाणं । केवलदंसण दंसण अणंतविरियं च अंतराएण ॥ सुहुमं च णामकम्म आउहणणेण हवइ अवगहण । गोयं च अगुरुलहुयं अव्वावाहं च वेयणीयं च ॥ इनमें यह बताया गया है कि सिद्धोंके किस कर्मके नाशसे कौन सा गुण प्रकट होता है। इसके पूर्व नं० ५३७ वीं गाथामें सिद्धोंके अाठ गुणोंका उल्लेख किया गया है। किसी स्वाध्यायशील व्यक्तिने इन दोनों गाथाओंको प्रकरणके उपयोगी जानकर इन्हे भी मार्जनमें लिखा होगा और कालान्तरमें वे मूलका अंग बन गई। यही बात चौदह मलवाली गाथाके लिए समझना चाहिए । उक्त पाँच प्रक्षिप्त गाथाओंको हटा देने पर ग्रन्थकी गाथाअोका परिमाण ५३६ रह जाता है। पर इनके साथ ही सभी प्रतियोमै प्रशस्तिकी ८ गाथाओंपर भी सिलसिलेवार नम्बर दिये हुए हैं अतः उन्हें भी जोड़ देनेपर ५३६+८=५४७ गाथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ की सिद्ध होती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० ५७ केवल क्रियापदके परिवर्तनके साथ अपने अविकल रूपमे २०५ नम्बर पर भी पाई जाती है। यदि इसे न गिना जाय तो ग्रन्थकी गाथा-संख्या ५४६ ही रह जाती है। ४-ग्रन्थकारका परिचय श्राचार्य वसुनन्दिने अपने जन्मसे किस देशको पवित्र किया, किस जातिमें जन्म लिया, उनके मातापिता का क्या नाम था; जिनदीक्षा कब ली और कितने वर्ष जीवित रहे, इन सब बातोंके जाननेके लिए हमारे Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार पास कोई साधन नहीं है। ग्रन्थके अन्तमे दी हुई उनकी प्रशस्तिसे केवल इतना ही पता चलता है कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामे श्रीनन्दिनामके एक प्राचार्य हुए। उनके शिप्य नयनन्दि और उनके शिष्य नेमिचन्द्र हुए। नेमिचन्द्रके प्रसादसे वसुनन्दिने यह उपासकाध्ययन बनाया । प्रशस्तिमे ग्रन्थ-रचनाकाल नहीं दिया गया है। पं० श्राशाधरजीने सागारधर्मामृतकी टीकाको वि० सं० १२९६ मे समाप्त किया है। इस टीकामे उन्होंने श्रा० वसुनन्दिका अनेक बार आदरणीय शब्दोंके साथ उल्लेख किया है और उनके इस उपासकाध्ययनकी गाथाश्रोको उद्धृत किया है। अतः इनसे पूर्ववर्ती होना उनका स्वयंसिद्ध है। श्री प० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'पुरातन-वाक्य-सूची' की प्रस्तावनामे और श्री पं० नाथरामजी प्रेमीने अपने 'जैन इतिहास मे वसुनन्दिका समय प्रा० अमितगतिके पश्चात् और पं० श्राशाधरजीसे अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दी निश्चित किया है। पर विशेप अनुसन्धानसे यह पता चलता है कि वसुनन्दिके दादागुरु श्रीनयनन्दिने विक्रम संवत् ११०० मे 'सुदर्शनचरित' नामक अपभ्रंश भाषाके ग्रन्थको रचा है, अतएव श्रा० बमुनन्दिका समय बारहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध निश्चित होता है । __वसुनन्दि नामके अनेक प्राचार्य हुए हैं। वसुनन्दिके नामसे प्रकाशमे आनेवाली रचनाओंमे श्राप्तमीमांसावृत्ति, जिनशतकटोका, मूलाचारवृत्ति, प्रतिष्ठासारसंग्रह और प्रस्तुत उपासकाध्ययन प्रसिद्ध हैं। इनमेंसे अन्तिम दो ग्रन्थ तो स्वतत्र रचनाएँ हैं और शेष सब टीका-ग्रन्थ हैं। यद्यपि अभी तक यह सुनिश्चित नहीं हो सका है कि प्राप्तमीमांसा आदिके वृत्ति-रचयिता और प्रतिष्ठापाठ तथा उपासकाध्ययनके निर्माता आचार्य वसुनन्दि एक ही व्यक्ति हैं, तथापि इन ग्रन्थोके अन्तःपरीक्षणसे इतना तो अवश्य ज्ञात होता है कि प्राप्तमीमासा-वृत्ति और जिनशतक-टीकाके रचयिता एक ही व्यक्ति होना चाहिए। इसी प्रकार प्रतिष्ठापाठ और प्रस्तुत उपासकाध्ययनके रचयिता भी एक ही व्यक्ति प्रतीत होते है, क्योंकि प्रतिष्ठापाठके समान प्रस्तुत उपासकाध्ययनमे भी जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठाका खूब विस्तारके साथ वर्णन करके भी अनेक स्थलोपर प्रतिष्ठा शास्त्रके अनुसार विधि-विधान करनेको प्रेरणा की गई है। इन दोनों ग्रन्थोकी रचनामे भी समानता पाई जाती है और जिन धूलीकलशाभिषेक, आकरशुद्धि आदि प्रतिष्ठा-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दो का यहाँ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है, उनका प्रतिष्ठासंग्रहमे विस्तृत रूपसे वर्णन किया गया है । यहाँ एक बात खास तौर से जानने योग्य है कि प्रतिष्ठासंग्रहकी रचना संस्कृत-भाषामें है, जब कि प्रस्तुत उपासकाध्ययन प्राकृतमैं रचा गया है। यह विशेषता वसुनन्दिकी उभय-भाषा-विज्ञता को प्रकट करती है तथा वसुनन्दिके लिए परवर्ती विद्वानो द्वारा प्रयुक्त 'सैद्धान्तिक' उपाधि भी मूलाचारवृत्तिके कत्तृत्वकी ओर सकेत करती है। ५-नयनन्दिका परिचय और वसुनन्दिका समय श्राचार्य वसुनन्दिने प्राचार्य नयनन्दिको अपने दादागुरुरूपसे स्मरण किया है। नयनन्दि-रचित अपभ्रंशभाषाके दो ग्रन्थ-सुदर्शनचरित और सकल-विधि-विधान अामेरके शास्त्रभंडारमें उपलब्ध हैं। इनमेसे सदर्शनचरितके अन्त में जो प्रशस्ति पाई जाती है, उससे प्रकट है कि उन्होंने उक्त ग्रन्थकी रचना विक्रम संवत् ११०० मे धारा-नरेश महाराज भोजदेवके समयमै पूर्ण की थी। सुदर्शनचरित की वह प्रशस्ति इस प्रकार है : जिणिंदस्स वीरस्स तित्थे वहते, महाकुदकुदण्णए एतसंते । सुसिक्खाहिहाणें तहा पोमणंदी, पुणो विसहणंदी तश्रो णंदणंदी ॥ जिणुदिछु धम्म धुराणं विसुद्धो, कयाणेयगंथो जयते पसिद्धो । भवं बोहि पोउं महोविस्स (ह) गंदी, खमाजुत्तसिद्धतिश्रो विसहणंदी ॥ १. देखो-सागारध० अ० ३ श्लो०१६ को टीका आदि । २. देखो उपासकाध्य० गाथा नं० ३९६,४१० इत्यादि। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनन्दिका परिचय और वसुनन्दिका समय जिणिंदागमब्भासणे एयचित्तो, तवायारणिलाइ लद्धाइजुत्तो। णरिंदामरिंदाहिवाणंदवंदी, हुप्रो तस्स सीसो गणी रामगंदी॥ असेसाणगंथंमि पारंमि पत्तो, तवे अंगवी भव्वराईवमित्तो । गुणायासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी, महापंडि अंतस्य (ो तस्स) माणिकरणंदी ॥ घत्तापढम सीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि रायणंदी आणिंदिउ । चरिउँ सुदंसणणाहहो तेण, अवाह हो विरइउं बुह अहिणंदिउं॥ आराम-गाम-पुरवरणिवेस, सुपसिद्ध अवंती णाम देस । सुरवइपुरिव विवुहयणइट्ठ, तहिं अस्थि धारणयरीगरिठ्ठ ॥ रणिदुद्धर अरिवर-सेल-वज्जु, रिद्धिय देवासुर जणिय चोज्जु । तिहुयणु णारायण सिरिणिकेउ, तहिं णरवइ पुंगमु भोयदेउ ॥ मणिगणपहदूसिय रविगभत्थि, तहिं जिणवर वधु विहारु अस्थि । णिव विक्कम्मकालहो ववगएसु, एयारह संवच्छर सएसु । तहिं केवलि चरिउं अमरच्छरेण, रायणंदी विरयउ वित्थरेण ॥ घत्ता-- यणंदियहो मुणिंदहो कुवलयचंदहो गारदेवासुर बंदहो। देउ देइ मइ जिम्मल भवियहं मंगल वाया जिणवर चंदहो ॥ उक्त प्रशस्तिसे यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि वे धारा-नरेश महाराज भोजके समय विद्यमान थे, और विक्रम संवत् ११०० मे उन्होंने सुदर्शनचरित की रचना पूर्ण की। पर साथ ही इस प्रशस्तिसे और भी अनेक बातोंरर नवीन प्रकाश पड़ता है जिनमेसे एक यह है कि नयनन्दि सुप्रसिद्ध तार्किक एवं परीक्षामुख सूत्रकार महापंडित माणिक्यनन्दिके शिष्य थे-जब कि श्राचार्य वसुनन्दिने नयनन्दिको 'श्रीनन्दि' का शिष्य कहा है। नयनन्दिने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है, उसमें 'श्रीनन्दि' नामके किसी प्राचार्यका नामोल्लेख नहीं है । हाँ, नन्दिपदान्तवाले अनेक नाम अवश्य मिलते हैं। यथा-रामनन्दि, विशाखनन्दि, नन्दनन्दि इत्यादि । नयनन्दिकी दी हुई गुरु-परम्परा में तो किसी प्रकारकी शंका या सन्देहको स्थान है ही नहीं, अतः प्रश्न यह उठता है कि श्रा० वसुनन्दिको नयनन्दि द्वारा दी गयी गुरुपरम्परामेंसे कौनसे 'नन्दि' अभीष्ट हैं ? मेरे विचारसे 'रामनन्दि' के लिए ही श्रा० वसुनन्दिने 'श्रीनन्दि लिखा है। क्योंकि जिन विशेषणोंसे नयनन्दिने रामनन्दिका स्मरण किया है, वे प्रायः वसुनन्दि द्वारा श्रीनन्दिके लिए दिये गये विशेषणोंसे मिलते-जुलते हैं। यथा-(१) जिणिंदागमब्भासणे एयश्चित्तो-नयनन्दि जो सिद्धतंबुरासिं सुणयतरणिमासेज लीलावतिण्णो।-वसुनन्दि (२) तवायारणिहाइ लद्धाइजुत्तो, णरिंदामरिंदाहिवाणंदवंदी-नयनन्दि वण्णेउं कोसमत्थो सयलगुणगणं सेवियंतो वि लोए-वसुनन्दि इस विषयमें अधिक ऊहापोह अप्रासंगिक होगा, पर इससे इतना तो निश्चित ही है कि नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए और उनके शिष्य वसुनन्दि । वसुनन्दिने जिन शब्दों में अपने दादागुरुका, प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है उससे ऐसा अवश्य ध्वनित होता है कि वे उनके सामने विद्यमान रहे हैं। यदि यह अनुमान ठीक हो, तो बारहवीं शताब्दिका प्रथम चरण वसुनन्दिका समय माना जा सकता है। यदि वे उनके सामने विद्यमान न भी रहे हों तो भी प्रशिष्यके नाते वसुनन्दिका काल बारहवीं शताब्दीका पूर्वार्धं ठहरता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ६-उपासक या श्रावक गृहस्थ व्रतीको उपासक, श्रावक, देशसंयमी, आगारी आदि नामोंसे पुकारा जाता है। यद्यपि साधारणतः ये सब पर्यायवाची नाम माने गये हैं, तथापि यौगिक दृष्टिसे उनके अर्थोमे परस्पर कुछ विशेषता है। यहा क्रमशः उक्त नामोके अर्थोंका विचार किया जाता है। 'उपासक पदका अर्थ उपासना करनेवाला होता है। जो अपने अभीष्ट देवकी, गुरुकी, धर्मकी उपासना अर्थात् सेवा, वैयावृत्त्य और आराधना करता है, उसे उपासक कहते हैं। गृहस्थ मनुष्य वीतराग देवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा-वैयावृत्त्यमे नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थ धर्मकी आराधना करते हुए उसे यथाशक्ति धारण करता है, अतः उसे उपासक कहा जाता है। 'श्रावक' इस नाम की निरुक्ति इस प्रकार की गई है : 'श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः। ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति। (अभिधान राजेन्द्र 'सावय' शब्द) इसका अभिप्राय यह है कि 'श्रावक' इस पद में तीन शब्द हैं। इनमें से 'श्रा' शब्द तो तत्त्वार्थश्रद्धान की सूचना करता है, 'व' शब्द सप्त धर्म-क्षेत्रों मे धनरूप बीज बोने की प्रेरणा करता है और 'क' शट किष्ट कर्म या महापापों को दूर करने का संकेत करता है। इस प्रकार कर्मधारय समास करने पर श्रावक यह नाम निष्पन्न हो जाता है। कुछ विद्वानों ने श्रावक पद का इस प्रकार से भी अर्थ किया है : अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामागारिणां च सामाचारी शृणोतीति श्रावकः । -श्रावकधर्म प्र० गा०२ अर्थात् जो सम्यक्त्वी और अणुव्रती होने पर भी प्रतिदिन साधुओ से गृहस्थ और मुनियों के प्राचारधर्म को सने, वह श्रावक कहलाता है। कुछ विद्वानों ने इसी अर्थ को और भी पल्लवित करके कहा है: श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् । कृतत्वपुण्यानि करोति संयमं तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ॥ अर्थ-जो श्रद्धालु होकर जैन शासन को सुने, दीन जनो में अर्थ का वपन करे अर्थात् दान दे, सम्यग्दर्शन को वरण करे, सुकृत और पुण्य के कार्य करे, संयम का आचरण करे उसे विचक्षण जन श्रावक कहते हैं। उपर्युक्त सर्व विवेचन का तात्पर्य यही है कि जो गुरुजनों से आत्म-हित की बात को सदा सावधान होकर सुने, वह श्रावक कहलाता है। परलोयहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेइ उवजुत्तो। अइतिव्वकम्मविगमा सुक्कोसो सावगो एत्थ ॥-पंचा.१ विव० अवाप्तदृष्टयादिविशुद्धसम्पत्परं समाचारमनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः॥ (अभिधान राजेन्द्र, 'सावय' शब्द) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार २१ अणुव्रतरूप देश संयम को धारण करने के कारण देशसंयमी या देशविरत कहते हैं। इसी का दूसरा नाम संयतासंयत भी है क्योकि यह स्थूल या त्रसहिंसा की अपेक्षा संयत है और सूक्ष्म या स्थावर हिंसा की अपेक्षा असंयत है। घर में रहता है, अतएव इसे गृहस्थ, सागार, गेही, गृही और गृहमेधी आदि नामों से भी पुकारते हैं। यहाँ पर 'गृह' शब्द उपलक्षण है, अतः जो पुत्र, स्त्री, मित्र, शरीर, भोग आदि से मोह छोड़ने में असमर्थ होने के कारण घर में रहता है उसे गृहस्थ आदि कहते हैं। ७-उपासकाध्ययन या श्रावकाचार उपासक या श्रावक जनोके आचार-धर्मके प्रतिपादन करनेवाले सूत्र, शास्त्र या ग्रन्थको उपासकाध्ययनसूत्र, उपासकाचार या श्रावकाचार नामोसे व्यवहार किया जाता है। द्वादशांग श्रुतके बारह अंगोंमें श्रावकोके आचार-विचार का स्वतन्त्रतासे वर्णन करनेवाला सातवाँ अंग उपासकाध्ययन माना गया है। प्राचार्य वसुनन्दि ने भी अपने प्रस्तुत ग्रन्थका नाम उपासकाध्ययन ही दिया है जैसा कि प्रशस्ति-गत ५४५ वीं गाथासे स्पष्ट है । ___ स्वामी समन्तभद्र ने संस्कृत भाषामें सबसे पहले उक्त विषयका प्रतिपादन करनेवाला स्वतन्त्र ग्रन्थ रचा और उसका नाम 'रत्नकरण्डक' रक्खा । उसके टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी टीकामें और उसके प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमे 'रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने' वाक्यके द्वारा 'रत्नकरण्डकनामक उपासकाध्ययन' ऐसा लिखा है। इस उल्लेखसे भी यह सिद्ध है कि श्रावक-धर्मके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको सदासे उपासकाध्ययन ही कहा जाता रहा है। बहुत पीछे लोगोने अपने बोलनेकी सुविधाके लिए श्रावकाचार नामका व्यवहार किया है। - प्राचार्य सोमदेवने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ यशस्तिलकके पांचवें आश्वासके अन्तमें 'उपासकाध्ययन' कहने की प्रतिज्ञा की है। यथा इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु वये श्रुतपठितमुपासकाध्ययनम् ॥ अर्थात् इस पाँचवें श्राश्वास तक तो मैंने महाराज यशोधरका चरित कहा । अब इससे आगे द्वादशांगश्रत-पठित उपासकाध्ययन को कहूँगा। दिगम्बर-परम्परामें श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाले स्वतन्त्र ग्रन्थ इस प्रकार हैं:-रत्नकरण्डक, अमितगति-उपासकाचार, सुनन्दि-उपासकाध्ययन, सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, पूज्यपाद श्रावकाचार, गुणभूषणश्रावकाचार, लाटी-संहिता आदि। इसके अतिरिक्त स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी धर्मभावनामें, तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें, आदिपुराणके ३८, ३९, ४० वे पर्व में, यशस्तिलकके ६,७,८वें श्राश्वासमे, तथा भावसंग्रहमें भी श्रावक्रधर्मका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। श्वेताम्बर-परम्परामें उपासकदशासूत्र, श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय है। ८-श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार उपलब्ध जैन वाङ्मयमें श्रावक-धर्मका वर्णन तीन प्रकारसे पाया जाता है: १. ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर । २. बारह व्रत और मारणान्तिकी सल्लेखनाका उपदेश देकर। ३. पक्ष, चर्या और साधनका प्रतिपादन कर।। (१) उपर्युक्त तीनों प्रकारों में से प्रथम प्रकारके समर्थक या प्रतिपादक प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कार्तिकेय और वसुनन्दि आदि रहे हैं । इन्होंने अपने-अपने ग्रन्थों में ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर ही Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ वसुनन्दि-श्रावकाचार श्रावक-धर्म का वर्णन किया है। श्रा. कुन्दकुन्दने यद्यपि श्रावक-धर्मके प्रतिपादनके लिए कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ या पाहुडकी रचना नहीं की है, तथापि चारित्र-पाहुड मे इस विषय का वर्णन उन्होने छह गाथाश्रो द्वारा किया है । यह वर्णन अति संक्षिप्त होनेपर भी अपने आपमे पूर्ण है और उसमे प्रथम प्रकारका स्पष्ट निर्देश किया गया है। स्वामी कार्तिकेयने भी श्रावक धर्मपर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रचा है, पर उनके नामसे प्रसिद्ध 'अनुप्रेक्षा' मे धर्मभावनाके भीतर श्रावक धर्मका वर्णन बहुत कुछ विस्तार के साथ किया है। इन्होने भी बहुत स्पष्ट रूपसे सम्यग्दर्शन और ग्यारह प्रतिमाओको श्राधार बनाकर ही श्रावक धर्मका वर्णन किया है। स्वामिकार्तिकेयके पश्चात् आ० वसुनन्दिने भी उक्त सरणिका अनुसरण किया। इन तीनो ही प्राचार्योंने न अष्ट मूल गुणोका वर्णन किया है और न बारह व्रतोके अतीचारोका ही। प्रथम प्रकारका अनुसरण करनेवाले प्राचार्योंमे से स्वामिकार्तिकेयको छोड़कर शेष सभीने सल्लेखनाको चौथा शिक्षाबत माना है। उक्त तीनो प्रकारोंमेसे यह प्रथम प्रकार ही आद्य या प्राचीन प्रतीत होता है, क्योकि धवला और जयधवला टीकामे श्रा० वीरसेनने उपासकाध्ययन नामक अंगका स्वरूप इस प्रकार दिया है-- १--उवासयज्झयणं णाम अंगं एक्कारस लक्ख-सत्तरि सहस्स पदेहिं ११७०००० पदेहि 'दसण वद'....'इदि एक्कारसविहउवासगाणं लक्खणं तेसि च वदारोवण-विहाणं तेसिमाचरणं च वएणेदि । (पटखंडागम भा० १ पृ० १०२) २-उवासयज्झयणं णाम अंग दंसण-वय-सामाइय-पोसहोववास-सचित्त-रायिभत्त बंभारंभपरिग्गहाणुमणुद्दिढणामाणमेकारसरहमुवासयाणं धम्ममेक्कारसविहं वणणेदि । (कसायपाहुड भा० १ पृ० १३०) अर्थात् उपासकाध्ययननामा सातवाँ अग दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ग्यारह प्रकारके उपासकोका लक्षण, व्रतारोपण आदिका वर्णन करता है । स्वामिकार्तिकेय के पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन करनेवाले श्रा० वसुनन्दि हैं। इन्होंने अपने उपासकाध्ययन में उसी परिपाटी का अनुसरण किया है, जिसे कि श्रा० कुन्दकुन्द और स्वामिकार्तिकेय ने अपनाया है। स्वामिकार्तिकेय ने सम्यक्त्व की विस्तृत महिमा के पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर बारह व्रतों का स्वरूप निरूपण किया है। पर वसुनन्दि ने प्रारम्भ में सात व्यसनों का और उनके दुष्फलो का खूब विस्तार से वर्णन कर मध्य में बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का, तथा अन्त में विनय, वैयावृत्त्य, पूजा, प्रतिष्ठा और दान का वर्णन भी खूब विस्तार से किया है। इस प्रकार प्रथम प्रकार प्रतिपादन करनेवालों मे तदनुसार श्रावक धर्म का प्रतिपादन क्रम से विकसित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। (२) द्वितीय प्रकार अर्थात् बारह व्रतोंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका प्रतिपादन करनेवाले श्राचार्योंमें उमास्वाति और समन्तभद्र प्रधान हैं। श्रा. उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमे श्रावक-धर्मका वर्णन किया है। इन्होंने व्रतीके श्रागारी और अनगारी भेद करके अणुव्रतधारीको आगारी बताया और उसे तीन गुणवत, चार शिक्षाबत रूप सप्त शीलसे सम्पन्न कहा। श्रा० उमास्वातिने ही सर्वप्रथम बारह व्रतोंके पाँच-पाँच अतीचारोंका वर्णन किया है। तत्त्वार्थसूत्रकारने अतीचारोका यह वर्णन कहाँ से किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके निर्णयार्थ जब हम वर्तमानमें उपलब्ध समस्त दि० श्वे. जैन वाङ्मयका अवगाहन करते हैं, तब हमारी दृष्टि उपासकदशा-सूत्र पर अटकती है। यद्यपि वर्तमानमें उपलब्ध यह सूत्र तीसरी वाचनाके बाद लिपि-बद्ध हुआ है, तथापि उसका आदि स्रोत तो श्वे. मान्यताके अनुसार भ० महावीरकी वाणीसे ही माना जाता है । जो हो, चाहे अतीचारोंके विषयमें उमास्वातिने उपासकदशासूत्रका अनुसरण किया हो और चाहे उपासकदशासूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रका, पर इतना निश्चित है कि दि० परम्परामें उमास्वातिसे पूर्व अतीचारोंका वर्णन किसीने नहीं किया। १ देखो तत्त्वार्थ० अ०७, सू० १८-२१. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म प्रतिपादनके प्रकार २३ तत्त्वार्थसूत्र और उपासकदशासूत्रमें एक समता और पाई जाती है और वह है मूलगुणोके न वर्णन करनेकी । दोनो ही सूत्रकारोंने आठ मूलगुणोंका कोई वर्णन नहीं किया है। यदि कहा जाय कि तत्त्वार्थसूत्रकी संक्षिप्त रचना होनेसे अष्टमूलगुणोंका वर्णन न किया गया होगा, सो माना नहीं जा सकता । क्योकि जब सूत्रकार एक-एक व्रतके अतीचार बतानेके लिए पृथक् पृथक सूत्र बना सकते थे, अहिसादि व्रतोंकी भावनाओंका भी पृथक्-पृथक् वर्णन कर सकते थे, तो क्या अष्टमूलगुणोंके लिए एक भी सूत्रको स्थान नहीं दे सकते थे ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके साथ ही सूत्रकारने श्रावककी ग्यारह प्रतिमाश्रो का भी कोई निर्देश नहीं किया ? यह भी एक दूसरा विचारणीय प्रश्न है।। तत्त्यार्थसूत्र से उपासकदशासूत्र में इतनी बात अवश्य विशेष पाई जाती है कि उसमे ग्यारह प्रतिमाअो का जिक्र किया गया है। पर कुन्दकुन्द या स्वामिकार्तिकेय के समान उन्हें आधार बनाकर श्रावकधर्म का वर्णन न करके एक नवीन ही रूप वहाँ दृष्टिगोचर होता है। वह इस प्रकार है : अानन्द नामक एक बड़ा धनी सेठ भ० महावीर के पास जाकर विनयपूर्वक निवेदन करता है कि भगवन्, मै निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ और वह मुझे सर्व प्रकार से अभीष्ट एवं प्रिय भी है। भगवन् के दिव्य-सान्निध्य मे जिस प्रकार अनेक राजे महाराजे और धनाढ्य पुरुष प्रव्रजित होकर धर्म-साधन कर रहे हैं, उस प्रकार से मैं प्रबजित होने के लिए अपने को असमर्थ पाता हूँ। अतएव भगवन् , मैं आपके पास पाच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ।' इसके अनन्तर उसने क्रमशः एक एक पाप का स्थूल रूप से प्रत्याख्यान करते हुए पांच अणुव्रत ग्रहण किये और दिशा आदि का परिमाण करते हुए सात शिक्षाव्रतों को ग्रहण किया। तत्पश्चात् उसने घर में रहकर बारह व्रतों का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत किये। पन्द्रहवें वर्ष के प्रारम्भ मे उसे विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने जीवन का बड़ा भाग गृहस्थी के जंजाल में फंसे हुए निकाल दिया है। अब जीवन का तीसरा पन है, क्यो न गृहस्थी के संकल्प-विकल्पो से दूर होकर और भ० महावीर के पास जाकर मैं जीवन का अवशिष्ट समय धर्म साधन मे व्यतीत करूँ ? ऐसा विचार कर उसने जातिके लोगोको आमन्त्रित करके उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्रको गृहस्थीका सर्व भार सौंप कर सबसे बिदा ली और भ० महावीरके पास जाकर उपासकोंकी 'दंसणपडिमा' आदिका यथाविधि पालन करते हुये विहार करने लगा। एक एक 'पडिमा' को उस उस प्रतिमाको संख्यानुसार उतने उतने मास पालन करते हुए आनन्द श्रावकने ग्यारह पडिमाओंके पालन करनेमें ६६ मास अर्थात् ५॥ वर्ष व्यतीत किये । तपस्यासे अपने शरीरको अत्यन्त कृश कर डाला। अन्तमें भक्त-प्रत्याख्यान नामक संन्यासको धारण कर समाधिमरण किया और शुभ परिणाम वा शुभ लेश्याके योगसे सौधर्म स्वर्गमें चार पल्योपमकी स्थितिका धारक महर्द्धिक देव उत्पन्न हुआ। इस कथानकसे यह बात स्पष्ट है कि जो सीधा मुनि बनने में असमर्थ है, वह श्रावकधर्म धारण करे और घरमें रहकर उसका पालन करता रहे । जब वह घरसे उदासीनताका अनुभव करने लगे और देखे कि अब मेरा शरीर दिन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है और इन्द्रियोकी शक्ति घट रही है, तब घरका भार बड़े पुत्रको सॅभलवाकर और किसी गुरु आदिके समीप जाकर क्रमशः ग्यारह प्रतिमाअोका नियत अवधि तक अभ्यास करते हुए अन्तमें या तो मुनि बन जाय, या संन्यास धारण कर श्रात्मार्थको सिद्ध करे । १ सहहामि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं; पत्तियामि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं; रोएमि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं । एवमेयं भंते, तहमेयं भंते, अवितहमेयं भते, इच्छियमेयं भंते, पडिच्छियमेयं भंते, इच्छिय-पडिच्छियमेय भंते, से जहेय तुब्भे वयह त्ति कटु जहा णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे राईसरतलवर-मांडविक-कोडुम्बिय-सेटि-सत्थवाहप्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइया; नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जस्लामि । उपासकदशासूत्र अ०१ सू० १२. २ देखो उपासकदशा सूत्र, अध्ययन १ का अन्तिम भाग। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तत्त्वार्थ सूत्रमें यद्यपि ऐसी कोई सीधी बात नहीं कही गई है, पर सातवे अध्यायका गम्भीर अध्ययन करने पर निम्न सूत्रोंसे उक्त कथनकी पुष्टिका संकेत अवश्य प्राप्त होता है। वे सूत्र इस प्रकार हैं: अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥२१॥ मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ तत्वार्थसूत्र, अ०७। इनमेसे प्रथम सूत्रमे बताया गया है कि अगारी या गृहस्थ पंच अणुव्रतका धारी होता है। दूसरे सूत्रमे बताया गया है कि वह दिग्वत आदि सात व्रतोसे सम्पन्न भी होता है। तीसरे सूत्रमे बताया गया है कि वह जीवन के अन्तमें मारणान्तिकी सल्लेखना को प्रेमपूर्वक धारण करे। यहाँ पर श्रावकधर्मका अभ्यास कर लेनेके पश्चात् मुनि बननेकी प्रेरणा या देशना न करके सल्लेखनाको धारण करनेका ही उपदेश क्यों दिया ! इस प्रश्नका सष्ट उत्तर यही है कि जो समर्थ है और गृहस्थीसे मोह छोड़ सकता है, वह तो पहले ही मुनि बन जाय । पर जो ऐसा करनेके लिए असमर्थ है, वह जीवन-पर्यन्त बारह व्रतोका पालन कर अन्तमे संन्यास या समाधिपूर्वक शरीर त्याग करे । ___ इस सन्यासका धारण सहसा हो नहीं सकता, घरसे, देहसे और भोगोसे ममत्व भी एकदम छुट नहीं सकता; अतएव उसे क्रम-क्रमसे कम करनेके लिए ग्यारह प्रतिमाश्रोकी भूमिका तैयार की गई प्रतीत होती है, जिसमे प्रवेश कर वह सासारिक भोगोपभोगोसे तथा अपने देहसे भी लालसा, तृष्णा, गृद्धि, आसक्ति और स्नेहको क्रमशः छोड़ता और अात्मिक शक्तिको बढ़ाता हुआ उस दशाको सहजमें ही प्राप्त कर लेता है, जिसे चाहे साधु-मर्यादा कहिये और चाहे सल्लेखना । यहाँ यह आशंका व्यर्थ है कि दोनों वस्तुएँ भिन्न है, उन्हें एक क्यो किया जा रहा है ? इसका उत्तर यही है कि भक्त-प्रत्याख्यान समाधिमरणका उत्कृष्ट काल बारह वर्षका माना गया है, जिसमे ग्यारहवीं प्रतिमाके पश्चात् सन्यास स्वीकार करते हुए पाँच महाव्रतोंको धारण करने पर वह साक्षात् मुनि बन ही जाता है। तस्वार्थसूत्र और उपासकदशासूत्रके वर्णनसे निकाले गये उक्त मथितार्थकी पुष्टि स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्ड-श्रावकाचारसे भी होती है। जिन्होंने कुछ भी मननके साथ रत्नकरण्डकका अध्ययन किया है, उनसे यह अविदित नहीं है कि कितने अच्छे प्रकारसे प्राचार्य समन्तभद्रने यह प्रतिपादन किया है कि श्रावक बारह व्रतोंका विधिवत् पालन करके अन्तमें उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, रोग आदि निष्प्रतीकार श्रापत्तिके श्रा जाने पर अपने धर्मकी रक्षाके लिए सल्लेखनाको धारण करें। सल्लेखनाका क्रम और उसके फलको अनेक श्लोकों द्वारा बतलाते हुए उन्होंने अन्तमे बताया है कि इस सल्लेखनाके द्वारा वह दुस्तर संसारसागरको पार करके परम निःश्रेयस-मोक्ष-को प्राप्त कर लेता है, जहाँ न कोई दुःख है, न रोग, चिन्ता, जन्म, जरा, मरण, भय, शोक श्रादिक । जहाँ रहनेवाले अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख-श्रानन्द, परम सन्तोष श्रादिका अनन्त काल तक अनुभव करते रहते हैं। इस समग्र प्रकरणको और खास करके उसके अन्तिम श्लोकोंको देखते हुए एक बार ऐसा प्रतीत होता है मानो ग्रन्थकार अपने ग्रन्थका उपसंहार करके उसे पूर्ण कर रहे हैं। इसके पश्चात् अर्थात् ग्रन्थके सबसे अन्तमें एक स्वतन्त्र अध्याय बनाकर एक-एक श्लोकमें श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप वर्णनकर ग्रन्थको समाप्त किया गया है। श्रावक-धर्मका अन्तिम कर्त्तव्य समाधिमरणका सांगोपांग वर्णन करनेके पश्चात् अन्तमें ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करना सचमुच एक पहेली-सी प्रतीत होती है और पाठकके हृदयमें एक श्राशंका उत्पन्न करती है कि जब समन्तभद्रसे पूर्ववर्ती कुन्दकुन्द आदि प्राचार्योंने ग्यारह प्रतिमाओंको श्राधार बनाकर श्रावक-धर्मका वर्णन किया, तब समन्तभद्रने वैसा क्यों नहीं किया ? और क्यों ग्रन्थके अन्तमें उनका वर्णन किया ? १ उपसर्गे दुर्मिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१२२॥-रत्नकरण्ड श्रावकाचार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार (३) श्रावक धर्मके प्रतिपादनका तीसरा प्रकार पक्ष, चर्या और साधनका निरूपण है। इस मार्गके प्रतिपादन करनेवालोंमें हम सर्वप्रथम प्राचार्य जिनसेनको पाते है। श्रा० जिनसेनने यद्यपि श्रावकाचार पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रचा है, तथापि उन्होने अपनी सबसे बड़ी कृति महापुराणके ३६-४० और ४१ वें पर्व में श्रावक धर्मका वर्णन करते हुए ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति, उनके लिए व्रत-विधान, नाना क्रियाओं और उनके मन्त्रादिकोंका खूब विस्तृत वर्णन किया है। वही पर उन्होने पक्ष, चर्या और साधनरूपसे श्रावक-धर्मका निरूपण इस प्रकारसे किया है : स्यादारेका च षटकर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ||१४३|| इत्यत्र ब्रूमहे सत्यमल्पसावद्यसंगतिः। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥१४॥ अपि चैषां विशुद्धबंगं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥१५॥ तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपवृहितम् ।।१४६॥ चर्या तु देवतार्थ वा मंत्रसिद्धयर्थमेव वा । औषधाहारक्लुप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥१७॥ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैर्विधीयते । पश्चाच्चात्मान्वयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥१४॥ चयैषा गृहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारहितत्यागाद् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् ॥१४॥ त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनाहंद्-द्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृतिः ॥१५०॥ -आदिपुराण पर्व ३९ अर्थात् यहाँ यह आशंका की गई है कि जो षट्कर्मजीवी द्विजन्मा जैनी गृहस्थ हैं, उनके भी हिंसा दोष का प्रसंग होगा? इसका उत्तर दिया गया है कि हाँ, गृहस्थ अल्प सावद्य का भागी तो होता है, पर शास्त्र मे उसकी शुद्धि भी बत्तलाई गई है। उस शुद्धि के तीन प्रकार हैं:-पक्ष, चर्या और साधन । इनका अर्थ इस प्रकार है-समस्त हिंसा का त्याग करना ही जैनों का पक्ष है। उनका यह पक्ष मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यरूप चार भावनाओं से वृद्धिंगत रहता है। देवता की आराधना के लिए, या मंत्र की सिद्धि के लिए, औषधि या आहार के लिए मैं कभी किसी भी प्राणी को नहीं मारूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा को चर्या कहते हैं। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी कोई दोष लग जाय, तो प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि बताई गई है। पश्चात् अपने सब कुटुम्ब और गृहस्थाश्रम का भार पुत्रपर डालकर घर का त्याग कर देना चाहिए। यह गृहस्थों की चर्या कही गई है। अब साधनको कहते है-जीवनके अन्तमें अर्थात् मरणके समय शरीर, आहार और सर्व इच्छाओंका परित्याग करके ध्यानको शुद्धि द्वारा श्रात्माके शुद्ध करनेको साधन कहते हैं। अहंद्देवके अनुयायी द्विजन्मा जैनोको इन पक्ष, चर्या और साधनका साधन करते हुए हिसादि पापोंका स्पर्श भी नहीं होता है और इस प्रकार ऊपर जो आशंका की गई थी, उसका परिहार हो जाता है। उपर्युक विवेचनका निष्कर्ष यह है कि जिसे अहंदेवका पक्ष हो, जो जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य देवको, निर्ग्रन्थ गुरुके अतिरिक्त किसी अन्य गुरुको और जैनधर्मके सिवाय किसी अन्य धर्मको न माने, जैनत्वका ऐसा दृढ पक्ष रखनेवाले व्यक्तिको पाक्षिक श्रावक कहते हैं। इसका आत्मा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार माध्यस्थ्यभावनासे सुवासित होना ही चाहिये। जो देव, धर्म, मन्त्र, औषधि, अाहार आदि किसी भी कार्यके लिए जीवघात नहीं करता, न्यायपूर्वक श्राजीविका करता हुआ श्रावकके बारह व्रतौका और ग्यारह प्रतिमाश्रोका आचरण करता है, उसे चर्याका आचरण करनेवाला नैष्ठिक आवक कहते हैं। जो जीवनके अन्तमे देह, श्राहार श्रादि सर्व विषय-कषाय और प्रारम्भको छोड़कर परम समाधिका साधन करता है, उसे साधक श्रावक कहते है । श्रा० जिनसेनके पश्चात् प० आशाधरजीने, तथा अन्य विद्वानोने इन तीनोको ही आधार बनाकर सागार-धर्मका प्रतिपादन किया है। ६-वसुनन्दि-श्रावकाचारकी विशेषताएँ वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्ययन का अन्तः अवगाहन करने पर कई विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं और उनपर विचार करनेसे अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं : १-जब कि श्रा० वसुनन्दिके सामने समन्तभद्रका रत्नकरण्डक, जिनसेनका श्रादिपुराण, सोमदेवका उपासकाध्ययन और अमितगतिका श्रावकाचार श्रादि श्रावकधर्मका वर्णन करनेवाला विस्तृत साहित्य उपस्थित था, तो फिर इन्हें एक और स्वतन्त्र श्रावकाचार रचनेकी आवश्यकता क्यो प्रतीत हुई ? २-जब कि विक्रमकी पहिली दूसरी शताब्दीसे प्रायः जैन-साहित्य संस्कृत भाषामे रचा जाने लगा और ११ वी १२ वीं शताब्दीमे तो सस्कृत भाषामें जैन-साहित्यका निर्माण प्रचुरतासे हो रहा था, तब इन्होने प्रस्तुत उपासकाध्ययनको प्राकृत भाषामे क्यो रचा ? खासकर उस दशामे, जब कि वे अनेक ग्रन्थोके संस्कृतटीकाकार थे। तथा स्वय भी प्रतिष्ठा-पाठका निर्माण संस्कृत भाषामे ही किया है ! ३-जब कि श्रा० वसुनन्दिके सामने स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्डक विद्यमान था और जिसकी कि सरणिका प्रायः सभी परवर्ती श्रावकाचार-रचयिताश्रोने अनुसरण किया है, तब इन्होने उस सरणिको छोड़कर ११ प्रतिमाओंको अाधार बनाकर एक नई दिशासे क्यों वर्णन किया ? ४-जब कि वसुनन्दिके पूर्ववर्ती प्रायः सभी श्रावकाचार-रचयितानोने १२ व्रतोंके वर्णन करनेके पूर्व श्राठ मूलगुणोंका वर्णन किया है तब इन्होंने आठ मूलगुणोंका नामोल्लेख तक भी क्यों नहीं किया ? ५-जब कि उमास्वाति और समन्तभद्रसे लेकर वसुनन्दिके पूर्ववर्ती सभी आचार्योंने १२ व्रतोंके अतीचारोंका प्रतिपादन किया है तब इन्होंने उन्हें सर्वथा क्यों छोड़ दिया ? यहाँ तक कि 'श्रतीचार' शब्द भी समग्र ग्रन्थमें कहीं भी प्रयुक्त नहीं किया ? १-स्यान्मैच्याद्युपहितोऽखिलवधत्यागो न हिंस्यामहं, धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झतः । सूनौ न्यस्य निजान्वयं गृहमथो चर्या भवेत्साधनम्, त्वन्तेऽन्नेहतनूजमनाद्विशदया ध्यात्याऽऽत्मनः शोधनम् ॥१९॥ पाक्षिकादिभिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्टो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥२०॥ -सागारधर्मामृत अ० १ २-देशयमध्नकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकायकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः॥१॥ -सागारध० अ०३ ३-देहाहारहितत्यागाद् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् । यो जीवितान्ते सम्प्रीतः साधयत्येष साधकः ॥१॥ -सागारध०अ०८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ वसुनन्दि-श्रावकाचारको विशेषताएँ ये कुछ मुख्य प्रश्न है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताएँ भी पाई जाती है जो कि इस प्रकार हैं : १-पूर्व-परम्परा को छोड़कर नई दिशासे ब्रह्मचर्याणुव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्ड-विरति के स्वरूप का वर्णन करना। २-भोगोपभोग-परिमाण नामक एक ही शिक्षाव्रत का भोगविरति और उपभोगविरति नाम से दो शिक्षाबतो का प्रतिपादन करना। ३–सल्लेखना को शिक्षाव्रतों मै कहना । ४-छठी प्रतिमाका नाम 'रात्रिभुक्तित्याग रखने पर भी स्वरूप-निरूपण 'दिवा मैथुनत्याग' रूप मे करना। ५--ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेदो का निरूपण करना। तथा प्रथम भेदवाले उत्कृष्ट श्रावक को पात्र लेकर व अनेक घरो से भिक्षा माग एक जगह बैठकर आहार लेने का विधान करना । अब यहाँ प्रथम मुख्य प्रश्नो पर क्रमशः विचार किया जाता है: १-प्रत्येक ग्रन्थकार अपने समय के लिए आवश्यक एवं उपयोगी साहित्य का निर्माण करता है। श्रा० वसुनन्दि के सामने यद्यपि अनेक श्रावकाचार विद्यमान थे, तथापि उनके द्वारा वह बुराई दूर नही होती थी, जो कि तात्कालिक समाज एवं राष्ट्रमे प्रवेश कर गई थी। दूसरे जिन शुभ प्रवृत्तियो की उस समय अत्यन्त आवश्यकता थी, उनका भी प्रचार या उपदेश उन श्रावकाचारोसे नहीं होता था। इन्हीं दोनो प्रधान कारणों से उन्हे स्वतत्र ग्रन्थ के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई। सदाचारके स्वरूपमे कहा गया है कि 'असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्त' । द्रव्य सं० गा०४५ अर्थात् अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों मे प्रवृत्ति को सम्यक् चारित्र कहते है। श्रावको के मूलगुणों और उत्तरगुणों मे भी यही उद्देश्य अन्तर्निहित है। मूलगुण असदाचार की निवृत्ति कराते हैं और उत्तरगुण सदाचार में प्रवृत्ति कराते हैं। वसुनन्दि के समय में सारे देश मे सप्त व्यसनों के सेवन का अत्यधिक प्रचार प्रतीत होता है। और प्रतीत होता है सर्वसाधारण के व्यसनो में निरत रहने के कारण दान, पूजन श्रादि श्रावक क्रियाओंका अभाव भी। साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि उस समय जिनबिम्ब, जिनालय आदि भी नगण्य-जैसे ही थे। श्रावकोंकी संख्याके अनुपातसे वे नहीं के बराबर थे। यही कारण है कि वसुनन्दि को तात्कालिक परिस्थितियों से प्रेरित होकर अपने समय के कदाचार को दूर करने और सदाचार के प्रसार करने का उपदेश देने की आवश्यकता का अनुभव हुश्रा और उन्होने इसके लिए एक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की । यह बात उनके सप्त व्यसन और प्रतिमा-निर्माण आदि के विस्तृत वर्णन से भली भाँति सिद्ध है। २-यह ठीक है कि उमास्वाति के समय से जैन साहित्य का निर्माण संस्कृत भाषा मे प्रारभ हो गया था और ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी मै तो वह प्रचुरता से हो रहा था, फिर भी सस्कृत भाषा लोकभाषासर्वसाधारण के बोलचाल की भाषा-नहीं बन सकी थी। उस समय सर्वसाधारण में जो भाषा बोली जाती थी वह प्राकृत या अपभ्रंश ही थी। जो कि पीछे जाकर हिन्दी, गुजराती, महाराष्ट्री श्रादि प्रान्तीय भाषाश्रो के रूप में परिवर्तित हो गई। भगवान् महावीर ने अपना दिव्य उपदेश भी लोकभाषा अर्धमागधी प्राकृत मे दिया था। उनके निर्वाण के पश्चात् सैकड़ों वर्षों तक जैन ग्रन्थों का निर्माण भी उसी लोकभाषा में ही होता रहा । प्राकृत या लोक-भाषा मे ग्रन्थ-निर्माण का उद्देश्य सर्वसाधारण तक धर्म का उपदेश पहुँचाना था। जैसा कि कहा गया है: १-प्रस्तुत ग्रन्थमें व्यसनोंका वर्णन १४८ गाथाओंमें किया गया है, जब कि समग्र ग्रन्थमें कुल गाथाएँ ५४६ ही हैं। इसी प्रकार जिनप्रतिमा-प्रतिष्ठा और पूजनका वर्णन भी ११४ गाथाओंमें किया गया है। दोनों वर्णन ग्रन्थका लगभग आधा भाग रोकते हैं।-संपादक. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार बाल-स्त्री-मन्द-मूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृते कृतः ॥ अर्थात् बालक, स्त्री, मूर्ख, मन्दज्ञानी, पर चारित्र धारण करनेकी आकांक्षा रखनेवाले सर्वसाधारण जनोके अनुग्रहके लिए तत्त्वज्ञानी महर्षियोंने सिद्धान्त-ग्रन्थोंका निर्माण प्राकृत भाषामें किया है। प्रा. वसुनन्दिको भी अपना उपदेश सर्वसाधारण तक पहुँचाना अभीष्ट था; क्योंकि साधारण जनता ही सप्त व्यसनोके गर्तमें पड़ी हुई विनाश की ओर अग्रसर हो रही थी और अपना कर्त्तव्य एवं गन्तव्य मार्ग भूली हुई थी। उसे सुमार्ग पर लानेके लिए लोकभाषामे उपदेश देनेकी अत्यन्त आवश्यकता थी। यही कारण है कि अपने सामने संस्कृतका विशाल-साहित्य देखते हुए भी उन्होंने लोककल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर अपनी प्रस्तुत रचना प्राकृत भाषामें की । ३-प्राचार्य वसुनन्दिने समन्तभद्र -प्रतिपादित सरणिका अनुसरण न करते हुए और प्रतिमाओंको आधार बनाकर एक नवीन दिशासे क्यों वर्णन किया, यह एक जटिल प्रश्न है। प्रस्तावनाके प्रारंभमें श्रावक धर्मके जिन तीन प्रतिपादन-प्रकारोका जिक्र किया गया है, संभवतः वसुनन्दिको उनमेंसे प्रथम प्रकार ही प्राचीन प्रतीत हुआ और उन्होंने उसीका अनुसरण किया हो । अतः उनके द्वारा श्रावकधर्मका प्रतिपादन नवीन दिशासे नहीं, अपितु प्राचीन पद्धतिसे किया गया जानना चाहिए । श्रा० वसुनन्दिने स्वयं अपनेको कुन्दकुन्दाचार्य की परम्पराका अनुयायी बतलाया है । अतएव इसमे कोई आश्चर्यकी बात नहीं जो इसी कारणसे उन्होंने कुन्दकुन्दप्रतिपादित ग्यारह प्रतिमारूप सरणिका अनुसरण किया हो। इसके अतिरिक्त वसुनन्दिने श्रा० कुन्दकुन्दके समान ही सल्लेखनाको चतुर्थं शिक्षाबत माना है जो कि उक्त कथनकी पुष्टि करता है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमें जिस उपासकाध्ययनका बार-बार उल्लेख किया है, संभव है उसमें श्रावक धर्मका प्रतिपादन ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर ही किया गया हो और वसुनन्दिने अपने ग्रन्थके नाम-संस्कारके अनुसार उसकी प्रतिपादन-पद्धतिका भी अनुसरण किया हो । जो कुछ हो, पर इतना निश्चित है कि दिगम्बर-परम्पराके उपलब्ध ग्रन्थोंसे ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावकधर्मके प्रतिपादनका प्रकार ही सर्वप्राचीन रहा है। यही कारण है कि समन्तभद्रादिके श्रावकाचारोंके सामने होते हुए भी, और संभवतः उनके श्राप्तमीमांसादि ग्रन्थोके टीकाकार होते हुए भी वसुनंदिने इस विषयमें उनकी तार्किक सरणिका अनुसरण न करके प्राचीन आगमिक-पद्धतिका ही अनुकरण किया है। ४-श्रा० वसुनन्दि ने श्रावक के मूलगुणों का वर्णन क्यों नहीं किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है । वसुनन्दि ने ही क्या, श्रा० कुन्दकुन्द और स्वामी कार्तिकेय ने भी मूलगुणो का कोई विधान नहीं किया है। श्वेतांबरीय उपासकदशासूत्र और तत्त्वार्थसूत्र में भी अष्टमूलगुणों का कोई निर्देश नहीं है । जहाँ तक मैंने श्वेतांबर ग्रंथों का अध्ययन किया है, वहाँ तक मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन और अर्वाचीन किसी भी श्वे० आगम सूत्र या ग्रंथ में अष्ट मूलगुणों का कोई वर्णन नहीं है। दि० ग्रंथों में सबसे पहिले स्वामी समंतभद्र ने ही अपने रत्नकरण्डक में आठ मूल गुणों का निर्देश किया है। पर रत्नकरण्डक के उक्त प्रकरण को गवेषणात्मक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वयं समन्तभद्र को भी आठ मूलगुणों का वर्णन मुख्य रूप से अभीष्ट नहीं था। यदि उन्हें मूलगुणों का वर्णन मुख्यतः अभीष्ट होता तो वे चारित्र के सकल और विकल भेद करने के साथ ही मूलगुण और उत्तरगुण रूप से विकलचारित्र के भी दो भेद करते। पर' उन्होंने ऐसा न करके यह कहा है कि विकल चारित्र अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षा व्रत-रूप से तीन प्रकार का हैं और उसके क्रमशः पाँच, तीन और चार भेद हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने पाँचों अणुव्रतों का स्वरूप, उनके अतीचार तथा उनमें और पापों में प्रसिद्ध होनेवालों के नामों का उल्लेख करके केवल एक श्लोक में आठ मूलगुणों का निर्देश कर दिया है। इस अष्ट मूलगुण का निर्देश करने वाले श्लोक को भी गंभीर दृष्टि १-देखो रखक० श्लो०५१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार की विशेषताएँ से देखने पर उसमे दिए गए "बाहु" और "श्रमणोत्तमाः" पद पर दृष्टि अटकती है। दोनों पद स्पष्ट बतला रहे है कि समन्तभद्र अन्य प्रसिद्ध प्राचार्यों के मन्तव्य का निर्देश कर रहे हैं। यदि उन्हें आठ मूल गुणों के प्रतिपादन अभीष्ट होता तो वे मद्य, मांस और मधु के सेवन के त्याग का उपदेश बहुत आगे जाकर, भोगोपभापरिमाण-व्रत मे न करके यहीं, या इसके भी पूर्व अणुव्रतो का वर्णन प्रारंभ करते हुए देते। भोगोपभोगपरिमाणव्रतके वर्णनमें दिया गया वह श्लोक इस प्रकार है सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्र पिशितं प्रमादपरिहृतये । मयं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥८॥-रत्नक० । अर्थात् जिन भगवान्के चरणोंकी शरणको प्राप्त होनेवाले जीव त्रसजीवोंके घातका परिहार करने लिए मांस और मधुको तथा प्रमादका परिहार करनेके लिए मद्यका परित्याग करें। इतने सुन्दर शब्दोंमे जैनत्वकी ओर अग्रेसर होनेवाले मनुष्यके कर्तव्यका इससे उत्तम और क्या वर्णन हो सकता था। इस श्लोकके प्रत्येक पदकी स्थितिको देखते हुए यह निस्सकोच कहा जा सकता है कि इसके बहुत पहिले जो अष्ट मूलगुणोका उल्लेख किया गया है वह केवल प्राचार्यान्तरोंका अभिप्राय प्रकट करनेके लिए ही है । अन्यथा इतने उत्तम, परिष्कृत एवं सुन्दर श्लोकको भी वहीं, उसी श्लोकके नीचे ही देना चाहिये था। रत्नकरण्डकके अध्याय-विभाग-क्रमको गम्भीर दृष्टि से देखनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारको पॉच अणुव्रत ही श्रावकके मूलगुण रूपसे अभीष्ट रहे हैं । पर इस विषयमैं उन्हें अन्य प्राचार्योंका अभिप्राय बताना भी उचित ऊँचा और इसलिए उन्होंने पाँच अणुव्रत धारण करने का फल श्रादि बताकर तीसरे परिच्छेद को पूरा करते हुए मूलगुणके विषयमें एक श्लोक द्वारा मतान्तरका भी उल्लेख कर दिया है। जो कुछ भी हो, चाहे अष्टमूलगुणोंका वर्णन स्वामी समन्तभद्रको अभीष्ट हो या न हो; पर उनके समयमें दो परम्पराओंका पता अवश्य चलता है। एक वह--जो मूलगुणोंकी संख्या आठ प्रतिपादन करती - थी। और दूसरी वह-जो मूलगुणोंको नहीं मानती थी, या उनकी पाँच सख्या प्रतिपादन करती थी। प्रा. कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति और तात्कालिक श्वेताम्बराचार्य पाँच संख्याके, या न प्रतिपादन करनेवाली परम्पराके प्रधान थे; तथा स्वामी समन्तभद्र, जिनसेन श्रादि मूलगुण प्रतिपादन करनेवालोंमें प्रधान थे । ये दोनों परम्पराएँ विक्रमकी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक बराबर चली आई। जिनमे समन्तभद्र, जिनसेन, सोमदेव श्रादि अाठमूल गुण माननेवाली परम्पराके और श्रा० कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति तथा तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार-पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द वा वसुनन्दि आदि न माननेवाली परम्पराके प्राचार्य प्रतीत होते हैं । तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकारोका उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि उन सभीने भोगोपभोगपरिमाण व्रतकी व्याख्या करते हुए ही मद्य, मांस, मधुके त्यागका उपदेश दिया है। इसके पूर्व अर्थात् अणुव्रतोंकी व्याख्या करते हुए किसी भी टीकाकारने मद्य, मांस, मधु सेवनके निषेधका या अष्टमूलगुणोका कोई संकेत नहीं किया है । उपलब्ध श्वे० उपासकदशासूत्रमें भी अष्टमूलगुणोंका कोई जिक्र नहीं है। सम्भव है, इसी प्रकार वसुनन्दिके सम्मुख जो उपासकाध्ययन रहा हो, उसमें भी अष्टमूलगुणोंका विधान न हो और इसी कारण वसुनन्दि ने उनका नामोल्लेख तक भी करना उचित न समझा हो। वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्ययनकी वर्णन-शैलीको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जब सप्तव्यसनोंमें मांस और मद्य ये दो स्वतंत्र व्यसन माने गये हैं और मद्य व्यसनके अन्तर्गत मधुके परित्यागका भी स्पष्ट निर्देश किया है, तथा दर्शनप्रतिमाधारीके लिए सप्त व्यसनोंके साथ पंच उदुम्बरके त्यागका भी स्पष्ट कथन किया है । तब द्वितीय प्रतिमामें या उसके पूर्व प्रथम प्रतिमामें ही अष्ट मूलगुणोंके पृथक् प्रतिपादन का कोई स्वारस्य नहीं रह जाता है। उनकी इस वर्णन-शैलीसे मूलगुण मानने न माननेवाली दोनों परम्पराओं १ देखो-प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथा नं० ५७-५८ । ५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार का संग्रह हो जाता है। माननेवाली परम्पराका संग्रह तो इसलिए हो जाता है कि मूल गुणोके अन्तस्तत्त्वका निरूपण कर दिया है और मूलगुणोंके न माननेवाली परम्पराका संग्रह इसलिए हो जाता है कि मूल गुण या अष्टमूलगुण ऐसा नामोल्लेख तक भी नहीं किया है। उनके इस प्रकरणको देखनेसे यह भी विदित होता है कि उनका मुकाव सोमदेव और देवसेन-सम्मत अष्टमूल गुणो की ओर रहा है, पर प्रथम प्रतिमाधारी को रात्रि-भोजन का त्याग आवश्यक बताकर उन्होने अमितगति के मत का भी संग्रह कर लिया है। (५) अन्तिम मुख्य प्रश्न अतीचारों के न वर्णन करने के सम्बन्ध में है। यह सचमुच एक बडे अाश्चर्यका विषय है कि जब उमास्वातिसे लेकर अमितगति तकके वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती सभी प्राचार्य एक स्वर से व्रतोंके अतीचारोंका वर्णन करते आ रहे हों, तब वसुनन्दि इस विषयमें सर्वथा मौन धारण किये रहें और यहाँ तक कि समग्र ग्रंथ भरमे अतीचार शब्दका उल्लेख तक न करें ! इस विषयमें विशेष अनुसन्धान करने पर पता चलता है कि वसुनन्दि ही नहीं, अपितु वसुनन्दिपर जिनका अधिक प्रभाव है ऐसे अन्य अनेक आचार्य भी अतीचारोंके विषयमे मौन रहे है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने चारित्र-पाहुडमें जो श्रावकके व्रतोका वर्णन किया है, उसमें अतीचारका उल्लेख नहीं है । स्वामिकार्तिकेयने भी अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं किया है। इसके पश्चात् प्राचार्य देवसेनने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ भावसंग्रहमें जो पाँचवें गुणस्थानका वर्णन किया है, वह पर्याप्त विस्तृत है, पूरी २४९ गाथाओंमें श्रावक धर्मका वर्णन है, परन्तु वहाँ कहीं भी अतीचारोंका कोई जिक्र नहीं है। इस सबके प्रकाशमें यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस विषयमें प्राचार्योंकी दो पराम्पराएँ रही हैं-एक अतोचारोका वर्णन करनेवालों की, और दूसरी अतीचारोंका वर्णन न करने करनेवालों की । उनमेंसे प्राचार्य वसुनन्दि दूसरी परम्पराके अनुयायी प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपनी गुरुपरंपराके समान स्वयं भी अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं किया है। अब ऊपर सुझाई गई कुछ अन्य विशेषताअोंके ऊपर विचार किया जाता है : १-(अ) वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती श्रावकाचार-रचयिताओं में समन्तभद्रने ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप स्वदार-सन्तोष या परदारा-गमनके परित्याग रूपसे किया है। सोमदेवने उसे और भी स्पष्ट करते हुए 'स्ववधू और वित्तस्त्री' (वेश्या ) को छोड़कर शेष परमहिला-परिहार रूपसे वर्णन किया है। परवर्ती पं० आशाधरजी श्रादिने 'अन्यत्री और प्रकटस्त्री' (वेश्या) के परित्याग रूपसे प्रतिपादन किया है। पर वसुनन्दिने उक्त प्रकारसे न कहकर एक नवीन ही प्रकारसे ब्रह्मचर्याणु व्रतका स्वरूप कहा है। वे कहते हैं कि 'जो अष्टमी श्रादि पर्वोके दिन स्त्री-सेवन नहीं करता है और सदा अनंग-क्रीड़ाका परित्यागी है, वह स्थूल ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्याणु व्रतका धारी है। (देखो प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा नं० २१२) इस स्थितिमें स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि श्रा० वसुनन्दिने समन्तभद्रादि-प्रतिपादित शैलीसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप न कहकर उक्त प्रकारसे क्यों कहा ? पर जब हम उक्त श्रावकाचारोंका पूर्वापर-अनुसन्धानके साथ गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि समन्तभद्रादि ने श्रावकको अणुव्रतधारी होनेके पूर्व सप्तव्यसनोंका त्याग नहीं कराया है अतः उन्होंने उक्त प्रकारसे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहा है। पर वसुनन्दि तो प्रथम प्रतिमाघारीको ही सप्त व्यसनोंके अन्तर्गत जब परदारा और वेश्यागमन रूप दोनों व्यसनों का त्याग करा आये १ देखो प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथा नं० ३१४ । २ न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥-रत्रक० श्लो० ५६. . ३ वधू-वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने। माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ॥-यशस्ति० प्रा० ७. ४ सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्रो-प्रकटस्त्रियौ। न गच्छुत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति विधा॥-सागार १०४ श्लो० ५२. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार की विशेषताएँ ३१ . हैं, तब द्वितीय प्रतिमामें उनका दुहराना निरर्थक हो जाता है। यतः द्वितीय प्रतिमाधारी पहले से ही परस्त्रीत्यागी और स्वदार-सन्तोषी है, अतः उसका यही ब्रह्मचर्य-अणुव्रत है कि वह अपनी स्त्रीका भी पर्वके दिनों में उपभोग न करे और अनंगक्रीडाका सदाके लिए परित्याग करे। इस प्रकार वसुनन्दिने पूर्व सरणिका परित्याग कर जो ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहनेके लिए शैली स्वीकार की है, वह उनकी सैद्धान्तिकताके सर्वथा अनुकूल है। पं० श्राशाधरजी आदि जिन परवर्ती श्रावकाचार-रचयिताोंने समन्तभद्र, सोमदेव और वसु. नन्दिके प्रतिपादनका रहस्य न समझकर ब्रह्मचर्याणुव्रतका जिस ढंगसे प्रतिपादन किया है और जिस ढंगसे उनके अतीचारोंकी व्याख्या की है, उससे वे स्वयं स्ववचन-विरोधी बन गये हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है: उत्तर प्रतिमानोंमे पूर्व प्रतिमाअोका अविकल रूपसे पूर्ण शुद्ध आचरण अत्यन्त आवश्यक है, इसीलिए समन्तभद्रको 'स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा और सोमदेवको 'पूर्वपूर्वव्रतस्थिताः कहना पड़ा है। पर पं० श्राशाधरजी उक्त बातसे भली भाँति परिचित होते हुए और प्रकारान्तरसे दूसरे शब्दोंमें स्वयं उसका निरूपण करते हुए भी दो-एक स्थलपर कुछ ऐसा वस्तु-निरूपण कर गये हैं, जो पूर्वापर-क्रमविरुद्ध प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ-सागारधर्मामृतके तीसरे अध्यायमें श्रावककी प्रथम प्रतिमाका वर्णन करते हुए वे उसे जुश्रा आदि सप्त व्यसनोका परित्याग अावश्यक बतलाते हैं। और व्यसन-त्यागीके लिए उनके अतीचारोंके परित्यागका भी उपदेश देते हैं, जिसमे वे एक ओर तो वेश्याव्यसनत्यागीको गीत, नृत्य, वादि त्रादिके देखने, सुनने और वेश्याके यहाँ जाने-बाने या संभाषण करने तकका प्रतिबन्ध लगाते हैं, तब दूसरी ओर वे ही इससे आगे चलकर चौथे अध्यायमे दूसरी प्रतिमाका वर्णन करते समय ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचारोंकी व्याख्यामे भाड़ा देकर नियत कालके लिए वेश्याको भी स्वकलत्र बनाकर उसे सेवन करने तकको अतीचार बताकर प्रकारान्तरसे उसके सेवनकी छूट दे देते हैं। क्या यह पूर्व गुणके विकाशके स्थानपर उसका ह्रास नहीं है ? और इस प्रकार क्या वे स्वयं स्ववचन-विरोधी नहीं बन गये हैं ? वस्तुतः संगीत, नृत्यादिके देखने का त्याग भोगोपभोगपरिमाण व्रतमें कराया गया है। प०अाशाधरजी द्वारा इसी प्रकारकी एक और विचारणीय बात चोरी व्यसनके अतीचार कहते हुए कही गई है। प्रथम प्रतिमाधारीको तो वे अचौर्य-व्यसनकी शुचिता (पवित्रता या निर्मलता) के लिए अपने सगे भाई आदि दायादारोंके भी भूमि, ग्राम, स्वर्ण आदि दायभागको राजवर्चस् (राजाके तेज या श्रादेश) से, या अाजकी भाषामें कानूनकी बाड़ लेकर लेनेकी मनाई करते हैं। परन्तु दूसरी प्रतिमाधारीको १ देखो-रत्नकरण्डक, श्लोक १३६. २. अवधिव्रतमारोहेत्पूर्वपूर्ववतस्थिताः। सर्वत्रापि समाः प्रोक्ताः ज्ञान-दर्शनभावनाः ॥-यशस्तिक आ० 6. ३ देखो-सागारधर्मामृत अ० ३, श्लो० १७. ४ त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्तिं वृथाव्यां विङ्गसङ्गतिम् । नित्यं पण्याङ्गनात्यागी तद्गहगमनादि च ॥ टीका-तौर्यत्रिकासक्तिं -गीतनृत्यवादित्रेषु सेवानिबन्धनम् । वृथाव्या-प्रयोजनं बिना विचरणम् । तद्न हगमनादि-वेश्यागृहगमन-संभाषण-सत्कारादि ।-सागारध० अ०३, श्लो० २०. ५ भाटिप्रदानानियतकालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां वेत्वरिकां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारत्वेन व्रतसापेक्षचित्तत्त्वादल्पकालपरिग्रहाच्च न भंगो वस्तुतोऽस्वदारत्वाच्च भंग इति xxx भंगाभंगरूपोऽतिचारः।-सागारध० अ०४ श्लो० ५८ टीका । ६ देखो-रत्नकरण्डक, श्लो० ८८. ७ दायादाज्जीवतो राजवर्चसाद् गृहतो धनम् । दायं वाऽपहृवानस्य वाचौर्यव्यसनं शुचि ॥-सागार ध० अ० ३, २१. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनान्द-श्रावकाचार अचौर्याणुव्रतके अतीचारोंकी व्याख्यामे चोरोंको चोरीके लिए भेजने, चोरीके उपकरण देने और चोरीका माल लेनेपर भी व्रतकी सापेक्षता बताकर उन्हें श्रुतीचार ही बतला रहे हैं। ये और इसी प्रकारके जो अन्य कुछ कथन प०अाशाधरजी द्वारा किये गये है, वे अाज भी विद्वानो के लिए रहस्य बने हुए हैं और इन्ही कारणोसे कितने ही लोग उनके ग्रथो के पठन-पाठनका विरोध करते रहे हैं। पं० श्राशाधर जैसे महान् विद्वान्के द्वारा ये व्युत्क्रम-कथन कैसे हुए, इस प्रश्नपर जब गंभीरतासे विचार करते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने श्रावक-धर्मके निरूपणकी परम्परागत विभिन्न दो धारायोके मूलमे निहित तत्त्वको दृष्टिमे न स्खकर उनके समन्वयका प्रयास किया, और इसी कारण उनसे उक्त कुछ व्युत्क्रम-कथन हो गये। वस्तुतः ग्यारह प्रतिमानोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परासे बारह व्रतोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परा बिलकुल भिन्न रही है। अतीचारोंका वर्णन प्रतिमाअोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परामे नहीं रहा है । यह अतीचार-सम्बन्धी समस्त विचार बारह व्रतोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका वर्णन करनेवाले उमास्वाति, समन्तभद्र श्रादि आचार्योंकी परम्परामे ही रहा है। (ब) देशावकाशिक या देशव्रतको गुणवत माना जाय, या शिक्षाबत, इस विषयमे श्राचार्यों के दो मत हैं, कुछ प्राचार्य इसे गुणवतम परिगणित करते हैं और कुछ शिक्षाव्रत मे। पर सभीने उसका स्वरूप एक ही दंगसे कहा है और वह यह कि जीवन-पर्यन्तके लिए किये हुए दिखतमे कालकी मर्यादा द्वारा अनावश्यक क्षेत्रमें जाने-अानेका परिमाण करना देशव्रत है। जहाँतक मेरी दृष्टि गई है, किसी भी प्राचार्यने देशव्रतका स्वरूप अन्य प्रकारसे नहीं कहा है । पर श्रा० वसुनन्दिने एकदम नवीन ही दिशासे उसका स्वरूप कहा है। वे कहते हैं: 'दिव्रतके भीतर भी जिस देशमे व्रत-भगका कारण उपस्थित हो, वहॉपर नहीं जाना सो दूसरा गुणव्रत है। (देखो गा० २१५) जब हम देशव्रतके उक्त स्वरूपपर दृष्टिपात करते हैं और उसमे दिये गये 'व्रत-भग-कारण' पदपर गंभीरतासे विचार करते हैं, तब हमें उनके द्वारा कहे गये स्वरूपकी महत्ताका पता लगता है । कल्पना कीजिए-किसीने वर्तमानमे उपलब्ध दुनिया में जाने-बाने और उसके बाहर न जानेका दिग्व्रत किया। पर उसमें अनेक देश ऐसे है जहाँ खानेके लिए मांसके अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता, तो दिग्वतकी मर्यादाके भीतर होते हुए भी उनमें अपने अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए न जाना देशव्रत है। एक दूसरी कल्पना कीजिए-किसी व्रतीने भारतवर्षका दिग्ब्रत किया। भारतवर्ष प्रार्यक्षेत्र भी है। पर उसके किसी देश-विशेष में ऐसा दुर्भिक्ष पड़ जाय कि लोग अन्नके दाने-दानेको तरस जाय, तो ऐसे देशमै जानेका अर्थ अपने आपको और अपने व्रतको संकटमे डालना है। इसी प्रकार दिग्व्रत-मर्यादित क्षेत्रके भीतर जिस देशमें भयानक युद्ध हो रहा हो, जहाँ मिथ्यात्वियों या विधर्मियोंका बाहुल्य हो, व्रती संयमीका दर्शन दुर्लभ हो, जहाँ पीने लिए पानी भी शुद्ध न मिल सके, इन और इन जैसे व्रत-भंगके अन्य कारण जिस देशमें विद्यमान हो उनमे नहीं जाना, या जानेका त्याग करना देशव्रत है। इसका गुणवतपना यही है कि उक्त देशोंमें न जानेसे उसके व्रतोंकी सुरक्षा बनी रहती है। इस प्रकारके सुन्दर और गुणवतके अनुकूल देशव्रतका स्वरूप प्रतिपादन करना सचमुच श्रा० वसुनन्दिकी सैद्धान्तिक पदवीके सर्वथा अनुरूप है। १ सत्र चौरप्रयोगः-चोरयतः स्वयमन्येन वा चोरय त्वमिति चोरणक्रियायां प्रेरणं, प्रेरितस्य वा - साधु करोषोत्यनुमननं, कुशिका-कतरिकाघर्धरिकादिचोरोपकरणानां वा समर्पणं विक्रयणं वा। अत्र च यद्यपि चौर्य न करोमि, न कारयामोत्येवं प्रतिपन्नव्रतस्य चौरप्रयोगो व्रतभंग एव । तथापि किमधुना यूय नियापारास्तिष्ठथ ! यदि वो भक्कादिकं नास्ति तदाहं तद्ददामि । भवदानीतमोषस्य वा यदि क्रेता नास्ति तदाह विक्रष्ये इत्येवंविध वचनैश्चौरान व्यापारयतः स्वकल्पनया तव्यापारणं परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतीचारः ॥ -सागारध० ० ४ श्लो० ५० टीका० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ वसुनन्दि-श्रावकाचार की विशेषताएँ (स) देशव्रतके समान ही अनर्थदण्ड व्रतका स्वरूप भी श्रा० वसुनन्दिने अनुपम और विशिष्ट कहा है । वे कहते हैं कि "खड्ग, दड, पाश, अस्त्र आदिका न बेंचना, कूटतुला न रखना, हीनाधिक मानोन्मान न करना, क्रूर एवं मास-भक्षी जानवरोंका न पालना तीसरा गुणवत है।" ( देखो गाथा नं० २१६) अनर्थदण्डके पाँच भेदोके सामने उक्त लक्षण बहुत छोटा या नगण्य-सा दिखता है। पर जब हम उसके प्रत्येक पदपर गहराईसे विचार करते हैं, तब हमें यह उत्तरोत्तर बहुत विस्तृत और अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। उक्त लक्षणसे एक नवीन बातपर भी प्रकाश पड़ता है, वह यह कि प्रा. वसुनन्दि कूटतुला और होनाधिक-मानोन्मान आदिको अतीचार न मानकर अनाचार ही मानते थे। ब्रह्मचर्याणुव्रतके स्वरूपमे अनंग-क्रीडा-परिहारका प्रतिपादन भी उक्त बातकी ही पुष्टि करता है। (२) श्रा० वसुनन्दिने भोगोपभोग-परिमाणनामक एक शिक्षाव्रतके विभाग कर भोग-विरति और उपभोग-विरति नामक दो शिक्षाव्रत गिनाए हैं। जहाँ तक मेरा अध्ययन है, मैं समझता हूँ कि समस्त दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यमे कहींपर भी उक्त नामके दो स्वतंत्र शिक्षाबत देखनेमें नही आये । केवल एक अपवाद है। और वह है 'श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र का। वसुनन्दिने ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप वर्णन करनेवाली जो गाथाएँ प्रस्तुत ग्रन्थमे निबद्ध की हैं वे उक्त श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रमै ज्योकी त्यों पाई जाती है। जिससे पता चलता है कि उक्त गाथाओं के समान भोग-विरति और उपभोग-विरति नामक दो शिक्षाव्रतोंके प्रतिपादनमें भी उन्होने 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र' का अनुसरण किया है। अपने कथनके प्रामाणिकताप्रतिपादनार्थ उन्होंने "तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते" (गाथा २१७) वाक्य कहा है। यहाँ सूत्र पदसे वसुनन्दिका किस सूत्रकी ओर संकेत रहा है, यद्यपि यह अद्यावधि विचारणीय है तथापि उनके उक्त निर्देशसे उक्त दोनों शिक्षाव्रतोंका पृथक् प्रतिपादन असंदिग्ध रूपसे प्रमाणित है। (३) श्रा. वसुनन्दि द्वारा सल्लेखनाको शिक्षाबत प्रतिपादन करनेके विषयमें भी यही बात है। प्रथम प्राधार तो उनके पास श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रका था ही। फिर उन्हें इस विषयमे श्रा० कुन्दकुन्द और देवसेन जैसोंका समर्थन भी प्राप्त था। अतः उन्होंने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें गिनाया। उमास्वाति, समन्तभद्र आदि अनेकों प्राचार्योंके द्वारा सल्लेखनाको मारणान्तिक कर्तव्यके रूपमे प्रतिपादन करनेपर भी वसुनन्दिके द्वारा उसे शिक्षाव्रतमें गिनाया जाना उनके तार्किक होनेकी बजाय सैद्धान्तिक होनेकी ही पुष्टि करता है। यही कारण है कि परवर्ती विद्वानोंने अपने ग्रन्थों में उन्हें उक्त पदसे संबोधित किया है। (४) श्रा० कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय और समन्तभद्र आदिने छठी प्रतिमाका नाम 'रात्रिभुक्तित्याग' रखा है। और तदनुसार ही उस प्रतिमामे चतुर्विध रात्रिभोजनका परित्याग श्रावश्यक बताया है। श्रा० वसुनन्दिने भी ग्रन्थके प्रारम्भमे गाथा नं०४ के द्वारा इस प्रतिमाका नाम तो वही दिया है पर उसका स्वरूप-वर्णन दिवामैथुनत्याग रूपसे किया है। तब क्या यह पूर्वापर विरोध या पूर्व-परम्पराका उल्लंघन है ? इस आशंकाका समाधान हमे वसुनन्दिकी वस्तु-प्रतिपादन-शैलीसे मिल जाता है। वे कहते हैं कि रात्रिभोजन करनेवाले मनुष्यके तो पहिली प्रतिमा भी संभव नहीं है, क्योंकि रात्रिमें खानेसे अपरिमाण त्रस जीवोंकी हिंसा होती है। अतः अहन्मतानुयायीको सर्वप्रथम मन, वचन कायसे रात्रि-भुक्तिका परिहार करना चाहिये। (देखो गा० नं० ३१४-३१८) ऐसी दशाम पाँचवीं प्रतिमा तक श्रावक रात्रिमें भोजन कैसे कर सकता है ? अतएव उन्होने दिवामैथुन त्याग रूपसे छठी प्रतिमाका वर्णन किया। इस प्रकारसे वर्णन करनेपर भी वे पूर्वापर विरोध रूप दोषके भागी नहीं हैं, क्योंकि 'भुज' धातुके भोजन और सेवन ऐसे दो अर्थ संस्कृत-प्राकृत साहित्य में प्रसिद्ध हैं। समन्तभद्र श्रादि प्राचार्योंने 'भोजन' अर्थका आश्रय लेकर छठी प्रतिमाका स्वरूप कहा है और नसुनन्दिने 'सेवन' अर्थको लेकर । श्रा. वसुनन्दि तक छठी प्रतिमाका वर्णन दोनों प्रकारों से मिलता है। वसुनन्दिके पश्चात् पं० आशाधरजी आदि परवर्ती दि० और श्वे० विद्वानोंने उक्त दोनों परम्पराओंसे आनेवाले और भुज् धातुके द्वारा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार प्रकट होनेवाले दोनों अर्थोके समन्वयका प्रयत्न किया है और तदनुसार छठी प्रतिमाम दिनको स्त्री-सेवनका त्याग तथा रात्रिमे सर्व प्रकारके आहारका त्याग आवश्यक बताया है। (५) श्रा० वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्ययनकी एक बहुत बड़ी विशेषता ग्यारहवीं प्रतिमाधारी प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिए भिक्षा-पात्र लेकर, अनेक घरोंसे भिक्षा माँगकर और एक ठौर बैठ कर खानेके विधान करने की है। दि० परम्परामे इस प्रकारका वर्णन करते हुए हम सर्वप्रथम श्रा० वसुनन्दिको ही पाते हैं। सैद्धान्तिक-पद-विभूषित श्रा० वसुनन्दिने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकका जो इतना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन किया है वह इस बातको सूचित करता है कि उनके सामने इस विषयके प्रबल अाधार अवश्य रहे होंगे। अन्यथा उन जैसा सैद्धान्तिक विद्वान् पात्र रखकर और पॉच-सात घरसे भिक्षा माँगकर खानेका स्पष्ट विधान नहीं कर सकता था। अब हमे देखना यह है कि वे कौनसे प्रबल प्रमाण उनके सामने विद्यमान थे, जिनके अाधारपर उन्होने उक्त प्रकारका वर्णन किया ? सबसे पहले हमारी दृष्टि प्रस्तुत प्रकरणके अन्तमे कही गई गाथापर जाती है, जिसमें कहा गया है कि 'इस प्रकार मैंने ग्यारहवे स्थानमें सूत्रानुसार दो प्रकारके उद्दिष्टपिडविरत श्रावकका वर्णन संक्षेपसे किया ।' (देखो गा० नं० ३१३) इस गाथामें दिये गये दो पदोपर हमारी दृष्टि अटकती है। पहला पद है 'सूत्रानुसार, जिसके द्वारा उन्होंने प्रस्तुत वर्णनके स्वकपोल-कल्पितत्वका परिहार किया है। और दूसरा पद है 'संक्षेपसे' जिसके द्वारा उन्होने यह भाव व्यक्त किया है कि मैंने जो उद्दिष्टपिंडविरतका इतना स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया है, उसे कोई 'तिलका ताड़' या 'राईका पहाड़' बनाया गया न समझे, किन्तु श्रागम-सूत्रमे इस विषयका जो विस्तृत वर्णन किया गया है, उसे मैंने 'सागरको गागरमें भरनेके समान अत्यन्त सक्षेपसे कहा है। अब देखना यह है कि वह कौन-सा सूत्र-ग्रन्थ है, जिसके अनुसार वसुनन्दिने उक्त वर्णन किया है ? प्रस्तुत उपासकाध्ययनपर जब हम एक बार आद्योपान्त दृष्टि डालते हैं तो उनके द्वारा वार-वार प्रयुक्त हुआ 'उवासयज्झयण' पद हमारे सामने आता है। वसुनन्दिके पूर्ववर्ती श्रा० अमितगति, सोमदेव और भगवजिनसेनने भी अपने-अपने ग्रन्थों में 'उपासकाध्ययन'का अनेक वार उल्लेख किया है। उनके उल्लेखोसे इतना तो अवश्य ज्ञात होता है कि वह उपासकाध्ययन सूत्र प्राकृत भाषामे रहा है, उसमे श्रावकोके १२ व्रत या ११ प्रतिमाओंके वर्णनके अतिरिक्त पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक रूपसे भी श्रावक-धर्मका वर्णन था । भगवजिनसेनके उल्लेखोसे यह भी ज्ञात होता है कि उसमे दीक्षान्वयादि क्रियाओंका, षोडश संस्कारोंका, सन्जातित्व आदि सप्त परम स्थानोका, नाना प्रकारके व्रत-विधानोंका और यज्ञ, जाप्य, हवन आदि क्रियाकांडका समंत्र सविधि वर्णन था । वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ, जयसेन प्रतिष्ठापाठ और सिद्धचक्रपाठ आदिके अवलोकनसे उपलब्ध प्रमाणोंके द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि उस उपासकाध्ययनमें क्रियाकांड-सम्बन्धी मंत्र तक प्राकृत भाषामें थे। इतना सब होनेपर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उक्त सभी श्राचार्यों द्वारा निर्दिष्ट उपासकाध्ययन एक ही रहा है। यदि सभीका अभिप्रेत उपासकाध्ययन एक ही होता, तो जिनसेनसे सोमदेवके वस्तु-प्रतिपादनमें इतना अधिक मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर न होता। यदि सभीका अभिप्रेत आसकाध्ययन एक ही रहा है, तो निश्चयतः वह बहुत विस्तृत और विभिन्न विषयोकी चर्चाअोसे परिपूर्ण रहा है, पर जिनसेन श्रादि किसी भी परवर्ती विद्वानको वह अपने समग्र रूपमें उपलब्ध नहीं था। हाँ, खंड-खंड रूपमें वह यत्र-तत्र तत्तद्विषयके विशेषज्ञोंके पास अवश्य रहा होगा और संभवतः यही कारण रहा है कि जिसे जो अंश उपलब्ध रहा, उसने उसीका अपने ग्रन्थमें उपयोग किया। दि० साहित्यमै अन्वेषण करनेपर भी ऐसा कोई आधार नहीं मिलता है जिससे कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावक की उक्त चर्या प्रमाणित की जा सके। हाँ, बहुत सूक्ष्म रूपमें कुछ बीज अवश्य उपलब्ध हैं। पर जब वसुनन्दि कहते हैं कि मैंने उक्त कथन संक्षेपसे कहा है, तब निश्चयतः कोई विस्तृत और स्पष्ट प्रमाण उनके सामने अवश्य रहा प्रतीत होता है। कुछ विद्वान् उक्त चर्याका विधान शूद्र-जातीय उत्कृष्ट श्रावकके लिए किया गया Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट मूलगुणों के विविध प्रकार बतलाते हैं, पर वसुनन्दिके शब्दोसे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है। श्वे० साहित्यसे अवश्य उक्त चर्याकी पुष्टि होती है, जो कि साधुके लिए बतलाई गई है। और इसीलिए ऐसा माननेको जी चाहता है कि कहीं श्वेताम्बरीय साधुअोके संग्रह करनेकी दृष्टि से उत्कृष्ट श्रावककी वैसी चर्चा न कही गई हो ? १०-अष्ट मूलगुणों के विविध प्रकार यहाँ प्रकरणवश अष्टमूलगुणोंका कुछ अधिक स्पष्टीकरण अप्रासंगिक न होगा। श्रावक्रधर्मके श्राधारभूत मुख्य गुणको मूलगुण कहते हैं। मूलगुणों के विषयमे आचार्योंके अनेक मत रहे हैं जिनकी तालिका इस प्रकार हैं:प्राचार्य नाम-- मूलगुणोंके नाम (१) आचार्य समन्तभद्रः स्थल हिसादि पाँच पापोंका तथा मद्य, मांस, मधुका त्याग। या अनेक श्रमणोत्तम स्थूल । (२) प्राचार्य जिनसेनः-स्थूल हिंसादि पाँच पापोंका तथा द्यूत, मांस और मद्यका त्याग' । (३) प्राचार्य सोमदेव, आचार्य देवसेन–पाँच उदुम्बर फलोका तथा मद्य, मांस और मधुका त्याग । (४) अज्ञात नाम (पं० श्राशाधरजी द्वारा उद्धृत) - मद्यत्याग, मासत्याग, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पंच उदुम्बरफल त्याग, देवदर्शन या पंचपरमेष्ठीका स्मरण, जीवदया और छने जलका पान । इन चारों मतोके अतिरिक्त एक मत और भी उल्लेखनीय है और वह मत है श्राचार्य अमितगतिका । उन्होंने मूलगुण यह नाम और उनकी संख्या इन दोनो बातोंका उल्लेख किये बिना ही अपने उपासकाध्ययनमे उनका प्रतिपादन इस प्रकारसे किया है: मद्यमांसमधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं विधा। कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥ -अमित० श्रा० अ० ५ श्लो०१ अर्थात्-व्रत ग्रहण करनेकी इच्छासे विद्वान् लोग मन, वचन, कायसे मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन और क्षीरी वृक्षों के फलोंको सेवनका त्याग करते हैं, क्योंकि इनके त्याग करने पर ग्रहीत व्रत पुष्ट होता है। इस श्लोकमें न 'मूलगुण' शब्द है और न संख्यावाची आठ शब्द । फिर भी यदि क्षीरी फलोंके त्यागको एक गिनें तो मूलगुणोकी संख्या पाँच ही रह जाती है और यदि क्षीरी फलोंकी संख्या पाँच गिने, तो नौ मूलगुण हो जाते हैं, जो कि अष्टमूल गुणोंकी निश्चित संख्याका अतिक्रमण कर जाते हैं। अतएव अमितगतिका मत एक विशिष्ट कोटिमे परिगणनीय है। १-मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥-रत्नक० २--हिंसासत्याऽस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ॥ -आदिपुराण ३-मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपंचकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ यशस्तिलकचम्पू ४--मद्यपलमधुनिशाशनपंचफलीविरतिपंचकाप्सनुती। जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥४८॥ -सागारधर्मामृत अ०२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार मूलगुणोंके ऊपर दिखाये गये भेदोंको देखनेपर यह बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इनके विषयमें मूलगुण माननेवाली परम्परामे भी भिन्न-भिन्न प्राचार्योंके विभिन्न मत रहे हैं। सूत्रकार उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें यद्यपि मूलगुण ऐसा नाम नहीं दिया है और न उनकी कोई संख्या ही बताई है और न उनके टीकाकारोंने ही । पर सातवें अध्यायके सूत्रोंका पूर्वापर क्रम सूक्ष्मेक्षिकासे देखनेपर एक बात हृदयपर अवश्य अंकित होती है और वह यह कि सातवें अध्यायके प्रारम्भमे उन्होने सर्वप्रथम पाँच पापोंके त्यागको व्रत कहा' । पुनः उनका त्याग देश और सर्वके भेद से दो प्रकारका बतलाया। पुनः व्रतोकी भावनाअोका विस्तृत वर्णन किया। अन्तम पांचो पापोंका स्वरूप कहकर व्रतीका लक्षण कहा और व्रतीके अगारी और अनगारी ऐसे दो भेद कहे। पुनः अगारीको अणुव्रतधारी बतलाया और उसके पश्चात् ही उसके सप्त व्रत (शील) समन्वित होनेको सूचित किया। इन अन्तिम दो सूत्रोपर गंभीर दृष्टिपात करते ही यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि अगारी पांच अणुव्रत और सात शीलोंका धारी होता है, तो दो सूत्र पृथक-पृथक् क्यों बनाये ? दोनोका एक ही सूत्र कह देते। ऐसा करनेपर 'सम्पन्न' और 'च' शब्दका भी प्रयोग न करना पड़ता और सूत्रलाघव भी होता। पर सूत्रकारने ऐसा न करके दो सूत्र ही पृथक पृथक् बनाये, जिससे प्रतीत होता है कि ऐसा करनेमे उनका अवश्य कोई आशय रहा है। गंभीर चिंतन करनेपर ऐसा माननेको जी चाहता है कि कहीं सूत्रकारको पाँच अणुव्रत मूलगुण रूपसे और सात शील उत्तर गुण रूपसे तो विवक्षित नहीं हैं ? एक विचारणीय प्रश्न यहाँ एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब समन्तभद्र और जिनसेन जैसे महान् श्राचार्य पाँच अणुव्रतोको मूलगुणोमें परिगणित कर रहे हो, तब सोमदेव या उनके पूर्ववर्ती किसी अन्य प्राचार्यने उनके स्थानपर पंचक्षीरी फलोंके परित्यागको मूलगुण कैसे माना ? उदुम्बर फलोंमे अगणित त्रसजीव स्पष्ट दिखाई देते है और उनके खानेमे त्रसहिंसाका या मांस खानेका पाप लगता है। त्रसहिंसाके परिहारसे उसका अहिसाणुव्रतमे अन्तर्भाव किया जा सकता था और मांस खानेके दोषसे उसे मांसभक्षणमें परिगणित किया जा सकता था ? ऐसी दशामे पंच उदुम्बरोके परित्यागके पाँच मूलगुण न मानकर एक ही मूलगुण मानना अधिक तर्कयुक्त था। विद्वानोंके लिए यह प्रश्न अद्यावधि विचारणीय बना हुआ है। संभव है किसी समय क्षीरी फलोंके भक्षणका सर्वसाधारणमें अत्यधिक प्रचार हो गया हो, और उसे रोकनेके लिए तात्कालिक प्राचार्योंको उसके निषेधका उपदेश देना आवश्यक रहा हो और इसलिए उन्होने पंचक्षीरी फलोके परिहारको मूलगुणोंमें स्थान दिया हो ! १ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ २ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ ३ निःशल्यो व्रती ॥१८॥ १ अगार्यनगारश्च ॥१६॥ ५ अणवतोऽगारी ॥२०॥ ६ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥२१॥ -तत्वा० अ०७ ७ परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६॥-पुरुषार्थसिक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील का स्वरूप ११-शील का स्वरूप सूत्रकार द्वारा गुणवतो और शिक्षाव्रतोंकी जो 'शील' सज्ञा दी गई है, उस 'शील' का क्या स्वरूप है, यह शंका उपस्थित होती है। प्राचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें 'शील' का स्वरूप इस प्रकारसे दिया है : संसारारातिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् । गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ॥४१॥ -अमि० श्रा० परि० १२. ___ अर्थात्-संसारके कारणभूत कर्मशत्रुओंसे भयभीत श्रावकके गुरुसाक्षीपूर्वक ग्रहण किये गये सब व्रतोंके रक्षणको शील कहते हैं। पूज्यपाद श्रावकाचारमे शीलका लक्षण इस प्रकार दिया है : यद् गृहीतं व्रतं पूर्व साक्षीकृत्य जिनान् गुरून् । तद् व्रताखंडनं शीलमिति प्राहुर्मुनीश्वराः ॥७॥ अर्थात्-देव या गुरुकी साक्षीपूर्वक जो व्रत पहले ग्रहण कर रखा है, उसका खंडन नहीं करनेको मुनीश्वर 'शील' कहते हैं। शीलके इसी भावको बहुत स्पष्ट शब्दोंमें अमृतचन्द्राचार्य ने अपने पुरुषार्थ-सिद्धथु पायमें व्यक्त किया है कि जिस प्रकार कोट नगरोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार शील व्रतोंकी रक्षा करते हैं, अतएव व्रतोंकी रक्षा करनेके लिए शीलोंको भी पालना चाहिए। व्रतका अर्थ हिंसादि पापोंका त्याग है और शीलका अर्थ गृहीत व्रतकी रक्षा करना है। जिस प्रकार कोट नगरका या बाढ़ बीजका रक्षक है उसी प्रकार शील भी व्रतोंका रक्षक है। नगर मूल अर्थात् प्रथम है और कोट उत्तर अर्थात् पीछे है। इसी प्रकार बीज प्रथम या मूल है और बाढ़ उत्तर है। ठीक इसी प्रकार अहिंसादि पाँच व्रत श्रावकोंके और मुनियोंके मूलगुण हैं और शेष शील व्रत या उत्तर गुण हैं, यह फलितार्थ जानना चाहिए। मेरे विचारसे श्रावकके शील और उत्तरगुण एकार्थक रहे हैं। यही कारण है कि सूत्रकारादि जिन अनेक आचार्योंने गुणव्रत और शिक्षाव्रतकी शील संज्ञा दी है, उन्हें ही सोमदेव आदिने उत्तर गुणोंमें गिना है। हाँ, मुनियोंके शील और उत्तरगुण विभिन्नार्थक माने गये हैं । । उक्त निष्कर्षके प्रकाशमैं यह माना जा सकता है कि उमास्वाति या उनके पूर्ववर्ती श्राचार्योंको श्रावकोंके मूलवत या मूलगुणोंकी संख्या पाँच और शीलरूप उत्तरगुणोंकी संख्या सात अभीष्ट थी। परवर्ती श्राचार्यों ने उन दोनोंकी संख्याको पल्लवित कर मूलगुणोंकी संख्या आठ और उत्तर गुणोंकी संख्या बारह कर दी। हालाँकि समन्तभद्रने श्राचार्यान्तरोंके मतसे मूल गुणोंकी संख्या आठ कहते हुए भी स्वयं मूलगुण या उत्तर गुणोंकी कोई संख्या नहीं कही है, और न मूल वा उत्तर रूपसे कोई विभाग ही किया है। १ परिचय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलाम्यपि पालनीयानि ॥१३६॥-पुरुषार्थसिद्धयुपाय २ महुमज्जमंसविरई चाओ पुण उबराण पंचएहं । अछेदे मूलगुणा हवंति फुड देसविरयम्मि ॥३५६॥-भावसंग्रह पंचधाऽणुव्रतं त्रेधा गुणवतमगारिणाम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धेति गुणाः स्युद्वादशोत्तरे ॥-यशस्ति० प्रा० ८. सागार० अ०४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वसुनन्दि-श्रावकाचार १२-पूजन-विधान देवपूजनके विषयमे कुछ और स्पष्टीकरणकी आवश्यकता है, क्योकि सर्वसाधारण इसे प्रतिदिन करते हुए भी उसके वास्तविक रहस्यसे अनभिज्ञ हैं, यही कारण है कि वे यद्वा-तद्वा रूपसे करते हुए सर्वत्र देखे जाते है। यद्यपि इज्यानोका विस्तृत वर्णन सर्व प्रथम श्राचार्य जिनसेनने किया है, तथापि उन्होने उसकी कोई व्यवस्थित प्ररूपणा नहीं की है। जहाँ तक मेरा अध्ययन है, पूजनका व्यवस्थित एवं विस्तृत निरूपण सर्वप्रथम श्राचार्य सोमदेवने ही किया है । पूजनका उपक्रम देवपूजा करनेके लिए उद्यत व्यक्ति सर्व प्रथम अन्तःशुद्धि और बहिःशुद्धिको करे । चित्तकी चचलता, मनकी कुटिलता या हृदयकी अपवित्रता दूर करनेको अन्तःशुद्धि कहते हैं। दन्तधावन आदि करके निर्मल एवं प्रासुक जलसे स्नान कर धुले स्वच्छ शुद्ध वस्त्र धारण करनेको बहिःशुद्धि कहते हैं। पूजनका अर्थ और भेद जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र, रत्नत्रय धर्म श्रादिकी अाराधना, उपासना या अर्चा करनेको पूजन कहते हैं। श्रा० वसुनन्दिने पूजनके छह भेद गिनाकर उनका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थमे किया है । ( देखो गाथा नं० ३८१ से ४६३ तक) छह भेदोमै एक स्थापना पूजा भी है। साक्षात् जिनेन्द्र देव या प्राचार्यादि गुरुजनोंके अभावमे उनकी स्थापना करके जो पूजन की जाती है उसे स्थापना पूजा कहते हैं । यह स्थापना दो प्रकारसे की जाती है, तदाकार रूपसे और अतदाकार रूपसे। जिनेन्द्रका जैसा शान्त वीतराग स्वरूप परमागममे बताया गया है, तदनुसार पाषाण, धातु आदि की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा-विधिसे उसमे अहन्तदेवकी कल्पना करनेको तदाकार स्थापना कहते हैं। इस प्रकारसे स्थापित मूर्तिको लक्ष्य करके, या केन्द्रबिन्दु बनाकर जो पूजा की जाती है, उसे तदाकार स्थापना पूजन कहते हैं । इस प्रकारकी पूजनके लिए प्राचार्य सोमदेवने प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजा-फल इन छह कर्तव्योंका करना श्रावयश्क बताया है। यथा प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥-यश० अ०८ १-अन्तःशुद्धिं बहिःशुद्धिं विदध्याद्देवतार्चनम् । आधा दौश्चित्यनिर्मोक्षादन्या स्नानायथाविधिः ॥ प्राप्लुतः संप्लुतः स्वान्तः शुचिवासी विभूषितः । मौन-संयमसम्पन्नः कुर्याद वार्चनाविधिम् ॥ दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोचिताननः । असंजातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् ॥-यशस्ति० प्रा०८ टिप्पणी-कितने ही लोग बिना दातुन किये ही पूजन करते हैं, उन्हे 'दन्तधावनशुद्धास्यः पद पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें बताया गया है कि मुखको दातुनसे शुद्ध करके भगवान्की पूजा करे । इस सम्बन्धमे इसी श्लोकके द्वारा एक और पुरानी प्रथा पर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि मुखपर वस्त्र बाँधकर भगवान्की पूजा करे। पुराने लोग दुपट्टेसे मुखको बाँधकर पूजन करते रहे हैं, बुन्देलखंडके कई स्थानों में यह प्रथा श्राज भी प्रचलित है। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोमैं भी मुख बाँधकर ही पूजा की जाती है। सोमदेवका 'मुखवासोचिताननः' पद हमें स्थानकवासी साधुओंकी मुँहपत्तीकी याद दिलाता है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजन-विधान पूजनके समय जिनेन्द्र-प्रतिमाके अभिषेककी तैयारी करनेको प्रस्तावना' कहते हैं। जिस स्थानपर अहडिम्बको स्थापित कर अभिषेक करना है, उस स्थानकी शुद्धि करके जलादिकसे भरे हुए कलशोको चारो ओर कोणोमें स्थापन करना पुराकर्म कहलाता है। इन कलशोंके मध्यवर्ती स्थानमे रखे हुए सिहासन पर जिनबिम्बके स्थापन करनेको स्थापना कहते है। ये वही जिनेन्द्र हैं, यह वही सुमेरुगिरि है, यह वही सिंहासन है, यह वही साक्षात् क्षीरसागरका जल कलशोंमे भरा हुआ है, और मैं साक्षात् इन्द्र बनकर भगवान्का अभिषेक कर रहा हूँ', इस प्रकारकी कल्पना करके प्रतिमाके समीपस्थ होनेको सन्निधापन' कहते हैं । अर्हत्प्रतिमाकी श्रारती उतारना, जलादिकसे अभिषेक करना, अष्टद्रव्यसे अर्चा करना, स्तोत्र पढ़ना, चेंबर ढोरना, गीत, नृत्य आदिसे भगवद्-भक्ति करना यह पूजा नामका पाँचवां कर्तव्य है। जिनेन्द्र-बिम्बके पास स्थित होकर इष्ट प्रार्थना करना कि हे देव, सदा तेरे चरणोंमें मेरी भक्ति बनी रहे, सर्व प्राणियोंपर मैत्री भाव रहे, शास्त्रोंका अभ्यास हो, गुणी जनोंमे प्रमोद भाव हो, परोपकारमें मनोवृत्ति रहे, समाधिमरण हो, मेरे कर्मोंका क्षय और दुःखोका अन्त हो, इत्यादि प्रकारसे इष्ट प्रार्थना करनेको पूजाफल' कहा गया है। उक्त विवेचनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्राह्वानन, स्थापन और सन्निधीकरणका प्रार्षमार्ग यह था, पर उस मार्गके भूल जानेसे लोग आज-कल यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। तदाकार स्थापनाके अभावमे अतदाकार स्थापना की जाती है। अतदाकार स्थापनामें प्रस्तावना, पुरा १ यः श्रीजन्मपयोनिधिर्मनसि च ध्यायन्ति यं योगिनो तेनेदं भुवन सनाथममरा यस्मै नमस्कुर्वते । यस्मात्प्रादुरभूच्छू तिः सुकृतिनो यस्य प्रसादाज्जना यस्मिन्नष भवाश्रयो व्यतिकरस्तस्यारभे स्नापनाम् ॥ (इति प्रस्तावना) २ पाथः पूर्णान् कुम्भान् कोणेषु सुपल्लवप्रसूनार्चान् । दुग्धाब्धीनिव विदधे प्रवालमुक्तोल्वणांश्चतुरः॥ (इति पुराकम) ३. तीर्थोदकैर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवपुषि प्रतिकल्पितार्थे । लचमीश्र तागमनबीजविदर्भगर्ने संस्थापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् ॥ (इति स्थापना) ४ सोऽय जिनः सुरगिरिननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमियं न महोत्सवश्रीः ॥ (इति सन्निधापनम्) ५ अम्भश्चन्दनतन्दुलोद्गमहविर्दी पैः सधूपैः फलैरचित्वा त्रिजगद्गुरुं जिनपति स्नानोत्सवानन्तरम् । तं स्तौमि प्रजपामि चेतसि दधे कुर्वे श्रु ताराधनम्, त्रैलोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥ (इति पूजा) ६ प्राविधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्वसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन ॥ धर्मेषु धर्मनिरतात्मसु धर्महेतोधर्मादवाप्तमहिमास्तु नृपोऽनुकूलः । नित्य जिनेन्द्रचरणार्चनपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमां श्रियमाप्नुवन्तु ॥ (इतिपूजाफलम् )-यशस्ति० प्रा०८ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० बसुनन्दि-श्रावकाचार कर्म आदि नहीं किये जाते; क्योकि जब प्रतिमा ही नहीं है, तो अभिषेक श्रादि किसका किया जायगा? अतः पवित्र पुष्प, पल्लव, फलक, भूर्जपत्र, सिकता, शिलातल, दिति, व्योम या हृदयमे अर्हन्त देवकी अतदाकार स्थापना करना चाहिए। वह अतदाकार स्थापना किस प्रकार करना चाहिए, इसका वर्णन श्राचार्य सोमदेवने इस प्रकार किया है : अहन्न तनुमध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुतगीः साधुस्तदनु च पुरोऽपि गवगमवृत्तानि ॥ भूर्जे, फलके सिचये शिलातले सैकते क्षितौ व्योन्नि । हृदये चेति स्थाप्याः समयसमाचारवेदिभिर्नित्यम् ॥ -यशस्ति० प्रा०८ अर्थात्-भूर्जपत्र आदि पवित्र बाह्य वस्तुके या हृदयके मध्य भागमे अर्हन्तको, उसके दक्षिणभागमे गणधरको, पश्चिम भागमें जिनवाणीको, उत्तरमें साधुको और पूर्वमें रत्नत्रयरूप धर्मको स्थापित करना चाहिए। यह रचना इस प्रकार होगी: - रत्नत्रय धर्म अर्हन्तदेव गणधर जिनवाणी इसके पश्चात् भावात्मक अष्टद्रव्यके द्वारा क्रमशः देव, शास्त्र, गुरु और रत्नत्रय धर्मका पूजन करे । तथा दर्शनभक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, पंचगुरुभक्ति, अहद्भक्ति, सिद्धभक्ति, प्राचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति करे । आचार्य सोमदेवने इन भक्तियों के स्वतंत्र पाठ दिये हैं । शान्तिभक्ति का पाठ इस प्रकार है: भवदुःखानलशान्तिधर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः। शिवशर्मास्त्रवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः ॥ यह पाठ हमें वर्तमानमें प्रचलित शान्ति पाठकी याद दिला रहा है। उपर्युक्त तदाकार और अतदाकार पूजनके निरूपणका गंभीरतापूर्वक मनन करने पर स्पष्ठ प्रतीत होता है कि वर्तमानमें दोनों प्रकारकी पूजन-पद्धतियोंकी खिचड़ी पक रही है, लोग यथार्थ मार्गको बिलकुल भूल गये हैं। निष्कर्ष तदाकार पूजन द्रव्यात्मक और अतदाकार पूजन भावात्मक है। गृहस्थ सुविधानुसार दोनों कर सकता है। पर आ० वसुनन्दि इस हुंडावसर्पिणीकालमें अतदाकार स्थापनाका निषेध करते हैं। वे कहते हैं कि लोग यों ही कुलिंगियोंके यद्वा-तद्वा उपदेशसे मोहित हो रहे हैं, फिर यदि ऐसी दशामें अर्हन्मतानुयायी भी जिस किसी वस्तुमें अपने इष्ट देवकी स्थापना कर उसकी पूजा करने लगेंगे, तो साधारण लोगोसे विवेकी लोगोंमें कोई भेद न रह सकेगा । तथा सर्वसाधारणमें नाना प्रकारके सन्देह भी उत्पन्न होंगे। यद्यपि प्रा. वसुनन्दिकी अतदाकार स्थापना न करनेके विषयमें तर्क या दलील है तो युक्ति-संगत, पर हुंडावसर्पिणीका उल्लेख किस आधारपर कर दिया, यह कुछ समझ नहीं आया ? खासकर उस दशामें, जब कि उनके पूर्ववर्ती श्रा० सोमदेव बहुत विस्तारके साथ उसका प्रतिपादन कर रहे हैं। फिर एक बात और विचारणीय है कि क्या पंचम कालका ही नाम हुंडावसपिणी है, या प्रारंभके चार कालोका नाम भी है। यदि उनका भी नाम है, तो क्या चतुर्थकालमें भी अतदाकार स्थापना नहीं की जाती थी? यह एक प्रश्न है, जिसपर कि विद्वानों द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है। १ देखो प्रस्तुत प्रन्यकी गाथा नं०३८५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि पर प्रभाव १३-वसुनन्दि पर प्रभाव प्रस्तुत श्रावकाचारके अन्तःपरीक्षण करनेपर विदित होता है कि वसुनन्दिपर जिन प्राचार्योंका प्रभाव है, उनमें सबसे अधिक श्रा० कुन्दकुन्द, स्वामिकार्तिकेय, प्राचार्य यतिवृषभ और देवसेनका है । इन प्राचार्योंके प्रभावोंका विवरण इस प्रकार है: १-श्राचार्य कुन्दकुन्द और स्वामिकार्तिकेयके समान ही वसुनन्दिने श्रावक-धर्मका वर्णन ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर किया है । २-उक्त दोनों प्राचार्योंके समान ही आठ मूलगुणोंका वर्णन नहीं किया है। ३–तीनो श्राचार्योंके समान ही अतीचारोंका वर्णन नहीं किया है । ४-श्राचार्य देवसेन द्वारा रचित भावसंग्रहके, पूजा, दान और उनके भेद, फलादिके समस्त वर्णनको श्राधार बनाकर वसुनन्दिने अपने उक्त प्रकरणोंका निर्माण किया है । ५-वसु० श्रावकाचारके प्रारम्भमे जो जीवादि सात तत्त्वों, सम्यक्त्वके आठ अंगों और उनमें प्रसिद्धिप्राप्त पुरुषोका वर्णन है, वह ज्योका त्यों भाव संग्रहके इसी प्रकरणसे मिलता है, बल्कि वसु० श्रावकाचारमें ५१ से ५६ तककी दूरी ६ गाथाएँ तो भाव-संग्रहसे उठाकर ज्यों की त्यों रखी गई हैं। ६-रात्रि भोजन सम्बन्धीवर्णनपर प्राचार्य रविषेण जिनसेन,सोमदेव, देवसेन और अमितगतिका प्रभाव है। ७-सप्तव्यसनोंके वर्णनपर अन्य अनेक श्राचार्योंके वर्णनके अतिरिक्त सबसे अधिक प्रभाव अमितगतिका है। ८-नरकके दुःखोंके वर्णनपर प्राचार्य यतिवृषभकी तिलोयपएणत्तीका अधिक प्रभाव है। शेष गतियों के दुःख वर्णनपर स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रभाव है। -ग्रन्थके अन्तमें जो क्षपक-श्रेणी और तेरहवें चौदहवें गुणस्थानका वर्णन है उसपर सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खंडागम और कसायपाहुडका प्रभाव है, जो कि वसुनन्दिके सिद्धान्तचक्रवर्तित्वको सूचित करता है। १०-इसी प्रकरणके योग-निरोध सम्बन्धी वर्णन पर प्राचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका प्रभाव स्पष्ट है । ११-इसके अतिरिक्त ग्यारह प्रतिमाओंके स्वरूपका वर्णन करनेवाली २०५, २०७, २७४, २८०, २६५-३०१ नम्बरवाली ग्यारह गाथाएँ तो ज्यों की त्यों श्रावकप्रतिक्रमण सूत्रसे उठाकर रखी गई हैं तथा इसीके अनुसार ही शिक्षाव्रतोंका वर्णन किया गया है। * टिप्पणी-प्राचार्य वसुनन्दिने भावसंग्रहका अपने प्रन्थमें कितना और कैसा उपयोग किया है, यह नीचे दी गई तालिकासे ज्ञात कीजिये:(१) भावसंग्रहः-३०३ ३०४ ३०५ ३०६-३१२ ३१९-३२० | ३२४ | ३२१-३२३ वसु० श्रा०-१६/ १७ | २० | २१-२२ ३९-४० ४१ ४२ (२) भावसंग्रह-३४४-३४५ ३४६ ३४८ ४९४-४९८ ५२७-५२८ ५३२ वसु० श्रा०-४३-४४ ४५ ४७ २२०-२२४ २२५-२३३ २४२ (३) भावसंग्रह-४९९-५०१ ५३३ ५३६ ५८७-५९१ ५९३ ५९६-५९७ | वसु० श्रा०-२४५-२४७ / २४८ २६१२४९-२५७ / २६४२६७-२६९ (४) भावसंग्रह-४२८-४४५/४७०-४८२ | ४८३-४८४|४१०/४०८-४११ वसु० श्रा०-४५७-४७६ J४८३-४९३ ५१०-५११ ५१३ ४९५-४०७ (५) भावसंग्रह-४१२-४१९ ४३०-४२२ ६७७ वसु० श्रा०-४९८-५०५ ५०९-५१०५१८-५१९ ५३५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार १४-वसुनन्दि का प्रभाव वसुनन्दि श्रावकाचारका प्रभाव हीनाधिक मात्रामे सभी परवती श्रावकाचारोंपर है। वसुनन्दिसे लगभग १५० वर्ष पीछे हुए पं० श्राशाधरजीने तो प्राचार्य वसुनन्दिके मतको श्रद्धापूर्ण शब्दोंमे व्यक्त किया है। यथा: 'इति वसुनन्दिसैद्धान्तिकमते'। सागार० अ. ३ श्लो० १६ की टीका । 'इति वसुनन्दि सैद्धान्तिकमतेन-दर्शनप्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येदं तन्मतेनैवं व्रतप्रतिमा विभ्रतो ब्रह्माणुवुतं स्यात् ।'-सागार०अ०४ श्लो० ५२ की टीका उपर्युक्त उल्लेखोंमे प्रयुक्त सैद्धान्तिक पदसे उनका महत्ता स्पष्ट है। पं. आशाधरजी ने ग्यारहवी प्रतिमाका जो वर्णन किया है उसपर वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्यनका स्पष्ट प्रभाव है । पाठक प्रस्तुत ग्रन्थकी ३०१ से ३१३ तककी गाथाओंका निम्न श्लोकों के साथ मिलान करें: स द्वेधा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययेत् । सितकौपीनसंव्यानः कर्त्ता वा क्षुरेण वा ॥३८॥ स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः । कुर्यादेव चतुष्पामुपवासं चतुर्विधम् ॥३९॥ स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ॥४०॥ स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा। मौनेन दर्शयित्वाऽङ्ग लाभालाभे समोऽचिरात् ॥४१॥ निर्गत्यान्यद्गृहं गच्छेद्भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात्तद् भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक ॥४२॥ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् । लभेत प्रासु यत्राम्भस्तन संशोध्य तां चरेत् ॥४३॥ श्राकांक्षन् संयम भिक्षापात्रक्षालनादिषु । स्वय यतेत चादर्पः परथाऽसंयमो महान् ॥४४॥ ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् । गृह्णीयाद्विधिवत्सर्व गुरोश्वालोचयेत्पुरः ॥४५॥ यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाद्यादनुमुन्यसौ। भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्कयम् ॥१६॥ तद्वद् द्वितीयः किन्त्वार्यसंज्ञो लुञ्चत्यसौ कचान् । कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥४७॥ स्वपाणिपात्र एवात्ति सशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचार मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥४८॥ श्रावको वीरचार्याहः प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥४९॥-सागारधर्मा० अ०७ पं० अाशाधरजी और उनके पीछे होने वाले सभी श्रावकाचार-रचयिताओंने यथावसर वसुनन्दिके उपासकाध्ययनका अनुसरण किया है । गुणभूषणश्रावकाचारके रचयिताने तो प्रस्तुत ग्रन्थकी बहुभाग गाथाओंका संस्कृत रूपान्तर करके अपने ग्रन्थकी रचना की है, यह बात दोनों ग्रन्थों के मिलान करनेपर सहज ही में पाठकके हृदयमें अंकित हो जाती है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-श्रावक धर्म का क्रमिक विकास आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परामे भगवद् भूतबलि, पुष्पदन्त और गुणधराचार्यके पश्चात् शास्त्र-रचयिताश्रोमें सर्व प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इन्होने अनेकों पाहुडोकी रचना की है, जिनमें एक चारित्र-पाहुड भी है। इसमे उन्होने अत्यन्त संक्षेपसे श्रावकधर्मका वर्णन केवल छह गाथाओंमे किया है। एक गाथामें संयमाचरणके दो भेद करके बताया कि सागार संयमाचरण गृहस्थोंके होता है। दूसरी गाथामे ग्यारह प्रतिमाअोके नाम कहे । तीसरी गाथामे सागार संयमाचरणको पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप कहा है । पुनः तीन गाथाओंमें उनके नाम गिनाये गये है। इतने संक्षिप्त वर्णनसे केवल कुन्दकुन्द-स्वोकृत अणुव्रत, गुणवत और शिक्षाव्रतोंके नामोंका ही पता चलता है, और कुछ विशेष ज्ञात नहीं होता । इन्होंने सल्लेखनाको चौथा शिक्षाबत माना है और देशावकाशिक व्रतको न गुणवतों में स्थान दिया है और न शिक्षाव्रतोमे। इनके मतसे दिक्परिमाण, अनर्थदंड-वर्जन और भोगोपभोग-परिमाण ये तीन गुणव्रत है, तथा सामायिक प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षा व्रत है। इनके इस वर्णनमै यह बात विचारणीय है कि सल्लेखनाको चौथा शिक्षाव्रत किस दृष्टिसे माना है, जब कि वह मरणके समय ही किया जानेवाला कर्तव्य है ? और क्या इस चौथे शिक्षा व्रतकी पूर्तिके विना ही श्रावक तीसरी आदि प्रतिमाओंका धारी हो सकता है ? स्वामी कार्तिकेय आ० कुन्दकुन्दके पश्चात् मेरे विचारसे उमास्वाति और समन्तभद्रसे भी पूर्व स्वामी कार्तिकेय हुए हैं। उन्होने अनुप्रेक्षा नामसे प्रसिद्ध अपने ग्रन्थमे धर्म भावनाके भीतर श्रावकधर्मका विस्तृत वर्णन किया है। इनके प्रतिपादनकी शैली स्वतंत्र है। इन्होंने जिनेन्द्र-उपदिष्ट धर्मके दो भेद बताकर संगासनों-परिग्रह धारी गृहस्थोंके धर्मके बारह भेद बताये हैं। यथा-१ सम्यग्दर्शनयुक्त, २ मद्यादि स्थूल-दोषरहित, ३ व्रतधारी, ४ सामायिक, ५ पर्ववती, ६ प्रासुक-श्राहारी, ७ रात्रिभोजनविरत, ८ मैथुनत्यागी, ६ श्रारम्भत्यागी, १० संगत्यागी, १ दुविहं संजम चरणं सायारं तह हवे णिराया। सायारं सग्गंथे परिग्गहारहिय खलु णिरायारं ॥२०॥ दसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिठ देसविरदी य ॥२१॥ पंचेवणुब्वयाई गुणब्वयाइं हवंति तह तिरिण। सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं ॥२२॥ थूले तसकायबहे थूले मोसे तितिक्ख थूले य । परिहारो परपिम्मे परिग्गहारंभपरिमाणं ॥२३॥ दिसि-विदिसिमाण पढम अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिरिण ॥२४॥ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुज्ज चउत्थ संलेहणा अंते ॥२५॥-चारित्रयाहुड Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वसुनन्दि-श्रावकाचार ११ कार्यानुमोदविरत और १२ उद्दिष्टाहारविरत'। इनमे प्रथम नामके अतिरिक्त शेष नाम ग्यारह प्रतिमाअोंके हैं। यतः श्रावकको व्रत-धारण करनेके पूर्व सम्यग्दर्शनका धारण करना अनिवार्य है, अतः सर्वप्रथम एक उसे भी गिनाकर उन्होने श्रावक-धर्मके १२ भेद बतलाये हैं और उनका वर्णन पूरी ८५ गाथाओंमे किया है। जिनमेसे २० गाथाओंमै तो सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति, उसके भेद, उनका स्वरूप, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी मनोवृत्ति और सम्यक्त्वका माहात्म्य बहुत सुन्दर ढंगसे वर्णन किया है, जैसा कि अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता । तत्पश्चात् दो गाथाओं द्वारा दार्शनिक श्रावकका स्वरूप कहा है, जिसमें बताया गया है कि जो त्रस-समन्वित या त्रस-घातसे उत्पन्न मांस, मद्य श्रादि निंद्य पदार्थों का सेवन नहीं करता, तथा दृढ़चित्त, वैराग्य-भावना-युक्त और निदान-रहित होकर एक भी व्रतको धारण करता है, वह दार्शनिक श्रावक है। तदनन्तर उन्होंने व्रतिक श्रावकके १२ व्रतोका बड़ा हृदयग्राही, तलस्पर्शी और स्वतंत्र वर्णन किया है, जिसका अानन्द उनके ग्रन्थका अध्ययन करके ही लिया जा सकता है। इन्होने कुन्दकुन्द-सम्मत तीनों गुणवतोको तो माना है, परन्तु शिक्षाव्रतो मे कुन्दकुन्द-स्वीकृत सल्लेखना को न मानकर उसके स्थानपर देशावकाशिकको माना है । इन्होंने ही सर्वप्रथम अनर्थदंडके पाँच भेद किये हैं। स्वामिकार्तिकेयने चारो शिक्षाबतों का विस्तारके साथ विवेचन किया है । सामयिक शिक्षाबतके स्वरूपमें अासन, लय, काल आदिका वर्णन द्रष्टव्य है । इन्होंने प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतमें उपवास न कर सकनेवालेके लिए एकभक्त, निर्विकृति आदिके करनेका विधान किया है । अतिथि-संविभाग शिक्षा व्रतमे यद्यपि चारों दानोंका निर्देश किया है, पर अाहार दानपर खास जोर देकर कहा है कि एक भोजन दानके देने पर शेष तीन स्वतः ही दे दिये जाते हैं। चौथे देशावकाशिक शिक्षाव्रत में दिशाओंका संकोच और इन्द्रियविषयोंका सवरण प्रतिदिन आवश्यक बताया है। इसके पश्चात् सल्लेखना के यथावसर करनेकी सूचना की गई है । सामायिक प्रतिमाके स्वरूपमे कायोत्सर्ग, द्वादश भावत, दो नमन ओर चार प्रणाम करनेका विधान किया है। प्रोषध प्रतिमामें सोलह पहरके उपवासका विधान किया है। सचित्तत्यागप्रतिमाधारीके लिए सर्व प्रकारके सचित्त पदार्थोके खानेका निषेध किया है और साथ ही यह भी आदेश दिया है कि जो स्वयं सचित्त का त्यागी है उसे सचित्त वस्तु अन्यको खानेके लिए देना योग्य नही है, क्योंकि खाने और खिलानेमे कोई भेद नहीं है। रात्रि-भोजन-त्याग प्रतिमाघारीके लिए कहा है जो चतुर्विध आहारको स्वयं न खानेके समान अन्यको भी नहीं खिलाता है वही निशि भोजन विरत है। ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी के लिए देवी, मनुष्यनी, तिर्यचनी और चित्रगत सभी प्रकारकी स्त्रियोंका मन, वचन, कायसे अभिलाषाके त्यागका विधान किया है। प्रारम्भविरत प्रतिमाधारीके लिए कृत, कारित और अनुमोदनासे प्रारम्भका त्याग आवश्यक बताया है। परिग्रह-त्याग प्रतिमामे बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहके त्यागनेका विधान किया है। अनुमतिविरतके लिए १ तेणुवइठो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारहभेो दसभेश्रो भासिओ विदिओ ॥३०॥ सम्मईसणसुद्धो रहियो मज्जाइथूलदोसेहिं । वयधारी सामइओ पव्ववई पासुबाहारी ॥३०५॥ राईभोयणविरो मेहुण-सारंभ-संगचत्तो य । कज्जाणुमोयविरो उहिट्ठाहारविरो य ॥३०६॥ २ भोयणदाणे दिपणे तिपिण वि दाणाणि होति दिण्णाणि ॥३६३॥ ३ जो णेय भक्खेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं। __ भुत्तस्स भोजिदस्स हि णस्थि विसेसो तदो को वि ॥३०॥ १ जो चउविहं पि भोज्ज रयणीए णेव भुजदेणाणी । ण य भुंजावइ अण्णं णिसिविरमओ हवे भोज्जो ॥३८२॥ ५ जो आरंभ ण कुणदि अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णो । हिंसासंत्तहमणो चत्तारंभो हवे सो हि ॥३८५॥-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास गृहस्थीके किसी भी कार्यमे अनुमतिके देनेका निषेध किया है। उद्दिष्टाहारविरतके लिए याचना-रहित और नवकोटि-विशुद्ध योग्य भोज्यके । लेनेका विधान किया गया है। स्वामिकार्तिकेयने ग्यारहवीं प्रतिमाके भेदोंका कोई उल्लेख नहीं किया है जिससे पता चलता है कि उनके समय तक इस प्रतिमाके कोई भेद नहीं हुए थे। इस प्रकार दि० परम्परामे सर्वप्रथम हम स्वामिकार्तिकेयको श्रावक धर्मका व्यवस्थित प्ररूपण करनेवाला पाते हैं। आचार्य उमास्वाति स्वामिकार्तिकेयके पश्चात् श्रावक-धर्मका वर्णन उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें दृष्टिगोचर होता है। इन्होंने तत्त्वार्थसूत्रके सातवे अध्यायमे व्रतीको सबसे पहले माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होना आवश्यक बतलाया, जब कि स्वामिकार्तिकेयने दार्शनिक श्रावकको निदान-रहित होना जरूरी कहा था। इसके पश्चात् इन्होने ब्रतीके श्रागारी और अनगार भेद करके अणुव्रतीको आगारी बताया । पुनः अहिंसादि व्रतोंकी पाँच-पाँच भावनाओंका वर्णन किया और प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतीचार बताये। इसके पूर्व न कुन्दकुन्दने अतीचारोकी कोई सूचना दी है और न स्वामिकार्तिकेयने ही उनका कोई वर्णन किया है । तत्त्वार्थसूत्रकारने अतीचारोंका यह वर्णन कहांसे किया, यह एक विचाणीय प्रश्न है । अतीचारोंका विस्तृत वर्णन करने पर भी कुन्द-कुन्द और कार्तिकेयके समान उमास्वातिने भी पाठ मल गुणोंका कोई वर्णन नहीं किया है, जिससे पता चलता है कि इनके समय तक मूल गुणोंकी कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की गई थी। तत्त्वार्थसूत्रमें ग्यारह प्रतिमाओंका भी कोई उल्लेख नहीं है, यह बात उस दशामें विशेष चिन्ताका विषय हो जाती है, जब हम उनके द्वारा व्रतोंकी भावनाओंका और अतीचारोका विस्तृत वर्णन किया गया पाते हैं। इन्होंने कुन्दकुन्द और कार्तिकेय प्रतिपादित गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके नामोंमै भी परिवर्तन किया है। इनके मतानुसार दिग्बत, देशव्रत, अनर्थदंड-विरति ये तीन गुणव्रत और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिमाण, अतिथि संविभाग ये चार शिक्षावत हैं। स्वामिकार्तिकेय-प्रतिपादित देशावकाशिकको इन्होंने गुणब्रतमे और भोगोपभोग-परिमाणको शिक्षाव्रतमें परिगणित किया है। सूत्रकारने मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओंका भी वर्णन किया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें अहिंसादि व्रतोंकी भावनाओं, अतीचारों और मैत्र्यादि भावनाअोके रूपमें तीन विधानात्मक विशेषताओंका तथा अष्टमूलगुण और ग्यारह प्रतिमाओंके न वर्णन करने रूप दो अविधानात्मक विशेषताओंका दर्शन होता है । स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके पश्चात् श्रावकाचारपर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखनेवाले स्वामी समन्तभद्रपर हमारी दृष्टि जाती है, जिन्होंने रत्नकरण्डक रचकर श्रावकधर्म-पिपासु एवं जिज्ञासु जनों के लिए सचमुच रत्नोंका करण्डक (पिटारा) ही उपस्थित कर दिया है। इतना सुन्दर और परिष्कृत विवेचन उनके नामके ही अनुरूप है।। रत्नकरण्ड श्रावकाचारपर जब हम सूक्ष्म दृष्टि डालते हैं तब यह कहने में कोई सन्देह नही रहता कि वे अपनी रचनाके लिए कमसे कम चार ग्रन्थोंके आभारी तो हैं ही। श्रावकों के बारह व्रतोका, अनर्थदंडके पाँच भेदोंका और प्रतिमाओंका वर्णन असदिग्ध रूपसे कार्तिकेयानुप्रेक्षाका आभारी है। अतीचारोंके वर्णनके लिए तत्त्वार्थसूत्रका सातवाँ अध्याय अाधार रहा है। सम्यग्दर्शनकी इतनी विशद महिमाका वर्णन दर्शनपाहुड, कार्तिकेयानुप्रेक्षा और षटखंडागमका आभारी है। समाधिमरण तथा मोक्षका विशद वर्णन निःसन्देह भगवती श्राराधनाका अाभारी है । (हालांकि यह कहा जाता है कि समन्तभद्रसे प्रबोधको प्राप्त शिवकोटि प्राचार्य ने भगवती अाराधनाकी रचना की है। पर विद्वानोंमें इस विषयमै मतभेद है और नवीन शोधोंके अनुसार भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य समन्तभद्रसे बहुत पहले सिद्ध होते हैं।) इतना सब कुछ होनेपर भी रत्नकरण्डकमें कुछ ऐसा वैशिष्टय है जो अपनी समता नहीं रखता। धर्मकी परिभाषा, सत्यार्थ देव, शास्त्र, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार गुरुका स्वरूप, आठ अंगो और तीन मूढताअोके लक्षण, मदोके निराकरणका उपदेश, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रका लक्षण, अनुयोगोंका स्वरूप, सयुक्तिक चारित्रकी आवश्यकता और श्रावकके बारह व्रतो तथा ग्यारह प्रतिमाओका इतना परिमार्जित और सुन्दर वर्णन अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता। श्रावकोंके आठ मूलगुणोंका सर्वप्रथम वर्णन हमे रत्नकरण्डकमें ही मिलता है। श्वे० परम्पराके अनुसार पाँच अणुव्रत मूल गुण रूप और सात शीलव्रत उत्तर गुण रूप हैं और इस प्रकार श्रावकोंके मूल और उत्तर गुणों की सम्मिलित संख्या १२ है । पर दि० परम्परामे श्रावकोके मूलगुण ८ और उत्तरगुण १२ माने जाते है। स्वामिसमन्तभद्रने पाँच स्थूल पापोके और मद्य, मास, मधुके परित्यागको अष्टमूलगुण कहा है, पर श्रावकके उत्तरगुणोंकी संख्याका कोई उल्लेख नहीं किया है। हाँ, परवर्ती सभी प्राचार्योंने उत्तरगुणों की संख्या १२ ही बताई है। ___ इसके अतिरिक्त समन्तभद्रने अपने सामने उपस्थित आगम साहित्यका अवगाहन कर और उनके तत्त्वो को अपनी परीक्षा-प्रधान दृष्टिसे कसकर बुद्धि-ग्राह्य ही वर्णन किया है । उदाहरणार्थ-तत्त्वार्थसूत्रके सन्मुख होते हुए भी उन्होने देशावकाशिकको गुणव्रत न मानकर शिक्षाबत माना और भोगोपभोग परिमाणको चारित्रपाइड कार्तिकेयानुप्रेक्षाके समान गुणव्रत ही माना। उनकी दृष्टि इस बातपर अटकी कि शिक्षाव्रत तो अल्पकालिक साधना रूप होते हैं, पर भोगोपभोगका परिमाण तो यमरू पसे यावजीवन के लिए भी होता है फिर उसे शिक्षाव्रतोंमें कैसे गिना जाय ! इसके साथ ही दूसरा संशोधन देशावकाशिकको स्वामिकार्तिकेयके समान चौथा शिक्षाव्रत न मानकर प्रथम माननेके रूपमे किया। उनकी तार्किक दृष्टिने उन्हें बताया कि सामायिक और प्रोषधोपवासके पूर्व ही देशविकाशिकका स्थान होना चाहिए क्योकि उन दोनोकी अपेक्षा इसके कालकी मर्यादा अधिक है। इसके सिवाय उन्होंने श्रा० कुन्दकुन्दके द्वारा प्रतिपादित सल्लेखनाको शिक्षा व्रत रूपसे नहीं माना। उनकी दार्शनिक दृष्टिको यह जॅचा ही नहीं कि मरणके समय की जानेवाली सल्लेखना जीवन भर अभ्यास किये जानेवाले शिक्षाव्रतोंमे कैसे स्थान पा सकती है ? अतः उन्होंने उसके स्थानपर वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रतको कहा। सूत्रकारने अतिथि-संविभाग नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है, पर उन्हे यह नाम भी कुछ संकुचित या अव्यापक जॅचा, क्योंकि इस व्रतके भीतर वे जितने कार्योंका समावेश करना चाहते थे, वे सब अतिथि-संविभाग नामके भीतर नहीं आ सकते थे। उक्त संशोधनोके अतिरिक्त अतीचारोंके विषयमे भी उन्होंने कई संशोधन किये। तत्त्वार्थसूत्रगत परिग्रहपरिमाणवतके पाँचों अतीचार तो एक 'अतिक्रमण' नाममे ही आ जाते हैं, फिर उनके पचरूपताकी क्या सार्थकता रह जाती है, अतः उन्होंने उसके स्वतंत्र ही पाँच अतीचारोंका प्रतिपादन किया। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रगत भोगोपभोग-परिमाणके अतीचार भी उन्हे अव्यापक प्रतीत हुए क्योंकि वे केवल भोगपर ही घटित होते हैं, अतः इस व्रतके भी स्वतंत्र अतीचारोंका निर्माण किया । और यह दिखा दिया कि वे गतानुगतिक या श्राज्ञाप्रधानी न होकर परीक्षाप्रधानी हैं। इसी प्रकार एक संशोधन उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचारोमें भी किया। उन्हें इत्वरिकापरिगृहीतागमन और इत्वरिकाअपरिगृहीतागमनमै कोई खास भेद दृष्टि १ मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुगृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥-रखक० २ अणुव्रतानि पंचैव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्युादशोत्तरे ॥-यशस्तिलक० प्रा० ७. ३ अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच लक्ष्यन्ते ॥६२॥-रत्नक० ४ विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवी। भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पंच कथ्यन्ते ॥९॥-रत्नक० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास गोचर नहीं हुआ, क्योकि स्वदारसन्तोषीके लिए तो दोनों ही परस्त्रियाँ हैं। अतः उन्होंने उन दोनोंके स्थानपर एक इत्वरिकागमनको रखकर 'विटत्व' नामक एक और अतीचारकी स्वतंत्र कल्पना की, जो कि ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचार होनेके सर्वथा उपयुक्त है। श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले श्रादिके दोनों ही प्रकारोंको हम रत्नकरण्डकमे अपनाया हुआ देखते हैं, तथापि ग्यारह प्रतिमाओंका ग्रन्थके सबसे अन्तमे वर्णन करना यह बतलाता है कि उनका झुकाव प्रथम प्रकारकी अपेक्षा दूसरे प्रतिपादन-प्रकारकी ओर अधिक रहा है। अर्हत्पूजनको वैयावृत्त्यके अन्तर्गत वर्णन करना रत्नकरण्डककी सबसे बड़ी विशेषता है। इसके पूर्व पूजनको श्रावक-व्रतोंमे किसीने नहीं कहा है। सम्यक्त्वके श्राठ अंगोंमें, पाँच अणुव्रतोमे, पाँच पापोंमें और चारो दानोंके देनेवालोंमे प्रसिद्धिको प्राप्त करनेवालोंके नामोंका उल्लेख रत्नकरण्डककी एक खास विशेषता है, जो कि इसके पूर्वतक किसी ग्रन्थमें दृष्टिगोचर नहीं होती। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने श्रावक-धर्मको पर्याप्त पल्लवित और विकसित किया और उसे एक व्यवस्थित रूप देकर भविष्यको पीढ़ीके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। आचार्य जिनसेन स्वामिसमन्तभद्रके पश्चात् श्रावकाचारका विस्तृत वर्णन जिनसेनाचार्यके महापुराणमें मिलता है। जिनसेनने ही ब्राह्मणोकी उत्पत्तिका आश्रय लेकर दीक्षान्वय आदि क्रियाओंका बहुत विस्तृत वर्णन किया है और उन्होंने ही सर्वप्रथम पक्ष, चर्या और साधनरूपसे श्रावकधर्मका प्रतिपादन किया है, जिसे कि परवर्ती प्रायः सभी श्रावकाचार-रचयिताअोने अपनाया है। प्रा. जिनसेनने इन नाना प्रकारकी क्रियाओंका और उनके मंत्रादिकोंका वर्णन कहाँ से किया, इस बातको जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं हैं। हाँ, स्वयं उन्हींके उल्लेखोंसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके सामने कोई उपासकसूत्र या इसी नामका कोई ग्रन्थ अवश्य था, जिसका एकाधिक बार उल्लेख उन्होंने श्रादिपुगणके ४०वें पर्वमे किया है। संभव है, उसीके श्राधारपर उन्होंने पक्ष, चर्या, साधनरूपसे श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले तीसरे प्रकारको अपनाया हो। इन्होंने बारह व्रतोंके नाम आदिमें तो कोई परिवर्तन नहीं किया है, पर अाठ मूलगुणोमें मधुके स्थानपर छूतका त्याग श्रावश्यक बताया है। इस द्यूतको यदि शेष व्यसनोंका उपलक्षण मानें, तो यह अर्थ निकलता है कि पाक्षिक श्रावकको कमसे कम सात व्यसनोंका त्याग और श्राठ मूलगुणोंका धारण करना अत्यन्त श्रावश्यक है। संभवतः इसी तर्कके बलपर पं० अाशाधरजी श्रादिने पाक्षिक श्रावकके उक्त कर्तव्य बताये हैं। जिनसेनके पूर्व हम किसी आचार्यको व्यसनोंके त्यागका उल्लेख करते नहीं पाते, इससे पता चलता है कि समन्तभद्रके पश्चात् और जिनसेनके पूर्व लोगोमे सप्तव्यसनोंकी प्रवृत्ति बहुत जोर पकड़ गई थी, और इसलिए उन्हें उसका निषेध यथास्थान करना पड़ा। श्रा०जिनसेनने पूजाको चौथे शिक्षाव्रतके भीतर न मानकर गृहस्थका एक स्वतंत्र कर्तव्य माना और उसके नित्यमह, आष्टाह्निकमह, चतुर्मुखमह, महामह आदि भेद करके उसके विभिन्न काल और अधिकारी घोषित किये। जिनचैत्य, जिनचैत्यालय श्रादिके निर्माणपर भी जिनसेनने ही सर्वप्रथम जोर दिया है । हालाँकि, रविषेणाचार्य आदिकने अपने पद्मपुराण आदि ग्रन्थों में पूजन-अभिषेक आदिका यथास्थान वर्णन किया है, पर उनका व्यवस्थित रूप हमे सर्वप्रथम आदिपुराणमे ही दृष्टिगोचर होता है। वर्तमानमे उपलब्ध गर्भाधानादि यावन्मात्र सस्कारों और क्रियाकांडोके प्रतिष्ठापक जिनसेन ही माने जाते हैं पर वे स्वयं अविद्धकर्णा थे अर्थात् उनका कर्णवेधन संस्कार नहीं हुआ था, यह जयधवलाकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है। __ आचार्य सोमदेव प्रा० सोमदेवने अपने प्रसिद्ध और महान् ग्रन्थ यशस्तिलकके छठे, सातवें और आठवें आश्वासमें श्रावकधर्मका बहुत विस्तारसे वर्णन किया है और इसलिए उन्होंने स्वयं ही उन आश्वासोंका नाम 'उपासका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ध्ययन' रखा है। सोमदेवने समन्तभद्रके रत्नकरएडकको आधार बनाकर अपने उपासकाध्ययनका निर्माण किया है, ऐसा प्रत्येक अभ्यासीको प्रतीत हुए विना न रहेगा। छठे श्राश्वासमे उन्होने समस्त मतोंकी चर्चा करके तत्तन्मतों द्वारा स्वीकृत मोक्षका स्वरूप बतलाकर और उनका निरसन कर जैनाभिमत मोक्षका स्वरूप प्रतिष्ठित किया कि जहाँपर 'श्रात्यन्तिक अानन्द, ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य और परम सूक्ष्मता है, वही मोक्ष है' और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक ही उसका मार्ग है। पुनः प्राप्तके स्वरूपकी विस्तारके साथ मीमासा करके आगम-वर्णित पदार्थों की परीक्षा की और मूढतात्रोका उन्मथन करके सम्यक्त्वके आठ अगोका एक नवीन शैलीसे विस्तृत वर्णन किया और साथ ही प्रत्येक अगमे प्रसिद्धि पानेवाले व्यक्तियोंका चरित्र-चित्रण किया। इसी श्राश्वासके अन्तमे उन्होने सम्यक्त्वके विभिन्न भेदो और दोषोंका वर्णन कर सम्यक्त्वको महत्ता बतलाकर रत्नत्रयकी आवश्यकता बतलाई और उसका फल बतलाया कि सम्यक्त्वसे सुगति, ज्ञानसे कीर्ति, चारित्रसे पूजा और तीनोंसे मुक्ति प्रास होती है। सातवें आश्वासमे मद्य, मास, मधु और पाँच उदुम्बरफलोंके त्यागको अष्टमूल गुण बताया। जहाँतक मैं समझता हूँ, स्वामि-प्रतिपादित और जिनसेन-अनुमोदित पंच अणुव्रतोंके स्थानपर पंच-उदुम्बर-परित्यागका उपदेश देवसेन और सोमदेवने ही किया है, जिसे कि परवर्ती सभी विद्वानोंने माना है। सोमदेवने अाठ मूलगुणोंका प्रतिपादन करते हुए 'उक्ता मूलगुणाःश्रुते ऐसा जो कथन किया है, उससे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके सामने कोई ऐसा शास्त्राधार अवश्य रहा है, जिसमें कि पाँच उदुम्बर-त्यागको मूलगुणोंमे परिगणित किया गया है। जिनसेन और सोमदेवके मध्य यद्यपि अधिक समयका अन्तर नहीं है, तथापि जिनसेनने मूलगुणोंमे पाँच अणुव्रतोंको और सोमदेवने पाँच उदुंबर फलोंके त्यागको कहा है, दोनोंका यह कथन रहस्यसे रिक्त नहीं है और ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मूलगुणोंके विषयमे स्पष्टतः दो परम्पराएँ चल रही थीं, जिनमेंसे एकका समर्थन जिनसेन और दूसरेका समर्थन सोमदेवने किया है। इतनेपर भी आश्चर्य इस बातका है कि दोनों ही अपने-अपने कथनकी पुष्टिमे श्रुतपठित-उपासकाध्ययन' या उपासक सूत्रका आश्रय लेते हैं, जिससे यह निश्चय होता है कि दोनोंके सामने उपस्थित उपासकाध्ययन या उपासक सूत्र सर्वथा भिन्न ग्रन्थ रहे हैं। दुःख है कि आज वे दोनों ही उपलब्ध नहीं है और उनके नाम शेष रह गये हैं। मद्य, मांसादिकके सेवनमें महापापको बतलाते हुए प्रा० सोमदेवने उनके परित्यागपर जोर दिया और बताया कि 'मांस-भक्षियोंमें दया नहीं होती, मद्य-पान करनेवालोंमें सत्य नहीं होता, तथा मधु और उदुम्बरफल-सेवियोमें नृशंसता-क्रूरताका अभाव नहीं होता। इस प्रकरणमें मांस न खानेके लिए जिन युक्तियोंका प्रयोग सोमदेवने किया है, परवर्ती समस्त ग्रन्थकारोने उनका भरपूर उपयोग किया है। १ श्रानन्दो ज्ञानमैश्वर्यं वीर्यं परमसूचमता। एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः॥-यश० श्रा० ६. २ सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीर्तिरुदाहृता। वृत्तात्पूजामवामोति याच लभते शिवम् ॥-यश० प्रा० ६. ३ मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपञ्चकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणा अ ते ॥-यश० आ० ७. ४ इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रुतपठितमुपासकाध्ययनम् ॥-यश० प्रा० ५ ५ गुणेष्वेष विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्तादधिगम्यः प्रपञ्चतः ॥२१३॥-श्रादिपु० पर्व ४० ६ मांसादिषु दया नास्ति, न सत्यं मद्यपायिषु । अनृशंस्यं न म]षु मधदम्बरसेविष ॥-यश० प्रा० . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास आठ मूलगुणोंके पश्चात् श्रावकोके बारह उत्तर गुणोंका वर्णन किया गया है। श्रावकोंके उत्तर गणोंकी संख्याका ऐसा स्पष्ट उल्लेख इनके पूर्ववर्ती ग्रन्थोंमें देखनेमे नहीं आया। सोमदेवने पाँच अणुव्रतोंका वर्णन कर पाँचों पापोंमें प्रसिद्ध होनेवाले पुरुषों के चरित्रोका चित्रण किया और अहिंसाव्रतके रक्षार्थ रात्रिभोजनके परिहारका, भोजनके अन्तरायोका, और अभक्ष्य वस्तुओंके सेवनके परित्यागका वर्णन किया । पुनः मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओंका वर्णन कर पुण्य-पापका प्रधान कारण परिणामोंको बतलाते हुए मन-वचन-काय सम्बन्धी अशुभ क्रियाअोके परित्यागका उपदेश दिया। इसी प्रकरणमे उन्होंने यज्ञोंमे पशुबलिकी प्रवृत्ति कबसे कैसे प्रचलित हुई इसका भी सविस्तर वर्णन किया । अन्तमै प्रत्येक व्रतके लौकिक लाभोको बताया, जो कि उनकी लोकसग्राहक मनोवृत्तिका ज्वलंत उदाहरण है। इसी आश्वासमे दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डवतरूप तीनो गुणव्रतोंका वर्णन किया है, जो कि अत्यन्त संक्षिप्त होते हुए भी अपने आपमे पूर्ण और अपूर्व है। आठवें श्राश्वासमै शिक्षाव्रतों का वर्णन किया गया है, जिसमे से बहु भाग स्थान सामयिक-शिक्षाबत के वर्णन ने लिया है। सोमदेव ने प्राप्तसेवा या देवपूजा को सामायिक कहा है। अतएव उन्होंने इस प्रकरण मे स्नपन (अभिषेक) पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव इन छह कर्तव्योंका करना आवश्यक बताकर उनका खूब विस्तारसे वर्णन किया है, जो कि अन्यत्र देखनेको नहीं मिलेगा। यहाँ यह एक विचारणीय बात है कि जब स्वामी समन्तभद्ने देवपूजाको वैयावृत्त्य नामक चतुर्थ शिक्षाव्रतके अन्तर्गत कहा है, तब सोमदेवसूरिने उसे सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत करके एक नवीन दिशा विचारकोंके सामने प्रस्तुत की है। श्रा० जिनसेनने इज्याओंके अनेक भेद करके उनका विस्तृत वर्णन किया है पर जहाँ तक मैं समझता हूँ उन्होंने देवपूजाको किसी शिक्षाव्रतके अन्तर्गत न करके एक स्वतन्त्र कर्तव्यके रूपसे उसका प्रतिपादन किया है। देवपूजाको वैयावृत्यके भीतर कहनेकी श्रा० समन्तभद्रकी दृष्टि स्पष्ट है, वे उसे देव-वैयावृत्य मानकर तदनुसार उसका प्रतिपादन कर रहे हैं। पर सोमदेवसूरिने सामायिक शिक्षाव्रतके भीतर देवपूजाका वर्णन क्यो किया, इस प्रश्नके तलमें जब हम प्रवेश करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य मतावलम्बियोंमै प्रचलित त्रिसन्ध्या-पूजनका समन्वय करनेके लिए मानों उन्होंने ऐसा किया है, क्योंकि सामायिकके त्रिकाल करनेका विधान सदासे प्रचलित रहा है। श्रा० समन्तभद्रने सामायिक प्रतिमाके वर्णनमें 'त्रिसन्ध्यमभिवन्दी' पद दिया है, ऐसा प्रतीत होता है कि सोमदेवसरिने उसे ही पल्लवित करके भावपूजनकी प्रधानतासे गृहस्थके नित्य-नियम में प्रचलित षडावश्यकोंके अन्तर्गत माने जानेवाले सामायिक और वन्दना नामके दो आवश्यकों को एक मान करके ऐसा वर्णन किया है।। पूजनके विषयमें दो विधियाँ सर्वसाधारणमें सदासे प्रचलित रही हैं-एक तदाकार मूर्तिपूजा और दूसरी अतदाकार सांकल्पिक पूजा। प्रथम प्रकारमें स्नपन और अष्टद्रव्यसे अर्चन प्रधान है, तब द्वितीय प्रकारमें अपने आराध्य देवकी आराधना-उपासना या भावपूजा प्रधान है। तीनों संध्याएँ सामायिकका काल मानी गई हैं, उस समय गृहस्थ गृहकार्योंसे निर्द्वन्दू होकर अपने उपास्य देवकी उपासना करे, यही उसका सामायिक शिक्षावत है। श्रा० सोमदेव त्रैकालिक सामायिककी भावना करते हुए कहते हैं: प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्नसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन ॥ अर्थात्-हे देव, मेरा प्रातःकालका समय तेरे चरणारविन्दके पूजनके द्वारा, मध्याह्नकाल मुनिजनोके सम्मानके द्वारा और सायतन समय तेरे श्राचरणके कीर्तन द्वारा व्यतीत होवे। १प्राप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥-यश० प्रा०८ २ स्नपनं पूजन स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः। षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥-यश० प्रा०८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार श्रा० सोमदेवके इस कथनसे एक और नवीन बातपर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि वे प्रातःकालके मौनंपूर्वक पूजनको, मध्याह्नमे भक्तिपूर्वक दिये गये मुनि-दानको और शामको की गई तत्त्वचर्चा, स्तोत्र पाठ या धमापदेश आदिको हो गृहस्थकी त्रैकालिक सामायिक मान रहे हैं। इसी प्रकरणमे स्तवन, नाम-जपन और ध्यान-विधिका भी विस्तारसे वर्णन किया गया है। प्रोषधोपवास और भोगोपभोग-परिमाणका संक्षेपसे वर्णन कर अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रतका यथाविधि, यथादेश, यथाश्रागम, यथापात्र और यथाकालके आश्रयसे विस्तृत वर्णन किया है। अन्तमे दाताके सप्तगुण और नवधा भक्तिकी चर्चा करते हुए कहा है कि भोजनमात्रके देने में तपस्वियोकी क्या परीक्षा करना ? यही एक बड़ा आश्चर्य है कि श्राज इस कलिकालमें-जब कि लोगोंके चित्त अत्यन्त चचल हैं, और देह अन्नका कीट बना हुआ है, तब हमें जिनरूपधारी मनुष्योंके दर्शन हो रहे हैं। अतः उनमे प्रतिमाओंमे अर्हन्तको स्थापनाके समान पूर्व मुनियोंकी स्थापना करके उन्हें पूजना और भक्तिपूर्वक श्राहार देना चाहिए'। साधुओं की वैयावृत्त्य करनेपर भी अधिक जोर दिया गया है। अन्तमै उन्होंने श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमानोंके नाममात्र दो श्लोकोंमें गिनाये हैं, इसके अतिरिक्त उनके ऊपर अन्य कोई विवेचन नहीं किया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं: मूलव्रतं व्रतान्यर्चा पर्वकर्माकृषिक्रियाः। दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ॥ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तद्धानौ च बदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमम् ॥ अर्थात्-१ मूलवत, २ उत्तरखत, ३ अर्चा या सामायिक, ४ पर्वकर्म या प्रोषध, ५ अकृषिक्रिया या पापारम्भत्याग, ६ दिवा ब्रह्मचर्य, ७ नवधा ब्रह्मचर्य, ८ सचित्तत्याग, ६ परिग्रहत्याग, १० भुक्तिमात्रानुमान्यता या शेषानुमति त्याग, ११ भुक्ति अनुमतिहानि या उद्दिष्ट भोजनत्याग ये यथाक्रमसे ग्यारह श्रावकपद माने गये हैं। दि० परम्पराकी प्रचलित परम्पराके अनुसार सचित्त त्यागको पाँचवीं और कृषि आदि प्रारम्भके त्यागको आठवीं प्रतिमा माना गया है, पर सोमदेवके तर्कप्रधान एवं बहुश्रुत चित्तको यह बात नहीं जॅची कि कोई व्यक्ति सचित्त भोजन और स्त्रीका परित्यागी होनेके पश्चात् भी कृषि आदि पापारम्भवाली क्रियाश्रोको कर सकता है ? अतः उन्होंने प्रारम्भ त्यागके स्थानपर सचित्त त्याग और सचित्त त्यागके स्थानपर प्रारम्भत्याग प्रतिमाको गिनाया। श्वे. आचार्य हरिभद्रने भी सचित्तत्यागको आठवीं प्रतिमा माना है। सोमदेवके पूर्ववर्ती या परवर्ती किसी भी दि० श्राचार्यके द्वारा उनके इस मतकी पुष्टि नहीं दिखाई देती। इसके पश्चात् प्रतिमाओंके विषयमें एक और श्लोक दिया है जो कि इस प्रकार है: अवधिवतमारोहेत्पूर्व-पूर्वव्रतस्थितः । सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः ॥-यशस्ति० प्रा० ८ . अर्थात्-पूर्व पूर्व प्रतिमारूप व्रतमें स्थित होकर अवधि व्रतपर आरोहण करे। ज्ञान और दर्शनकी भावनाएँ तो सभी प्रतिमाओंमें समान कही हैं। इस पद्यमें दिया गया 'अवधिवत' पद खास तौरसे विचारणीय है। क्या सोमदेव इस पदके द्वारा श्वेताम्बर-परम्पराके समान प्रतिमाओंके नियत-कालरूप अवधिका उल्लेख कर रहे हैं, अथवा अन्य कोई अर्थ उन्हें अभिप्रेत है ? १ भुक्तिमानप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति । काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः॥ यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्वमुनिच्छाया पूज्याः संप्रति संयताः॥ -यशस्ति० प्रा०८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्मका क्रमिक विकास ___अन्तमे उपासकाध्ययनका उपसंहार करते हुए प्रकीर्णक प्रकरण द्वारा अनेक अनुक्त या दुरुक्त बातोका भी स्पष्टीकरण किया गया है। सोमदेवके इस समुच्चय उपासकाध्ययनको देखते हुए निःसन्देह कहा जा सकता है कि यह सचमुचमें उपासकाध्ययन है और इसमे उपासकोंका कोई कर्तव्य कहनेसे नहीं छोड़ा गया है। केवल श्रावक-प्रतिमाओंका इतना संक्षिप्त वर्णन क्यों किया, यह बात अवश्य चित्तको खटकती है। आचार्य देवसेन श्रा० देवसेनने अपने भावसंग्रह नामक ग्रन्थमे पाँचवें गुणस्थानका वर्णन करते हुए श्रावक धर्मका विस्तृत विवेचन किया है । इन्होने भी सोमदेवके समान ही पाँच उदुम्बर और मद्य, मांस, मधुके त्यागको अाठ मूलगुण माना है। पर गुणव्रत और शिक्षाव्रतोके नाम कुन्दकुन्दके समान ही बतलाये हैं। यद्यपि श्रा० देवसेनने पूरी २५० गाथाओंमें पाँचवें गुणस्थानका वर्णन किया है, पर अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाबतका वर्णन एक-एक ही गाथामें कर दिया है, वह भी श्रा० कुंदकुंदके समान केवल नामोंको ही गिनाकर । ऐसा प्रतीत होता है मानो इन्हें बारह व्रतोंका अधिक वर्णन करना अभीष्ट नहीं था। ऐसा करनेका कारण यह प्रतीत होता है कि अन्य प्राचार्योंने उनपर पर्याप्त लिखा है, अन्तः उन्होंने उनपर कुछ और लिखना व्यर्थं समझा। इन्होने ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करना तो दूर रहा, उनका नामोल्लेख तक भी नहीं किया है, न सप्त व्यसनों, बारह व्रतोंके अतीचारोंका ही कोई वर्णन किया है। संभवतः अपने ग्रन्थ 'भावसंग्रह' इस नामके अनुरूप उन्हें केवल भावोंका ही वर्णन करना अभीष्ट रहा हो, यही कारण है कि उन्होंने गृहस्थोंके पुण्य, पाप और धर्मध्यानरूप भावोंका खूब विस्तारसे विचार किया है। इस प्रकरणमें उन्होंने यह बताया है कि गृहस्थके निरालंब ध्यान संभव नहीं, अतः उसे सालंब ध्यान करना चाहिये। सालंब ध्यान भी गृहस्थके सर्वदा संभव नहीं हैं, अतः उसे पुण्य-वर्धक कार्य, पूजा, व्रत-विधान उपवास और शीलका पालन करना चाहिए, तथा चारो प्रकारका दान देते रहना चाहिए। अपने इस वर्णनमें उन्होंने देवपूजापर खास जोर दिया है और लिखा है कि सम्यग्दृष्टिका पुण्य मोक्षका कारण होता है अतः उसे यत्नके साथ पुर यका उपार्जन करना चाहिए। पूजाके अभिषेकपूर्वक करनेका विधान किया है। १ महुमज्जमंसविरई चारो पण उंबराण पंचाहं । अछेदे मूलगुणा हवंति फुडु देसविरयम्मि ॥३५६॥-भावसंग्रह २ देखो-भावसं० गा० नं० ३५४-३५५, ३ जो भणइ को वि एवं अस्थि गिहत्थाण णिच्चलं झाणं । सुद्धं च णिरालंबं ण मुणइ सो आयमो जइणो ॥३२॥ तम्हा सो सालंबं झायउ माणं पि गिहबई णिच्चं । पंचपरमेडिरूवं अहवा मंतक्खरं तेसिं ॥३८॥ ४ इय णाऊण विसेसं पुण्णं आयरइ कारणं तस्स । पावहणं जाम सयलं संजमयं अप्पमत्तं च ॥४८७॥ भावह अणुब्वयाई पालह सीलं च कुणह उपवासं । पम्वे पव्वे णियमं दिजह अणवरह दाणाइं ॥४८॥ ५ तम्हा सम्मादिट्ठी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवइ । इय णाऊण गिहत्थो पुण्णं चायरड जत्तेण ॥४२॥ पुण्णस्स कारणं फुड पढमं ता हवइ देवपूया य । कायग्वा भत्तीए सावयवग्गेण परमाए ॥४२५||-भावसंग्रह Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार इस प्रकरणमे उन्होने सिद्धचक्रयत्र आदि पूजा-विधानका, चारों दानोंका, उनकी विधि, द्रव्य, दाता और पात्रकी विशेपताका, तथा दानके फलका विस्तारसे वर्णन किया है। और अन्तमे पुण्यका फल बताते हुए लिखा है कि पुण्यसे ही विशाल कुल प्राप्त होता है, पुण्यसेही त्रैलोक्यमे कीर्ति फैलती है, पुण्यसे ही अतुलरूप, सौभाग्य यौवन और तेज प्राप्त होता है, अतः गृहस्थ जब तक घरको और घर-सम्बन्धी पापोको नहीं छोड़ता है, तब तक उसे पुण्यके कारणोंको भी नहीं छोड़ना चाहिए,' अर्थात् सदा पुण्यका संचय करते रहना चाहिए। यदि एक शब्दमे कहा जाय तो श्रा० देवसेनके मतानुसार पुण्यका उपार्जन करना ही श्रावकका धर्म है। और श्रा० कुन्दकुन्दके समान पूजा और दान ही श्रावकका मुख्य कर्त्तव्य है । आचार्य अमितगति श्रा० सोमदेवके पश्चात् संस्कृत साहित्यके प्रकाण्ड विद्वान् श्रा० अमितगति हुए हैं। इन्होंने विभिन्न विषयोपर अनेक ग्रन्थोकी रचना की है। श्रावकधर्मपर भी एक स्वतंत्र उपासकाध्ययन बनाया है, 'जो अमितगतिश्रावकाचार' नामसे प्रसिद्ध है। इसमे १४ परिच्छेदोके द्वारा श्रावकधर्मका बहुत विस्तारके साथ वर्णन किया है। संक्षेपमे यदि कहा जाय, तो अपने पूर्ववर्ती समन्तभद्र के रत्नकरण्डक, उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका सप्तम अध्याय, जिनसेनका महापुराण, सोमदेवका उपासकाध्ययन और देवसेनका भावसंग्रह सामने रखकर अपनी स्वतंत्र सरणिद्वारा श्रावकधर्मका प्रतिपादन किया है और उसमे यथास्थान अनेक विषयोंका समावेश करके उसे पल्लवित एवं परिवर्धित किया है। श्रा० अमितगतिने अपने इस ग्रन्थके प्रथम परिच्छेदमे धर्मका माहात्म्य, द्वितीय परिच्छेदमे मिथ्यात्वकी अहितकारिता और सम्यक्त्वकी हितकारिता, तीसरेमें सप्ततत्त्व, चौथेमें आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि और ईश्वर सृष्टिकतत्वका खडन किया है। अन्तिम तीन परिच्छेदोंमे क्रमशः शील, द्वादश तप और बारह भावनाओंका वर्णन किया है। मध्यवर्ती परिच्छेदोमें रात्रिभोजन, अनर्थदंड, अभक्ष्य-भोजन, तीन शल्य, दान, पूजा और सामायिकादि षडावश्यकोंका विस्तारके साथ वर्णन किया है । पर हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि श्रावकधर्मके आधारभूत बारह व्रतोंका वर्णन एक ही परिच्छेद में समाप्त कर दिया गया है। और श्रावकधर्मके प्राणभूत ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णनको तो एक स्वतन्त्र परिच्छेदकी भी आवश्यकता नहीं समझी गई है, मात्र ११ श्लोकोमै बहुत ही साधारण ढंगसे प्रतिमाओंका स्वरूप कहा गया है। स्वामी समन्तभद्रने भी एक एक श्लोकके द्वारा ही एक-एक प्रतिमाका वर्णन किया है, पर वह सूत्रात्मक होते हुए भी बहुत स्पष्ट और विस्तृत है। प्रतिमाओंके संक्षिप्त विवेचनका आरोप सोमदेव सूरिपर भी लागू है। इन श्रावकाचार-रचयिताओंको ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करना क्या रुचिकर नहीं था या अन्य कोई कारण है, कुछ समझमे नहीं आता ? श्रा० अमितगतिसे सप्तव्यसनोंका वर्णन यद्यपि ४६ श्लोकोंमें किया है, पर वह बहुत पीछे। यहाँ तक कि १२ व्रत, समाधिमरण और ११ प्रतिमाओंका वर्णन कर देनेके पश्चात् स्फुट विषयोंका वर्णन करते हुए। क्या अमितगति वसुनन्दिके समान सप्त व्यसनोंके त्यागको श्रावकका आदि कर्त्तव्य नहीं मानते थे ? यह एक प्रश्न है, जिसके अन्तस्तलमें बहुत कुछ रहस्य निहित प्रतीत होता है। विद्वानोंको इस ओर गंभीर एवं सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेकी आवश्यकता है। १ पुरणेण कुलं विउलं कित्ती पुण्णेण भमइ तइलोए। पुरणेण रूवमतुलं सोहग्गं जोवणं तेयं ॥५८६।। जाम ण छडइ गेहं ताम ण परिहरइ इंतयं पावं । पावं अपरिहरंतो हेो पुण्णस्स मा चयउ ॥३९३॥ -भावसंग्रह Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मका क्रमिक विकास ५३ श्रा० अमितगतिने गुणव्रत तथा शिक्षा-व्रतोंके नामोंमें उमास्वातिका और स्वरूप वर्णनमें सोमदेवका अनुसरण किया है । पूजनके वर्णनमें देवसेनका अनुसरण करते हुए भी अनेक ज्ञातव्य बातें कहीं हैं। निदानके प्रशस्त अप्रशस्त भेद, उपवासकी विविधता, आवश्यकोंमे स्थान, श्रासन, मुद्रा, काल आदिका वर्णन अमितगतिके उपासकाध्ययनकी विशेषता है । यदि एक शब्दमें कहा जाय, तो अपने पूर्ववर्ती उपासकाचारों का संग्रह और उनमे कहनेसे रह गये विषयोंका प्रतिपादन करना ही अमितगतिका लक्ष्य रहा है। । आचार्य अमृतचन्द्र प्राचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके अमर टीकाकार अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामके एक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की है। इसमें उन्होंने बताया है कि जब यह चिदात्मा पुरुष अचल चैतन्यको प्राप्त कर लेता है तब वह परम पुरुषार्थ रूप मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो जाता है। इस मुक्तिको प्राप्तिका उपाय बताते हुए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनका बहुत सुन्दर विवेचन किया। पुनः सम्यग्ज्ञानकी श्रागधनाका उपदेश दिया। तदनन्तर सम्यक्चारित्रकी व्याख्या करते हुए हिंसादि पापोंकी एक देश विरतिमे निरत उपासकका वर्णन किया है। इस प्रकरणमे अहिंसाका जो अपूर्व वर्णन किया गया है, वह इसके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्व पापोकी मूल हिंसा है, अतः उसीके अन्तर्गत सर्व पापोंको घटाया गया है और बताया गया है कि किस प्रकार एक हिंसा करे और अनेक हिंसाके फल को प्राप्त हो, अनेक हिंसा करें और एक हिंसाका फल भोगे । किसीकी अल्प हिंसा महाफलको और किसीकी महाहिसा अल्प फलको देती है। इस प्रकार नाना विकल्पोंके द्वारा हिंसा-अहिसाका विवेचन उपलब्ध जैनवाङ्मयमें अपनी समता नहीं रखता। इन्होंने हिंसा त्यागने के इच्छुक पुरुषोंको सर्व प्रथम पाँच उदुम्बर और तीन मकारका परित्याग अावश्यक बताया और प्रबल युक्तियोसे इनका सेवन करनेवालोंको महाहिंसक बताया। अन्तमें आपने यह भी कहा कि इन अाठ दुस्तर पापोका परित्याग करने पर ही मनुष्य जैनधर्म-धारण करनेका पात्र हो सकता है। धर्म, देवता या अतिथिके निमित्त की गई हिंसा हिंसा नहीं, इस मान्यताका प्रबल युक्तियोंसे अमृतचन्द्रने खंडन किया है। पुनः तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार शेष अणुव्रत, गुणवत और शिक्षाबतोका सातिचार वर्णन किया है। अन्तमे तप, भावना और परीषहादिकका वर्णन कर ग्रन्थ पूर्ण किया है। आचार्य वसुनन्दि श्रा० वसुनन्दिने अपने उपासकाध्ययनमै किन किन नवीन बातों पर प्रकाश डाला है, यह पहले 'वसुनन्दि श्रावकाचारकी विशेषताएँ, शीर्षकमे विस्तारसे वताया जा चुका है। यहाँ संक्षेपमें इतना जान लेना चाहिए कि इन्होंने ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका प्रतिपादन किया है उसमें सर्व प्रथम दार्शनिक श्रावकको सप्तव्यसनका त्याग अावश्यक बताया। व्यसनोंके फलका विस्तारसे वर्णन किया। बारह व्रतोंका और ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन प्राचीन परम्पराके अनुसार किया, जिन पूजा, जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठाका निरूपण किया। व्रतोंका विधान किया और दानका पाँच अधिकारों द्वारा विस्तृत विवेचन किया। सक्षेपमें अपने समयके लिए श्रावश्यक सभी तत्वोंका समावेश अपने प्रस्तुत ग्रन्थमें किया है। पण्डित-प्रवर आशाधर अपने पूर्ववर्ती समस्त दि० श्वे० श्रावकाचाररूप समुद्रका मथन कर आपने 'सागारधामृत' रचा है। किसी भी प्राचार्य द्वारा वर्णित कोई भी श्रावकका कर्तव्य इनके वर्णनसे छुटने नहीं पाया है। आपने श्रावक १ मद्यं मांस क्षौद्र पचोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाब्युपरतकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥६१॥ २ अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवयं । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥५४॥ --पुरुषार्थसिद्धयुपाय Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार धर्मके प्रतिपादन करनेवाले तीनों प्रकारोका एक साथ वर्णन करते हुए उनके निर्वाहका सफल प्रयास किया है, अतः श्रापके सागारधर्मामृतमे यथास्थान सभी तत्व समाविष्ट हैं। आपने सोमदेवके उपासकाध्ययन, नीतिवाक्यामृत और हरिभद्र सूरिकी श्रावकधर्म-प्रज्ञप्ति का भरपूर उपयोग किया है। अतीचारों की समस्त व्याख्याके लिए आप श्वे० श्राचार्योंके आभारी हैं। सप्तव्यसनोके अतीचारोंका वर्णन सागारधर्मामृतके पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थमे नहीं पाया जाता । श्रावककी दिनचर्या और साधककी समाधि व्यवस्था भी बहुत सुन्दर लिखी गई है। उनका सागारधर्मामृत सचमुचमे श्रावकोंके लिए धर्मरूप अमृत ही है। १६-श्रावक-प्रतिमाओंका आधार श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका श्राधार क्या है, और किस उद्देश्यकी पूर्ति के लिए इनकी कल्पना की गई है, इन दोनो प्रश्नों पर जब हम विचार करते हैं, तो इस निर्णय पर पहुंचते है कि प्रतिमाओंका आधार शिक्षाव्रत है और शिक्षावतोका मुनिपदकी प्राप्तिरूप जो उद्देश्य है, वही इन प्रतिमाओंका भी है। शिक्षाबतोंका उद्देश्य-जिन व्रतोके पालन करनेसे मुनिव्रत धारण करनेकी, या मुनि बननेकी शिक्षा मिलती है, उन्हे शिक्षावत कहते हैं। स्वामी समन्तभद्रने प्रत्येक शिक्षाव्रतका स्वरूप वर्णन करके उसके अन्तमे बताया है कि किस प्रकार इससे मुनि समान बननेकी शिक्षा मिलती है और किस प्रकार गृहस्थ उस व्रतके प्रभाव से 'चेलोपसृष्टमुनिरिव' यति-भावको प्राप्त होता है। गृहस्थका जीवन उस व्यापारीके समान हैं, जो किसी बड़े नगरमै व्यापारिक वस्तुएँ खरीदनेको गया । दिन भर उन्हें खरीदनेके पश्चात् शामको जब घर चलनेकी तैयारी करता है तो एक बार जिस क्रमसे वस्तु खरीद की थी, बीजक हाथमे लेकर तदनुसार उसकी सम्भाल करता है और अन्तमे सबकी सम्भाल कर अपने अभीष्ट ग्रामको प्रयाण कर देता है । ठीक यही दशा गृहस्थ श्रावक की है। उसने इस मनुष्य पर्यायरूप ब्रतोंके व्यापारिक केन्द्रमे आकर बारह व्रतरूप देशसंयम सामग्री की खरीद की। जब वह अपने अभीष्ट स्थानको प्रयाण करनेके लिए समुद्यत हुअा, तो जिस क्रमसे उसने जो व्रत धारण किया है उसे सम्भालता हुआ आगे बढ़ता जाता है और अन्तमें सबकी सम्भाल कर अपने अभीष्ट स्थानको प्रयाण कर देता है। श्रावकने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनको धारण किया था, पर वह श्रावकका कोई व्रत न होकर उसकी मूल या नींव है । उस सम्यग्दर्शनरूप मूल या नींवके ऊपर देशसंयम रूप भवन खड़ा करने के लिए भूमिका या कुरसीके रूपमें अष्ट मूलगुणोको धारण किया था और साथ ही सप्त व्यसनका परित्याग भी किया था । संन्यास या साधुल्वकी ओर प्रयाण करनेके अभिमुख श्रावक सर्वप्रथम अपने सम्यक वरूप मुलको और उसपर रखी अष्टमूलगुणरूप भूमिकाको सम्भालता है। श्रावकको इस निरतिचार या निर्दोष संभालको ही दर्शन-प्रतिमा कहते हैं। - इसके पश्चात् उसने स्थूल वधादि रूप जिन महापापोंका त्यागकर अणुव्रत धारण किये थे, उनके निरतिचारिताकी संभाल करता है और इस प्रतिमाका धारी बारह व्रतोका पालन करते हुए भी अपने पाँचों अणुव्रतोंमें और उनकी रक्षाके लिए बाढ़ स्वरूपसे धारण किये गये तीन गुणवतोंमे कोई भी अतीचार नहीं लगने देता है और उन्हींकी निरतिचार परिपूर्णताका उत्तरदायी है। शेष चारो शिक्षाव्रतोंका वह यथाशक्ति अभ्यास करते हुए भी उनकी निरतिचार परिपालनाके लिए उत्तरदायी नहीं है। इस प्रतिमाको धारण करनेके पूर्व ही तीन शल्योंका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है। तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जिसमें कि सामायिक नामक प्रथम शिक्षाव्रतकी परिपूर्णता, त्रैकालिक साधना और निरतिचार परिपालना अत्यावश्यक है। दूसरी प्रतिमामें सामायिक शिक्षाव्रत अभ्यास दशामें था, अतः वहाँपर दो या तीन बार करनेका कोई बन्धन नहीं था; वह इतने ही काल तक सामायिक करे, इस प्रकार १ सामयिके सारम्भाः परिप्रहाः नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ॥१०२॥-रत्नकरण्डक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-प्रतिमाओका आधार कालकृत नियम भी शिथिल था। पर तीसरी प्रतिमा सामायिकका तीनों संध्याश्रोमें किया जाना आवश्यक है और वह भी एक बारमें कमसे कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (४८ मिनिट) तक करना ही चाहिए। सामायिकका उत्कृष्ट काल छह घड़ी का है। इस प्रतिमाधारीको सामायिक-सम्बन्धी दोषोंका परिहार भी आवश्यक बताया गया है । इस प्रकार तीसरी प्रतिमाका आधार सामायिक नामका प्रथम शिक्षाव्रत है। चौथी प्रोषध प्रतिमा है, जिसका अाधार प्रोषधोपवास नामक दूसरा शिक्षाव्रत है। पहले यह अभ्यास दशामें था, अतः वहाँपर सोलह, बारह या आठ पहरके उपवास करनेका कोई प्रतिबन्ध नही था, श्राचाम्ल, निर्विकृति आदि करके भी उसका निर्वाह किया जा सकता था। अतीचारोकी भी शिथिलता थी। पर इस चौथी प्रतिमामें निरतिचारता और नियतसमयता आवश्यक मानी गई है। इस प्रतिमाधारीको पर्वके दिन स्वस्थ दशामें सोलह पहरका उपवास करना ही चाहिए। अस्वस्थ या असक्त अवस्थामें ही बारह या आठ पहरका उपवास विधेय माना गया है। ___ इस प्रकार प्रथम और द्वितीय शिक्षाव्रतके आधारपर तीसरी और चौथी प्रतिमा अवलम्बित है, यह निर्विवाद सिद्ध होता है । श्रागेके लिए पारिशेषन्यायसे हमें कल्पना करनी पड़ती है कि तीसरे और चौथे शिक्षाव्रतके आधारपर शेष प्रतिमाएँ भी अवस्थित होनी चाहिए। पर यहाँ आकर सबसे बड़ी कठिनाई यह उपस्थित होती है कि शिक्षाव्रतोंके नामोंमें प्राचार्योंके अनेक मत-भेद है जिनका यहाँ स्पष्टीकरण आवश्यक है। उनकी तालिका इस प्रकार है: प्राचार्य या ग्रन्थ नाम प्रथम शिक्षाबत द्वितीय शिक्षाव्रत तृतीय शिक्षाबत चतुर्थ शिक्षाव्रत १ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र न० १ . सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि पूजा सल्लेखना २ श्रा० कुन्दकुन्द ३ , स्वामिकार्तिकेय देशावकाशिक ४ , उमास्वाति भोगोपभोगपरिमाण अतिथिसंविभाग ५ , समन्तभद्र देशावकाशिक सामायिक प्रोषधोपवास वैयावृत्त्य ६ , सोमदेव सामायिक प्रोषधोपवास भोगोपभोगपरिमाण दान ७ ,, देवसेन अतिथिसंविभाग सल्लेखना ८श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र नं. २ भोगपरिमाण उपभोगपरिमाण ६ वसुनन्दि भोगविरति उपभोगविरति आचार्य जिनसेन, अमितगति, श्राशाधर आदिने शिक्षाव्रतोंके विषपमें उमास्वातिका अनुकरण किया है। उक्त मत-भेदोमे शिक्षाव्रतोंकी संख्याके चार होते हुए भी दो धाराएं स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम धारा श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र नं०१ की है, जिसके समर्थक कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य हैं। इस परम्परामें सल्लेखनाको चौथा शिक्षाबत माना गया है। दूसरी धाराके प्रवर्तक श्राचार्य उमास्वाति आदि दिखाई देते हैं, जो कि मरणके अन्तम की जानेवाली सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें ग्रहण न करके उसके स्थानपर भोगोपभोग-परिमाणव्रतका निर्देश करते हैं और अतिथिसंविभामको तीसरा शिक्षाबत न मानकर चौथा मानते हैं। इस प्रकार यहाँ आकर हमें दो धाराओंके संगमका सामना करना पड़ता है। इस समस्याको हल करते समय हमारी दृष्टि श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र नं. १ और नं० २ पर जाती है, जिनमेसे एकके समर्थक श्रा० कुन्दकुन्द और दूसरेके समर्थक श्रा० वसुनन्दि हैं। सभी प्रतिक्रमणसूत्र गणधर-ग्रथित माने जाते हैं, ऐसी दशामें एकही श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके ये दो रूप कैसे हो गये, और वे भी कुन्दकुन्द और उमास्वातिके पूर्व ही, यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसा प्रतीत होता है कि भद्रबाहुके समयमें होनेवाले दुर्भिक्षके कारण जो संघभेद हुअा, उसके साथ ही एक श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके भी दो भेद हो गये। दोनों सूत्रोंकी समस्त प्ररूपणा " १ ये दोनों श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र क्रियाकलापमें मुद्रित हैं, जिसे कि पं० पन्नालालजी सोनीने सम्पादित किया है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार समान है। भेद केवल शिक्षाबतोके नामोमे है। यदि दोनो धाराओंको अर्ध-सत्यके रूपमे मान लिया जाय तो उक्त समस्याका हल निकल आता है। अर्थात् नं. १ के श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रमेंके सामायिक और प्रोषधोपवास, ये दो शिक्षाबत ग्रहण किये जावें, तथा नं.२ के भावकप्रतिक्रमणसूत्रसे भोगपरिमाण और उपभोग परिमाण ये दो शिक्षाबत ग्रहण किये जावें। ऐसा करनेपर शिक्षाबतोके नाम इस प्रकार रहेगे-१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ भोगपरिमाण और ४ उपभोगपरिमाण । इनमेसे प्रथम शिक्षाव्रतके आधारपर तीसरी प्रतिमा है और द्वितीय शिक्षाव्रतके आधारपर चौथी प्रतिमा है, इसका विवेचन हम पहले कर आये हैं। उक्त निर्णयके अनुसार तीसरा शिक्षाबत भोगपरिमाण है। भोग्य अर्थात् एक बार सेवनमे आनेवाले पदार्थोंमे प्रधान भोज्य पदार्थ हैं । भोज्य पदार्थ दो प्रकारके होते हैं-सचित्त और अचित्त । साधुत्व या सन्यास की ओर अग्रसर होनेवाला श्रावक जीवरक्षार्थ और रागभावके परिहारार्थ सबसे पहिले सचित्त पदार्थोंके खानेका पावजीवनके लिए त्याग करता है और इस प्रकार वह सचित्तत्याग नामक पाँची प्रतिमाका धारी कहलाने लगता है। इस प्रतिमाका धारी सचित्त जलको न पीता है और न स्नान करने या कपड़े धोने श्रादिके काममें ही लाता है। उपरि-निर्णीत व्यवस्थाके अनुसार चौथा शिक्षाबत उपभोगपरिमाण स्वीकार किया गया है। उपभोग्य पदार्थों में सबसे प्रधान वस्तु स्त्री है, अतएव वह दिनमें स्त्रीके सेवनका मन, वचन, कायसे परित्याग कर देता है यद्यपि इस प्रतिमाके पूर्व भी वह दिनमै स्त्री सेवन नहीं करता था, पर उससे हँसी-मजाकके रूपमे जो मनोविनोद कर लेता था, इस प्रतिमामे आकर उसका भी दिनमें परित्याग कर देता है और इस प्रकार वह दिवामैथुनत्याग नामक छठी प्रतिमाका धारी बन जाता है। इस दिवामैथुनत्यागके साथ ही वह तीसरे शिक्षाव्रतको भी यहाँ बढ़ाने का प्रयत्न करता है और दिनमे अचित्त या प्रासुक पदार्थोके खानेका व्रती होते हुए भी रात्रि कारित और अनुमोदनासे भी रात्रिभुक्तिका सर्वथा परित्याग कर देता है और इस प्रकार रात्रिभुक्ति-त्याग नामसे प्रसिद्ध और अनेक प्राचायोंसे सम्मत छठी प्रतिमाका धारी बन जाता है। इस प्रतिमाधारीके लिए दिवा-मैथुन त्याग और रात्रि-भुक्ति त्याग ये दोनों कार्य एक साथ आवश्यक है, इस बातकी पुष्टि दोनों परम्पराओंके शास्त्रोसे होती है। इस प्रकार छठी प्रतिमाका अाधार रात्रिभुक्ति-परित्यागकी अपेक्षा भोगविरति और दिवा-मैथुन-परित्यागकी अपेक्षा उपभोगविरति ये दोनोंही शिक्षाव्रत सिद्ध होते हैं। सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। छठी प्रतिमामे स्त्रीका परित्याग वह दिनमे कर चुका है, पर वह स्त्रीके अंगको मलयोनि, मलबीज, गलन्मल और पूतगन्धि आदिके स्वरूप देखता हुअा रात्रिको भी उसके सेवनका सर्वथा परित्यागकर पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाता है, और इस प्रकार उपभोगपरिमाण नामक शिक्षाव्रतको एक कदम और भी ऊपर बढ़ाता है। ___उपर्युक्त विवेचनके अनुसार पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमामें श्रावकने भोग और उपभोगके प्रधान साधन सचित्त भोजन और स्त्रीका सर्वथा परित्याग कर दिया है। पर अभी वह भोग और उपभोगकी अन्य वस्तुएँ महल-मकान, बाग-बगीचे और सवारी आदिका उपभोग करता ही है। इनसे भी विरक्त होनेके लिए वह विचारता है कि मेरे पास इतना धन-वैभव है, और मैंने स्त्री तकका परित्याग कर दिया है। अब 'स्त्रीनिरीहे कुतः धनस्पृहा' की नीतिके अनुसार मुझे नवीन धनके उपार्जनकी क्या आवश्यकता है ? बस, इस भावनाकी प्रबलताके कारण वह असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि सर्व प्रकारके श्रारम्भोका परित्याग कर प्रारम्भत्याग नामक आठवीं प्रतिमाका धारी बन जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि इस प्रतिमामें व्यापारादि श्रारम्भोंके स्वयं न करनेका ही त्याग होता है, अतः पुत्र, भृत्य श्रादि जो पूर्वसे व्यापारादि कार्य करते चले श्रा रहे हैं, उनके द्वारा वह यतः करानेका त्यागी नहीं है, अतः कराता रहता है। इस बातकी पुष्टि प्रथम तो श्वे० आगमोंमें वर्णित नवीं प्रतिमाके 'पेस परिन्नाए' नामसे होती है, जिसका अर्थ है कि वह नवीं प्रतिमामें श्राकर प्रेष्य अर्थात् भृत्यादि वर्गसे भी श्रारम्भ न करानेकी प्रतिज्ञा कर लेता है। दूसरे, दशवी प्रतिमाका नाम अनुमति-स्याग है। इस प्रतिमाका धारी श्रारम्भादिके विषयमें अनुमोदनाका भी परित्याग कर देता है। यह अनुमति पद अन्त दीपक है, जिसका यह अर्थ होता है कि दशवी प्रतिमाके पूर्व वह नवीं प्रतिमाम प्रारम्भादिका कारितसे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिमाओका आधार त्यागी हुअा है, और उसके पूर्व आठवी प्रतिमामे कृतसे त्यागी हुआ है। यह बात विना कहे ही स्वतः उक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकला कि श्रावक भोग-उपभोगके साधक प्रारम्भका कृतसे त्यागकर अाठवीं प्रतिमाधारी, कारितसे भी त्याग करने पर नवीं प्रतिमाका धारी और अनुमतिसे भी त्याग करनेपर दशवी प्रतिमाका धारी बन जाता है । पर स्वामिकार्तिकेय अष्टम प्रतिमाधारीके लिए कृत, कारित और अनु. मोदनासे प्रारम्भका त्याग आवश्यक बतलाते हैं। यहाँ इतनी बात विशेष ज्ञातव्य है कि ज्यों-ज्यों श्रावक ऊपर चढ़ता नाता है, त्यो-त्यो अपने बाह्य परिग्रहोंको भी घटाता जाता है। आठवी प्रतिमामें जब उसने नवीन धन उपार्जनका त्याग कर दिया तो उससे एक सीढ़ी ऊपर चढ़ते ही संचित धन, धान्यादि बाह्य दशों प्रकारके परिग्रहसे भी ममत्व छोड़कर उनका परित्याग करता है, केवल वस्त्रादि अत्यन्त आवश्यक पदार्थों को रखता है। और इस प्रकार वह परिग्रह-त्याग नामक नवी प्रतिमाका धारी बन जाता है। यह सन्तोषकी परम मूर्ति, निर्ममत्वमे रत और परिग्रहसे विरत हो जाता है । दशवी अनुमतित्याग प्रतिमा है। इसमें श्राकर श्रावक व्यापारादि प्रारम्भके विषयमें, धन-धान्यादि परिग्रहके विषयमे और इहलोक सम्बन्धी विवाह आदि किसी भी लौकिक कार्यमे अनुमति नहीं देता है। वह धरमे रहते हुए भी घरके इष्ट-अनिष्ट कार्योंमे राग-द्वेष नहीं करता है, और जलमे कमलके समान सर्व गृह कार्योंसे अलिप्त रहना है। एक वस्त्र मात्रके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता। अतिथि या मेहमान के समान उदासीन रूपसे घरमे रहता है। घर वालोंके द्वारा भोजनके लिए बुलानेपर भोजन करने चला जाता है। इस प्रतिमाका धारी भोग सामग्रीमे से केवल भोजनको, भले ही वह उसके निमित्त बनाया गया हो, स्वयं अनुमोदना न करके ग्रहण करता है और परिमित बस्त्रके धारण करने तथा उदासीन रूपसे एक कमरेमें रहने के अतिरिक्त और सर्व उपभोग सामग्रीका भी परित्यागी हो जाता है। इस प्रकार वह घरमे रहते हुए भी भोगविरति और उपभोगविरतिकी चरम सीमापर पहुँच जाता है। यहाँ इतना स्पष्ट कर देना श्रावश्यक है कि दशवी प्रतिमाका धारी उद्दिष्ट अर्थात् अपने निमित्त बने हुए भोजन और वस्त्र के अतिरिक्त समस्त भोग और उपभोग सामग्रीका सर्वथा परित्यागी हो जाता है। जब श्रावकको घरमें रहना भी निर्विकल्पता और निराकुलताका बाधक प्रतीत होता है, तब वह पूर्ण निर्विकल्प निजानन्दकी प्राप्तिके लिए घरका भी परित्याग कर वनमे जाता है और निर्ग्रन्थ गुरुओंके पास व्रतोको ग्रहण कर भिक्षावृत्तिसे आहार करता हुआ तथा रात-दिन स्वाध्याय और तपस्या करता हुआ जीवन यापन करने लगता है। वह इस अवस्थामें अपने निमित्त बने हुए अाहार और वस्त्र श्रादिको भी ग्रहण नहीं करता है। अतः उद्दिष्ट भोगविरति और उद्दिष्ट उपभोगविरतिकी चरम सीमापर पहुंच जानेके कारण उद्दिष्ट-त्याग नामक ग्यारहवी प्रतिमाका धारक कहलाने लगता है। ___ इस प्रकार तीसरीसे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक सर्व प्रतिमाओंका आधार चार शिक्षाबत हैं, यह बात असदिग्ध रूपसे शास्त्राधार पर प्रमाणित हो जाती है। यदि तत्त्वार्थसूत्र-सम्मत शिक्षाव्रतोंको भी प्रतिमाश्रोका अाधार माना जावे, तो भी कोई आपत्ति नहीं है। पाँचवीं प्रतिमासे लेकर उपर्युक्त प्रकारसे भोग और उपभोगका क्रमशः परित्याग करते हुए जब श्रावक नवों प्रतिमामे पहुँचता है, तब वह अतिथि संविभागके उत्कृष्टरूप सकलदत्तिको करता है, जिसका विशद विवेचन पं० आशाधरजीने इस प्रकार किया है : स ग्रन्थविरतो यः प्राग्वतवानस्फुरद्धतिः । नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ॥२३॥ १ उद्दिष्टविरतः स्वनिमित्तनिर्मिताहारग्रहणरहितः, स्वोद्दिष्टपिंडोपधिशयनबसनादेविरत उद्दिष्टविनिवृत्तः।-स्वामिकात्र्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ३०६ टीका । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अथाहूय सुतं योग्यं गोत्रज वा तथाविधम् । यादिदं प्रशान् साक्षाज्जातिज्येष्ठसधर्मणाम् ॥२४॥ ताताद्ययावदस्माभिः पालितोऽयगृहाश्रमः । विरज्यैनं जिहासूनां त्वमद्यार्हसि नः पदम् ॥२५॥ पुत्रः पुपूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः । य उपस्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥२६॥ तदिदं मे धनं धर्म्य पोष्यमप्यात्मसात्कुरु । सैषा सकलदत्तिर्हि परं पथ्या शिवार्थिनाम् ॥ २७ ॥ विदीर्णमोहशार्दूलपुनरुत्थानशकिनाम् । त्यागक्रमोऽयं गृहिणां शक्त्याऽऽरम्भो हि सिद्धिकृत् ॥२८॥ एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं मोहाभिभवहानये। किञ्चित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन् सुधीः ॥२९॥-सागारधर्मामृत अ०७ अर्थात्-जब क्रमशः ऊपर चढ़ते हुए श्रावकके हृदयमें यह भावना प्रवाहित होने लगे कि ये स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी जन वा धनादिक न मेरे हैं और न मैं इनका हूँ। हम सब तो नदी-नाव संयोगसे इस भवमे एकत्रित हो गये हैं और इसे छोड़ते ही सब अपने-अपने मार्ग पर चल देगे, तब वह परिग्रहको छोड़ता है और उस समय जाति-बिरादरीके मुखिया जनोंके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र या उसके अभावमै गोत्रके किसी उत्तराधिकारी व्यक्तिको बुलाकर कहता है कि हे तात, हे वत्स, अाज तक मैंने इस गृहस्थाश्रमका भलीभाँति पालन किया । अब मै इस संसार, देह और भोगोंसे उदास होकर इसे छोड़ना चाहता हूँ, अतएव तुम हमारे इस पदके धारण करनेके योग्य हो । पुत्रका पुत्रपना यही है कि जो अपने आत्महित करनेके इच्छुक पिताके कल्याण-मार्गमें सहायक हो, जैसे कि केशव अपने पिता सुविधिके हुए। (इसकी कथा श्रादिपुराण से जानना चाहिए।) जो पुत्र पिताके कल्याण-मार्गमे सहायक नहीं बनता, वह पुत्र नहीं, शत्रु है । अतएव तुम मेरे इस सब धनको, पोष्यवर्गको और धर्म्य कार्योंको संभालो। यह सकलदत्ति है जो कि शिवार्थी जनोंके लिए परम पथ्य मानी गई है। जिन्होंने मोहरूप शार्दूलको विदीर्ण कर दिया है, उसके पुनरुत्थानसे शंकित गृहस्थोंको त्यागका यही क्रम बताया गया है, क्योंकि शक्त्यनुसार त्याग ही सिद्धिकारक होता है। इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करके मोहको दूर करनेके लिए उदासीनताकी भावना करता हुआ वह श्रावक कुछ काल तक घरमें रहे। उक्त प्रकारसे जब श्रावकने नवीं प्रतिमा आकर 'स्व' कहे जानेवाले अपने सर्वस्वका त्याग कर दिया, तब वह बड़ेसे बड़ा दानी या अतिथिसंविभागी सिद्ध हुआ। क्योंकि सभी दानोंमें सकलदत्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। सकलदत्ति कर चुकनेपर वह श्रावक स्वयं अतिथि बननेके लिए अग्रेसर होता है और एक कदम आगे बढ़कर गृहस्थाश्रमके कार्योंमें भी अनुमति देनेका परित्याग कर देता है। तत्पश्चात् एक सीढ़ी और आगे बढ़कर स्वयं अतिथि बन जाता है और घर-द्वारको छोड़कर मुनिवनमें रहकर मुनि बननेकी ही शोधमें रहने लगता है। इस प्रकार दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाका अाधार विधि-निषेधके रूपमें अतिथि-सविभाग व्रत सिद्ध होता है। १७-प्रतिमाओंका वर्गीकरण श्रावक किस प्रकार अपने व्रतोंका उत्तरोत्तर विकास करता है, यह बात 'प्रतिमाओंका आधार' शीर्षकमैं बतलाई जा चुकी है। प्राचार्योंने इन ग्यारह प्रतिमा-धारियोंको तीन भागोंमे विभक्त किया है:-गृहस्थ, वर्णी या ब्रह्मचारी और भिक्षुक । श्रादिके छह प्रतिमाधारियोंकी गृहस्थ, सातवी, आठवीं और नवीं प्रतिमा १-वर्णिनखयो मध्याः।-सागारध० अ० ३ श्लो० ३, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाओंका वर्गीकरण धारीको वर्णी और अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंकी भिक्षुक संज्ञा दी गई है। कुछ प्राचार्योंने इनके क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक ऐसे नाम भी दिये हैं, जो कि उक्त अर्थके ही पोषक हैं। यद्यपि स्वामिकार्तिकेयने इन तीनोंमैसे किसी भी नामको नहीं कहा है, तथापि ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपमे उन्होंने जो 'भिक्खायरणेण' पद दिया है, उससे 'भिक्षुक' इस नामका समर्थन अवश्य होता है। श्राचार्य समन्तभद्रने भी उक्त नामोंका कोई उल्लेख नहीं किया है, तथापि ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपमें जो 'भैक्ष्याशनः, और 'उत्कृष्टः ये दो पद दिये हैं, उनसे 'भिक्षुक' और 'उत्तम' नामोंकी पुष्टि अवश्य होती है, बल्कि 'उत्तम और उत्कृष्ठ पद तो एकार्थक ही हैं। श्रादिके छह प्रतिमाधारी श्रावक यतः स्त्री-सुख भोगते हुए घरमे रहते हैं, अतः उन्हें 'गृहस्थ' संज्ञा स्वतः प्राप्त है। यद्यपि समन्तभद्रके मतसे श्रावक दसवी प्रतिमा तक अपने घरमे ही रहता है, पर यहाँ 'गृहिणी गृहमाहुर्न कुड्यकटसंहतिम्' की नीतिके अनुसार स्त्रीको ही गृह संज्ञा प्राप्त है और उसके साथ रहते हुए ही वह गृहस्थ संज्ञाका पात्र है। यतः प्रतिमाधारियोंमें प्रारम्भिक छह प्रतिमाधारक स्त्री-भोगी होनेके कारण गृहस्थ हैं, अतः सबसे छोटे भी हुए, इसलिए उन्हें जघन्य श्रावक कहा गया है। पारिशेष-न्यायसे मध्यवर्ती प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक सिद्ध होते है। पर दसवीं प्रतिमाधारीको मध्यम न मानकर उत्तम श्रावक माना गया है, इसका कारण यह है कि वह घरमें रहते हुए भी नहीं रहने जैसा है, क्योंकि वह गृहस्थीके किसी भी कार्यमें अनुमति तक भी नही देता है। पर दसवी प्रतिमाधारीको भिक्षावृत्तिसे भोजन न करते हुए भी "भिक्षुक' कैसे माना जाय, यह एक प्रश्न विचारणीय अवश्य रह जाता है। संभव है, भिक्षुकके समीप होनेसे उसे भी भिक्षुक कहा हो, जैसे चरम भवके समीपवर्ती अनुत्तरविमानवासी देवोको 'द्विचरम' कह दिया जाता है । सातवींसे लेकर आगेके सभी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी हैं, जब उनमेंसे अन्तिम दो को भिक्षुक संज्ञा दे दी गई, तब मध्यवर्ती तीन (सातवीं, आठवीं और नवी) प्रतिमाधारियोंकी ब्रह्मचारी संज्ञा भी अन्यथा सिद्ध है। पर ब्रह्मचारीको वर्णी क्यो कहा जाने लगा, यह एक प्रश्न यहाँ श्राकर उपस्थित होता है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, सोमदेव और जिनसेनने तथा इनके पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यने 'वर्णी' नामका विधान जैन परम्परामे नहीं किया है । परन्तु उक्त तीन प्रतिमा-धारियोंको पं० श्राशाधरजीने ही सर्वप्रथम 'वर्णिनस्त्रयो मध्याः' कहकर वर्णी पदसे निर्देश किया है और उक्त श्लोककी स्वोपज्ञटीकामे 'वर्णिनो ब्रह्मचारिणः' लिखा है, जिससे यही अर्थ निकलता है कि । वर्णीपद ब्रह्मचारीका वाचक है, पर 'वर्णी' पदका क्या अर्थ है, इस बातपर उन्होंने कुछ प्रकाश नहीं डाला है। सोमदेवने ब्रह्मके कामविनिग्रह, दया और ज्ञान ऐसे तीन अर्थ किये हैं, मेरे ख्यालसे स्त्रीसेवनत्यागको अपेक्षा सातवीं प्रतिमाधारीको, दयार्द्र होकर पापारम छोड़नेकी अपेक्षा आठवीं प्रतिमाधारीको और निरन्तर स्वाध्यायमें प्रवृत्त होनेकी अपेक्षा नवी प्रतिमाधारोको ब्रह्मचारी कहा गया होगा । १ षडन गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ।।-यश० श्रा० ९, २ श्राद्यास्तु षड् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः। शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥-सागारध० अ०३, श्लो० ३ टिप्पणी ३ जो णवकोडिविसुद्धं 'भिक्खायरणेण' भुजदे भोज । जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्टाहारविरो सो॥.३९७ ॥-स्वामिकात्तिक - गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे प्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७॥-रत्नक० ५ ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः । सम्यगत्र वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः॥-यश० श्रा०८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार १८-खुल्लक और ऐलक ऊपर प्रतिमाओंके वर्गीकरणमे बताया गया है कि स्वामी कार्तिकेय और समन्तभद्रने यद्यपि सीधे रूपमे ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका 'भिक्षुक' नाम नहीं दिया है, तथापि उनके उक्त पदोंसे इस नामकी पुष्टि अवश्य होती है। परन्तु ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके दो भेद कबसे हुए और उन्हें 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' कबसे कहा जाने लगा, इन प्रश्नोंका ऐतिहासिक उत्तर अन्वेषणीय है, अतएव यहाँ उनपर विचार किया जाता है :(१) श्राचार्य कुन्दकुन्दने सूत्रपाहुडमें एक गाथा दी है: दुइयं च वुत्तलिंग उकिट्ट अवर सावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीभासेण मोणेण ॥२१॥ अर्थात् मुनिके पश्चात् दूसरा उत्कृष्टलिंग गृहत्यागी उत्कृष्ट श्रावकका है। वह पात्र लेकर ईर्यासमिति पूर्वक मौनके साथ मिक्षाके लिए परिभ्रमण करता है। इस गाथामे ग्यारहवीं प्रतिमाघारीको 'उत्कृष्ट श्रावक' ही कहा गया है, अन्य किसी नामकी उससे उपलब्धि नहीं होती। हाँ, 'भिक्खं भमेइ पत्तो पदसे उसके 'भिक्षुक' नामकी ध्वनि अवश्य निकलती है। (२) स्वामी कार्तिकेय और समन्तभद्रने भी ग्यारहवी प्रतिमाधारीके दो भेद नहीं किये है, न उनके लिए किसी नामकी ही स्पष्ट सज्ञा दी है। हाँ, उनके पदोसे भिक्षुक नामकी पुष्टि अवश्य होती है। इनके मतानुसार भी उसे गृहका त्याग करना आवश्यक है। (३) श्राचार्य जिनसेनने अपने श्रादि पुराणमें यद्यपि कहीं भी ग्यारह प्रतिमाअोका कोई वर्णन नहीं किया है, परन्तु उन्होने ३८ वे पर्वमें गर्भान्वय क्रियाओंमे मुनि बननेके पूर्व 'दीक्षाद्य' नामकी क्रियाका जो वर्णन किया है, वह अवश्य ग्यारहवीं प्रतिमाके वर्णनसे मिलता-जुलता है । वे लिखते हैं : त्यक्तागारस्य सदृष्टेः प्रशान्तस्य गृहीशिनः । प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकशाटकधारिणः ॥१५॥ यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते । दीक्षायं नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ॥१५९॥ अर्थात्-जिनदीक्षा धारण करनेके कालसे पूर्व जिस सम्यग्दृष्टि, प्रशान्तचित्त, गृहत्याग', द्विजन्मा और एक धोती मात्रके धारण करनेवाले गृहीशीके मुनिके पुरश्चरणरूप जो दीक्षा ग्रहण की जाती है, उस क्रियासमूहके करनेको दीक्षाद्य क्रिया जानना चाहिए। इसी क्रियाका स्पष्टीकरण प्रा० जिनसेनने ३६वे पर्वमे भी किया है : त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षायभिष्यते ॥७७॥ इसमे 'तपोवनमुपेयुषः' यह एक पद और अधिक दिया है। इस 'दीक्षाद्यक्रिया से दो बातोपर प्रकाश पड़ता है, एक तो इस बातपर कि उसे इस क्रिया करनेके लिए घरका त्याग आवश्यक है, और दूसरी इस बातपर कि उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए। प्राचार्य समन्तभद्रके 'गृहतो मुनिवनमित्वा' पदके अर्थको पुष्टि 'त्यक्तागारस्य' और 'तपोवनमुपेयुष' पदसे और 'चेलखण्डधरः' पदके अर्थकी पुष्टि 'एकशाटकधारिणः पदसे होती है, अतः इस दीक्षाद्यक्रियाको ग्यारहवीं प्रतिमाके वर्णनसे मिलता-जुलता कहा गया है । . श्रा० जिनसेनने इस दीद्याद्यक्रियाका विधान दीक्षान्वय-क्रियाअोमे भी किया है और वहाँ बतलाया है कि जो मनुष्य अदीक्षार्ह अर्थात् मुनिदीक्षाके.अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हैं, विद्या और शिल्पसे श्राजीविका करते हैं, उनके उपनीति आदि संस्कार नहीं किये जाते। वे अपने पदके योग्य व्रतोंको और उचित लिंगको धारण करते हैं तथा संन्याससे मरण होने तक एक धोती-मात्रके धारी होते हैं। वह वर्णन इस प्रकार है: अदीचाहे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः। एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥१७॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक और ऐलक तेषां स्यादुचितं लिंगं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ॥१७१॥-श्रादिपु० पर्व ४०. श्रा०जिनसेनने दीक्षार्ह कुलीन श्रावककी 'दीक्षाद्य क्रिया से अदीक्षाह, अकुलीन श्रावककी दीद्याद्य क्रियामै क्या भेद रखा है, यह यहाँ जानना श्रावश्यक है। वे दोनोंको एक वस्त्रका धारण करना समानरूपसे प्रतिपादन करते हैं, इतनी समानता होते हुए भी वे उसके लिए उपनीति संस्कार अर्थात् यज्ञोपवीतके धारण आदिका निषेध करते हैं, और साथ ही स्व-योग्य व्रतोंके धारणका विधान करते हैं। यहाँ परसे ही दीक्षाद्यक्रियाके धारकों के दो भेदोंका सूत्रपात प्रारंभ होता हुआ प्रतीत होता है, और संभवतः ये दो भेद ही आगे जाकर ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेदोंके आधार बन गये हैं। 'स्व योग्य-व्रतधारण से प्रा० जिनसेनका क्या अभिप्राय रहा है, यह उन्होने स्पष्ट नहीं किया है। पर इसका स्पष्टीकरण प्रायश्चित्तचूलिक के उस वर्णनसे बहुत कुछ हो जाता है, जहाँपर कि प्रायश्चित्तचूलिकाकारने कारु-शूद्रोंके दो भेद करके उन्हें व्रत-दान आदिका विधान किया है । प्रायश्चित्तचूलिकाकार लिखते हैं : कारिणो द्विविधाः सिद्धा भोज्याभोज्यप्रभेदतः। . भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकवतम् ॥१५॥ अर्थात्-कारु शूद्र भोज्य और अभोज्यके भेदसे दो प्रकारके प्रसिद्ध हैं, उनमेंसे भोज्य शूद्रोंको ही सदा क्षुल्लक व्रत देना चाहिए। इस ग्रन्थके संस्कृत टीकाकार भोज्य पदकी व्याख्या करते हुए कहते हैं : भोज्या:-यदण्नपानं ब्राह्मणक्षत्रियविक्षुद्रा भुंजन्ते । अभोज्या:-तद्विपरीतलक्षणाः । भोज्ये- । ब्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा, नापरेषु । अर्थात्-जिनके हाथका अन्न पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्य कारु कहते हैं। इनसे विपरीत अभोज्यकार जानना चाहिए। क्षुल्लक व्रतकी दीक्षा भोज्य कारों में ही देना चाहिए, अभोज्य कारोंमे नहीं। इससे आगे क्षुल्लकके व्रतों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है : क्षुल्लकेवेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनम् । आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वन्निषिध्यते ॥ १५५ ।। शौरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुक्तेऽथ भाजने । कौपीनमात्रतंत्रोऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः॥ १५६ ॥ अर्थात्-क्षुल्लकोंमें एक ही वस्त्रका विधान किया गया है, वे दूसरा वस्त्र नहीं रख सकते । वे मुनियों के समान खड़े-खड़े भोजन नहीं कर सकते । उनके लिए प्रातापन योग, वृक्षमूल योग आदि योगोंका भी शाश्वत निषेध किया गया है। वे उस्तरे आदिसे क्षौरकर्म शिरोमुंडन भी करा सकते है और चाहें, तो केशोंका लोंच भी कर सकते हैं। वे पाणिपात्रमें भी भोजन कर सकते हैं और चाहें तो कांसेके पात्र आदिमें भी भोजन कर सकते हैं। ऐसा व्यक्ति जो कि कौपीनमात्र रखनेका अधिकारी है, क्षुल्लक कहा गया है । टीकाकारोंने कौपीनमात्रतंत्रका अर्थ-कर्पटखंडमंडितकटीतटः अर्थात् खंड वस्त्रसे जिसका कटीतट मंडित हो, किया है, और क्षुल्लकका अर्थ-उत्कृष्ट अणुव्रतधारी किया है। आदिपुराणकारके द्वारा अदीक्षाई पुरुषके लिए किये गये व्रतविधानकी तुलना जब हम प्रायश्चित्तचूलिकाके उपर्युक्त वर्णनके साथ करते हैं, तब असंदिग्ध रूपसे इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि जिनसेनने जिन अदीक्षाहं पुरुषोंको संन्यासमरणावधि तक एक वस्त्र और उचित व्रत-चिह्न आदि धारण करनेका विधान किया है, उन्हें ही प्रायश्चित्तचूलिकाकारने 'क्षुल्लक' नामसे उल्लेख किया है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुमन्दि-श्रावकाचार चुल्लक शब्दका अर्थ अमरकोषमे क्षुल्लक शब्दका अर्थ इस प्रकार दिया है: विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथक्जनः । निहीनोऽपसदो जाल्मः क्षुल्लकश्चेतरश्च सः॥१६॥ . .. (दश नीचस्य नामानि ) अमर द्वि०का० शूदवर्ग । अर्थात्--विवर्ण, पामरे, नीच, प्राकृत जन, पृथक् जन, निहीन, अपसद, जाल्म, क्षुल्लक और इतर ये दश नीचके नाम हैं। उक्त श्लोक शूद्रवर्गमे दिया हुआ है। अमरकोषके तृतीय कोडके नानार्थ वर्गमे भी 'स्वल्पेऽपि तुल्लकस्त्रिषु, पद पाया है, वहाँपर इसकी टीका इस प्रकार की है : 'स्वल्पे, अपि शब्दान्नीच-कनिष्ठ-दरिद्रष्वपिक्षुल्लकः' अर्थात्-स्वल्प, नीच, कनिष्ठ और दरिद्र के अर्थों में क्षुल्लक शब्दका प्रयोग होता है । 'रभसकोषमे भी 'क्षुल्लकस्त्रिषु नीचेऽल्पे दिया है। इन सबसे यही सिद्ध होता है कि क्षुल्लक शब्दका - अर्थ नीच या हीन है। __ प्रायश्चित्तचूलिकाके उपर्युक्त कथनसे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि शूद्रकुलोत्पन्न पुरुषोंको क्षुल्लक दीक्षा दी जाती थी। तत्त्वार्थराजवार्तिक वगैरहमें भी महाहिमवान्के साथ हिमवान् पर्वतके लिए क्षुल्लक या क्षुद्र शब्दका उपयोग किया गया है, जिससे भी यही अर्थ निकलता है कि हीन या क्षुद्र के लिए क्षुल्लक शब्दका प्रयोग किया जाता था। श्रावकाचारोके अध्ययनसे पता चलता है कि श्रा० जिनसेनके पूर्व तक शूगोको दीक्षा देने या न देनेका कोई प्रश्न सामने नहीं था। जिनसेनके सामने जब यह प्रश्न आया, तो उन्होने अदीक्षाई और दीक्षाई कुलोत्पन्नोंका विभाग किया और उनके पीछे होनेवाले सभी प्राचार्योंने उनका अनुसरण किया । प्रायश्चित्तचूलिकाकारने नीचकुलोत्पन्न होनेके कारण ही संभवतः आतापनादि योगका क्षुल्लकके लिए निषेध किया था, पर परवर्ती ग्रन्थकारोंने इस रहस्यको न समझनेके कारण सभी ग्यारहवीं प्रतिमा-धारकों के लिए अातापनादि योगका निषेध कर डाला । इतना ही नहीं, श्रादि पदके अर्थको और भी बढ़ाया और दिन प्रतिमा, वीरचर्या, सिद्धान्त ग्रन्थ और प्राचश्चित्तशास्त्रके अध्ययन तकका उनके लिए निषेध कर डाला। किसी-किसी विद्वान्ने तो सिद्धान्त ग्रन्थ श्रादिके सुननेका भी अनधिकारी घोषित कर दिया । यह स्पष्टतः वैदिक संस्कृतिका प्रभाव है, जहाँपर कि शूद्रोंको वेदाध्ययनका सर्वथा निषेध किया गया है, और उसके सुननेपर कानों में गर्म शीशा डालने का विधान किया गया है । क्षुल्लकोंको जो पात्र रखने और अनेक घरोंसे भिक्षा लाकर खानेका विधान किया गया है, वह भी संभवतः उनके शूद होनेके कारण ही किया गया प्रतीत होता है। सागारधर्मामृतमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी द्वितीयोत्कृष्ट श्राव के लिए जो 'आर्य' संज्ञा दी गई है, वह भी क्षुल्लकोके जाति, कुल श्रादिकी अपेक्ष हीनत्त्वका द्योतन करती है। १ दिनपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णस्थि अहियारो। सिद्धन्त-रहस्साण वि अझयणं देसविरदाण ॥३१२॥-वसु. उपा. श्रावको वीरचर्याहः-प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५०॥-सागार०अ०७ २ नास्ति निकालयोगोऽस्य प्रतिमा चार्कसम्मुखा। रहस्यग्रन्थ-सिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥२४९॥-संस्कृत भावसंग्रह . ३ तद्वद् द्वितीयः किन्तवार्यसंज्ञो लुचत्यसौ कचान् । कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥४॥-सागार० १०७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक और ऐलक उक्त स्वरूपवाले क्षुल्लकोको किस श्रावक प्रतिमा स्थान दिया जाय, यह प्रश्न सर्वप्रथम श्रा० वसुनन्दिके सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्यारहवी प्रतिमाके दो भेद किये हैं। इनके पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यने इस प्रतिमाके दो भेद नहीं किये हैं, प्रत्युत बहुत स्पष्ट शब्दोमें उसकी एकरूपताका ही वर्णन किया है। श्रा० वसुनन्दिने इस प्रतिमाधारीके दो भेद करके प्रथमको एक वस्त्रधारक और द्वितीयको कौपीनधारक बताया है ( देखो गा० नं० ३०१) । वसनन्दिने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकका जो स्वरूप दिया है, वह क्षुल्लकके वर्णनसे मिलता-जुलता है और उसके परवर्ती विद्वानोंने प्रथमोत्कृष्टकी स्पष्टतः क्षुल्लक संज्ञा दी है, अतः यही अनुमान होता है, कि उक्त प्रश्नको सर्वप्रथम वसुनन्दिने ही सुलझानेका प्रयत्न किया है। इस प्रथमोत्कृष्टको क्षुल्लक शब्दसे सर्वप्रथम लाटी संहिताकार पं० राजमल्लजीने ही उल्लेख किया है, हालाकि स्वतंत्र रूपसे क्षुल्लक शब्दका प्रयोग और क्षुल्लक व्रतका विधान प्रायश्चित्तचूलिकामे किया गया है, जो कि ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वकी रचना है। केवल क्षुल्लक शब्दका उपयोग पद्मपुराण श्रादि कथाग्रन्थों में अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है और उन क्षुल्लकोंका वैसा ही रूप वहाँ पर मिलता है, जैसा कि प्रायश्चित्तचूलिकाकारने वर्णन किया है। - ऐलक शब्दका अर्थ ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेदोंका उल्लेख सर्वप्रथम प्रा. वसुनन्दिने किया, पर वे प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्टके रूपसे ही चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक चलते रहे । सोलहवीं सदीके विद्वान् पं० राजमल्लजीने अपनी लाटीसहितामे सर्वप्रथम उनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दका प्रयोग किया है। क्षुल्लक शब्द कबसे और कैसे चला, इसका उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। यह 'ऐलक' शब्द कैसे बना और इसका क्या अर्थ है, यह बात यहाँ विचारणीय है। इस 'ऐलक पदके मूल रूपकी ओर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह भ० महावीरसे भी प्राचीन प्रतीत होता है। भ० महावीरके भी पहलेसे जैन साधुओंको 'अचेलक' कहा जाता था। चेल नाम वस्त्रका है। जो साधु वस्त्र धारण नहीं करते थे, उन्हें अचेलक कहा जाता था। भगवती अाराधना, मूलाचार श्रादि सभी प्राचीन ग्रन्थोमें दिगम्बर साधुओंके लिए अचेलक पदका व्यवहार हुआ है । पर भ० महावीरके समयसे अचेलक साधुओंके लिए नग्न, निर्ग्रन्थ और दिगम्बर शब्दोंका प्रयोग बहुलतासे होने लगा। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि महात्मा बुद्ध और उनका शिष्यसमुदाय वस्त्रधारी था, अतः तात्कालिफ लोगोंने उनके व्यवच्छेद करने के लिए जैन साधुओंको नग्न, निर्ग्रन्थ आदि नामोसे पुकारना प्रारम्भ किया। यही कारण है कि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंमें जैन साधुओंके लिए 'निग्गंठ' या णिगंठ नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निर्ग्रन्थ है। अभी तक नञ् समासका सर्वथा प्रतिषेध-परक 'न+चेलकः = अचेलकः' अर्थ लिया जाता रहा । पर जब नग्न साधुओंको स्पष्ट रूपसे दिगम्बर, निर्ग्रन्थ श्रादि रूपसे व्यवहार किया जाने लगा, तब जो अन्य समस्त बातोंमें तो पूर्ण साधुव्रतोंका पालन करते थे, परन्तु लजा, गौरव या शारीरिक लिग-दोष आदिके कारण लंगोटी मात्र धारण करते थे, ऐसे ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकोंके लिए ने समासके ईषदर्थका आश्रय लेकर 'ईषत् + चेलकः = अचेलकः' का व्यवहार प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है । ग्यारहवींवारहवीं शताब्दीसे प्राकृतके स्थानपर अपभ्रंश भाषाका प्रचार प्रारम्भ हुश्रा और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमे कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य 'अचेलक' का स्थान 'ऐलक' पदने ले लिया, जो कि प्राकृत-व्याकरणके नियमसे भी सुसंगत बैठ जाता है। क्योंकि प्राकृत मै 'क-ग-च-ज त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' (हैम० प्रा० १, १७७) इस नियमके अनुसार 'अचेलक के चकारका लोप हो जानेसे 'श्र ए ल क' पद अवशिष्ट रहता है। यही (अ+ ए =ऐ) सन्धिके योगसे 'ऐलक' बन गया । १ उत्कृष्टः श्रावको द्वधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा । एकादशव्रतस्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरको क्रमात् ॥५५॥--लाटी संहिता Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार उक्त विवेचनसे यह बात भली भाँति सिद्ध हो जाती है कि 'ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो, पर उसका मूल रूप 'अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है। लाटीसंहिताकारको या तो 'ऐलक' का मूलरूप समझमे नहीं श्रायाः या उन्होंने सर्वसाधारणमे प्रचलित 'ऐलक' शब्दको ज्यों का त्यो देना ही उचित समझा। इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है और इसकी पुष्टि श्रा० समन्तभद्रके द्वारा ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके लिए दिये गये 'चेलखण्डधरः पदसे भी होती है। निष्कर्ष उपर्युक्त सर्व विवेचनका निष्कर्ष यह है : क्षल्लक-उस व्यक्तिको कहा जाता था, जो कि मुनिदीक्षाके अयोग्य कुलमे या शूद्र वर्णमें उत्पन्न होकर स्व-योग्य, शास्त्रोक्त, सर्वोच्च बतौका पालन करता था, एक वस्त्रको धारण करता था, पात्र रखता था, अनेक घरोंसे भिक्षा लाकर और एक जगह बैठकर खाता था, वस्त्रादिका प्रतिलेखन रखता था, कैंची या उस्तरेसे शिरोमुंडन कराता था। इसके लिए वीरचर्या, अातापनादि योग करने और सिद्धान्त ग्रन्थ तथा प्रायश्चित्तशास्त्रके पढनेका निषेध था। ऐलक-मूलमें 'अचेलक' पद नग्न मुनियोंके लिए प्रयुक्त होता था। पीछे जब नग्न मुनियोके लिए निर्ग्रन्थ, दिगम्बर आदि शब्दोंका प्रयोग होने लगा, तब यह शब्द ग्यारहवीं प्रतिमा-धारक और नाममात्रका वस्त्र खड धारण करनेवाले उत्कृष्ट श्रावकके लिए व्यवहृत होने लगा। इसके पूर्व ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका 'भिक्षुक' नामसे व्यवहार होता था। इस भिक्षुक या ऐलकके लिए लॅगोटी मात्रके अतिरिक्त सर्व वस्त्रोंके और पात्रोके रखनेका निषेध है। साथ ही मुनियोके समान खड़े-खड़े भोजन करने, केशलुञ्च करने और मयूरपिच्छिका रखनेका विधान है। इसे ही विद्वानोंने 'ईषन्मुनिः 'यति' आदि नामोंसे व्यवहार किया है। समयके परिवर्तनके साथ शूद्रोको दीक्षा देना बन्द हुश्रा, या शूद्रोंने जैनधर्म धारण करना बन्द कर दिया, तेरहवीं शताब्दीसे लेकर इधर मुनिमार्ग प्रायः बन्द सा हो गया, धर्मशास्त्रके पठन-पाठनकी गुरु-परम्पराका विच्छेद हो गया, तब लोगोंने ग्यारहवीं प्रतिमाके ही दो भेद मान लिये और उनमेसे एकको क्षुल्लक और दूसरेको ऐलक कहा जाने लगा। क्या अाजके उच्चकुलीन, ग्यारहवीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावकोंको 'क्षुल्लक' कहा जाना योग्य है ? Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थ-विषय-सूची mGee" १० गाथा नं. १-पगलाचरण और श्रावकधर्म प्ररूपण करनेकी प्रतिज्ञा २-देशविरतके ग्यारह प्रतिमास्थान ३-सम्यग्दर्शन कहनकी प्रतिज्ञा ४-सम्यग्दर्शनका स्वरूप ५-आप्त आगम और पदार्थोंका निरूपण ६-आप्त अठारह दोषोंसे रहित होता है ८-६ ७-सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ८-जीवोंके भेद-प्रभेद ... ११-१४ ह-जीवोके आयु, कुल-कोडि, योनि, मार्गणा, गुणस्थान आदि जाननेकी सूचना १०-अजीव तत्त्वका वर्णन ११-युद्गलके स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुरूप चार भेदोंका स्वरूप-वर्णन १२-पुद्गलके बादर, सूक्ष्म आदि छह भेदोंका वर्णन १३--आकाश आदि चार अरूपी द्रव्योंका वर्णन १६-२१ १४-द्रव्योंका परिणामीपना, मूत्तिकपना आदि की अपेक्षा विशेष वर्णन १५-व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्यायका स्वरूप ... ૨૫ १६-चेतन और अचेतन द्रव्योंका परिणामी अपरिणामी आदिकी अपेक्षा विश्लेषण २६-३८ १७--आस्रव तत्त्वका वर्णन ३९-४० १८-बन्धतत्त्व १६-संवरतत्त्व ४२ २०-निर्जरातत्त्व ४३-४४ २१-मोक्षतत्त्व २२-निर्देश, स्वामित्व आदि छह अनुयोग द्वारोंकी अपेक्षा जीव आदि तत्त्वोंके जाननेकी सूचना ४६-४७ २३-सम्यग्दर्शनके आठ अंगोके नाम १८ २४ ४१ ४८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार २४- सम्यक्त्वके होनेपर सवंग आदि आठ गुणोके तथा अन्य भी गुणोके होने का वर्णन ४६-५० २५-शुद्ध सम्यक्त्व ही कर्मनिग्रहका कारण है २६-निःशङ्गित आदि आठ अगोमें प्रसिद्ध होनेवाले महापुरुषोके नगर, नाम आदिका वर्णन ५२-५५ २७-कौन जीव सम्यग्दष्टि होता है ? २८-दार्शनिक श्रावकका स्वरूप २६-पच उदुम्बर फलोके त्यागका उपदेश ३०-सप्त व्यसन दुर्गति गमनके कारण है પૂe ३१-द्यूत व्यसनके दोषोका विस्तृत वर्णन ६०-६६ ३२-मद्यब्यसनके दोषोका , , ७०-७६ ३३ -मधु सेवनके , , , ८०-८४ ३४-मास सेवनके , ८५-८७ ३५–वेश्या सेवनके , पद-६३ ३६-आखेट खेलनेके , ६४-१०० ३७--चोरी करनेके , १०१-१११ ३८-परदारा सेवनके दोषोंका, , ११२-१२४ ३६-एक-एक व्यसनके सेवन करनेसे कष्ट उठानेवाले महानुभावोका वर्णन १२५-१३२ ४०-सप्त व्यसनसेवी रुद्रदत्तका उल्लेख . ४१-सप्त व्यसन सेवन करने से प्राप्त होनेवाले दुःखोंका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा ४२--व्यसनसेवी नरकोंमे उत्पन्न होता है १३५-१३७ ४३-नरकोकी उष्ण-वेदनाका वर्णन ४४-नरकोंकी शीत-वेदनाका वर्णन ४५-नरकोंमे नारकियोंके द्वारा प्राप्त होनेवाले दुःखोंका विस्तृत वर्णन १४०-१६६ ४६-तीसरी पृथिवी तक असुरकुमारो द्वारा पूर्व वैर स्मरण कराकर नारकियोका परस्पर लड़ाना १७० ४७-सातो पृथिवियोंके नरक-विलोंकी संख्या ... ४८-सातो पृथिवियोंके नारकियोंकी जघन्य और उत्कृष्ट आयुका वर्णन १७२-१७६ ४६-व्यसन सेवनके फलसे तिर्यग्गतिमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंका विस्तृत वर्णन . १७७-१८२ ५०-व्यसन सेवनके फलसे नीच, विकलांग, दरिद्र और कुटुम्बहीन मनुष्य होकर अनेक प्रकारके दुःख भोगता है ... १८३-१६० ५१-व्यसन सेवनके फलसे भाग्यवश देवोमें उत्पन्न होनेपर भी देव-दुर्गतिके दुःखोंको भोगता है १६१-२०३ ५२व्यसन सेवनका फल चतुर्गति रूप ससारमे परिभ्रमण है ... ' ५३-पंच उदुम्बर और सप्त व्यसनके सेवनका त्याग करनेवाला सम्यक्त्वी जीव ही। दार्शनिक श्रावक है ... २०५ ५४-वती श्रावकके स्वरूप वर्णनकी प्रतिज्ञा ... २०६ ५५-द्वितीय प्रतिमास्थानमे १२ व्रतोंका निर्देश २०७ ५६-पॉच अणुक्तोका नाम निर्देश २०८ ५७-अहिंसाणुव्रतका स्वरूप . ५८-सत्याणुव्रतका स्वरूप ५६-अचौर्याणुव्रतका स्वरूप ६०-ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप ६१-परिग्रह-परिमाणाणुव्रतका स्वरूप १३६ २०४ 9 ० २०६ ० . M or or mr । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थ-विषय-सूची ६७ .२१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१६-२२० २२१-२२२ २२३ २२४ • २२५-२३२ २३३-२३८ २३६-२४३ २४४-२६९ २५०-२५७ २५८-२६० २६१ २६२-२६४ २६५-२६६ ६२-प्रथम गुणवतका स्वरूप ६३-द्वितीय गुणवतका स्वरूप ६४-तृतीय गुणवतका स्वरूप ६५-भोगविरतिनामक प्रथम शिक्षावृतका स्वरूप ६६-परिभोगविरति नामक द्वितीय शिक्षावतका स्वरूप ६७-अतिथिस विभागनामक तृतीय शिक्षावृतमे पॉच अधिकारोका वर्णन ६८-तीन प्रकारके पात्रोंका वर्णन ६६-कुपात्र और अपात्र का स्वरूप ७०-दातारके सप्तगुणोंके नाम ७१-नवधा भक्तिके नाम और उनका स्वरूप ... ७२-दातव्य पदार्थोमे चार प्रकारके दानका उपदेश ७३-दानके फलका सामान्य वर्णन ७४-दानके फलका विस्तृत वर्णन ७५–दश प्रकारके कल्पवृक्षोंका स्वरूप-वर्णन ... ७६-भोगभूमियाँ जीवोंकी आय, काय आदिका वर्णन ७७-कुभोगभूमियाँ जीवोंके आहार और आयुका वर्णन ७८-भोगभूमियाँ जीवोके शरीर-कला आदिका वर्णन ७६-सम्यग्दृष्टि और वती श्रावकके दानका फल उत्तम स्वर्गवासी देवोमें उत्पन्न होकर दिव्य सुखोकी प्राप्ति है। ८०-दानके फलसे ही मनुष्य मांडलिक, राजा, चक्रवर्ती आदि महान् पदोंको प्राप्त होकर अन्तमे निर्वाण प्राप्त करता है ... ८१-अतिथिसंविभागवतका उपसहार ... ८२-सल्लेखना नामक चतुर्थ शिक्षावतका वर्णन ८३-वृतप्रतिमाका उपस हार और सामायिकप्रतिमाके कथनकी प्रतिज्ञा ८४-सामायिकप्रतिमाका स्वरूप ८५-प्रोषधप्रतिमाका स्वरूप ८६-उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी विधि ८७-मध्यम प्रोषधोपवासकी विधि ८-जघन्य प्रोषधोपवासकी विधि पह-प्रोषधोपवासके दिन त्याज्य कार्योका उपदेश ६०-शेष प्रतिमाओके कथन करनेकी प्रतिज्ञा ६१-सचित्तत्याग प्रतिमाका स्वरूप १२-रात्रिभुक्तित्याग, ६३-ब्रह्मचर्यप्रतिमाका १४–आरम्भत्यागप्रतिमा ६५-परिग्रहत्यागप्रतिमा ६६-अनुमतित्यागप्रतिमा १७-उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके दो भेदोंका वर्णन ... १८-उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके प्रथम भेदका विस्तृत वर्णन ६६-उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके द्वितीय भेदका वर्णन २६७-२६६ २७० २७१-२७२ २७३ २७४-२७६ २८० २८१-२८६ २६०-२६१ २६२ २६३ :::::::::::::::::::: २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६६ ३०० ३०२-३१० ३११ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ३४१ वसुनन्दि-श्रावकाचार १००. श्रावकोको किन-किन कायोंके करनेका अधिकार नही है ... ३१२ १०१-ग्यारहवी प्रतिमाका उपस हार ३१३ १०२-निशिभोजनके दोषोंका वर्णन ३१४-३१७ १०३-निशिभोजनके परित्यागका उपदेश १०४-श्रावकोंको विनय, वैयावृत्त्य, कायक्लेश और पूजन-विधान यथाशक्ति करनेका उपदेश ३१६ १०५-विनयके पाँच भेद ३२० १०६-दर्शनविनयका स्वरूप ३२१ १०७-ज्ञानविनय का , ३२२ १०८-चारित्रविनयका , ३२३ । १०६-तपविनयका , ... ३२४ ११०-उपचारविनयके तीन भेद ३२५ १११-मानसिक उपचार विनयका स्वरूप ३२६ ११२-वाचनिक उपचार विनयका , ३२७ ११३-कायिक उपचार विनयका , ३२८-३३० ११४-उपचार विनयके प्रत्यक्ष परोक्षभेद ११५-विनयका फल ... ३३२-३३६ ११६-वैयावृत्त्य करनेका उपदेश ३३७-३४० ३१७ - वैयावृत्त्य करनेसे नि.शकित-संवेग आदि गुणोकी प्राप्ति होती है ११८-वैयावृत्त्य करनेवाला तप, नियम, शील, समाधि और अभयदान आदि सब कुछ प्रदान करता है .... ३४२ ११६-वैयावृत्त्य करनेसे इहलौकिक गुणोंका लाभ ३४३-३४४ १२०-वैयावृत्त्य करनेसे परलोकमें प्राप्त होनेवाले लाभोंका वर्णन ' ३४५-३४६ १२१-यावृत्त्य करनेसे तीर्थकर पदकी प्राप्ति ३४७ १२२-वैयावृत्त्यके द्वारा वसुदेवने कामदेवका पद पाया ३४८ १२३-वैयावृत्त्य करनेसे वासुदेवने तीर्थङ्कर नामकर्मका बन्ध किया ३४६ १२४-वैयावृत्त्यको परम भक्तिसे करनेका उपदेश ३५० १२५-आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान आदि कायक्लेश करनेका उपदेश ३५१-३५२ १२६-पंचमी व्रतका विधान ३५३-३६२ १२७-रोहिणी व्रतका विधान , ३६३-३६५ १२८-अश्विनी व्रतका विधान ३६६-३६७ १२६-सौख्य सम्पत्ति ब्रतका विधान ३६८-३७२ (१३०-नंदीश्वरपंक्ति ब्रतका विधान ३७३-३७५ १३१-विमानपंक्ति ब्रतका विधान ३७६-३७८ १.३२-कायक्लेशका उपसंहार ३७६ १३३-पूजन करनेका उपदेश १३४-पूजनके छह भेद ३८१ १३५-नामपूजाका स्वरूप ३८२ १३६ स्थापना पूजाके दो भेदोंका वर्णन ... ३८३-३८४ । १३७-इस हुंडावसर्पिणी कालमें असद्भावस्थापनाका निषेध ... ३८५ १३८-सद्भावस्थापनामें कारापक आदि पांच अधिकारोंका वर्णन ३८६ ३८० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-विषय-सूची ३८७ ३६० : : १३६-कारापकका स्वरूप ११४०-इन्द्रका स्वरूप १४१-प्रतिमाका स्वरूप १४२-सरस्वती या श्रुतदेवीकी स्थापनाका विधान १४३–अथवा पुस्तकोंपर जिनागमका लिखाना ही शास्त्रपूजा है ... १४४-प्रतिष्ठा विधिका विस्तृत वर्णन १४५-स्थापना पूजनके पाँचवे अधिकारके अन्तमे कहनेका निर्देश १४६ -द्रव्यपूजाके स्वरूप और उसके सचित्त आदि तीन भेदोंका वर्णन १४७-क्षेत्रपूजाका स्वरूप १४८-कालपूजाका स्वरूप १४६-भावपूजाका स्वरूप १५०-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान भी भावपूजाके ही अन्तर्गत है १५१-पिण्डस्थ ध्यानका विस्तृत वर्णन . १५२-पदस्थ ध्यानका स्वरूप १५३-रूपस्थ ध्यानका विस्तृत वर्णन १५४-रूपातीत ध्यानका स्वरूप १५५-भावपूजाका प्रकारान्तरसे वर्णन १५६-छह प्रकारकी पूजनका उपसहार और प्रतिदिन श्रावकको करनेका उपदेश ... १५७-पूजनका विस्तृत फल वर्णन . १५८-धनियाके पत्ते बराबर जिनभवन बनाकर सरसोके बराबर प्रतिमा स्थापनका फल १५६-बड़ा जिनमन्दिर और बडी जिनप्रतिमाके निर्माणका फल १६० -जलसे पूजन करनेका फल १६१-चन्दनसे पूजन करनेका फल १६२-अक्षतसे पूजन करनेका फल १६३-पुष्पसे पूजन करनेका फल १६४-नैवेद्यसे पूजन करनेका फल १६५-दीपसे पूजन करनेका फल १६६-धूपसे पूजन करनेका फल १६७-फलसे पूजन करने का फल १६८-घंटा दानका फल १६६-छत्र दानका फल १७०-चामरदानका फल १७१-जिनाभिषेकका फल १७२-ध्वजा, पताका चढ़ानेका फल -१७३-पूजनके फलका उपसंहार १७४---श्रावक धर्म धारण करनेका फल स्वर्गलोकमे उत्पत्ति है, वहाँ उत्पन्न होकर वह क्या देखता, सोचता और आचरण करता है, इसका विशद वर्णन . १७५-स्वर्ग लोककी स्थिति पूरी करके वह चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ मनुष्योंमे उत्पन्न होता है १७६-वह मनुष्य भवके श्रेष्ठ सुखोंको भोगकर और किसी निमित्तसे विरक्त हो __ दीक्षित होकर अणिमादि अष्ट ऋद्धियोंको प्राप्त करता है ३६१ ३६२ ३६३-४४६ ४४७ ४४८-४५१ ૪૨ ४५३-४५५ ४५६-४५७ ४५८ ४५६-४६३ ४६४ ४६५-४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७६-४६३ ४८१ ४८२ ४८३ ४८३ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ ४८६ ४६० ४६० ४६२ ४६३ ४६४-५०८ ५०६ १० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० वसुनन्दि-श्रावकाचार १७७-पुनः ध्यानारूढ़ होकर अपूर्वकरण आदि गुणस्थान चढता हुआ कर्मोकी स्थिति• खंडन, अनुभाग खंडन आदि करता और कर्म प्रकृतियोंको क्षपाता हुआ चार घातिया कर्मोका क्षय करके केवल ज्ञानको प्राप्त करता है ५१४-५२५ १७८-वे केवली भगवान् नवकेवललब्धिसे सम्पन्न होकर अपनी आयु प्रमाण धर्मोपदेश देते हुए भूमण्डलपर विहार करते है .. ५२६-५२८ १७६-पुन. जिनके आयुकर्म-सदृश शेष कर्मोकी स्थिति होती है, वे समुद्घात किये विना ही। निर्वाणको प्राप्त होते है ... ... ५२८-५२६ १८०-शेष केवली समुद्धात करते हुए ही निर्वाणको प्राप्त होते है ५२६ १८१-केवलि समुद्धात किसके होता है और किसके नही? १८२-केवलि समुद्धातके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, इन चार अवस्थाओंका वर्णन ५३१-५३२ १८३-योगनिरोध कर अयोगिकेवली होनेका वर्णन ... ५३३-५३४ १८४-अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमे बहत्तर और चरम समयमें तेरह प्रकृतियोंके क्षयका और लोकान पर विराजमान होनेका वर्णन ... ५३५-५३६ १८५-सिद्धोके आठ गुणोंका और उनके अनुपमका सुखका वर्णन ५३७-५३८ १८६-श्रावकव्रतोंका फल तीसरे, पाँचवें या सातवे आठवें भवमे निर्वाण-प्राप्ति है ५३६ १८७-प्रन्थकारकी प्रशस्ति ... ५४०-५४७ ५३० भा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि वसुणंदि पाइरियविरइयं उवासयज्झयणं वकाचार सुरवइतिरीडमणिकिरणवारिधाराहिसितपयकमलं'। वरसयलविमलकेवलपयासियासेसतच्चत्थं ॥१॥ सायारो णायारो भवियाणं जेण देसिनो धम्मो। णमिऊण तं जिणिंद सावयधम्मं परूवेमो ॥२॥ देवेन्द्रोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंकी किरणरूपी जलधारासे जिनके चरण-कमल अभिषिक्त हैं, जो सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञानके द्वारा समस्त तत्त्वार्थको प्रकाशित करनेवाले हैं और जिन्होंने भव्य जीवोंके लिए श्रावकधर्म और मुनिधर्मका उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके हम (वसुनन्दि) श्रावकधर्मका प्ररूपण करते हैं ॥१-२॥ विउलगिरि पब्बए णं इंदभूणा सेणियस्स जह सिट्ठ । तह गुरुपरिवाडीए भणिज्जमाणं णिसामेह ॥३॥ विपुलाचल पर्वतपर (भगवान् महावीरके समवसरणमें) इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरने विम्बसार नामक श्रेणिक महाराजको जिस प्रकारसे श्रावकधर्मका उपदेश दिया है उसी प्रकार गुरु-परम्परासे प्राप्त वक्ष्यमाण श्रावकधर्मको, हे भव्य जीवो, तुम लोग सुनो ॥३॥ दसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राई' भत्ते य। बंभारंभ - परिग्गह-अणुमण-उद्दिट्ट-देसविरयम्मि ॥४॥देशविरति नामक पंचम गुणस्थानमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, ये ग्यारह स्थान (प्रतिमा, कक्षा या श्रेणी-विभाग) होते हैं ॥४॥ एथारस ठाणाई सम्मत्तविवज्जियस्स जीवस्स । जम्हा ण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि ॥५॥ उपयुक्त ग्यारह स्थान यतः (चूंकि) सम्यक्त्वसे रहित जीवके नहीं होते हैं, अतः (इसलिए) में सम्यक्त्वका वर्णन करता हूं, सो हे भव्य जीवो, तुम लोग सुनो ॥५॥ १ध. जुमलं । २ द. जिणेण । ३ २. व. इरि । ४ , घ, राय । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अत्तागमतच्चाणं जं सदहणं सुणिम्मलं होइ । संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयन्वं ॥६॥ आप्त (सत्यार्थ देव) आगम ( शास्त्र) और तत्त्वोंका शंकादि ( पच्चीस ) दोष रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिए || ६ || दोसविमुक्st yoवापरदोसवज्जियं वयणं । तच्चाई जीवदव्वाई' याई समयम्हि णेयाणि ॥७॥ ७९ आगे कहे जानेवाले सर्व दोषोंसे विमुक्त पुरुषको आप्त कहते है । पूर्वापर दोपसे रहित (आप्तके) वचनको आगम कहते है और जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं, इन्हें समय अर्थात् परमागमसे जानना चाहिए ||७|| - तहा' भय-दोसो राम्रो मोहो जरा रुजा चिंता । मिच्चू खेश्रो सेश्रो अरइ मत्रो विम्हओ जम्मं ॥ ८ ॥ ाि तहा विसा दोसा एएहिं वज्जिओ अत्ता । वयणं तस्स पमाणं 'संतस्थपरूवयं जम्हा ||९|| ,,, द्वेष, मोह, जरा, रोग, चिन्ता, मृत्यु, खेद, स्वेदे (पसीना ), अरति, मद, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद, ये अट्ठारह दोप कहलाते है, जो आत्मा इन दोषों से रहित है, वही आप्त कहलाता है । तथा उसी आप्तके वचन प्रमाण है, क्योंकि वे विद्यमान अर्थके प्ररूपक है ॥८- ९॥ जीवाजीवासव-बध-संवरो णिज्जरा एयाई सत्त तच्चाई सद्द हंतस्स' तहा मोक्खो । सम्मतं ॥ १० ॥ जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्त्व कहलाते है और उनका श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है ॥ १० ॥ जीव-वर्णन सिद्धा संसारत्था दुविहा जीवा जिणेहिं पण्णत्ता । सरीरा णंतच उद्वय' रिण्या शिवुदा सिद्धा ||११|| सिद्ध और संसारी, ये दो प्रकारके जीव जिनेन्द्र भगवान्ने कहे हैं । जो शरीर - रहित हैं, अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से संयुक्त है तथा जन्म-मरणादिकसे निवृत्त हैं, उन्हें सिद्ध जीव जानना चाहिए ॥११॥ संसारत्था दुविहा थावर - तसभेयश्री मुणेयव्वा । पंचविह थावरा खिदिजलग्गिवाऊ वण्य्फइणो ॥१२॥ स्थावर और सके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके जानना चाहिए। इनमें स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं- पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ॥१२॥ पज्जन्तापज्जता बायर - सुहुमा णिगोय णिच्चियरा । पत्तेय - 'पइट्ठियरा थावरकाया धणेयविहा ॥१३॥ पर्याप्त - अपर्याप्त, बादर - सूक्ष्म, नित्यनिगोद- इतरनिगोद, प्रतिष्ठितप्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक भेदसे स्थावरकायिक जीव अनेक प्रकारके होते हैं ॥ १३ ॥ १ ध. दिवाई । २ घ. तम्हा । ३ द. मच्चु सेोखेो । ४ ध. सुसत्य । ५ ध. सद्वहणं । ६ धट्ठयणिया । ७ घ. भेददो झ, ध. पर्याट्ठयरा । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवतत्त्व-वर्णन वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयो तसा चउन्विहा मुणेयव्वा । पज्जत्तियरा सरिणयरमेयश्रो हुँति बहुभेया ॥१४॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे त्रसकायिक जीव चार प्रकारके जानना चाहिए। ये ही त्रस जीव पर्याप्त-अपर्याप्त और संज्ञी-असंज्ञी आदिक प्रभेदोंसे अनेक प्रकारके होते हैं ॥१४॥ श्राउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवनोग-पाण-सण्णाहिं। णाऊण जीवदव्वं सद्दहणं होइ कायब्वं ॥१५॥ आयु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवसमास, उपयोग, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीवद्रव्यको जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिए ॥१५॥ (विशेष अर्थके लिए परिशिष्ट देखिये) अजीवतत्त्व-वर्णन दुविहा अजीवकाया उ रूविणो अरूविणो मुणेयव्वा । खंधा देस-पएसा अविभागी रूविणो चदुधा ॥१६॥ संयलं मुणेहि खधं श्रद्धं देसो पएसमद्धद्धं । परमाणू अधिभागी पुग्गलदव्वं जिणुहिटळं ॥१७॥ अजीवद्रव्यको रूपी और अरूपीके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए । इनमें रूपी अजीवद्रव्य स्कंध, देश, प्रदेश और अविभागीके भेदसे चार प्रकारका होता है । सकल पुद्गलद्रव्यको स्कंध, स्कंधके आधे भागको देश, आधेके आधेको अर्थात् देशके आधेको प्रदेश और अविभागी अंशको परमाणु जानना चाहिए, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ॥१६-१७॥ पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय-कम्म-परमाणू । अइथूलथूलथूलं सुहुमं सुहुमं च अइसुहम ॥१८॥ अतिस्थूल (बादर-बादर), स्थूल (वादर), स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म, इस प्रकार पृथिवी आदिकके छः भेद होते हैं । (इन छहोंके दृष्टान्त इस प्रकार हैं--पृथिवी अतिस्थूल पुद्गल है । जल स्थूल है । छाया स्थूल-सूक्ष्म है । चार इन्द्रियोंके विषय अर्थात् स्पर्श, रस, गंध और शब्द सूक्ष्म-स्थूल है। कर्म सूक्ष्म है और परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है) ॥१८॥ , चउविहमरूविदव्वं धमाधम्मवराणि कालो य । गइ-ठाणुग्गहणलक्खणाणि तह वट्टणगुणो य ॥१९॥ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये चार प्रकारके अरूपी अजीवद्रव्य हैं। इनमें आदिके तीन क्रमश. गतिलक्षण, स्थितिलक्षण और अवगाहनलक्षण वाले हैं तथा काल वर्तनालक्षण है ॥१९॥ १८. प्रोय। २ ध. रूविणोऽरूविणो। ३. द. घ. मुणेहि । ४ चकारात् 'सुहमथूल' ग्राह्यम् । ५ मुद्रित पुस्तकमें इस गाथाके स्थानपर निम्न दो गाथाएं पाई जाती है अइथूलथूलथूलं यूलं सहुमं च सहुमथूलं च । सहमं च सहम सहुमं धराइयं होइ छब्भयं ॥१८॥ पुढवी जलं च छाया चरिदियविसय कम्मपरमाणू । छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिंदेहिं ॥१६॥ ये दोनों गाथाएं गो० जीवकांडमें क्रमशः ६०२ और ६०१ नं० पर कुछ शब्दभेदके साथ पाई जाती है। ६ म. घ. वत्तण। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार परमत्थो ववहारो दुविहो कालो जिणेहिं पण्णत्तो। लोयायासपएसठियाणवो मुक्खकालस्स ॥२०॥ गोणसमयस्स' एए कारणभूया जिणेहि णिहिट्ठा । तीदाणागदभूश्रो बवहारो गंतसमश्रो य ॥२१॥ जिनेन्द्र भगवान्ने कालद्रव्य दो प्रकारका कहा है-परमार्थकाल और व्यवहारकाल । मुख्यकालके अणु लोकाकाशके प्रदेशोंपर स्थित है। इन कालाणुओंको व्यवहारकालका कारणभूत जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है । व्यवहारकाल अतीत और अनागत-स्वरूप अनन्त समयवाला कहा गया है ॥२०-२१॥ परिणामि-जीव-मुत्ताइएहि पाऊण दव्वसम्भावं। जिणवयणमणुसरंतेहि थिरमइ होइ कायव्वा ॥२२॥ परिणामित्व, जीवत्व और मूर्त्तत्वके द्वारा द्रव्यके सद्भावको जानकर जिन भगवान्के वचनोंका अनुसरण करते हुए भव्य जीवोंको अपनी बुद्धि स्थिर करना चाहिए ॥२२॥ परिणामि जीव मुत्तं सपएस एयखित्त किरिया य । णिच्चं कारणकत्ता सव्वगदमियरम्हि अपवेसो ॥२३॥ दुण्णि य एयं एवं पंच य तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एवं एयं मूलस्स य उत्तरे णेयं ॥२४॥ उपर्युक्त छह द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं । एक जीवद्रव्य चेतन है और सब द्रव्य अचेतन है। एक पदगल द्रव्य मत्तिक हे और सब जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये पांच द्रव्य प्रदेशयुक्त है, इसीलिए बहुप्रदेशी या अस्तिकाय कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीन द्रव्य एक-एक (और एक क्षेत्रावगाही) है। एक आकाशद्रव्य क्षेत्रवान् है, अर्थात् अन्य द्रव्योंको क्षेत्र (अवकाश) देता है। जीव और पुद्गल, ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य नित्य है, (क्योंकि, इनमें व्यंजनपर्याय नहीं है ।) पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये पांच द्रव्य कारणरूप हैं । एक जीवद्रव्य कर्ता है । एक आकाशद्रव्य सर्वव्यापी है। ये छहों द्रव्य एक क्षेत्रमें रहनेवाले हैं, तथापि एक द्रव्यका दूसरे में प्रवेश नहीं है। इस प्रकार छहों मूलद्रव्योंके उपर्युक्त उत्तर गुण जानना चाहिए ॥२३-२४॥ इसुहमा अवायविसया खणखइणो अस्थपज्जया दिट्ठा। वंजणपज्जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवत्था ॥२५॥ पर्यायके दो भेद हैं-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । इनमें अर्थपर्याय सूक्ष्म हैं, अवाय (ज्ञान) विषयक है अतः शब्दसे नहीं कही जा सकती हैं और क्षण-क्षणमें बदलती हैं। किन्तु व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्द-गोचर हैं अर्थात् शब्दसे कही जा सकती हैं और चिरस्थायी हैं ॥२५॥ नक १ व्यवहारकालस्य। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवतत्त्व-वर्णन परिणामजुदो जीबो गइगमणुवलंभो असंदेहो। वह पुग्गलो य पाहणपहुइ-परिणामदंसणा गाउं ॥२६॥ जीव परिणामयुक्त अर्थात् परिणामी है, क्योंकि उसका स्वर्ग, नरक आदि गतियोमे निःसन्देह गमन पाया जाता है। इसी प्रकार पाषाण, मिट्टी आदि स्थूल पर्यायोंके परिणमन देखे जानेसे पुद्गलको परिणामी जानना चाहिए ॥२६॥ वंजणपरिणइविरहा धम्मादीा हवे अपरिणामा। अत्थपरिणाममासिय सव्वे परिणामिणो अत्था ॥२७॥ धर्मादिक अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य व्यंजनपर्यायके अभावसे अपरिणामी कहलाते है। किन्तु अर्थपर्यायकी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते है, क्योंकि अर्थपर्याय सभी द्रव्योंमें होती है ॥२७॥ जीवो हु जीवदव्वं एक्कं चिय चेयणाचुया सेसा । मुत्तं पुग्गलदव्वं रूवादिविलोयणा ण सेसाणि ॥२८॥ एक जीवद्रव्य ही जीवत्व धर्मसे युक्त है, और शेष सभी द्रव्य चेतनासे रहित है । एक पुद्गलद्रव्य ही मूर्तिक है, क्योकि, उसीमे ही रूप, रसादिक देखे जाते है। शेष समस्त द्रव्य अमूत्तिक है, क्योंकि, उनमे रूपादिक नहीं देखे जाते है ॥२८॥ सपएस पंच कालं मुत्तण पएससंचया ऐया । अपएसी खलु कालो पएसबंधच्चुदो जम्हा ॥२९॥ कालद्रव्यको छोड़कर शेष पांच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए; क्योकि उनमे प्रदेशोंका संचय पाया जाता है । कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि, वह प्रदेशोंके बंध या समूहसे रहित है, अर्थात् कालद्रव्यके कालाणु भिन्न भिन्न ही रहते है ॥२९॥ धम्माधम्मागासा एगसरूवा पएसअविश्रोगा। ववहारकाल-पुग्गल-जीवा हु अणेयरूवा ते ॥३०॥ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्य एक-स्वरूप है, अर्थात् अपने स्वरूप या आकारको बदलते नहीं है, क्योंकि, इन तीनों द्रव्योंके प्रदेश परस्पर अवियुक्त है अर्थात् समस्त लोकाकाशमे व्याप्त है । व्यवहारकाल, पुद्गल और जीव, ये तीन द्रव्य अनेकस्वरूप हैं, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं ॥३०॥ आगासमेव खितं अवगाहणलक्खणं जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽखित्तं अवगाहणलक्खणाभावा ॥३॥ एक आकाशद्रव्य ही क्षेत्रवान् है, क्योंकि, उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पांच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं हैं, क्योंकि उनमें अवगाहन लक्षण नही पाया जाता है ॥३१॥ सक्किरिय जीव-पुग्गल गमणागमणाइ-किरियउवलमा। सेसाणि पुण वियाणसु किरियाहीणाणि तदभावा ॥३२॥ • जीव और पुद्गल ये दो क्रियावान् हैं, क्योंकि, इनमें गमन, आगमन आदि क्रियाएं पाई जाती है। शेष चार द्रव्य क्रिया-रहित है, क्योंकि, उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएं नहीं पाई जाती हैं ॥३२॥ १ घसक्किरिया पुणु जीवा पुग्गल गमणाई'। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनान्द-श्रावकाचार मुता' जीवं कायं णिच्चा सेसा पयासिया समये । वंजणपरिणामचुया इयरे तं परिणयं पत्ता ॥३३॥ जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंको छोड़कर शेष चारों द्रव्योंको परमागममे नित्य कहा गया है, क्योंकि उनमें व्यंजन-पर्याय नही पाई जाती है ।। जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंमें व्यंजनपर्याय पाई जाती है, इसलिए वे परिणामी और अनित्य है ॥३३॥ जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंच कायाई । जीवो सत्ता भूत्रो सो ताणं ण कारणं होई ॥३४॥ अधर्म, आकाश और काल ये पांचों द्रव्य जीवका उपकार करते है, इसलिए वे कारणभूत है। किन्तु जीव सत्तास्वरूप है, इसलिए वह किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता है ॥३४॥ कत्ता सुहासुहाणं कम्माणं । फल भोयो जम्हा । जीवो तपफलभोया भोया सेसा ण कत्तारा ॥३५॥ जीव शुभ और अशुभ कर्मोका कर्ता है, क्योंकि, वही कर्मों के फलको प्राप्त होता है और इसीलिए वह कर्मफलका भोक्ता है । किन्तु शेष द्रव्य न कर्मों के कर्ता हैं और न भोक्ता ही हैं ॥३५॥ सव्वगदत्ता सव्वगमायासं णेव सेसगं दवं अप्परिणामादीहि य बोहव्वा ते पयत्तेण ॥३६॥ सर्वत्र व्यापक होनेसे आकाशको सर्वगत कहते है। शेष कोई भी द्रव्य सर्वगत नही है। इस प्रकार अपरिणामित्व आदिके द्वारा इन द्रव्योंको प्रयत्नके साथ जानना चाहिए ॥३६॥ 'ताण पवेसो वि तहा णेश्रो अण्णोण्णमणुपवेसेण । णिय-णियभावं पि सया एगीहुंता वि ण मुयंति ॥३७॥ यद्यपि ये छहों द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं , तथापि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नहीं जानना चाहिए। क्योंकि, ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही हो करके भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं ॥३७॥ उत्तं च अण्णोण्णं पविसंता दिता उग्गासमण्णमण्णेसिं। मेल्लौता दिय णिच्चं सग-सगभावं ण वि चयंसि ॥३८॥ कहा भी है--छहों द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हुए, एक दूसरेको अवकाश देते हुए और परस्पर मिलते हुए भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं ॥३८॥ __ आस्रवतत्त्व-वर्णन मिच्छत्ताविरइ-कसाय-जोयहेऊहिं आसवइ कम्मं । जीवम्हि उवहिमझे जह सलिलं छिहणावाए ॥३९॥ * जिस प्रकार समुद्र के भीतर छेदवाली नावमें पानी आता है, उसी प्रकार जीवमें मिथ्यात्व, अविरति,कषाय और योग इन चार कारणोंके द्वारा कर्म आस्रवित होता है ॥३९॥ १ झ. मोत्तुं, ब. मोत। २ झ. ब. संतयः । ३ ब. ताण। ४ ब. फलयभोयो। ५ द. कत्तारो, प. कत्तार। ६ घ. 'ताणि', प.'णाण'।७ झ. उक्तं । ८ पंचास्ति. गा०७।६ .-हेहि। मिथ्यात्वादिचतुष्केन जिनपूजादिना च यत् । . . कर्माशुभं शुभं जीवमास्पन्दे स्यात्स प्रास्त्रवः ॥१६॥-गुण श्राव० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधादितत्त्व-वर्णन अरहंतभत्तियाइसु सुहोवोगेण पासवइ पुरणं । विवरीएण दु' पावं णिहिट्ठ जिणवरिंदेहि ॥४०॥ अरहंतभक्ति आदि पुण्यक्रियाओंमें शुभोपयोगके होनेसे पुण्यका आस्रव होता है और इससे विपरीत अशुभोपयोगसे पापका आस्रव होता है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है ॥४०॥ बंधतत्त्व-वर्णन 'अण्णोणाणुपवेसो जो जीवपएसकम्मखधाणं । सो पयडि-ट्ठिदि-अणुभव-पएसदो चउविहो बंधो ॥४१॥* जीवके प्रदेश और कर्मके स्कन्धोंका परस्परमें मिलकर एकमेक होजाना बंध कहलाता है। वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभव (अनुभाग) और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका होता है ॥४१॥ संवरतत्त्व-वर्णन सम्मत्तेहिं वएहिं य कोहाइकसायणिग्गहगुणेहि । जोगणिरोहेण तहा कम्मासवसंवरो होइ ॥४२॥+ सम्यग्दर्शन, व्रत और क्रोधादि कषायोंके निग्रहरूप गुणोंके द्वारा तथा योग-निरोधसे कर्मो का आस्रव रुकता है अर्थात् संवर होता है ॥४२॥ निर्जरातत्त्व-वर्णन सविवागा अविवागा दुविहा पुण निज्जरा मुणेयव्वा । सब्वेसिं जीवाणं पढमा विदिया तबस्सीणं ॥४३॥ जह रुद्धम्मि पवेसे सुस्सइ सरपाणियं रविकरहिं । तह आसवे णिरुद्ध तवसा कम्मं मुणेयव्वं ॥४४॥ सविपाक और अविपाकके भेदसे निर्जरा दो प्रकारको जाननी चाहिए। इनमेंसे पहली सविपाक निर्जरा सब संसारी जीवोंके होती है, किन्तु दूसरी अविपाक निर्जरा तपस्वी साधुओंके होती है। जिस प्रकार नवीन जलका प्रवेश रुक जानेपर सरोवरका पुराना पानी सूर्यकी किरणोंसे सूख जाता है, उसी प्रकार आस्रवके रुक जानेपर संचित कर्म तपके द्वारा नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए ॥४३-४४॥ १ब, उ । २ ध, अण्णुण्णा। * स्यादन्योऽन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादिस्वभावकः ॥१७॥ + सम्यक्त्वव्रतैः कोपादिनिग्रहायोगरोधतः । कर्मास्रवनिरोधो यः सत्संवरः स उच्यते ॥१८॥ सविपाकाविपाकाथ निर्जरा स्याद द्विधादिमा । संसारे सर्वजीवानां द्वितीया सुतपस्विनाम् ॥१९॥-गुण० श्राव० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार मोक्षतत्त्व-वर्णन हिस्सेसकम्ममोक्खो मोक्खो जिणसासणे समुहिट्ठो । तम्हि कए जीवोऽयं अणुहवइ अणंतयं सोक्खं ॥४५॥* समस्त कर्मों के क्षय हो जानेको जिनशासनमें मोक्ष कहा गया है। उस मोक्षके प्राप्त करनेपर यह जीव अनन्त सुखका अनुभव करता है ॥४५॥ णिसं सामित्तं साहणमहियरण-ठिदि विहाणाणि' । एएहि सम्वभावा जीवादीया मुणेयव्वा ॥४६॥ निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान, इन छह अनुयोगद्वारोंसे जीव आदिक सर्व पदार्थ जानना चाहिये ॥४६॥ (इनका विशेष परिशिष्टमें देखिये) सत्त वि तच्चाणि मए भणियाणि जिणागमाणुसारेण । एयाणि सदहंतो सम्माइट्ठी मुणेयन्वो ॥४७॥ ये सातों तत्त्व मैने जिनागमके अनुसार कहे है। इन तत्त्वोंका श्रद्धान करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये ॥४७ ॥ सम्यक्त्वके आठ अङ्ग हिस्संका णिक्कंखा णिविदिगिच्छा अमूढदिठी य । उवगृहण ठिदियरणं वच्छल्ल पहावणा चेव ॥४॥ निःशंका, निःकांक्षा, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये सम्यक्त्वके आठ अंग होते हैं ॥४८॥ संवेश्रो णिव्वेश्रो जिंदा गरहा उवसमो भत्ती। 'वच्छल्लं अणुकंपा अटठ गुणा हुँति सम्मत्ते ॥४६॥ पाठान्तरम्-पूया अवण्णजणणं" अरुहाईणं पयत्तेण ॥ सम्यग्दर्शनके होनेपर संवेग, निर्वेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण उत्पन्न होते हैं ॥४९॥ (पाठान्तरका अर्थ---अर्हन्तादिककी पूजा और गुणस्मरणपूर्वक निर्दोष स्तुति प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये । ) इच्चाइगुणा बहवो सम्मत्तविसोहिकारया भणिया। जो उज्जमेदि एसु सम्माइट्ठी जिणक्खादो ॥५०॥ उपर्युक्त आदि अनेक गुण सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करनेवाले कहे गये हैं। जो जीव इन गुणोंकी प्राप्तिमें उद्यम करता है, उसे जिनेन्द्रदेवने सम्यग्दृष्टि कहा है ॥५०॥ १ निर्देशः स्वरूपाभिधानम् । स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्तिकारणम् । अधिकरणमधिष्ठानम् । स्थितिः कालपरिच्छेदः । विधानं प्रकारः। २ इ. स. "णिस्संकिय णिक्कखिय' इति पाठः। ३ झ. गरहा। ४. प. प. प्रतिषु गायोत्तरार्षस्यायं पाठः 'प्या अवण्णजणणं अरहाईणं पयत्तेण' ५ प्रदोषोद्धावनम् । ६ झ. 'एदें। निर्जरा-संवराभ्यां यो विश्वकर्मक्षयो भवेत् । समोर इस विशेयो भन्यैनिसुखात्मकः ॥२०॥-गुण श्राव Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन-प्रतिमा-वर्णन संकाइदोसरहिनो हिस्संकाइगुणजुयं परमं । कम्मणिज्जरणहेऊ तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ॥५१॥ जो शंकादि दोषोंसे रहित है, निःशंकादि परम गुणोंसे युक्त है और कर्म-निर्जराका कारण है, वह निर्मल सम्यग्दर्शन है ॥५१॥ * अङ्गोंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके नाम रायगिहे णिस्संको चोरो णामेण अंजणो भणिओ। चंपाए णिक्कंखा वणिगसुदा गंतमइणामा ॥५२॥ णिविदिगिच्छो राओ उद्दायणु णाम रुद्दवरणयरे। रेवइ महुरा .णयरे अमूढदिट्ठी मुणेयव्वा ॥५३॥ ठिदियरणगुणपउत्तो मागहणयरम्हि वारिसेणो दु। हथणापुरम्हि जयरे वच्छल्लं विण्हुणा रइयं ॥५४॥ उवगृहणगुणजुत्तो जिणयत्तो तामलित्तणयरीए। वज्जकुमारेण कया पहावणा चेव महुराए+ ॥५५॥ राजगृह नगरमें अंजन नामक चोर निःशंकित अंगमे प्रसिद्ध कहा गया है। चम्पानगरीमें अनन्तमती नामकी वणिकपुत्री निःकांक्षित अंगमें प्रसिद्ध हुई। रु वर नगरमें उद्दायन नामका राजा निर्विचिकित्सा अंगमें प्रसिद्ध हुआ। मथुरानगरमें रेवती रानी अमूढदृष्टि अंगमें प्रसिद्ध जानना चाहिये। मागधनगर (राजगृह) में वारिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुणको प्राप्त हुआ। हस्तिनापुर नामके नगरमें विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य अंग प्रकट किया है । ताम्रलिप्तनगरीमें जिनदत्त सेठ उपगूहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुआ है और मयुरा नगरीमें वज्रकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया है ॥५२-५५॥ ____ एरिसगुणअट्ठजुयं सम्मत्तं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मविट्ठी सदहमाणो पयत्थे य ॥५६॥ जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्वको धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है ॥५६॥ पंचुंबरसहियाई सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावनो भणिश्रो ॥१७॥ __ सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बरफल सहित सातों ही व्यसनोंका त्याग करता है, वह दर्शनश्रावक कहा गया है ।।५७।। उंबर-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरुपसूणाई। णिच्चं तससंसिद्धाई ताई परिवज्जियव्वाई ॥५॥ ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, इन पांचों उदुम्बर फल, तथा संधानक (अचार) और वृक्षोंके फूल ये सब नित्य त्रसजीवोंसे संसिक्त अर्थात् भरे हुए रहते हैं इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए ॥५॥ * प्रतौ पाठोऽयमधिक:-'तो गाथाषटकं भावसंग्रहग्रन्थात् । +भाव सं० गा २८०-२५३ । १६. पंपरीय । २ प. संहिद्धाइं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार जूयं मजं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परयारं । दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ॥५६॥ जूआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, और परदार-सेवन, ये सातों व्यसन दुर्गति-गमनके कारणभूत पाप हैं ॥५९॥ रातदोष-वर्णन जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया य माण-लोहा' य । एए हवंति तिब्वा पावइ पावं तदो बहुगं ॥६०॥ पावेण तेण जर-मरण-वीचिपउरम्मि टुक्खसलिलम्मि । चउगइगमणावत्तम्मि हिंडइ भवसमुहम्मि ॥११॥ तत्थ वि दुक्खमणंतं छेयण-भेयण विकत्तणाईणं । पावइ सरणविरहिओ जूयस्स फलेण सो जीवो ॥१२॥ ण गणेइ इट्टमित्तं ण गुरुंण य मायरं पियरं वा । जूवंधो वुजाई कुणइ अकजाई बहुयाइं ॥१३॥ सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ जिल्लज्जो। माया वि ण विस्सासं वच्चइ जूयं रमंतस्स ॥६॥ अग्गि-विस-चोर-सप्पा दुक्खं थोवं कुणंति' इहलोए। दुक्खं जणेइ जूयं परस्स भवसयसहस्सेसु ॥६५॥ अक्खेहि णरो रहिनो ण मुणइ सेसिदिएहिं वेएइ। जूयंधो ण य केण वि जाणइ संपुण्णकरणो वि ॥६६॥ अलियं करेइ सवहं जंपइ मोसं भणेइ अइदुई। पासम्मि बहिणि-मायं सिसु पि हणेइ कोहंधो ॥६७॥ ण य भुंजइ आहारं णि ण लहेइ रत्ति-दिएणं ति। कत्थ वि ण कुणेइ रइं अत्थइ चिंताउरो' णिचं ॥६॥ इच्चेवमाइबहवो दोसे णाऊण जूयरमण म्मि । परिहरियव्वं णिच्चं दंसणगुणमुव्वहंतेण ॥६॥ जूआ खेलनेवाले पुरुषके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय तीव्र होती हैं, जिससे जीव अधिक पापको प्राप्त होता है ॥६०॥ उस पापके कारण यह जीव जन्म, जरा, मरणरूपी तरंगोंवाले, दुःखरूप सलिलसे भरे हुए और चतुर्गति-गमनरूप आवर्तो (भंवरों) से संयुक्त ऐसे संसार-समुद्रमें परिभ्रमण करता है ॥६१॥ उस संसारमें जुआ खेलनेके फलसे यह जीव शरण-रहित होकर छेदन, भेदन, कर्तन आदिके अनन्त दु:खको पाता है ॥६२॥ जूआ खेलनेसे अन्धा हुआ मनुष्य इष्ट मित्रको कुछ नहीं गिनता है, न गुरुको, न माताको और न पिताको ही कुछ समझता है, किन्तु स्वच्छन्द होकर पापमयी बहुतसे अकार्यों को करता है ॥६३॥ जूआ खेलनेवाला पुरुष स्वजनमें, परजनमें, स्वदेशमें, परदेशमें, सभी जगह निर्लज्ज हो जाता है । जूआ खेलनेवालेका विश्वास उसकी माता तक भी नहीं करती है ॥६४॥ इस लोकम अग्नि, १. 'लोहों' इति पाठ:। २ व. विरहियं इति पाठ।३ ब. 'करंति' इति पाठः । ४ झ.-'वरो' इति पाठः। ५ झ. 'दोषाः इति पाठः। * द्यूतमध्वामिषं वेश्याखेटचौर्यपराङ्गना। सप्तव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः॥११॥ गुण श्राव०। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ मद्यदोष-वर्णन विष, चोर और सर्प तो अल्प दुख देते हैं, किन्तु जूआका खेलना मनुष्यके हजारों लाखों भवोंमें दु.खको उत्पन्न करता है ॥६५॥ आँखोंसे रहित मनुष्य यद्यपि देख नहीं सकता है, तथापि शेष इन्द्रियोंसे तो जानता है । परन्तु जूआ खेलनेमें अन्धा हुआ मनुष्य सम्पूर्ण इन्द्रियोंवाला हो करके भी किसीके द्वारा कुछ नहीं जानता है ॥६६॥ वह झूठी शपथ करता है, झूठ बोलता है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोधान्ध होकर पासमें खड़ी हुई बहिन, माता और बालकको भी मारने लगता है ॥६७॥ जुआरी मनुष्य चिन्तासे न आहार करता है, न रात-दिन नींद लेता है, न कहीं पर किसी भी वस्तुसे प्रेम करता है, किन्तु निरन्तर चिन्तातुर रहता है ।।६८।। जूआ खेलने में उक्त अनेक भयानक दोष जान करके दर्शनगुणको धारण करनेवाले अर्थात् दर्शन प्रतिमायुक्त उत्तम पुरुषको जूआका नित्य ही त्याग करना चाहिये ॥६९॥ मद्यदोष-वर्णन मज्जेण गरो अवसो कुणेइ कम्माणि शिंदणिज्जाइं। इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ॥७॥ अइलंघिनो विचिट्टो पडेइ रत्थाययंगणे मत्तो। पडियस्स सारमेया वयणं विलिहंति जिब्भाए ॥७॥ उच्चारं पस्सवणं तत्थेव कुणंति तो समुल्लवइ । पडियो वि सुरा मिट्ठो पुणो वि मे देइ मूढमई ॥७२॥ जं किंचि तस्स दव्वं अजाणमाणस्स हिप्पइ परेहिं । लहिऊण किंचि सण्णं इदो तदो धावइ खलंतो ॥७३॥ जेणज मज्झ दव्वं गहियं दुटेण से जमो कुद्धो । कहिं जाइ सो जिवंतो सीसं छिंदामि खग्गेण ॥७॥ एवं सो गज्जतो कुवित्रो गंतूण मंदिरं णिययं । धित्तूण लउडि सहसा रुट्ठो भंडाइं फोडेइ ॥७५॥ णिययं पि सुयं बहिणिं अणिच्छमाणं बला विधंसेइ । जंपइ अजंपणिज्जंण विजाणइ कि पि मयमत्तो॥७६॥ इय अवराइं बहुसो काऊण बहूणि लज्जणिजाणि । अणुबंधइ बहु पावं मजस्स वसंगदो संतो ॥७७॥ पावेण तेण बहुसो जाइ-जरा-मरणसावयाइण्णे। पावइ अणंतदुक्खं पडिअो संसारकंतारे ॥७॥ एवं बहुप्पयारं दोसं णाऊण मजपाणम्मि । मण-वयण-काय-कय-कारिदाणुमोएहिं वजिज्जो ॥७॥ मद्य-पानसे मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्यों को करता है, और इसीलिए इस लोक तथा परलोकमें अनन्त दु:खोंको भोगता है ॥७०॥ मद्यपायी उन्मत्त मनुष्य लोक-मर्यादाका उल्लंघन कर बेसुध होकर रथ्यांगण (चौराहे) में गिर पड़ता है और इस प्रकार पड़े हुए उसके (लार बहते हुए) मुखको कुत्ते जीभसे चाटने लगते हैं ॥७१॥ उसी दशामें कुत्ते उसपर उच्चार (टट्टी) और प्रस्रवण (पेशाब) करते हैं। किन्तु वह मूढमति उसका स्वाद लेकर पड़े-पड़े ही पुनः कहता है कि सुरा (शराब) बहुत मीठी १ ब. रत्थाइयंगणे । प. रत्थाएयंगणे । २२. नाऊण । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार है, मुझे पीनेको और दो ॥७२॥ उस बेसुध पड़े हुए मद्यपायीके पास जो कुछ द्रव्य होता है, उसे दूसरे लोग हर ले जाते हैं । पुनः कुछ संज्ञाको प्राप्तकर अर्थात् कुछ होशमें आकर गिरता-पड़ता इधर-उधर दौड़ने लगता है ॥७३॥ और इस प्रकार बकता जाता है कि जिस बदमाशने आज मेरा द्रव्य चुराया है और मझे ऋद्ध किया है, उसने यमराजको ही क्रुद्ध किया है, अब वह जीता बचकर कहाँ जायगा, मैं तलवारसे उसका शिर काढूंगा ॥७४॥ इस प्रकार कुपित वह गरजता हुआ अपने घर जाकर लकड़ीको लेकर रुष्ट हो सहसा भांडों (बर्तनों) को फोड़ने लगता है ॥७५॥ वह अपने ही पुत्रको, बहिनको, और अन्य भी सबको-जिनको अपनी इच्छाके अनुकूल नहीं समझता है, बलात् मारने लगता है और नहीं बोलने योग्य वचनोंको बकता है । मद्य-पानसे प्रबल उन्मत्त हुआ वह भले-बुरेको कुछ भी नहीं जानता है ॥७६।। मद्यपानके वशको प्राप्त हुआ वह इन उपर्यक्त कार्योको, तथा और भी अनेक लज्जा-योग्य निर्लज्ज कार्योको करके बहुत पापका बंध करता है ॥७७॥ उस पापसे वह जन्म, जरा और मरणरूप श्वापदों (सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जानवरोंसे) आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसाररूपी कान्तार (भयानक वन) में पड़कर अनन्त दुःखको पाता है ॥७८॥ इस तरह मद्यपानमें अनेक प्रकारके दोषोंको जान करके मन, वचन, और काय, तथा कृत, कारित और अनुमोदनासे उसका त्याग करना चाहिए ॥७९॥ मधुदोष-वर्णन जह मज्ज तह य महू जणयदि पावं णरस्स अइबहुयं । असुइ व्व शिंदणिजं वज्जेयव्वं पयत्तेण ॥८॥ दहण असणमज्झे पडियं जइ मच्छियं पि णिद्विवइ । कह मच्छियंडयाणं णिजासं णिग्घिणो पिबई ॥८॥ भो भो जिभिदियलुद्धयाणमच्छरय' पलोएह । किमि मच्छियणिज्जासं महं पवित्तं भणंति जदो ॥२॥ लोगे वि सुप्पसिद्धं बारह गामाइ जो डहइ अदो। तत्तो सो अहिययरो पाविट्ठो जो महुं हणइ ॥३॥ जो अवलेहई णिच्चं णिरय' सो जाई णत्थि संदेहो। एवं णाऊण फुडं वज्जेयव्वं महुँ तम्हा ॥८॥ मद्यपानके समान मधु-सेवन भी · मनुष्यके अत्यधिक पापको उत्पन्न करता है। अशुचि (मल-मूत्र वमनादिक) के समान निंद्यनीय इस मधुका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए ॥८०॥ भोजनके मध्यमें पड़ी हुई मक्खी को भी देखकर यदि मनुष्य उसे उगल देता है अर्थात् मुंहमें रखे हुए ग्रासको थूक देता है तो आश्चर्य है कि वह मधु-मक्खियोंके अंडोंके निर्दयतापूर्वक निकाले हुए घृणित रसको अर्थात् मधुको निर्दय या निर्धण बनकर कैसे पी जाता है ॥८१॥ भो-भो लोगो, जिह्वेन्द्रिय-लुब्धक (लोलुपी) मनुष्योंके आश्चर्य को देखो, कि लोग मक्खियोंके रसस्वरूप इस मधुको कैसे पवित्र कहते हैं ॥४२॥ लोकमें भी यह कहावत' प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी बारह गांवोंको जलाता है, उससे भी अधिक १. नियसिं निश्श्रोटनं निबोडनमिति । प. निःपीलनम्। ध, निर्यासम् । २. ध, मच्छेयर । ३मास्वादयति। ४. नियं। ५प. जादि । ६ म. नाऊण । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांसदोष-वर्णन पापी वह है जो मधु-मक्खियोंके छत्तेको तोड़ता है ॥८३॥ इस प्रकारके पाप-बहुल मधुको जो नित्य चाटता है-खाता है, वह नरकमें जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। ऐसा जानकर मधुका त्याग करना चाहिए ।।८४॥ मांसदोष-वर्णन मंसं अमेज्झसरिसं किमिकुलभरियं दुगंधवीभच्छं। पाएण छिवेडं जंण तीरए तं कहं भोत्तु ॥४५॥ मंसासणेण वड्ढइ दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पि वण्णिए पाउणइ दोसे ॥६॥ लोइय' सत्थम्मि वि वरिणयं जहा गयणगामिणो विप्पा। भुवि मंसासणेण पडिया तम्हा ण पउंजएमंसं ॥७॥ मांस अमेध्य अर्थात् विष्टाके समान है, कृमि अर्थात् छोटे-छोटे कीड़ोंके, समूहसे भरा हुआ है, दुर्गन्धियुक्त है, बीभत्स है और पैरसे भी छूने योग्य नहीं है, तो फिर भला वह मांस खाने के लिए योग्य कैसे हो सकता है ॥८५॥ मांस खानेसे दर्प बढ़ता है, दर्पसे वह शराब पीने की इच्छा करता है और इसीसे वह जुआ भी खेलता है। इस प्रकार वह प्रायः ऊपर वर्णन किये गये सभी दोषोंको प्राप्त होता है ॥८६॥ लौकिक शास्त्रमें भी ऐसा वर्णन किया गया है कि गगनगामी अर्थात् आकाशमें चलनेवाले भी ब्राह्मण मांसके खानेसे पृथ्वीपर गिर पड़े। इसलिए मांसका उपयोग नही करना चाहिए ॥८७॥ वेश्यादोष-वर्णन कारुय-किराय-चंडाल-डोंव-पारसियाणमुच्छिष्टुं । सो भक्खेइ जो सह वसइ एयरत्तिं पि वेस्साए ॥८॥ रत्तं णाऊण णरं सब्वस्सं हरइ वंचणसएहिं । काऊण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मद्विपरिसेसं ॥३॥ पभणइ पुरो एयस्स सामी मोत्तूण णस्थि मे अण्णो । उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि ॥१०॥ माणी कुलजो सूरो वि कुणइ दासत्तण पि णीचाणं । वेस्सा कएण बहुगं अवमाणं सहइ कामंधो ॥१॥ जे मज्जमसदोसा वेस्सागमणम्मि होति ते सव्वे । पावं पि तत्थ हि, पावइ णियमेण सविसेमं ॥१२॥ पावेण तेण दुक्खं पावइ 'ससार-सायरे घोरे । तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयणकाएहिं ॥१३॥ जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्याके साथ निवास करता है, वह कारु अर्थात् लुहार, चमार, किरात (भील), चंडाल, डोंब (भंगी) और पारसी आदि नीच लोगोंका जूठा खाता है । क्योंकि, वेश्या इन सभी नीच लोगोंके साथ समागम करती है ॥८॥ वेश्या, मनुष्यको अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों प्रवंचनाओंसे उसका सर्वस्व हर ब, लोइये । २ इ. 'ण वज्जए', झ. 'ण पवज्जए' इति पाठः। ३२. ब. वेसाए। ४ स. नाऊण, ५ ब. सन्वं सहरइ। ६झ, ब, 'णत्थि' स्थाने 'तं ' इति पाठः। ७. वुच्चइ । 4,९,१०, बवेसा। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ वसुनन्दि-श्रावकाचार लेती है और पुरुषको अस्थि-चर्म परिशेष करके, अर्थात् जब उसमें हाड़ और चाम ही अवशेष रह जाता है, तब उसको छोड़ देती है ॥८९॥ वह एक पुरुषके सामने कहती है कि तुम्हें छोड़कर अर्थात् तुम्हारे सिवाय मेरा कोई स्वामी नहीं है। इसी प्रकार वह अन्यसे भी कहती है और अनेक चाटुकारियां अर्थात् खुशामदी बाते करती है ॥९०॥ मानी, कुलीन और शूरवीर भी मनुष्य वेश्याम आसक्त होनेसे नीच पुरुषोंकी दासता (नौकरी या सेवा) को करता है और इस प्रकार वह कामान्ध होकर वेश्याओं के द्वारा किये गये अनेकों अपमानोंको सहन करता है ॥९१।। जो दोष मद्य और मांसके सेवनमें होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमनमे भी होते हैं। इसलिए वह मद्य और मांस सेवनके पापको तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या-सेवनके विशेष अधम पापको भी नियमसे प्राप्त होता है॥९२॥ वेश्या-सेवन-जनित पापसे यह जीव घोर संसार-सागरमें भयानक दुःखोंको प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और कायसे वेश्याका सर्वथा त्याग करना चाहिए ॥९३॥ पारद्धिदोष-वर्णन सम्मत्तस्स पहाणो अणुकंवा वरिणो गुणो जम्हा । पारद्धिरमणसीलो सम्मत्तविराहो तम्हा ॥१४॥ दठूण मुक्ककेसं पलायमाणं तहा पराहुत्तं । रद धरियतिणं' सूरा कयापराहं वि ण हणंति ॥१५॥ णिचं पलायमाणो तिण'चारी तह णिरवराहो वि। कह णिग्घणो हणिज्जद्द पारण्णणिवासिणो वि मए ॥१६॥ गो-बंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स होइ जइ धम्मो। सम्वेसि जीवाणं दयाए ता किं ण सो हुज्जा ॥१७॥ गो-बंभण-महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं । तह इयरपाणिघाए वि होइ पावं ण संदेहो ॥१८॥ महु-मज्ज-मंससेवी पावइ पावं चिरेण जं घोरं । तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धिरमणेण ॥१९॥ संसारम्मि अणंतं दुक्खं पाउणदि तेण पावेण । तम्हा विवज्जियव्वा पारद्धी देसविरएण ।।१००॥ सम्यग्दर्शनका प्रधान गुण यतः अनुकंपा अर्थात् दया कही गई है, अतः शिकार खेलनेवाला मनुष्य सम्यग्दर्शनका विरोधक होता है ॥९४॥ जो मुक्त-केश हैं, अर्थात् भयके मारे जिनके रोंगटे (बाल) खड़े हुए हैं, ऐसे भागते हुए तथा पराङमुख अर्थात् अपनी ओर पीठ किये हुए हैं और दांतोंमें जो तृण अर्थात् घासको दाबे हुए हैं, ऐसे अपराधी भी दीन जीवोंको शूरवीर पुरुष नहीं मारते है ॥९५॥ भयके कारण नित्य भागनेवाले, घास खानेवाले तथा निरपराधी और वनोंमें रहनेवाले ऐसे भी मृगोंको निर्दयी पुरुष कैसे मारते हैं ? (यह महा आश्चर्य है ! )॥९६॥ यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्री-घातका परिहार करनेवाले पुरुषको धर्म होता है तो सभी जीवों की दयासे वह धर्म क्यों नहीं होगा ? ॥९७॥ जिस प्रकार गौ, ब्राह्मण और स्त्रियों के मारनेमें महापाप होता है, उसी प्रकार अन्य प्राणियोंके घातमें भी महापाप होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।९८॥ चिर काल तक मध, मद्य और मांसका सेवन करनेवाला जिस घोर पापको प्राप्त होता है, उस १ म. दंतः। २ ब. तणं । ३ ब. तण । ४ झ. ब. हणिज्जा । ५ ब. हवइ । ६ ब, दयायि । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-मित्तं समविट्ठो ॥१३॥ लेण हरइ चौर्यदोष-वर्णन पापको शिकारी पुरुष एक दिन भी शिकारके खेलनेसे प्राप्त होता है ॥९९॥ उस शिकार खेलनेके पापसे यह जीव संसारमें अनन्त दुःखको प्राप्त होता है। इसलिए देशविरत श्रावकको शिकारका त्याग करना चाहिए ॥१०॥ चौर्यदोष-वर्णन परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असायबहुलाओ। पाउणइ जायणाश्रो ण कयावि सुहं पलोएइ ॥१०॥ हरिऊण परस्स धणं चोरो परिवेवमाणसव्वंगो। चइऊण णिययगेहं' धावइ उपहेण संतत्तो ॥१२॥ किं केण वि दिट्ठो हंण वेत्ति हियएण धगधगतेण । हुक्का पलाइ पखलइ णि ण लहेइ भयविट्ठो ॥१०३॥ ण गणेइ माय-वप्पं गुरु-मित्तं सामिणं तवस्सि वा। पबलेण हरइ छलेण किंचिएणं किंपि जं तेसिं ॥१०॥ लज्जा तहाभिमाणं जस-सीलविणासमादणासंच। परलोयभयं चोरो अगणंतो साहस कुणइ ॥१०५॥ हरमाणो परदवं दठ्ठणारक्खिएहिं तो सहसा । रज्जूहिं बधिऊणं घिप्पइ सो मोरबंधेण ॥१०६॥ हिंडाविज्जइ टिंटे रत्थासु चढाविऊण खरपुटिं। वित्थारिज्जइ चोरो एसो त्ति जणस्स मज्झम्मि ॥१०७॥ अण्णो वि परस्स धणं जो हरहसो एरिसं फलं लहइ । एवं भणिऊण पुणो णिज्जइ पुर-बाहिरे तुरियं ॥१०॥ णेत्तद्धारं अह पाणि-पायगहणं णिसुंभणं अहवा। जीवंतस्स वि सूलावारोहणं कीरइ खलेहिं ॥१०९।। एवं पिच्छंता वि हु परदव्वं चोरियाइ गेण्हति । ण मुणंति किं पि सहियं पेच्छह हो मोह माहप्पं ॥११०॥ परलोए वि य चोरो चउगइ-संसार-सायर-निमण्णो । पावइ दुक्खमणंतं तेयं परिवज्जए तम्हा ॥११॥ पराये द्रव्यको हरनेवाला, अर्थात् चोरी करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोक में असाता-बहुल, अर्थात् प्रचुर दुःखोंसे भरी हुई अनेकों यातनाओंको पाता है और कभी भी सुखको नहीं देखता है ॥१०१॥ पराये धनको हर कर भय-भीत हुआ चोर थर-थर कांपता है और अपने घरको छोड़कर संतप्त होता हुआ वह उत्पथ अर्थात् कुमार्गसे इधर-उधर भागता फिरता है ॥१०२॥ क्या किसीने मुझे देखा है, अथवा नहीं देखा है, इस प्रकार धक्-धक् करते हुए हृदयसे कभी वह चोर लुकता-छिपता है, कभी कही भागता है और, इधर-उघर गिरता है तथा भयाविष्ट अर्थात् भयभीत होनेसे नींद नहीं ले पाता है ॥१०३॥ चोर अपने माता, पिता, गुरु, मित्र, स्वामी और तपस्वीको भी कुछ नहीं गिनता है ; प्रत्युत जो कुछ भी उनके पास होता है, उसे भी बलात् या छलसे हर लेता है ॥१०४॥ चोर लज्जा, अभिमान, यश और शीलके विनाशको, आत्माके विनाशको और परलोकके भयको नहीं गिनता हुआ चोरी करने का साहस करता है ॥१०५॥ चोरको पराया द्रव्य हरते हुए देखकर आरक्षक अर्थात् पहरेदार कोटपाल आदिक ब. णिययप्रगेहं । २झ बसंत्तहो। ३ म.पलायमाणो। झ. भयघत्थो, ब. भयवच्छो । ५ भ. ब. पच्चेलिउ । ६ झ. किं घण, व. किं वर्ण। ७ . झ हरेइ । ८ ब. खिलेहि । ९ ब. मोहस्स। १२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार रस्सियोंसे बांधकर, मोरबंधसे अर्थात् कमरकी ओर हाथ बाँधकर पकड़ लेते है ॥१०६॥ और फिर उसे टिंटा अर्थात् जुआखाने या गलियोंमें घुमाते है और गधेकी पीठ पर चढाकर 'यह चोर है' ऐसा लोगोंके बीचमें घोषित कर उसकी बदनामी फैलाते हैं । ॥१०७।। और भी जो कोई मनुष्य दूसरेका धन हरता है, वह इस प्रकारके फलको पाता है, ऐसा कहकर पुनः उसे तुरन्त नगरके बाहिर ले जाते है ॥१०८। वहाँ ले जाकर खलजन उसकी आंखें निकाल लेते हैं, अथवा हाथ-पैर काट डालते है, अथवा जीता हुआ ही उसे शूलीपर चढ़ा देते हैं ॥१०९॥इस प्रकारके इहलौकिक दुष्फलोंको देखते हुए भी लोग चोरीसे पराये धनको ग्रहण करते हैं और अपने हितको कुछ भी नहीं समझते हैं, यह बड़े आश्चर्यकी बात है। हे भव्यो, मोहके माहात्म्यको देखो ॥११०॥ परलोकमें भी चोर चतुर्गतिरूप संसार-सागरमें निमग्न होता हुआ अनन्त दुःखको पाता है, इसलिए चोरीका त्याग करना चाहिए ॥१११॥ परदारादोष-वर्णन दळूण परकलत्तं पिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं । ण य कि पि तत्थ पावइ पावं एमेव अज्जेइ ॥१२॥ णिस्ससइ रुयइ गायइ णिययसिर हणइ महियले पडइ । परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पि जंपेइ ॥११३॥ चिंतेइ मं किमिच्छइण वेइ सा केण वा उवाएण । 'अण्णेमि' कहमि कस्स विण वेत्ति चिंताउरो सददं ॥११॥ रण य कत्थ वि कुणइ रइं मिट्ट पि य भोयर्ण ण भुंजेइ । णि पि अलहमाणो अच्छइ विरहेण संतत्तो ॥११५॥ लज्जाकुलमज्जार्य छंडिऊण मज्जाइभोयणं किच्चा । परमहिलाणं चित्तं अमुणंतो पत्थणं कुणइ ११६॥ णेच्छंति जइ वि ताओ उवयारसयाणि कुणइ सो तह वि । णिब्भच्छिज्जंतो पुण अप्पाणं झूरइ विलक्खो ॥११७॥ अह मुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बला धरेऊणं । किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ॥११८॥ अह कावि पावबहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं। सयमेव पच्छियानो' उवरोहवसेण अप्पाणं ॥११९।। जइ देइ तह वि तत्थ सुरणहर-खंडदेउलयमज्झम्मि । सञ्चित्ते भयभीश्रो सोक्खं किं तत्थ पाउणइ ॥१२०॥ सोऊण किं पि सह सहसा परिवेवमाणसवंगो । ल्हुक्का पलाइ पखलइ चउहिसं णियह भयभीत्रो ॥१२॥ जइ पुण केण वि दीसह णिज्जइ तो बंधिऊण गिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउगइ सविसेसं ॥१२२॥ पेच्छह मोह विडियो लोगो दट्टण एरिसं दोसं । पच्चक्खं तह वि खलो परिस्थिमहिलसदि दुच्चित्तो ॥१२३॥ परलोयम्मि अर्णतं दुक्खं पाउणइ इहभवसमुद्दम्मि। . परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिज्जा ॥१२॥ १ब, अलभमाणो। २ इ. -कुलकम्म, म. ब.ध. -कुलक्कम । ३ झ. सयमेवं । ४ ध, प्रस्थिता। ५२. मज्नयारम्मि । ६झ.म, भयभीदो। ७. ब. भो चित्तं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परदारादोष-वर्णन ८७ जो निर्बुद्धि पुरुष परायी स्त्रीको देखकर उसकी अभिलाषा करता है, सो ऐसा करनेपर वह पाता तो कुछ नहीं है, केवल पापका ही उपार्जन करता है ॥११२॥ परस्त्री-लम्पट पुरुष जब अभिलषित पर-महिलाको नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निःश्वास छोड़ता है, रोता है, कभी गाता है, कभी अपने शिरको फोड़ता है और कभी भूतल पर गिरता पड़ता है और असत्प्रलाप भी करता है ॥११३॥ परस्त्री-लम्पट सोचता है कि वह स्त्री मुझे चाहती है, अथवा नहीं चाहती है ? मैं उसे किस उपायसे लाऊं? किसीसे कह, अथवा नहीं कहं? इस प्रकार निरन्तर चिन्तातुर रहता है ॥११४॥ वह परस्त्री-लम्पटी कहीं पर भी रतिको नहीं प्राप्त करता है, मिष्ट भी भोजनको नहीं खाता है और निद्राको नहीं लेता हुआ वह सदा स्त्री-विरहसे संतप्त बना रहता है ॥११५॥ परस्त्री-लम्पटी लज्जा और कुल-मर्यादाको छोड़कर मद्य-मांस आदि निंद्य भोजनको करके परस्त्रियोंके चित्तको नहीं जानता हुआ उनसे प्रार्थना किया करता है ।।११६॥ इतने पर भी यदि वे स्त्रियां उसे नहीं चाहती हैं, तो वह उनकी सैकड़ों खुशामदें करता है। फिर भी उनसे भर्त्सना किये जाने पर विलक्ष अर्थात् लक्ष्य-भ्रष्ट हुआ वह अपने आपको झूरता रहता है॥११७॥ यदि वह लम्पटी नहीं चाहनेवाली किसी पर-महिलाको जबर्दस्ती पकड़कर भोगता है, तो वैसी दशानें वह उसमें क्या सुख पाता है ? प्रत्युत दुःखको ही पाता है ॥११८॥यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शीलको नाश करके उपरोधके वशसे कामी पुरुषके पास स्वयं उपस्थित भी हो जाय, और अपने आपको सौंप भी देवे ॥११९॥ तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुलके भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्तमें भय-भीत होनेसे वहां पर क्या सुख पा सकता है ? ॥१२०॥ वहां पर कुछ भी जरा-सा शब्द सुनकर सहसा थर-थर कांपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भय-भीत हो चारों दिशाओंको देखता है ॥१२१॥ इसपर भी यदि कोई देख लेता है तो वह बांधकर राज-दरबारमें ले जाया जाता है और वहांपर वह चोरसे भी अधिक दंडको पाता है ॥१२२॥ मोहकी विडम्बनाको देखो कि परस्त्री-मोहसे मोहित हुए खल लोग इस प्रकारके दोषों को प्रत्यक्ष देखकर भी अपने चित्तमें परायी स्त्रीकी अभिलाषा करते है ॥१२३॥ परस्त्री-लम्पटी परलोकमें इस संसार-समुद्रके भीतर अनन्त दुःखको पाता है। इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियोंको मन वचन कायसे त्याग करना चाहिये ॥१२४॥ सप्तव्यसनदोष-वर्णन रज्जन्भंसं वसणं बारह संवच्छराणि वणवासो। पत्तो तहावमाणं जूएग जुहिटिलो राया॥१२५|| जूआ खेलनेसे युधिष्ठिर राजा राज्यसे भ्रष्ट हुए, बारह वर्ष तक वनवासमें रहे तथा अपमानको प्राप्त हुए ॥१२५॥ उज्जाणम्मि रमंता तिसाभिभूया जल त्तिणाऊण । पिबिऊण जुण्यामज्जं गहा ते जादवा तेण ॥१२६॥ उद्यानमें क्रीडा करते हुए प्याससे पीड़ित होकर यादवोंने पुरानी शराबको 'यह जल है' ऐसा जानकर पिया क्षौर उसीसे वे नष्ट हो गये ॥१२६॥ १. ब. तो। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ वसुनन्दि-श्रावकाचार मंसासणेण गिद्धो वगरक्खो एगचक्कणयरम्म । रज्जाबो पन्भट्ठो अयसेण मुमो गो णरयं ॥१२७॥ . एकचक्र नामक नगरमे मांस खाने में गृद्ध बक राक्षस राज्यपदसे भ्रष्ट हुआ, अपयशसे मरा और नरक गया ॥१२७॥ सम्वस्थ णिवुणबुद्धी वेसासंगेण चारुदत्तो वि। खाऊण धणं पत्तो दुक्खं परदेसगमणं च ॥१२॥ सर्व विषयोंमें निपुण बुद्धि चारुदत्तने भी वेश्याके संगसे धनको खोकर दुःख पाया और परदेशमें जाना पड़ा ॥१२८॥ होऊण चक्कवही चउदहरयणाहियो' वि संपत्तो। मरिऊण बंभदत्तो णिरयं पारद्धिरमणेण ॥१२६॥ चक्रवर्ती होकर और चौदह रत्नोंके स्वामित्वको प्राप्त होकर भी ब्रह्मदत्त शिकार खेलनेसे मरकर नरकमें गया ॥१२९।। णासावहारदोसेण दंडण पाविऊण सिरिभूई। मरिऊण अहसाणेण हिंडिओ दीहसंसारे ॥१३०॥ न्यासापहार अर्थात् धरोहरको अपहरण करनेके दोषसे दंड पाकर श्रीभूति आर्तध्यानसे मरकर संसारमें दीर्घकाल तक रुलता फिरा ॥१३०॥ होऊण खयरणाहो वियक्खणो श्रद्धचक्कवट्टी वि। मरिऊण गो' णरयं परिस्थिहरणेण लंकेसो ॥१३॥ विचक्षण, अर्धचक्रवर्ती और विद्याधरोंका स्वामी होकर भी लंकाका स्वामी रावण परस्त्रीके हरणसे मरकर नरकमें गया ॥१३॥ एदे महाणुभावा दोसं एकक-विसण-सेवाओ। पत्ता जो पुण सत्त वि सेवह परिणज्जए किं सो ॥१३॥ ऐसे ऐसे महानुभाव एक एक व्यसनके सेवन करनेसे दुःखको प्राप्त हुए । फिर जो सातों ही व्यसनोंको सेवन करता है, उसके दुःखका क्या वर्णन किया जा सकता है ॥१३२।। साकेते सेवंतो सत्त वि वसणाई रुदत्तो वि । मरिऊण गो गिरयं भमिओ पुण दीहसंसारे ॥१३॥ साकेत नगरमें रुद्रदत्त सातों ही व्यसनोंको सेवन करके मरकर नरक गया और फिर दीर्घकाल तक संसारमें भ्रमता फिरा ॥१३३॥ नरकगतिदुख-वर्णन सत्तण्हं विसणाणं फलेण संसार-सायरे जीवो। जं पावइ बहुदुक्खं तं संखेवेण बोच्छामि ॥१३॥ सातों व्यसनोंके फलसे जीव संसार-सागरमें जो भारी दुःख पाता है, उसे मैं संक्षेपसे कहता हूँ ॥१३४॥ अइणिहरफरुसाई पूह-रुहिराई अइदुगंधाई। असुहावहाई णिच्च गिरएसुप्पत्तिाणाई ॥१५॥ तो तेसु समुप्पण्यो माहारेऊण पोग्गले असुहे। अंतोमुहुतकाले पज्जत्तीभो समाणेह॥१३॥ म. लुद्धो। २ ब. एय० । ३ ब. -यणीहियो। ब. गयउ । ५प. एए। म. ब. बसण। प. साकेए। ब. असुहो Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकगतिदुःख-वर्णन - नरकोंमें नारकियोंके उत्पन्न होनेके स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्शवाले हैं, पीप और रुधिर आदिक अति दुर्गन्धित और अशुभ पदार्थ उनमें निरन्तर बहते रहते हैं। उनमें उत्पन्न होकर नारकी जीव अशुभ पुद्गलोंको ग्रहण करके अन्तर्मुहूर्त कालमें पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है ॥१३५-१३६॥ उववायानो णिवडइ पज्जत्तयो दंडत्ति' महिवीढ़े। अइकक्खडमसहंतो सहसा उप्पडदि पुण पडइ ॥१३७॥ वह नारकी पर्याप्तियोंको पूरा कर उपपादस्थानसे दंडेके समान महीपृष्ठपर गिर पड़ता है। पुनः नरकके अति कर्कश धरातलको नहीं सहन करता हुआ वह सहसा ऊपरको उछलता है और फिर नीचे गिर पड़ता है ॥१३७॥ जइ को वि उसिणणरए मेरुपमाणं खिवेइ लोहंडं । ण वि पावइ धरणितलं विलिज्जतं अंतराले वि ॥१३॥ यदि कोई उष्णवेदनावाले नरकमें मेरु-प्रमाण लोहेके गोलेको फेके, तो वह भूतलको नहीं प्राप्त होकर अन्तरालमें ही विला जायगा अर्थात् गल जायगा। (नरकोंमें ऐसी उष्ण वेदना है) ॥१३८।।। अह तेवंड तत्तं खिवेइ जइ को वि सीयणरयम्मि । सहसा धरणिमपत्तं सडिज्ज तं खंडखंडेहिं ।।१३९॥ यदि कोई उतने ही बड़े लोहेके गोलेको शीतवेदनावाले नरकमें फेंके, तो वह धरणी तलको नहीं प्राप्त होकर ही सहसा खंड खंड होकर बिखर जायगा। (नरकोंमें ऐसी शीतवेदना है) ॥१३९॥ तं तारिससीदुण्हं खेत्तसहावेण होइ थिरएसु । बिसहइ जावज्जीव वसणस्स फलेणिमो जीओ ॥१०॥ नरकोंमें इस प्रकारकी सर्दी और गर्मी क्षेत्रके स्वभावसे ही होती है । सो व्यसनके फलसे यह जीव ऐसी तीव्र शीत-उष्ण वेदनाको यावज्जीवन सहा करता है ॥१४०॥ तो तम्हि जायमत्ते सहसा दळूण णारया सम्वे । पहरंति सत्ति-मुग्गर -तिसूल-णाराय-खग्गेहिं ॥१४॥ उस नरकमें जीवके उत्पन्न होनेके साथ ही उसे देखकर सभी नारकी सहसाएकदम शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्गसे प्रहार करने लगते हैं ॥१४१॥ तो खंडिय-सब्वंगो करुणापलावं रुवेइ दीणमुहो। पभणंति तो रुद्वा किं कंदसि रे दुरायारा ॥१४२॥ नारकियोंके प्रहारसे खंडित हो गये है सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नवीन नारकी दीन-मुख होकर करुण प्रलाप करता हुआ रोता है। तब पुराने नारकी उसपर रुष्ट होकर कहते हैं कि रे दुराचारी, अब क्यों चिल्लाता है ॥१४२।। जोवणमएण मत्तो लोहकसाएण रंजिश्रो पुन्वं । गुरुवयणं लंधित्ता जूयं रमिश्रो जं प्रासि ॥१४॥ यौवनके मदसे मत्त होकर और लोभकषायसे अनुरंजित होकर पूर्व भवमें तूने गुरुवचनको उल्लंघन कर जूआ खेला है ॥१४३॥ म. दड त्ति, ब, उदउ ति । २ ब. प. महिंवटे, म. महीविट्ठ। ३ इ. विलयम् जत्तंत०, स. चिलज्जतं, विलिज्जतं अंत० । म, विलयं जात्यंत । मूलराधना गा० १५६३ । ४. तेवढं, ब. ते वह। ५ झ. संडेज, म. सडेज्ज । मूलारा. १५६४ । ६ ब. मोगगर-। ७ ब. खंडय०।८ इ. जं मांसि । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तस्स फलमुदयमागयमलं हि रुयणेण विसह रे दुडू। रोवंतो वि ण छुट्टसि कयावि' पुग्वकयकम्मस्स ॥१४॥ अब उस पापका फल उदय आया है, इसलिए रोनेसे बस कर, और रे दुष्ट, अब उसे सहन कर । रोनेसे भी पूर्व-कृत कर्मके फलसे कभी भी नहीं छूटेगा ॥१४४।। एवं सोऊण तो माणसदुखं वि' से समुप्पण्णं । तो दुविह-दुक्खदड्डो रोसाइटठो इमं भणइ ॥१४५॥ इस प्रकारके दुर्वचन सुननेसे उसके भारी मानसिक दुःख भी उत्पन्न होता है । तब वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारके दुःखसे दग्ध होकर और रोषमें आकर इस प्रकार कहता है ।।१४५॥ जइ वा पुवम्मि भवे जूयं रमियं मए मदवसेण । तुम्ह को अवराहो कत्रो बला जेण में हणह॥१४६॥ यदि मैने पूर्व भवमें मदके वश होकर जुआ खेला है, तो तुम्हारा क्या अपराध किया है, जिसके कारण जबर्दस्ती तुम मुझे मारते हो ॥१४६॥ __एवं भणिए वित्तण सुटु रुठेहिं अग्गिकुंडम्मि । पजलयम्मि णिहित्तो डज्मइ सो अंगमंगेसु ।।१४७॥ ऐसा कहनेपर अतिरुष्ट हुए वे नारकी उसे पकड़कर प्रज्वलित अग्निकुंडमें डाल देते हैं, जहांपर वह अंग-अंगमे अर्थात् सर्वाङ्गमें जल जाता है ॥१४७।। तत्तो णिस्सरमाणं वठ्ठण उमसरेहि अहव कुंतेहिं । पिल्लेऊण रडतं तत्येव छुहंति श्रदयाए ॥१४॥ उस अग्निकुंडसे निकलते हुए उसे देखकर झसरोंसे (शस्त्र-विशेषसे) अथवा भालोंसे छेदकर चिल्लाते हुए उसे निर्दयतापूर्वक उसी कुंडमें डाल देते है ॥१४८॥ हा मुयह मं मा पहरह पुणो वि ण करेमि एरिसं पावं । दंतेहि अंगुलीओ धरेइ करुण पुणो रुवइ ।।१४९॥ हाय, मुझे छोड़ दो, मुझपर मत प्रहार करो, मै ऐसा पाप फिर नही करूँगा, इस प्रकार कहता हुआ वह दांतोंसे अपनी अंगुलियां दबाता है और करुण प्रलाप-पूर्वक पुनः पुनः रोता है ॥१४९॥ . ण मुयंति तह वि पावा पेच्छह लीलाए कुणइ जं जीवो। - तं पावं बिलवंतो एयहिं दुक्खेहिं णित्थरह" ॥१५॥ तो भी वे पापी नारकी उसे नहीं छोड़ते हैं। देखो, जीव जो पाप लीलासेकुतूहल मासे, करता है, उस पापको विलाप करते हुए वह उपर्युक्त दुःखोंसे भोगता है ॥१५॥ तत्तो पलाइऊणं कह वि य माएण५ दडसम्वंगो। गिरिकंदरम्मि सहसा पविसह सरण ति मगणंतो ॥१५॥ "जबर्दस्ती जला दिये गये हैं सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नारकी जिस किसी प्रकारसे --- १ ब. रुगणेण । २ इ. नं, स. ब. तं०।३ ब. कयाइं। १ इ.स. ब. म. विसेसमुप्पण्णं । ५ इ. ब. था। ६ इ. तुम्हे, झ. तोम्हि, ब. तोहितं । ७ इ. महं, म. है। ८ इ.हणहं। ९इ. मुब, म. मुधा । १० इ. तासे हि, म. ता सही। ११. ब. कलुर्ण। १२ इ. जूवो । १३ ब. एयह। १४ म. णित्थरो ह हो। प. णिच्छरइं१५. वयमाएण, ब. चपमाएण । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकगतिदुःख-वर्णन उस अग्निकुंडसे भागकर पर्वतकी गुफामें 'यहां शरण मिलेगा' ऐसा समझता हुआ सहसा प्रवेश करता है ॥१५१॥ तत्थ वि पहंति उवरि सिलाउ तो ताहि चुण्णिाश्रो संतो। गलमाणरुहिरधारो रडिऊण खणं तो णी ॥१५॥ किन्तु वहांपर भी उसके ऊपर पत्थरोंकी शिलाएं पड़ती हैं, तब उनसे चूर्ण चूर्ण होता हुआ और जिसके खूनकी धाराएं बह रही हैं, ऐसा होकर चिल्लाता हुआ क्षणमात्रमें वहांसे निकल भागता है ॥१५२॥ णेरइयाण सरीरं कीरह जइ तिलपमाणखंडाइ। पारद-रसुव्व लग्गइ अपुराणकालम्मि ण मरेइ ॥१५३।। नारकियोंके शरीरके यदि तिल-तिलके बराबर भी खंड कर दिये जावें, तो भी वह पारेके समान तुरन्त आपसमे मिल जाते है, क्योंकि, अपूर्ण कालमे अर्थात् असमयमे नारकी नही मरता है ॥ १५३ ॥ तत्तो पलायमाणे। रंभइ सो णारएहिं दळूण । पाइज्जह विलवंतो अय-तंबय-कलयलं' तत्तं ॥१५॥ उस गुफामेसे निकलकर भागता हुआ देखकर वह नारकियोंके द्वारा रोक लिया जाता है और उनके द्वारा उसे जबर्दस्ती तपाया हुआ लोहा तांवा आदिका रस पिलाया जाता है ॥१५४॥ पच्चारिज्जइ ज ते पीयं मज्ज महुं च पुव्वभवे । त पावफलं पत्तं पिबेहि अयकलयलं घोरं ॥१५५।। वे नारकी उसे याद दिलाते है कि पूर्व भवमें तूने मद्य और मधुको पिया है, उस पापका फल प्राप्त हुआ है, अतः अब यह घोर 'अयकलकल' अर्थात् लोहा, तांबा आदिका मिश्रित रस पी ॥ १५५॥ कह वि तो जइ छुट्टो असिपत्तवणम्मि विसइ भयभीश्रो। णिबडंति तत्थ पत्ताई खग्गसरिसाई प्रणवरयं ॥१५६॥ __ यदि किसी प्रकार वहासे छूटा, तो भयभीत हुआ वह असिपत्र वनमें, अर्थात् जिस वनके वृक्षोंके पत्ते तलवारके समान तीक्ष्ण होते है, उसमे 'यहां शरण मिलेगा' ऐसा समझकर घुसता है । किन्तु वहांपर भी तलवारके. समान तेज धारवाले वृक्षोंके पत्ते निरन्तर उसके ऊपर पड़ते है ॥ १५६ ॥ तो तम्हि पत्तपडणेण छिएणकर-चरण भिएणपुष्ठि-सिरो। पगलंतरुहिरधारो कंदतो सो तो णीई ॥१५७॥ जब उस असिपत्रवनमें पत्तोंके गिरनेसे उसके हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि कट-कटकर अलग हो जाते है, और शरीरसे खूनकी धारा बहने लगती है, तब वह चिल्लाता हुआ वहांसे भी भागता है ॥ १५७ ॥ तुरियं पलायमाणं सहसा धरिऊण णारया कूरा । छित्तण तस्स मंसं तुंडम्मि छुहंति तस्सेव ॥१५॥ १ इ. तेहि। २ म. णियइ। ३ ब. णइज्जइ । म. पाविजइ।. इ. अयवय, य. अससवय । ५ कलयलं-तान-शीसक-तिल-सज्ज रस-गुग्गुल-सिक्थक लवणा-जतु-वज्रलेपाः क्वाथयित्वा मिलिता 'कलकल' इत्युच्यन्ते । मूलारा० गा० १५६९ पाशाधरी टीका। ६ ब. म. तो। ७ व. तव । ८ म. वच्छ० । ९ इ. म. णियइ। १० इ. छहंति । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . वहांसे जल्दी भागते हुए उसे देखकर क्रूर नारकी सहसा पकड़कर और उसका मांस काटकर उसीके मुंहमें डालते है ॥ १५८ ॥ भोत्त अणिच्छमाणं णियमंसं तो भणंति रे दु । अइमिठं भणिऊण भक्खंतो प्रासि जं पुन्वं ॥१५॥ जब वह अपने मांसको नहीं खाना चाहता है, तब वे नारकी कहते हैं कि, अरे दुष्ट, तू तो पूर्व भवमे परजीवोंके मांसको बहुत मीठा कहकर खाया करता था ॥ १५९ ॥ तं किं ते विस्सरियं जेण मुहं कुणसिरे पराहुत्त। एवं भणिऊण कुसि छुहिंति तुंडम्मि पज्जलियं ॥१६०॥ सो क्या वह तू भूल गया है, जो अब अपना मांस खानेसे मुंहको मोड़ता है, ऐसा कहकर जलते हुए कुशको उसके मुखमें डालते है ॥ १६० ॥ अइतिव्वदाहसंताविमो तिसावेयणासमभिभूत्रो। किमि-पूइ-रुहिरपुरणं वइतरणिणइतो विसइ ॥१६॥ तब अति तीव्र दाहसे संतापित होकर और प्यासकी प्रबल वेदनासे परिपीड़ित हो वह (प्यास बुझानेकी इच्छासे) कृमि, पीप और रुधिरसे परिपूर्ण वैतरणी नदीमें घुसता है ॥ १६१ ॥ तस्थ वि पविठ्ठमित्तो खारुण्हजलेण दट्टसव्वंगो। हिस्सरह तो तुरिश्रो हाहाकारं पकुव्वंतो ॥१६२॥ उसमें घुसते ही खारे और उष्ण जलसे उसका सारा शरीर जल जाता है, तब वह तुरन्त ही हाहाकार करता हुआ वहासे निकलता है ।। १६२ ॥ दठ्ठण णारया णीलमंडवे तत्तलोहपडिमाश्रो । आलिंगाविंति तहिं धरिऊण बला विलवमाणं ॥१६३॥ नारकी उसे भागता हुआ देखकर और पकड़कर काले लोहेसे बनाये गये नील-मंडपमें ले जाकर विलाप करते हुए उसे जबर्दस्ती तपाई हुई लोहेकी प्रतिमाओंसे (पुतलियोंसे) आलिंगन कराते हैं ॥ १६३ ॥ अगणित्ता गुरुवयणं परिस्थि-वेसंच आसि सेवंतो। एण्हिं तं पावफलं ण सहसि किं रुवसि तं जेण ॥१६॥ और कहते है कि-गुरुजनोंके वचनोंको कुछ नहीं गिनकर पूर्वभवमें तूने परस्त्री और वेश्याका सेवन किया है। अब इस समय उस पापके फलको क्यों नहीं सहता है, जिससे कि रो रहा है ॥ १६४ ॥ “पुन्वभवे जं कम्मं पंचिदियवसगएण जीवेण । . हसमाणेण विबद्धं तं किं णित्थरसि' रोवंतो ॥१६५।। __ पूर्वभवमें पांचों इन्द्रियोंके वश होकर हंसते हुए रे पापी जीव, तूने जो कर्म बांधे है, सो क्या उन्हें रोते हुए दूर कर सकता है ? ॥ १६५ ॥ किकवाय-गिद्ध-बायसरूवं धरिऊण णारया चेव । ___ "पहरंति वज्जमयतुंड-तिक्खणहरेहिं दयरहिया ॥१६॥ ब. सत्तो, प. म. मित्ता। काललोहघटितमडपे । मूलाराधना गा० १५६९ विजयो, टीका। ३ प.णिरति, क. ब. णिच्छरसि। ४ प. पहणंति। ५इ. तिक्खणहिं । मूलारा. १५७१। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ . नरकगतिदुःख-वर्णन वे दया-रहित नारकी जीव ही कृकवाक (कुक्कुट-मुर्गा) गिद्ध, काक, आदिके रूपोंको धारण करके वज्रमय चोंचोसे, तीक्ष्ण नखों और दांतोंसे उसे नोचते है ॥ १६६ ॥ धरिऊण उड्ढजंघं करकच-चक्केहिं केइ फाडंति । मुसलेहिं मुग्गरेहि य चुण्णो चुण्णी कुणंति परे ।।१६७॥ __ कितने ही नारकी उसे ऊर्ध्वजध कर अर्थात् शिर नीचे और जांधे ऊपर कर करकच (करोंत या आरा) और चक्र से चीर फाड़ डालते है। तथा कितने ही नारकी उसे मूसल और मुद्गरोंसे चूरा-चूरा कर डालते है ॥ १६७ ॥ जिब्भालेयण णयणाण फोडणं दंतचूरणं दलणं । मलणं कुणंति खंडंति केई तिलमत्तखंडेहिं ॥१६॥ कितने ही नारकी जीभ काटते है, आंखें फोड़ते है, दांत तोडते है और सारे शरीरका दलन-मलन करते है। कितने ही नारकी तिल-प्रमाण खडोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालते है ॥ १६८ ॥ अण्णे कलंववालुय थलम्मि तत्तम्मि पाडिऊण पुणो । लोहाविति रडतं णिहणंति घसंति भूमीए ॥१६९।। कितने ही नारकी तपाये हुए तीक्ष्ण रेतीले मैदानमे डालकर रोते हुए उसे लोट-पोट करते है, मारते हैं और भूमिपर घसीटते है ॥ १६९ ॥ असुख वि कूरपावा तस्थ वि गंतूण पुब्बवेराइ । सुमराविऊण तो जुद्ध लायंति अण्णोण्णं ॥१७॥ __क्रूर और पापी असुर जातिके देव भी वहां जाकर और पूर्वभवके वैरोंकी याद दिलाकर उन नारकियोंको आपसमे लड़वाते है । १७० ॥ सत्तेव अहोलोए पुढवीश्रो तत्थ सयसहस्साई। णिरयाणं चुलसीई सेटिंद-पइण्णयाण हवे ॥१७॥ अधोलोकमें सात पृथिवियां हैं, उनमें श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक नामके चौरासी लाख नरक है ॥ १७१ ॥ रयणप्पह-सक्करपह-बालुप्पह-पंक-धूम-तमभासा। तमतमपहा य पुढवीणं जाण अणुवत्थणामाई"॥१७२॥ उन पृथिवियोंके रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमस्तमप्रभा (महातमप्रभा) ये अन्वर्थ अर्थात् सार्थक नाम जानना चाहिए ॥ १७२ ॥ पढमाए पुढवीए वाससहस्साई दह जहण्णाऊ । समयम्मि वरिणया सायरोवमं होइ उक्कस्सं ॥१७३॥ पढमाइ जमुक्कस्सं विदियाइसु साहियं जहरणं तं । तिय सप्त दस य सत्तरस दुसहिया बीस तेत्तीसं ॥१७॥ सायरसंखा एसा कमेण विदियाइ जाण पुढवीसु । उक्कस्साउपमाणं णिहिट जिएवरिंदेहि ॥१७५॥ . .. म. चुण्णीकुम्वति परे गिरया। २ कलबवालुय-कदवप्रसूनाकारा वालुकाचितदुश्प्रवेशाः वज्रदलालकृतखदिरांगार- कशाप्रकरोपमानाः । मूलारा गा० १५६८ विजयोदया टीका। ३ ब. जुष्स। इ. अनुतृतथ०, म अणुवढ० । ५ मुद्रितप्रतौ गाथेय रिक्ता । १३ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . परमागममे प्रथम पृथिवीके नारकियोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी कही गई है और उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम होती है ॥ १७३ ॥ प्रथमादिक पृथिवियोमे जो उत्कृष्ट आय होती है, कुछ अधिक अर्थात् एक समय अधिक वही द्वितीयादिक पृथिवियोंमें जघन्य आयु जानना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान्ने द्वितीयादिक पृथिवियोंमे उत्कृष्ट आयुका प्रमाण क्रमसे तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्तरह सागर, बाईस सागर और तैतीस सागर प्रमाण कहा है ॥ १७४-१७५ ॥ एत्तियपमाणकालं सारीरं माणसं बहुपयारं । दुक्खं सहेइ तिव्वं वसणस्स फलेणिमो जीवो ॥१७६॥ व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव इतने (उपर्युक्त-प्रमाण) काल तक नरकोमे अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक तीव्र दुःखको सहन करता है ॥ १७६ ॥ तिर्यंचगतिदुःख-वर्णन तिरियगईए वि तहा थावरकाएसु बहुपयारेसु । अच्छइ अणंतकालं हिंडतो जोणिलक्खेसु ॥१७७॥ इसी प्रकार व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च गतिकी लाखों योनिवाली बहुत प्रकारकी स्थावरकायकी जातियोंमें अनन्त काल तक भ्रमण करता रहता है ॥ १७७ ॥ कहमवि णिस्सरिऊणं तत्तो वियलिंदिएसु संभवइ । तत्थ वि किलिस्समाणो कालमसंखेज्जयं वसइ ॥१७॥ उस स्थावरकायमसे किसी प्रकार निकलकर विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होता है, तो वहां भी क्लेश उठाता हुआ असंख्यात काल तक परिभ्रमण करता रहता है ॥ १७८ ॥ तो खिल्लविल्लजोएण कह वि पंचिंदिएस उववरणो। तत्थ वि असंखकालं जोणिसहस्सेसु परिभमइ ॥१७९॥ यदि कदाचित् खिल्लविल्ल योगसे पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो गया, तो वहां भी असंख्यात काल तक हजारों योनियोंमें परिभ्रमण करता रहता है ॥ १७९ ॥ छेयण-भेयण-ताडण-तासण-णिलंछणं तहा दमणं । णिक्खलण-मलण-दलणं पउलण उक्कत्तणं चेव ॥१०॥ पंधण-भारारोवण लंछण पाणण्णरोहणं सहणं । सौउपह-भुक्ख-तराहादिजाण तह पिल्लयविनोयं ॥१८॥ तिर्यञ्च योनिमें छेदन, भेदन, ताड़न, त्रासन, निलांछन (बधिया करना), दमन, निक्खलन (नाक छेदन), मलन, दलन, प्रज्वलन, उत्कर्तन, बंधन, भारारोपण, लांछन (दागना), अन्न-पान-रोधन, तथा शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि बाधाओंको सहता है, और पिल्लों (बच्चों) के वियोग-जनित दुखको भोगता है। ।। १८०-१८१॥ सबमें भुनते हुए धान्यमें से दैववशात् जैसे कोई एक दाना उछलकर बाहिर आ पड़ता है उसी प्रकार दैववशात् एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों में से कोई एक जीव निकलकर पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाता है, -सबसे खिल्लविल्ल योगसे उत्पन्न होना कहते हैं। २ मूलारागा० १५८२ ३ मूलारागा १५६३ ।। स्तनन्धयवियोगमित्यर्थः । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यगतिदुःख-वर्णन *इच्चेवमाइ बहुयं दुक्खं पाउणइ तिरियजोणीए। विसणस्स फलेण जदो वसणं परिवज्जए तम्हा ॥१२॥ इस प्रकार व्यसनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च-योनिमे उपर्युक्त अनेक दुःख पाता है, इसलिए व्यसनका त्याग कर देना चाहिए ॥ १८२ ॥ मनुष्यगतिदुःख-वर्णन मणुयत्तें वि य जीवा दुक्खं पावंति बहुवियप्पेहिं । इटाणिडेसु सया वियोय-संयोयजं तिब्वं ॥१३॥ मनुष्यभवमें भी व्यसनके फलसे ये जीव सदैव बहुत प्रकारसे इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में वियोग-संयोगज तीव्र दुःख पाते हैं ॥ १८३ ॥ उप्पण्णपढमसमयम्हि कोई जणणीइ छंडिओ संतो। कारणवसेण इत्थं सीउगह-भुक्ख-तण्हाउरो मरइ ॥१८॥ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही कारणवशसे माताके द्वारा छोड़े गये कितने ही जीव इस प्रकार शीत, उष्ण, भूख और प्याससे पीड़ित होकर मर जाते हैं ॥ १८४ ॥ बालत्तणे वि जीवो माया-पियरेहि कोवि परिहीयो। उच्छिष्टं भक्खंतो जीवइ दुक्खेण परगेहे ॥१८५॥ बालकपनमें ही माता-पितासे रहित कोई जीव पराये घरमें जूठन खाता हुआ दुःखके साथ जीता है ॥ १८५ ॥ . पुव्वं दाणं दाऊण को वि सधणो जणस्स जहजोगं । पच्छा सो धणरहिओ ण लहइ कूरं पि जायंतो ॥१६॥ यदि कोई मनुष्य पूर्वभवमें मनुष्योंको यथायोग्य दान देकर इस भवमें धनवान् भी हुआ और पीछे (पापके उदयसे) धन-रहित हो गया, तो मांगनेपर खानेको कूर (भात) तक नहीं पाता है ॥ १८६ ॥ अपणो उ पावरोएण बाहिरो एयर-बज्झदेसम्मि । अच्छह सहायरहिओ ण लहइ सघरे वि चिट्ठ ॥१८७|| तिसो वि भुक्खिओ हं पुत्ता मे देहि पाणमसणं च । एवं कूवंतस्स विण कोइ वयणं च से देह ॥१८॥ तो रोय-सोयभरियो सब्वेसि सव्वहियाउ' दाऊण । दुक्खेण मरइ पच्छा धिगत्यु मणुयत्तणमसारं ॥१८॥ * इतःपूर्व स. ब. प्रत्योः इमे गाथेऽधिके उपलभ्येते तिरिएहिं खजमाणो दुहमणुस्सेहिं हम्ममाणो वि । सम्वत्थ वि संतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीमं ॥१॥ भएणोरयां खज्जता तिरिया पावति दारुणं दुक्ख । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखेदि ॥२॥ तिर्यचोंके द्वारा खाया गया, दुष्ट शिकारी लोगोंके द्वारा मारा गया और सब ओरसे संत्रस्त होता हुआ भय-जनित भयकर दुःखको सहता है ॥ १॥ तिर्यंच परस्परमें एक दूसरेको खाते हुए दारुण दुःख पाते हैं। जिस योनिमें माता भी अपने पुत्रको खा लेती है, वहां दूसरा कौन रक्षा कर सकता है ॥२॥ स्वामिकार्ति० अनु, गा०११-१२ १ध. प. जाईए । २ म. ब. मणुयत्तेण । (मणुयत्तणे) ३ कुष्टरोगेोत्यर्थः। ४ ध. 'पभुक्खित्रों' ५ ब. देह । ६ (कूजंतस्स?) ७ ब. सवहियाउ । सर्वाहितान् इत्यर्थः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अण्णाणि एवमाईणि जाणि दुक्खाणि मणुयलोयम्मि । दीसंति ताणि पावइ वसणस्स फलेणिमो जीवो ॥१९॥ कोई एक मनुष्य पापरोग अर्थात् कोढसे पीड़ित होकर नगरसे बाहर किसी एकान्त प्रदेशमें सहाय-रहित होकर अकेला रहता है, वह अपने घरमे भी नही रहने पाता ॥ १८७ ॥ मैं प्यासा हूं और भूखा भी हूं; बच्चो, मुझे अन्न जल दो-खाने-पीनेको दो-इस प्रकार चिल्लाते हुए भी उसको कोई वचनसे भी आश्वासन तक नही देता है ॥ १८८ ॥ तब रोग-शोकसे भरा हुआ वह सब लोगोंको नाना प्रकारके कष्ट देकरके पीछे स्वयं दुःखसे मरता है। ऐसे असार मनुष्य जीवनको धिक्कार है ॥ १८९ ॥ इन उपर्युक्त दुःखों को आदि लेकर जितने भी दुःख मनुष्यलोकमे दिखाई देते है, उन सबको व्यसनके फलसे यह जीव पाता है ॥ १९०॥ देवगतिदुःख-वर्णन किंचुवसमेण पावस्स कह वि देवत्तणं वि संपत्तो। तत्थ वि पावइ दुक्खं विसणज्जियकम्मपागेण ॥१९॥ यदि किसी प्रकार पापके कुछ उपशम होनेसे देवपना भी प्राप्त हुआ तो, वहांपर भी व्यसन-सेवनसे उपार्जित कर्मके परिपाकसे दुःख पाता है ॥ १९१ ॥ दट्टण महड्डोणं देवाणं ठिइज्जरिद्धिमाहप्पं । अप्पड्डियो विसूरइ माणसदुक्खेण डझंतो ॥१२॥ हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण तव-संजमं वि लद्ध ण । मायाए जं वि कयं देवदुग्गयं तेण संपत्तो ॥१९३॥ देव-पर्यायमें महद्धिक देवोंकी अधिक स्थिति-जनित ऋद्धिके माहात्म्यको देखकर अल्प ऋद्धिवाला वह देव मानसिक दुःखसे जलता हुआ, विसूरता (झूरता) रहता है ॥ १९२ ॥ और सोचा करता है कि हाय, मनुष्य-भवमें भी उत्पन्न होकर और तप-संयमको भी पाकर उसमें मैंने जो मायाचार किया, उसके फलसे मैं इस देव-दुर्गतिको प्राप्त हुआ हूं, अर्थात् नीच जातिका देव हुआ हूं ॥ १९३ ॥ कंदप्प-किब्भिसासुर-वाहण-सम्मोह-देवजाईसु । जावजीवं णिवसइ विसहंतो माणसं दुक्खं ॥१९॥ कन्दर्प, किल्विषिक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देवोंकी कुजातियोंमें इस प्रकार मानसिक दुःख सहता हुआ वह यावज्जीवन निवास करता है ॥ १९४ ॥ छम्मासाउयसेसे वत्थाहरणाई हुंति मलिणाई। पाऊण चवणकालं अहिययरं रुयइ सोगेण ॥१६५॥ हा हा कह णिल्लोए किमिकुलभरियम्मि अइदुगंधम्मि । एवमासं पह-रुहिराउलम्मि गब्भम्मि वसियव्वं ॥१९६॥ किं करमि' कत्थ वञ्चमि कस्स साहामि जामि के सरणं । ण वि अस्थि एत्थ बंधू जो मे धारेइ णिवडतं ॥१९७॥ वजाउहों' महप्पा एरावण-बाहणो सुरिंदो वि । जावज्जीव सो सेविप्रो वि ण धरेइमं तहवि ॥१९॥ ३ इ. कं कप्पं, भ. बिजं कयं । २ इ. समोह । ३ नृलोके । ४ इ. करम्मि। ५ वज्रायुधः । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्रतिमा देवगतिमें छह मास आयुके शेष रह जानेपर वस्त्र और आभूषण मैले अर्थात् कान्तिरहित हो जाते हैं, तब वह अपना च्यवन-काल जानकर शोकसे और भी अधिक रोता है ॥ १९५॥ और कहता है कि हाय हाय, किस प्रकार अब मैं मनुष्य-लोकमे कृमि-कुल-भरित, अति दुर्गन्धित, पीप और खूनसे व्याप्त गर्भमे नौ मास रहूगा ? ॥ १९६ ॥ मै क्या करूं, कहां जाऊं, किससे कहूं, किसको प्रसन्न करू, किसके शरण जाऊं? यहां पर मेरा कोई भी ऐसा बन्धु नही है, जो यहांसे गिरते हुए मुझे बचा सके ॥ १९७ ॥ वज्रायुध, महात्मा, ऐरावत हाथीकी सवारीवाला और यावज्जीवन जिसकी सेवा की है, ऐसा देवोंका स्वामी इन्द्र भी मुझे यहां नही रख सकता है ॥ १९८ ॥ जइ मे होहिहि मरणं ता होजउ किंतु मे समुप्पत्ती । एगिदिएसु जाइजा णो मणुस्सेसु कइया वि ॥१९९॥ अहवा किं कुणइ पुराज्जियम्मि उदयागयम्मि कम्मम्मि । सक्को वि जदो ण तरइ अप्पाणं रक्खिडं काले ॥२०॥ यदि मेरा मरण हो, तो भले ही हो, किन्तु मेरी उत्पत्ति एकेन्द्रियोंमें होवे, पर मनुष्यों में तो कदाचित् भी नही होवे॥१९९॥ अथवा अब क्या किया जा सकता है, जब कि पूर्वोपार्जित कर्मके उदय आनेपर इन्द्र भी मरण-कालमें अपनी रक्षा करनेके लिए शक्त नही है ॥२०॥ एवं बहुप्पयारं सरणविरहिनो खरं विलवमाणो । एइंदिएसु जायइ मरिऊण तो णियाणेण ॥२०१॥ तत्थ वि अणंतकालं किलिस्समाणो सहेइ बहुदुक्खं । मिच्छत्तसंसियमई जीवो किं किं दुक्खं ण पाविज्जई ॥२०॥ पिच्छह दिव्वे भोए जीवो भोत्तण देवलोयम्मि । एइदिएसु जायइ धिगत्थु संसारवासस्स ॥२०॥ इस प्रकार शरण-रहित होकर वह देव अनेक प्रकारके करुण विलाप करता हुआ निदानके फलसे वहांसे मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है ॥ २०१॥ वहां पर भी अनन्त काल तक क्लेश पाता हुआ बहुत दुःखको सहन करता है। सच बात तो यह है कि मिथ्यात्वसे संसिक्त बुद्धिवाला जीव किस-किस दुःखको नही पाता है ॥ २०२॥ देखो, देवलोकमे दिव्य भोगोंको भोगकर यह जीव एकेन्द्रियोमें उत्पन्न होता है ऐसे संसार-वासको धिक्कार है।।२०३॥ एवं बहुप्पयारं दुक्खं संसार-सायरे घोरे । जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ ॥२०४॥ इस तरह अनेक प्रकारके दुखोंको घोर संसार-सागरमें यह जीव शरण-रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है ॥ २०४ ॥ दर्शनप्रतिमा *पंचुंबरसहियाइ परिहरेइ इय' जो सत्त विसणाइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावयो भणिो ॥२०५।। - - १ब, प्रतौ 'दुक्ख' इति पाठो नास्ति। २ म. पाविजा। प. पापिज। ३ प. पेच्छह । ४ ब, धिगस्थ ५ प. ध. प्रत्योः इय पदं गाथारम्भेऽस्ति । * उदुंबराणि पंचैव सप्त च व्यसनान्यपि । वर्जयेद्यः सः सागारो भवेद्दार्शनिकाह्वयः ॥११२॥-गुणश्रा० Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध-बुद्धि जीव इन पंच उदुम्बर सहित सातों व्यसनोंका परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन-श्रावक कहा गया है ॥ २०५ ॥ एवं दंसणसावयठाणं पढम समासो भणियं । वयसावयगुणठाणं एत्तो विदियं पवक्खामि ॥२०६॥ इस प्रकार दार्शनिक श्रावकका पहला स्थान संक्षेपसे कहा। अब इससे आगे व्रतिक श्रावकका दूसरा स्थान कहता हूं ॥ २०६ ॥ द्वितीय व्रतप्रतिमा-वर्णन पंचेव अणुव्वयाई गुणब्बयाई हवंति पुण' तिरिण । सिक्खावयाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि ॥२०७॥ द्वितीय स्थानमे, अर्थात् दूसरी प्रतिमा पांचों ही अणुव्रत, तीन गुणव्रत, तथा चार शिक्षाव्रत होते है ऐसा जानना चाहिए ॥ २०७॥ पाणाइवायविरई सच्चमदत्तस्स वजणं चेव । थूलयड बंभचेर इच्छाए गंथपरिमाणं ॥२०॥ स्थूल प्राणातिपातविरति, स्थूल सत्य, स्थूल अदत्त वस्तुका वर्जन, स्थूल ब्रह्मचर्य और इच्छानुसार स्थूल परिग्रहका परिमाण ये पांच अणुव्रत होते हैं ॥ २०८ ॥ जे तसकाया जीवा पुवुटिठा ण हिंसियव्वा ते । एइ दिया वि णिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ॥२०१॥ जो त्रसजीव पहले बतलाये गये है, उन्हे नहीं मारना चाहिए और निष्कारण अर्थात् विना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंको भी नही मारना चाहिए, यह पहला स्थूल अहिंसावत है ॥२०९।। अलियं ण जंपणीयं पाणिबहकरं तु सञ्चवयणं पि । रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ॥२०॥ रागसे अथवा द्वषसे झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए और प्राणियोंका घात करनेवाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए ॥ २१०॥ पुर-गाम-पट्टणाइसु पडियं णठं च णिहिय वीसरियं । परदव्वमगिरहंतस्स होइ थूलवयं तदियं ॥२१॥ पुर, ग्राम, पत्तन, क्षेत्र आदिमे पड़ा हुआ, खोया हुआ, रखा हुआ, भूला हुआ, अथवा रख करके भूला हुआ पराया द्रव्य नही लेनेवाले जीवके तीसरा स्थूल अचौर्यव्रत होता है ॥२१॥ पब्वेसु इस्थिसेवा अणंगकीडा सया विवजंतो। थूलयडबंभयारी जिणेहि भणियो पवयणम्मि ॥२२॥ ब. तद । (तह?) २ ब. बंभचेरो। ३ इ. हिंसयन्वा । १ इ. म. विड्यं, ब. बीयं ५ न. तइयं। + पंचधाणुव्रतं यस्य त्रिविधं च गुणवतम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात्सः भवेद् व्रतिको यतिः ॥१३०॥ क्रोधादिनापि नो वाच्यं वचोऽसत्यं मनीषिणा । सत्यं तदपि नो वाच्यं यत्स्यात् प्राणिविघातकम् ॥१३॥ ग्रामे चतुःपथादौ वा विस्मृतं पतितं तम् । परदन्यं हिरण्यादि वज्यं स्तेयविवर्जिना ॥१३५॥ * सोसेवानंगरमणं यः पर्वणि परित्यजेत् । सः स्थूलमह्मचारी च प्रोक्तं प्रवचने जिनैः ॥१३६॥-गुण. श्राव. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व, उत्तर, दक्षिा गमणणियत्तामार काऊण गुणवत-वर्णन अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्त्री-सेवन और सदैव अनंगक्रीडाका त्याग करने वाले जीवको प्रवचनमें जिनेन्द्र भगवान्ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है ॥ २१२ ॥ जं परिमाणं कीरइ धण-धण्ण-हिरएण-कंचणाईणं । तं जाण' पंचमवयं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे ॥२१३॥(१) धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदिका जो परिमाण किया जाता है, वह पचम अणुव्रत जानना चाहिए, ऐसा उपासकाध्ययनमें कहा गया है ॥ २१३ ॥ गुणव्रत-वर्णन पुन्बुत्तर-दक्खिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं । परदो गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणब्वयं पढमं ॥२१॥(२) पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओंमे योजनोंका प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओंमे गमन नही करना, यह प्रथम दिग्वत नामका गुणवत है ।। २१४ ॥ वय-भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तस्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२१५॥(३) जिस देशमें रहते हुए व्रत-भगका कारण उपस्थित हो, उस देशमे नियमसे जो गमननिवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशवत नामका गुणवत जानना चाहिए ॥ २१५ ॥ अय-दंड-पास-विक्कय कूड-तुलामाण कूरसत्ताणं । जं संगहो' ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं ।२१६॥(४) लोहेके शस्त्र तलवार, कुदाली वगैरहके, तथा दंडे और पाश (जाल) आदिके बेचने का त्याग करना, झूठी तराजू और कूट मान अर्थात् नापने-तोलने आदिके बांटोंको कम नही रखना, तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियोंका संग्रह नहीं करना, सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्याग नामका गुणव्रत जानना चाहिए ॥ २१६ ॥ शिक्षाव्रत-वर्णन जं परिमाणं कीरह मंडण-तबोल-गंध-पुष्फाणं । तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते ॥२१७॥(५) मंडन अर्थात शारीरिक शङ्गार, ताम्बल, गंध और पुष्पादिकका जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्रमें भोगविरति नामका प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है ॥२१७॥ १ब, जाणि । २ ब. परो । ३ इ. झ. ब. विइय । ४ ब. संगहे । ५ इ. स. प तइयं, ब. तिइयं । (१) धनधान्यहिरययादिप्रमाणं यद्विधीयते । __ततोऽधिके च दातास्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः ॥१३७॥ (२) दिग्देशानर्थदण्डविर तिः स्याद् गुणवतम् । सा दिशाविरतियाँ स्यादिशानुगमनप्रमा ॥१४॥ (१) यन्त्र प्रतस्य भंगः स्याद्देशे तन्त्र प्रयत्नतः । गमनस्य निवृत्तियों सा देशविरतिर्मता ॥१४॥ (५) कूटमानतुला-पास-विष-शनादिकस्य च । क्रूरपाणिभृतां त्यागस्तत्ततीयं गुणवतम् ॥१४२॥ भोगस्य चोपभोगस्य संख्यानं पात्रसस्क्रिया । सल्लेखनेति शिक्षाख्यं व्रतमुक्तं चतुर्विधम् ॥१३॥ यः सकृद् भुज्यते भोगस्ताम्बूल कुसुमादिकम् । तस्य या क्रियते संख्या भोगसंख्यानमुच्यते ॥१४४॥-गुण श्राव. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० वसुनन्दि-श्रावकाचार सगसत्तीए महिला-वत्थाहरणाण जंतु परिमाणं । तं परिभोयणिवुत्ती' विदियं सिक्खावयं जाण ॥२१८॥(१) अपनी शक्तिके अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र-आभूषणोंका जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग-निवृत्ति नामका द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए ॥ २१८ ॥ अतिहिस्स संविभागो तइयं सिक्खावयं मुणेयव्वं । तत्थ वि पंचहियारा णेया सुत्ताणुमग्गेण ॥२१९॥(२) अतिथिके सविभागको तीसरा शिक्षाव्रत जानना चाहिए। इस अतिथिसंविभाग के पांच अधिकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार (निम्न प्रकार) जानना चाहिए ॥ २१९ ॥ पत्तंतर दायारो दाणविहाणं तहेव दायव्वं । दाणस्स फलं णेया पंचहियारा कमेणेदे ।।२२०॥(३) पात्रोंका भेद, दातार, दान-विधान, दातव्य अर्थात् देने योग्य पदार्थ और दानका फल, ये पांच अधिकार क्रमसे जानना चाहिए ॥ २२० ॥ - पात्रभेद-वर्णन तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण । वय-णियम-संजमधरो उत्तमपत्तं हवे साहू ॥२२१॥(४) उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र जानना चाहिए। उनमें व्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र है ॥ २२१ ॥ एयारस ठाणठिया मज्झिमपत्तं खु सावया भणिया। अविरयसम्माइट्ठी जहएणपत्तं मुणेयव्यं ॥२२२॥(५) ग्यारह प्रतिमा-स्थानोंमें स्थित श्रावक मध्यम पात्र कहे गये हैं, और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र जानना चाहिए ॥ २२२ ॥ वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिो कुपत्तं तु । सम्मत्त-सील वयवज्जियो अपत्तं हवे जीश्रो ॥२२३॥(६) जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है। सम्यक्त्व, शील और व्रतसे रहित जीव अपात्र है ॥ २२३ ॥ १ बणियत्ती । २ झ. विइय, ब. बीयं । (१) उपभोगो मुहुर्भाग्यो वस्त्रस्याभरणादिकः । ___ या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रमोच्यते ॥१४५॥ २) स्वस्य पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रयसमृद्धये । यद्दीयतेऽत्र तहानं तत्र पञ्चाधिकारकम् ॥१४६ (३) पात्रं दाता दानविधिदेय दानफलं तथा । अधिकारा भवन्त्येते दाने पञ्च यथाक्रमम् ॥१४७॥ (४) पात्रं निधोत्तमं चैतन्मध्यमं च जघन्यकम् । सर्वसंयमसंयुक्तः साधुः स्यात्पात्रमुत्तमम् ॥१८॥ ५) एकादशप्रकारोऽसौ गृही पात्रमनुत्तमम् । विरल्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्रं जघन्यकम् ॥१४॥ ६) तपःशीलवतैर्युक्तः कुदृष्टिः स्याकुपात्रकम् । . अपात्रं व्रतसम्यक्त्वतमाशीलविवर्जितम् ॥१५०॥-गुण० श्राव. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानविधि-वर्णन दातार-वर्णन सद्धा भत्ती तुट्टी विरणाणमलुद्धया' खमा सत्ती। जत्थेदे सत्त गुणा तं दायारं पसंसंति ॥२२॥(6) जिस दातारमें श्रद्धा, भक्ति, सतोष, विज्ञान, अलब्धता, क्षमा और शक्ति, ये सात गुण होते है, ज्ञानी जन उस दातारकी प्रशंसा करते है ॥ २२४ ॥ दानविधि-वर्णन पडिगह'मुच्चट्ठाणं पादोदयमञ्चणं च पणमं च । मण-वयण-कायसुद्धी एसणसुद्धी य दाणविही ॥२२५॥(२) प्रतिग्रह अर्थात् पड़िगाहना-सामने जाकर लेना, उच्चस्थान देना अर्थात् ऊचे आसन पर बिठाना, पादोदक अर्थात् पैर धोना, अर्चा करना, प्रणाम करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणा अर्थात् भोजनकी शुद्धि, ये नौ प्रकारकी दानकी विधि है ॥ २२५ ॥ पत्तं णियघरदारे दहणण्णत्थ वा विमग्गित्ता । पडिगहणं कायव्वं णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण १२२६॥ णेऊण णिययगेहं हिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि । ठविऊण तो चलणाण धोवणं होइ कायव्वं ॥२२७॥ पाश्रोदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अचणं कुज्जा । गंधक्खय-कुसुम-वज्ज-दीव-धूवेहिं य फलेहिं ॥२२॥ पुप्फंजलिं खिवित्ता पयपुरो वंदणं तो कुज्जा । चइऊण अट्ट-रुहे मणसुद्धी होइ कायव्वा ॥२२९॥ णिहर-ककस वयणाइवजणं तं वियाण वचिसुद्धिं । सम्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि ॥२३०॥ पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर, अथवा अन्यत्रसे विमार्गण कर-खोजकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए,' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए ॥ २२६ ॥ पुनः अपने घरमें ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष तथा ऊंचे स्थानपर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणोंको धोना चाहिए ॥ २२७ ॥ पवित्र पादोदकको शिरमें लगाकर पुनः गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजन करना चाहिए ॥ २२८ ॥ तदनन्तर चरणोंके सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर वंदना करे । तथा, आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर मनःशुद्धि करना चाहिए ॥ २२९ ॥ निष्ठुर और कर्कश आदि वचनोंके त्याग करनेको वचनशुद्धि जानना चाहिए। सब ओर संपुटित अर्थात् विनीत अंग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है ॥ २३० ॥ *चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजयिजणस्स दिजइ सा ऐया एसणासुद्धी ॥२३१॥ चौदह मल-दोषोंसे रहित, यतनासे शोधकर संयमी जनको जो आहारदान दिया जाता है, वह एषणा-शुद्धि जानना चाहिए ॥ २३१ ॥ १ ब. मलुखुदया। २ प. ध. सत्तं । ३ ध. उच्च । (१) श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं तुष्टिः शक्तिरलुब्धता । क्षमा च यत्र सप्तैते गुणा दाता प्रशस्यते ॥१५॥ (२) स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणमनैस्तथा । मनोवाकायशुद्धया वा शुद्धो दानविधिः स्मृतः ॥१५२॥-गुण० श्राव० #. ध. ब. प्रतिषु गाथेयमधिकोपलम्यते णह-जंतु-रोम-अट्ठी-कण-कुंडय-मंस-रुहिर-चम्माई। कद-फल-मूल-बीया छिण्ण मला चउहसा होति ॥१॥-मूलाचार ४८४ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ वसुनन्दि-श्रावकाचार . विशेषार्थ-नख, जतु, केश, हड्डी, मल, मूत्र, मांस, रुधिर, चर्म, कद, फल, मूल, बीज और अशुद्ध आहार ये भोजन-सम्बन्धी चौदह दोष होते है। दासमयम्मि एवं सुत्तणुसारेण एव विहाणाणि । भणियाणि मए एण्डिं दायब्वं वण्णइस्सामि ॥२३२॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार मैने दानके समयमें आवश्यक नौ विधानों को कहा । अब दातव्य वस्तुका वर्णन करूगा ॥ २३२ ॥ दातव्य-वर्णन आहारोसह-सस्थाभयमेरो जं चउब्विहं दाणं । तं बुच्चई' दायव्वं णिटिमुवासयज्झयणे ॥२३३॥ आहार, औषध, शास्त्र और अभयके भेदसे जो चार प्रकारका दान है, वह दातव्य कहलाता है, ऐसा उपासकाध्ययनमें कहा गया है ॥ २३३ ॥ असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत-गाव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायब्वो ॥२३॥ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्तिसे तीन प्रकारके पात्रको देना चाहिए ॥ २३४ ॥ अइबुड्ड-बाल-मूर्यध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं । जहजोग्गं दायत्वं करुणादाण त्ति भणिऊण ॥२३५॥ अति वृद्ध, बालक, मूक (गूगा) अंध, बधिर (बहिरा) देशान्तरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवोंको 'करुणादान दे रहा ह' ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए ॥ २३५॥ उववास-वाहि-परिसम-किलेस-'परिपीडयं मुणेऊण । पस्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायब्वं ॥२३६॥ उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेशसे परिपीडित जीवको जानकर अर्थात देखकर शरीरके योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ॥ २३६ ॥ आगम-सस्थाई लिहाविऊण दिजति जं जहाजोग्गं । तं जाणा-सत्यदाणं जियावयाज्मावणं च तहा ॥२३॥ जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रोंको दिये जाते है, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए। तथा जिन-वचनोंका अध्यापन कराना-पढ़ाना भी शास्त्रदान है ।। २३७ ॥ जं कीरइ परिरक्खा णिचं मरण-भयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणा ॥२३८॥ मरणसे भयभीत जीवोंका जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सर्व दानोंका शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए ॥ २३८ ॥ दानफल-वर्णन अण्णामिणो वि जम्हा कजं ण कुणंति णिप्फलारंभ। सम्हा दाणस्स फलं समासदो वरणइस्सामि ॥२३९।। चूंकि, अज्ञानीजन भी निष्फल आरम्भवाले कार्यको नहीं करते हैं, इसलिए मैं दानका फल संक्षेपसे वर्णन करूंगा ॥ २३९॥ १.ब. एवं। २. वञ्चह। ३ दरिद्राणाम् । झ. पडि० । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफल-वर्णन जह उत्तमम्मि खित्ते पइएणमण्णं सुबहुफलं होइ। तह दाणफलं णेयं दिण्णं तिविहस्स पत्तस्स ॥२४०॥ जिस प्रकार उत्तम खेतमे बोया गया अन्न बहत अधिक फलको देता है, उसी प्रकार त्रिविध पात्रको दिये गये दानका फल जानना चाहिए ॥ २४० ॥ जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ वावियं बीयं । मझिमफलं विजाणह कुपत्तदिण्णं तहा दाणं ॥२४१॥ जिस प्रकार मध्यम खेतमें बोया गया बीज अल्प फल देता है, उसी प्रकार कुपात्रमे दिया गया दान मध्यम फलवाला जानना चाहिए ॥ २४१ ॥ जह ऊसरम्मि खित्ते पइएणबीयं ण किं पिरुहेइ । फलवज्जियं वियाणह अपत्तदिएणं तहा दाणं ॥२४२॥ जिस प्रकार ऊसर खेतमे बोया गया बीज कुछ भी नही ऊगता है उसी प्रकार कूपात्रमे दिया गया दान भी फल-रहित जानना चाहिए ॥ २४२ ॥ कम्हि "अपत्तविसेसे विण्णं दाणं दुहावहं होइ। जह विसहरस्स दिण्यां तिम्वविसं जायए खीरं ॥२४॥ प्रत्युत किसी अपात्रविशेषमे दिया गया दान अत्यन्त दुःखका देनेवाला होता है। जैसे विषधर सर्पको दिया गया दूध तीव्र विषरूप हो जाता है ॥ २४३ ।। मेहावीणं एसा सामएणपरूवणा मए उत्ता। इपिंह पभणामि फलं समासो मंदबुद्धीणं ॥२४॥ मेधावी अर्थात् बुद्धिमान् पुरुषोंके लिए मैने यह उपर्युक्त दानके फलका सामान्य प्ररूपण किया है। अब मन्दबुद्धिजनोंके लिए संक्षेपसे (किन्तु पहलेकी अपेक्षा विस्तारसे) दानका फल कहता हूं ॥ २४४ ॥ मिच्छादिट्ठी भद्दो दाणं जो देइ उत्तमे पत्ते। तस्स फलेणुववज्जइ सो उत्तमभोयभूमीसु ॥२४५।। जो मिथ्यादृष्टि भद्र अर्थात् मन्दकषायी पुरुष उत्तम पात्रमें दान देता है, उसके फलसे वह उत्तम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ॥ २४५ ॥' जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि देह दाणं खु वामदिट्ठी वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु ॥२४६॥ जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुप मध्यम पात्रमे दान देता है, वह जीव मध्यम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ॥ २४६ ॥ जो पुण जहण्णापत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो वि णरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो ॥२७॥ और जो तथाविध अर्थात् उक्त प्रकारका मिथ्यादष्टि भी मनुष्य जघन्य पात्र में दान को देता है, वह जीव उस दानके फलसे जघन्य भोगभूमियोंमे उत्पन्न होता है ॥ २४७ ॥ जायइ कुपत्तदाणेण वामदिट्ठी कुभोयभूमीसु । अणुमोयणेश तिरिया वि उत्तहाणं जहाजोग्गं ॥२४८॥ __ मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्रको दान देनेसे कुभोगभूमियोमे उत्पन्न होता है। दानकी अनुमोदना करनेसे तिर्यञ्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानोंको प्राप्त करते हैं, अर्थात् मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च उत्तम पात्र दानकी अनुमोदनासे उत्तम भोगभूमिमें, मध्यम पात्रदानकी अनु १,२,३, झ. ब. छित्ते । ४ झ. किंचि रु होइ, ब. किंपि विरु होइ । ५ झ. ब. उ पत्तः । ६ प्रतिषु 'मेहाविऊण' इति पाठः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वसुनन्दि-श्रावकाचार मोदनासे मध्यम भोगभूमिमें, जघन्य पात्रदानकी अनुमोदनासे जघन्य भोगभूमिमें जाता है। इसी प्रकार कुपात्र और अपात्र दानकी अनुमोदना से भी तदनुकूल फलको प्राप्त होता है ॥ २४८ ॥ बद्धाउगा सुदिट्टी अणुमोयणेश तिरिया वि । णियमेणुववज्जति य ते उत्तमभोगभूमीसु ॥२४९॥ बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्थामें पहिले मनुष्यायको बांध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शनको उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देनेसे और उक्त प्रकार के ही तिर्यञ्च पात्र-दानकी अनुमोदना करनेसे नियमसे वे उत्तम योंमे उत्पन्न होते है ।। २४९ ॥ तत्थ वि दहप्पयारा कप्पदुमा दिति उत्तमे भोए । खेत्त सहावेण सया पुन्वज्जियपुण्यासहियाणं ॥२५०॥ उन भोगभूमियोंमें दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते है, जो पूर्वोपार्जित पुण्य-संयुक्त जीवों को क्षेत्रस्वभावसे सदा ही उत्तम भोगोंको देते है ।। २५० ॥ मज्जग-तूर-भूसण-जोइस-गिह-भायणंग-दीवंगा । वत्थंग-भोयणंगा मालंगा सुरतरू दसहा ॥२५॥ मद्यांग, तूर्याग, भूषणांग, ज्योतिरग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, वस्त्रांग, भोजनांग और मालांग ये दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते है ॥ २५१ ॥ अइसरसमइसुगंधं दिटुं चि य जंजणेइ अहिलासं । इदिय-बलपुटियरं मजगा पाणयं दिति ॥२५२॥ ___ अति सरस, अति सुगंधित, और जो देखने मात्रसे ही अभिलाषाको पैदा करता है, ऐसा इन्द्रिय-बलका पुष्टिकारक पानक (पेय पदार्थ) मद्यांगवृक्ष देते है ॥ २५२ ॥ तय-वितय घणं सुसिरं वज तूरंगपायवा दिति । __ वरमउड-कुंडलाइय-श्राभरणं भूसरादुमा वि ॥२५३॥ तूर्यांग जातिके कल्पवृक्ष तत, वितत, धन और सुषिर स्वरवाले बाजोंको देते है। भूषणांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुडल आदि आभूषणोंको देते है ॥ २५३ । । ससि-सूरपयासाो अहियपयासं कुणंति जोइदुमा ।। याणाविहपासाए दिति सया गिदुमा दिव्वे ॥२५॥ ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्ष चन्द्र और सूर्यके प्रकाशसे भी अधिक प्रकाशको करते। हैं । गृहांगजातिके कल्पवृक्ष सदा नाना प्रकारके दिव्य प्रासादों (भवनों) को देते हैं ॥२५४॥ कच्चोल'-कलस-थालाइयाइ भायणदुमा पयच्छंति । उज्जोयं दीवदमा कुणंति गेहस्स मज्झम्मि ॥२५॥ भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष वाटकी, कलश, थाली आदि भाजनोंको देते हैं। दीपांग जातिके कल्पवृक्ष घरके भीतर प्रकाशको किया करते हैं ॥ २५५ ॥ वर-पट्ट-चीण-खोमाइयाई वत्थाई दिति वत्थदुमा । वर-चउविहमाहारं भोयणरुक्खा पयच्छति ॥२५॥ वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम रेशमी, चीनी और कोशे आदिके वस्त्रोंको देते है। भोजनांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम चार प्रकारके आहारको देते हैं ।। २५६ ॥ .. इ. सद्दिट्टी, ब. सदिही। २. ब. छित्त०। इ. छत्त। ३ भ. प. दिविय । ४. जं' इति पाठो नास्ति । ५ ब. कचोल । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफल-वर्णन १०५ वर बहुल परिमलामोयमोइयासामुहाउ मालाम्रो । मालादुमा पयच्छंति विविहकुसुमेहिं रइयायो ॥२५७॥ मालांग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारके पुष्पोंसे रची हुई और प्रवर, बहुल, परिमल सुगंधसे दिशाओंके मुखोंको सुगंधित करनेवाली मालाओंको देते है ॥ २५७ ॥ उक्किहभोयभूमीसु जे रारा उदय-सुज-समतेया। छधणुसहस्सुत्तुंगा हुंति तिपल्लाउगा सव्वे ॥२५॥ उत्तम भोगभूमियोंमे जो मनुष्य उत्पन्न होते है, वे सब उदय होते हुए सूर्यके समान तेजवाले, छह हजार धनुष ऊंचे और तीन पल्यकी आयुवाले होते है ॥ २५८ ॥ देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु चत्तारि धणुसहस्साई। पल्लाणि दुरिणा आऊ पुरिएदुसमप्पहा पुरिसा ॥२५॥ मध्यम भोगभूमियोंमें देहकी ऊंचाई चार हजार धनुष है, दो पल्यकी आयु है, और सभी पुरुष पूर्णचन्द्रके समान प्रभावाले होते हैं ॥ २५९ ॥ दोधणसहस्सुत्त गा मणया पल्लाउगा जहण्णास। उत्तत्तकणयवण्णा हवंति पुण्णाणुभावेण ॥२०॥ जघन्य भोगभूमियोंमें पुण्यके प्रभावसे मनुष्य दो हजार धनुष ऊंचे, एक पल्यकी आयुवाले और तपाये गये स्वर्णके समान वर्णवाले होते है ॥२६॥ जे पुण कुभोयभूभीसु सक्कर-समसायमट्टियाहारा । फल-पुप्फाहारा केई तत्थ पल्लाउगा सव्वे ॥२६॥ जो जीव कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते है, उनमें से कितने ही वहांपर स्वभावतः उत्पन्न होनेवाली शक्करके समान स्वादिष्ट मिट्टीका आहार करते है, और कितने ही वृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले फल-पुष्पोंका आहार करते है और ये सभी जीव एक पल्यकी आयुवाले होते है।।२६१॥ जायंति जुयल-जुयला उणवरणदिणेहिं जोवणं तेहिं । समचउरससंठाणा वरवजसरीरसंघयणा ॥२२॥ बाहत्तर-कलसहिया चउसद्विगुणरिणाया तणुकसाया। बत्तीसलक्खणधरा उज्जमसीला विणीया य ॥२६३॥ पवमासाउगि सेसे गभं धरिऊण सूइसमयम्हि । सुहमिचुणा मरित्ता शियमा देवत्तु पावंति ॥२६॥ भोगभूमिमें जीव युगल-युगलिया उत्पन्न होते है और वे उनचास दिनोंमें यौवन दशाको प्राप्त हो जाते है। वे सब समचतुरस्र संस्थानवाले और श्रेष्ठ वज्रवृषभशरीरसंहननवाले होते हैं ॥ २६२ ॥ वे भोगभूमियां पुरुष जीव बहत्तर कला-सहित और स्त्रियां चौसठ गुणों से समन्वित, मन्दकषायी, बत्तीस लक्षणोंके धारक, उद्यमशील और विनीत होते हैं ॥ २६३ ॥ नौ मास आयके शेष रह जानेपर गर्भको धारण करके प्रसूति-समयमे सुख मृत्युसे मरकर नियमसे देवपनेको पाते है ॥ २६४ ॥ जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्स । जायंति दाणफलो कप्पेसु महड्डिया देवा ॥२६॥ १ब, बहल । २ इ. सहसा तुंगा। ३ म. उत्तमकचावरणा। . इ-मट्टियायारा। ५म.-संहाणा। ६ इ. वायत्तर, भ. ब. बावत्तरि । ७. इसूय० । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसयत जीव हैं, वे तीनों प्रकारके पात्रोंको दान देने के फलसे स्वर्गोमें महद्धिक देव होते है ॥ २६५ ॥ अच्छरसयमज्मगया तत्थाणुहविऊण विविहसुरसोक्खं । तत्तो चुया समाणा' मंडलियाईसु जायते ॥२६॥ वहांपर सैकड़ों अप्सराओंके मध्यमे रहकर नाना प्रकारके देव-सुखोंको भोगकर आयुके अन्तमे वहासे च्युत होकर मांडलिक राजा आदिकोंमे उत्पन्न होते है ॥ २६६ ॥ तत्थ वि बहुप्पयारं मणुयसुहं भुंजिऊस शिविग्छ । विगदभया' वेरग्गकारणं किंचि दहण ॥२६॥ पडिबुद्धिऊण चइऊण शिवसिरि संजर्म च वित्तण । उप्पाइऊण गाणं केई गच्छंति णिब्वाणं ॥२६॥ अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण । सत्तट्ठभवेहि तो करंति कामक्खयं णियमा ॥२६९॥ वहांपर भी नाना प्रकारके मनुष्य-सुखोंको निर्विघ्न भोगकर भय-रहित होते हुए वे कोई भी वैराग्यका कारण देखकर प्रतिबुद्धित हो, राज्यलक्ष्मीको छोड़कर और संयमको ग्रहण कर कितने ही केवलज्ञानको उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होते है और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्वको पुनः पुन प्राप्तकर सात-आठ भवके पश्चात् नियमसे कर्मक्षयको करते है ॥ २६७-२६९ ॥ एवं पत्तविसेस दाणविहाणं फलं च णाऊण । अतिहिस्स संविभागो कायम्वो देसविरदेहि ॥२७॥ इस प्रकार पात्रकी विशेषताको, दानके विधानको और उसके फलको जानकर देशविरती श्रावकोंको अतिथिका संविभाग अर्थात् दान अवश्य करना चाहिए ॥ २७० ॥ सल्लेखना-वर्णन धरिऊण वत्थमेतं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स बोसरणं ॥२७॥ जं कुणइ गुरुसयासन्मि' सम्ममालोइऊण तिविहेण । सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावय भणियं ॥२७२॥ वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रहको छोड़कर अपने ही घरमें अथवा जिनालयमें रहकर जो श्रावक गुरुके समीपमें मन-वचन-कायसे अपनी भले प्रकार आलोचना करके पानके सिवाय शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययनसूत्रमें सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है ॥ २७१-२७२ ॥ एव वारसमेयं वयठाणं वपिणयं मए विदियं । सामाइयं वइंज' ठाणं संखेवो वोच्छं ॥२७॥ इस प्रकार बारह भेदवाले दूसरे व्रतस्थानका मैने वर्णन किया। अब सामायिक नामके तीसरे स्थानको मै संक्षेपसे कहूंगा ॥ २७३ ॥ इ.समाया, म. समासा।२५. जायंति। ३. विगदब्मयाह । ४ब. लहियो। ५प. विरएहिं। ६इ. पयासिम्मि। ७ इ. विइयं, ब. बीयं । इ. तइयं,-म. तिदीयं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोषधप्रतिमा सामायिकप्रतिमा होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णत्थ सुइपएसे पुध्वमुहो उत्तरमुहो वा ॥२७॥ जिणवयण-धम्म-चेइय-परमेटि-जिणालयाण णिचंपि । जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु॥२७५॥ स्नान आदिसे शुद्ध होकर चैत्यालयमे अथवा अपने ही घरमे प्रतिमाके सन्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थानमे पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पच परमेष्ठी और कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयोंकी जो नित्य त्रिकाल वंदना की जाती है, वह सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान है ॥ २७४-२७५ ॥ काउस्सग्गम्हि ठिो लाहालाहं च सत्तु-मित्तं च । सजोय-विप्पजोयं तिण-कंचण चंदण वासि ॥२६॥ जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं। वर-अपाडिहेरेहिं संजुयं जिणसरूवं च ॥२७॥ सिद्धसरूवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं । खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ॥२७॥ जो श्रावक कायोत्सर्गमें स्थित होकर लाभ-अलाभको, शत्रु-मित्रको, इष्टवियोगअनिष्ट संयोगको, तृण-कांचनको, चन्दनको और कुठारको समभावसे देखता है, और मनमें पंच नमस्कारमंत्रको धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्योसे सयक्त अर्हन्तजिनके स्वरूपको और सिद्ध भगवान्के स्वरूपको ध्यान करता है, अथवा सवेग-सहित अविचल-अंग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है, उसके उत्तम सामायिक होती है ॥ २७६-२७८ ॥ एवं तइयं ठाणं भणियं सामाइयं समासेण । पोसहविहिं चउत्थं ठाणं एत्तो पवक्खामि ॥२७९॥ __ इस प्रकार सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान संक्षेपसे कहा। अब इससे आगे प्रोषधविधि नामके चौथे प्रतिमास्थानको कहंगा ॥ २७९ ॥ प्रोषधप्रतिमा उत्तम-मज्झ-जहएण तिविहं पोसहविहाणमुद्दिटं। सगसत्तीए मासम्मि चउस्सु पन्वेसु कायश्व ॥२०॥ उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका प्रोषध-विधान कहा गया है। यह श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार एक मासके चारो पर्वोमें करना चाहिए ॥ २८० ॥ १. करेइ । २ कुठारं। ३ इ. मज्झम-जहणं । ४ प. पब्वसु । * वैयग्रयं त्रिविधं त्यक्त्वा त्यक्त्वाऽऽरम्भपरिग्रहम् । स्नानादिना विशुद्धांगशुद्धया सामायिकं भजेत् ॥१६॥ गेहे जिनालयेऽन्यत्र प्रदेशे वाऽनघे शुचौ। उपविष्टः स्थितो वापि योग्यकालसमाश्रितम् ॥१६॥ कायोत्सर्गस्थितो भूत्वा ध्यायेत्पंचपदीं हृदि । गुरून् पञ्चाथवा सिद्धस्वरूपं चिन्तयेत्सुधीः ॥१६७॥ +मासे चत्वारि पर्वाणि प्रोषधाख्यानि तानि च । यत्तत्रोपोषणं प्रोषधोपवासस्तदुच्यते ॥१६९५-गुण० श्राव० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार सत्तमि-तेरसि दिवसम्मि अतिहिजणभोयणावसाणम्मि । भोत्तण भुंजणिज्जं तत्थ वि काऊण मुहसुद्धिं ॥२१॥ पक्खालिऊण वयण कर-चरणे णियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिंदभवण गंतूण जिण णमंसित्ता ॥२२॥ गुरुपुरो किदियम्मं बंदणपुव्वं कमेण काऊण । गुरुसक्खियमुववासं गहिऊण चउब्विह विहिणा ॥२८॥ वायण-कहाणुपेहण-सिक्खावण-चिंतणोवोगेहिं । णेऊण दिवससेस अवरारिहयवंदण किच्चा ॥२८॥ रयणि समयम्हि ठिच्चा काउस्सग्गेण णिययसत्तीए । पडिलेहिऊण भूमि अप्पपमारोण संथार ॥२५॥ दाऊण किंचि रत्तिं सइऊण जिणालए णियघरे वा। अहवा सयलं रतिं काउस्सग्गेण पोऊण ॥२६॥ पचुसे उद्वित्ता वदणविहिणा जिणं णमंसित्ता । तह-दव्व-भावपुज जिण-सुय-साहूण काऊण ॥२७॥ उत्तविहायोण तहा दियहं रत्तिं पुणो वि गमिऊण । पारणदिवसम्मि पुणो पूर्य काऊण पुष्व व ॥२८॥ गंतूण णिययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊण । जो भुजइ तस्स फुड पोसहविहि उत्तम होइ ॥२८९॥ सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अतिथिजनके भोजनके अन्तमें स्वयं भोज्य वस्तुका भोजनकर और वहींपर मुख-शुद्धिको करके, मुखको और हाथ-पैरोंको धोकर वहांपर ही उपवास सम्बन्धी नियम करके पश्चात् जिनेन्द्र-भवन जाकर और जिनभगवान्को नमस्कार करके, गुरुके सामने वन्दनापूर्वक क्रमसे कृतिकर्मको करके, गुरुकी साक्षीसे विधिपूर्वक चारों प्रकारके आहारके त्यागरूप उपवासको ग्रहण कर शास्त्र-वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षाचिन्तन, पठन-पाठन आदिके उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके तथा आपराह्निक-वंदना करके, रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्गसे स्थित होकर, भूमिका प्रतिलेखन (संशोधन) करके, और अपने शरीरके प्रमाण विस्तर लगाकर रात्रिमे कुछ समय तक जिनालय अथवा अपने घरमें सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्गसे बिताकर प्रातःकाल उठकर वंदनाविधिसे जिन भगवान्को नमस्कार कर, तथा देव, शास्त्र और गुरुकी द्रव्य वा भावपूजन करके पूर्वोक्त विधानसे उसी प्रकार सारा दिन और सारी रात्रिको फिर १ ब. किरियम्मि। ध. म. ब. प्रतिषु 'णाऊण' इति पाठः । * उत्तमो मध्यमश्चैव जघन्यश्चेति स विधा। यथाशक्तिर्विधातव्यः कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥१७॥ सप्तम्यां च त्रयोदश्यां जिनाचर्चा पात्रसरिक्रयाम् । विधाय विधिवच्चैकमक्तं शुद्धवपुस्ततः ॥१७॥ गुर्वादिसन्निधिं गत्वा चतुराहारवर्जनम् । स्वीकृत्य निखिला रात्रि नयेच्च सत्कथानकैः ॥१७२॥ प्रातः पुनः शुचिर्भूत्वा निर्माप्याहत्पूजनम् । सोत्साहस्तदहोरात्रं सद्धधानाध्ययनैनयेत् ॥१७३॥ तत्पारणान्हि निर्माप्य जिनार्चा पात्रसक्रियाम् । स्वयं वा चैकभक्तं यः कुर्यात्तस्योत्तमो हि सः॥१७॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचित्तत्यागप्रतिमा १०९ भी बिताकर पारणाके दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासीको पुनः पूर्वके समान पूजन करके तत्पश्चात् अपने घर जाकर और वहां अतिथिको आहारदान देकर जो भोजन करता है, उसके निश्चयसे उत्तम प्रोषधविधि होती है ॥ २८१-२८९ ॥ * जह उकस्सं तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुहिट। णवर विसेसो सलिलं छंडित्ता' वजए सेल ॥२९०॥ मुणिऊण गुरुवकज्ज सावज्जविवजिय णियारंभ । जइ कुणइ त पि कुज्जा सेस पुव्वं व णायव्वं ॥२९॥ जिस प्रकारका उत्कृष्ट प्रोषध विधान कहा गया है, उसी प्रकारका मध्यम प्रोषध विधान भी जानना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि जलको छोड़कर शेष तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए ॥ २९० ॥ जरूरी कार्यको समझकर सावद्य-रहित अपने घरू आरम्भको यदि करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है। किन्तु शेष विधान पूर्वके समान ही जानना चाहिए ॥ २९१॥ आयंबिल' णिव्वयडी' एयहाणं च एयभर वा। जं कीरइ तं णेयं जहएणयं पोसहविहाणं ॥२९२॥ जो अष्टमी आदि पर्वके दिन आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, अथवा एकभक्तको करता है, उसे जघन्य प्रोषध विधान जानना चाहिए ॥२९२॥ (विशेषार्थ परिशिष्टमें देखो।) सिराहाणुव्वट्टण-गंध-मल्लकेसाइदेहसंकप्पं । अण्णं पि रागहेउं विवजए पोसहदिणम्मि ॥२९॥ प्रोषधके दिन शिरसे स्नान करना, उवटना करना, सुगंधित द्रव्य लगाना, माला पहनना, बालों आदिका सजाना, देहका संस्कार करना, तथा अन्य भी रागके कारणोंको छोड़ देना चाहिए ॥ २९३ ॥ एवं चउत्थठाणं विवरिणयं पोसह समासेण । एत्तो कमेण सेसाणि सुणह संखेवो वोच्छं ॥२९॥ इस प्रकार प्रोषध नामका चौथा प्रतिमास्थान संक्षेपसे वर्णन किया। अब इससे आगे शेष प्रतिमा-स्थानोंको संक्षेपसे कहूंगा, सो सुनो ॥ २९४ ॥ सचित्तत्यागप्रतिमा जं वजिजइ हरिगं तुय-पत्त-पवाल-कंद-फल-बीयं । अप्पासुग च सलिलं सचित्तणिवित्ति सं ठाणं ॥२५॥ १ ब. छडित्ता । २ आयंबिल-अम्ल चतुर्थो रसः, स एव प्रायेण व्यंजने यत्र भोजने श्रोदन-कुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लम् । आयंविलमपि तिविहं उकिट-जहण्णा-मज्झिमदएहिं । तिविहं जं विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ ॥१०२॥ मिय-सिंधव-सुंठि मिरीमेही सोवञ्चलं च विडलबो । हिंगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ॥१०॥ अभिधानराजेन्द्र । ३ ब. णिग्घियडी। ४ इ. भ. तय० । * मध्यमोऽपि भवेदेवं स विधाहारवर्जनम् । जलं मुक्त्वा जघन्यस्त्वेकभक्तादिरनेकधा ॥१७५॥ * स्नानमुद्वर्त्तनं गन्धं माल्यं चैव विलेपनम् । यच्चान्यद् रागहेतुः स्याद्वगं तत्प्रोषधोऽखिलम् ॥१७६॥ मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम् । अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतो गृही ॥१७॥-गुण० श्राव० Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० वसुनन्दि-श्रावकाचार . जहांपर हरित त्वक् (छाल) पत्र, प्रवाल, कंद, फल, बीज, और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है, वह सचित्त-विनिवृत्तिवाला पांचवां प्रतिमास्थान है ॥ २९५ ।। रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा मण-वयण-काय-कय-कारियाणुमोएहिं मेहुणं णवधा । दिवसम्मि जो विवजइ गुणम्मि सो सावो छट्ठो॥२६६।। [१] जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना, इन नौ प्रकारोंसे दिनमे मैथुनका त्याग करता है, वह प्रतिमारूप गुणस्थानमे छठा श्रावक है, अर्थात् छठी प्रतिमाधारी है ॥२९६॥ ब्रह्मचर्यप्रतिमा पुव्वुत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज तो। . इस्थिकहाइणिवित्तो' सत्तमगुणवभयारी सो ॥२९७॥[२] __ जो पूर्वोक्त नौ प्रकारके मैथुनको सर्वदा त्याग करता हुआ स्त्रीकथा आदिसे भी निवृत्त हो जाता है, वह सातवें प्रतिमारूप गुणका धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ॥ २९७ ॥ आरम्भनिवृत्तप्रतिमा ज किंचि गिहारमं बहु थोग वा सया विवजह । आरभणियत्तमई सो अट्टमु सावनो भणिो ॥२९॥[३] जो कुछ भी थोड़ा या बहुत गृहसम्बन्धी आरम्भ होता है, उसे जो सदाके लिए त्याग करता है, वह आरम्भसे निवृत्त हुई है बुद्धि जिसकी, ऐसा आरम्भत्यागी आठवां श्रावक कहा गया है ॥२९८ ।। परिग्रहत्यागप्रतिमा मोत्तण वत्थमेत परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावो णवमो ॥२९९।।[४] जो वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर शेष सब परिग्रहको छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रहमे भी मूर्छा नही करता है, उसे परिग्रहत्यागप्रतिमाधारी नवां श्रावक जानना चाहिए ॥ २९९ ॥ अनुमतित्यागप्रतिमा पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा णियगेहि परेहिं च सगिहकजमि । अणुमणणं जो ण कुणइ वियाण सो सावनो दसमो ॥३००।[4] १. किरियाणु०। २ ब. सव्वहा । ३ म. ब. शियतो। ४ म. थोवं । [1]स दिवा-ब्रह्मचारी यो दिवा स्त्रीसंग त्यजेत् । [२] स सदा ब्रह्मचारी यः स्त्रीसंग नवधा त्यजेत् ॥७९॥ [३] सः स्यादारम्भविरतो विरमेद्योऽखिलादपि ।। पापहेतोः सदाऽम्भारसेवाकृष्यादिकात्सदा ॥१०॥ [0].निर्मूच्र्छ वस्त्रमात्रं यः स्वीकृत्य' निखिलं त्यजेत् । बाझं परिग्रह स स्याद्विरक्तस्तु परिग्रहात् ॥११॥ [५] पृष्टोऽपृष्टोऽपि नो दत्तेऽनुमतिं. पापहेतुके। ऐहिकाखिलकायें योऽनुमतिविरतोऽस्तु सः ॥१२॥-गुण० श्राव० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उहिष्टत्याग-प्रतिमा स्वजनोंसे और परजनोंसे पूछा गया, अथवा नही पूछा गया जो श्रावक अपने गृहसम्बन्धी कार्यमे अनुमोदना नही करता है, उसे अनुमतित्याग प्रतिमाधारी दसवां श्रावक जानना चाहिए ॥ ३०० ॥ उद्दिष्टत्यागप्रतिमा एयारसम्मि ठाणे उक्किटो सावनो हवे दुविहो । वस्थेवधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदियो ॥३०१॥(१) ग्यारहवे प्रतिमास्थान में गया हआ मनष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद है, प्रथम एक वस्त्रका रखनेवाला और दूसरा कोपीन (लगोटी) मात्रपरिग्रहवाला।।३०१।। धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो । ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ॥३०२।। भुजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सइ समुवइटो। उववासं पुण णियमा चउन्विहं कुणइ पव्वेसु ॥३०३।। पक्खालिऊण पत्त पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। " भणिऊण धम्मलाह जायइ भिक्खं सय चेव ॥३०॥ सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तो । अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण काय वा ॥३०५॥ जइ अद्धवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोसण णिययभिक्खं तस्सरणं भुंजए सेसं ॥३०६॥ अहण भणइ तो भिक्खं भमेज णियपोद्दपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं ॥३०७॥ जं कि पि पडियभिक्खं भुजिज्जो सोहिऊण जत्तण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि ॥३०॥ जइ एवं ण रएज्जो काउंरिसगिहम्मि चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमणं ता कुज्जा ॥३०६॥ गंतूण गुरुसमीव पञ्चक्खाणं चउम्विहं विहिणा। गहिऊण तो सब्वं आलोचेज्जा पयत्तेण ॥३१०॥* प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे कि क्षुल्लक कहते हैं) धम्मिल्लोंका चयन अर्थात हजामत कैचीसे अथवा उस्तरेसे कराता है। तथा, प्रयत्नशील या सावधान होकर पीछी आदि उपकरण से स्थान आदिका प्रतिलेखन अर्थात् संशोधन करता है ॥ ३०२ ॥ पाणि-पात्रमें या थाली . आदि भाजनमें (आहार रखकर) एक वार बैठकर भोजन करता है। किन्तु चारों पर्वोमे १. ब. बिइयो। २ ब. वयणं । ३ ब. लेहह मि। ४ ब. कायन्वं । ५ प. अवहे । ६ काउं रिसिगोहणम्मि । ७ध, णियमेणं । (१) गेहादि व्याश्रमं त्यक्त्वा गुर्धन्ते व्रतमाश्रितः । भैच्याशीः यस्तपस्तप्येदुद्दिष्टविरतो हि सः ॥१३॥ * उद्दिष्टविरतो द्वेधा स्यादाद्यो वस्त्रखण्डभाक् । संमूर्ध्वजानां वपनं कर्त्तनं चैव कारयेत् ॥१८॥ गच्छेचाकारितो भोक्त कुर्यातद्भिक्षां यथाशनम् । पाणिपात्रेऽन्यपाने वा भजेद्भुक्तिं निविष्टवान् ॥१८५॥ भुक्त्वा प्रक्षाल्य पादं (घ) च गत्वा च गुरुसन्निधिम् । चतुर्धानपरित्यागं कृत्वाऽऽलोचनमाश्रयेत् ॥१८६॥-गुण० श्रा० Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वसुनन्दि-श्रावकाचार चतुर्विध आहारको त्यागकर उपवास नियमसे करता है ॥ ३०३ ॥ पात्रको प्रक्षालन करके चर्याके लिए श्रावकके घरमें प्रवेश करता है और आगनमें ठहरकर 'धर्म-लाभ' कहकर स्वयं ही भिक्षा मांगता है ॥३०४॥ भिक्षा-लाभके अलाभमें अर्थात् भिक्षा न मिलनेपर, अदीनमख हो वहांसे शीघ्र निकलकर दूसरे घरमे जाता है और मौनसे अपने शरीरको दिखलाता है ॥ ३०५ ॥ यदि अर्ध-पथमे, अर्थात् मार्गके बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घरसे प्राप्त अपनी भिक्षाको खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावकके अन्नको खावे ॥ ३०६ ॥ यदि कोई भोजनके लिए न कहे, तो अपने पेटके पूरण करनेके प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य अन्य श्रावकोंके घर जावे । आवश्यक भिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात् किसी एक घरमें जाकर प्रासुक जल मांगे ॥ ३०७ ॥ जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्नके साथ अपने पात्रको प्रक्षालनकर गुरुके पासमें जावे ॥ ३०८ ॥ यदि किसीको उक्त विधिसे गोचरी करना न रुचे, तो वह मुनियोंके गोचरी कर जानेके पश्चात् चर्याके लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षाके नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्याके लिए किसी श्रावक जनके घरमें जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले, तो उसे प्रवृत्ति-नियमन करना चाहिए, अर्थात फिर किसीके घर न जाकर उपवास का नियम कर लेना चाहिए ॥ ३०९॥ पश्चात् गरुके समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध (आहारके त्यागरूप) प्रत्याख्यान ग्रहण कर पुनः प्रयत्नके साथ सर्वदोषोंकी आलोचना करे ॥ ३१०॥ एमेव होइ बिइयो णवरिबिसेसो कुणिज्ज शियमेणा । लोचं धरिज पिच्छं भुजिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥३११॥(1) इस प्रकार ही अर्थात् प्रथम उत्कृष्ट श्रावकके समान ही द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है, केवल विशेषता यह है कि उसे नियमसे केशोंका लोंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्रमें खाना चाहिए ॥३११॥ दियापडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु माथि अहियारो। सिद्धत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदायां ॥३१२॥(२) दिनमें प्रतिमायोग धारण करना अर्थात नग्न होकर दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मुनिके समान गोचरी करना, त्रिकाल योग अर्थात् गर्मी में पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, और सर्दीमें नदीके किनारे ध्यान करना, सिद्धान्त-ग्रन्थोंका अर्थात् केवली, श्रुतकेवली-कथित गणधर, प्रत्येकबुद्ध और अभिन्नदशपूर्वी साधुओंसे निर्मित ग्रन्थोंका अध्ययन और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, इतने कार्योंमें देशविरती श्रावकोंका अधिकार नहीं है ॥ ३१२ ॥ उद्दिवपिंडविरो दुवियप्पो सावो समासेण । एयारसम्मि ठाणे भणिो सुत्ताणुसारेण ॥३१३॥ १ प. ब. विरयाणं। (१) द्वितीयोऽपि भवेदेवं स तु कौपीनमात्रवान् । कुल्लोचं धरेपिच्छं पाणिपात्रेऽशनं भजेत् ॥१७॥ (२) वीरचर्या-दिनच्छाया सिद्धान्ते नियसंश्रुतौ । त्रैकालिके योऽवयोगेऽस्य विद्यते नाधिकारिता ॥१८॥ -गुण० श्राव Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-वर्णन ११३ ग्यारहवें प्रतिमास्थानमें उपासकाध्ययन-सुत्रके अनुसार संक्षेपसे मैने उद्दिष्ट आहारके त्यागी दोनों प्रकारके श्रावकोंका वर्णन किया ॥ ३१३ ॥ रात्रिभोजनदोष-वर्णन एयारसेसु पढमं वि' जदो णिसिभोयणं कुणंतस्स । ठायां या ठाई तम्हा णिसिभुत्तिं परिहरे णियमा ॥३१॥ चूंकि, रात्रिको भोजन करनेवाले मनुष्यके ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे पहली भी प्रतिमा नही ठहरती है, इसलिए नियमसें रात्रिभोजनका परिहार करना चाहिए ॥ ३१४ ॥ चम्महि-कीड-उंदुर-भुयंग-केसाइ असणमज्झम्मि । पडियं ण किं पि पस्सइ भुंजइ सव्यं पि णिसिसमये ॥३१५॥ भोजनके मध्य गिरा हुआ चर्म, अस्थि, कीट-पतंग, सर्प और केश आदि रात्रिके समय कुछ भी नहीं दिखाई देता है, और इसलिए रात्रिभोजी पुरुष सबको खा जाता है ॥ ३१५ ॥ दीउज्जोयं जइ कुणइ तह वि चउरिदिया अपरिमाणा । णिवडंति दिहिराएण मोहिया असणमज्झम्मि ॥३६॥ यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिरागसे मोहित होकर भोजनके मध्यमें गिरते हैं ॥ ३१६ ॥ इयएरिसमाहारं भुजतो आदणासमिह लोए। पाउणइ परभवम्मि चउगइ संसारदुक्खाई॥३१७॥ इस प्रकारके कीट-पतंगयुक्त आहारको खानेवाला पुरुष इस लोकमें अपनी आत्माका या अपने आपका नाश करता है, और परभवमें चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंको पाता है ॥ ३१७॥ एवं बहुप्पयारे दोस णिसिभोयणम्मि णाऊण । तिविहेण राइभुत्ती परिहरियव्वा हवे तम्हा ॥३१॥ इस प्रकार रात्रिभोजनमें बहुत प्रकारके दोष जानकरके मन, वचन, कायसे रात्रि भोजनका परिहार करना चाहिए ॥ ३१८॥ श्रावकके अन्य कर्तव्य विणो विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं । सत्तीए जहजोगं कायर्व देसविरएहिं ॥३१९॥(6) देशविरत श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्त्य, कायक्लेश और पूजन-विधान करना चाहिए ॥ ३१९ ॥ विनयका वर्णन दसण-णाण'चरित्ते तव उवयारम्मि पंचहा विणश्रो । पंचमगइगमणथं कायम्वो देसविरएण ॥३२०॥(२) १ ब. पि । २ ब. वाइ। ३ ब. दुदुर । ध. दुंदुर । ४ ध, प्पयारे । ५ ध. दोसे । ६ ध. गमणत्थे। (१) विनयः स्याद्वैयावृत्त्यं कायक्लेशस्तथार्चना । कर्तव्या देशविरतेयथाशक्तिं यथागमम् ॥१९०॥ (२) दर्शनज्ञानचारित्रैस्तपसाऽप्युपचारतः। विनयः पंचधा स स्यात्समस्तगुणभूषणः ॥१९॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय, और उपचारविनय, यह पाँच प्रकारका विनय पंचमगति गमन अर्थात् मोक्ष-प्राप्तिके लिए श्रावकको करना चाहिए। ३२०।। हिस्संकिय संवेगाइ जे गुणा वरिणया मए' पुवं ।। तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दसणो विणो ॥३२१॥(१) निःशंकित, संवेग आदि जो गुण मैंने पहले वर्णन किये है, उनके परिपालनको दर्शनविनय जानना चाहिए ॥ ३२१॥ णाणे णाणुवयरणे य जाणवंतम्मि तह य भत्तीए। जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणो हु॥३२२॥(२) ज्ञानमे, ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदिकमें, तथा ज्ञानवंत पुरुषमें भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञानविनय है ॥ ३२२ ।। पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य वरिणया तस्स । जं तेसि बहुमाणं वियाण चारित्तविणश्रो सो ॥३२३॥ परमागममें पांच प्रकारका चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारण करनेवाले वर्णन किये गये हैं, उनके आदर-सत्कारको चारित्रविनय जानना चाहिए ॥ ३२३ ॥ बालो यं बुड्डो यं संकप्पं वजिजऊण तवसीण। जं पणिवायं कोरइ तवविणयं तं वियाणीहि ॥३२४॥(३) यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकारका संकल्प छोड़कर तपस्वी जनोंका जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना चाहिए ॥ ३२४ ॥ उवयारिओ वि विणो मण-वचि-काएण होइ तिवियप्पो। . सो पुण दुविहो भणियो पञ्चक्ख-परोक्खभेएण ॥३२५॥(४) औपचारिक विनय भी मन, वचन, कायके भेदसे तीन प्रकारकी होती है और वह तीनों प्रकारका विनय प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है ॥ ३२५ ॥ जं दुष्परिणामामो मण' णियत्ताविऊण सुहजोए । ठाविज्जइ सो विणो जिणेहि माणस्सिो भणिो ॥३२६॥(५) जो मनको खोटे परिणामोंसे हटाकर शुभयोगमें स्थापन किया जाता है अर्थात् लगाया जाता है, उसे जिन भगवान्ने मानसिक विनय कहा है ॥ ३२६ ॥ हिय-मिय पुज्ज' सुत्ताणुवीचि अफरसमकक्कसं वयणं । संजयिजणम्मि जं चाडुभासणं वाचिनो वीणो ॥३२७॥(६) इ. मया । २ म. तवस्सीणं । ३ भ. प. वियाणेहिं । ४ ध, पुज्जा । (१) निःशंकित्वादयः पूर्व ये गुणा वर्णिता मया । यत्तेषां पालनं स स्याद्विनयो दर्शनात्मकः ॥११२॥ (२) ज्ञाने ज्ञानोपचारे च.................... (३) यहाँका पाठ मुद्रित प्रतिमें नहीं है और उसकी आदर्शभूत पंचायती मन्दिर देहलीकी हस्तलिखित प्रतिमें भी पत्र टूट जानेसे पाठ उपलब्ध नहीं है। "संपादक । () मनोवाक्काय भेदेन........" . प्रत्यक्षेतरभेदेन सापि स्याद्विविधा पुनः । (५) दुर्ध्यानात्समाकृष्य शुभध्यानेन धार्यते । मानसं त्वनिशं प्रोक्तो मानसो विनयो हि सः॥१९७॥ ६) वचो हितं मितं पूज्यमनुवीचिवचोऽपि च । यद्यतिमनुवर्तेत वाचिको विनयोऽस्तु सः॥१९॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-वर्णन ११५ हित, मित, पूज्य, शास्त्रानुकुल तथा हृदयपर चोट नही करनेवाले कोमल वचन कहना और संयमी जनोंमें चाटु (नर्म) भाषण करना सो वाचिक विनय है ॥ ३२७ ॥ किरियम्मभुट्ठाणं णवणंजलि पासणुवकरणदाणं । एते पञ्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुब्वजणं ॥३२८॥(१) कायागुरूवमहणकरण कालाणुरूवपडियरण। संथारभणियकरणं उवयरणाणं च पडिलिहणं ॥३२९॥ इचवमाइ काइयविणो रिसि-सावयाण कायम्वो। जिणवयणमणुगणंतेण देसविरएण जहजोग्गं ॥३३०॥(२) साधु और श्रावकोंका कृतिकर्म अर्थात् वंदना आदि करना, उन्हे देख उठकर खड़े होना, नमस्कार करना, अजली जोड़ना, आसन और उपकरण देना, अपनी तरफ आते देखकर उनके सन्मुख जाना, और जानेपर उनके पीछे पीछे चलना, उनके शरीरके अनुकूल मर्दन करना, समयके अनुसार अनुकरण या आचरण करना, संस्तर आदि करना, उनके उपकरणोंका प्रतिलेखन करना, इत्यादिक कायिक विनय है। यह कायिक विनय जिनवचनका अनुकरण करनेवाले देशविरती श्रावकको यथायोग्य करना चाहिए ॥ ३२८-३३० ॥ इय पञ्चक्खो एसो भणिो गुरुणा विणा वि आणाए। अणुवहिज्जए जंतं परोक्खविणो ति विएणेश्रो ॥३१॥(३) इस प्रकारसे यह तीनों प्रकारका प्रत्यक्ष विनय कहा । गुरुके विना अर्थात् गुरुजनोंके नही होनेपर भी उनकी आज्ञाके अनुसार मन, वचन, कायसे जो अनुवर्तन किया जाता है, वह परोक्ष-विनय है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ३३१॥ विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंसमो पुरिसो। सब्वस्थ हवइ सुहयो तहेव आदिज्जक्यणो य ॥३३२॥(४) विनयसे पुरुष शशांक (चन्द्रमा) के समान उज्ज्वल यशःसमूहसे दिगन्तको धवलित करता है। विनयसे वह सर्वत्र सुभग अर्थात् सब जगह सबका प्रिय होता है और तथैव आदेयवचन होता है, अर्थात् उसके वचन सब जगह आदरपूर्वक ग्रहण किये जाते हैं ॥ ३३२॥ जे केइ वि उवएसा इह-परलोए सुहावहा संति । विणएण गुरुजणाणं सब्वे पाउणइ ते पुरिसा ॥३३३॥(५) जो कोई भी उपदेश इस लोक और परलोकमें जीवोंको सुखके देनेवाले होते है, उन सबको मनुष्य गुरुजनोंकी विनयसे प्राप्त करते है ।। ३३३ ॥ देविंद-चकहर-मंडलीयरायाइज सुहं लोए । सं सव्वं विणयफल शिवाणसुहं तहा' चेव ॥३३॥ १ प्रतिषु 'गुरुजणाओ' इति पाठः । २ प. तहच्चेव । (१) गुरुस्तुतिक्रियायुक्ता नमनोच्चासनार्पणम् । सम्मुखो गमनं चैव तथा वाऽनुव्रजक्रिया ॥१९९॥ (२) अंगसंवाहनं योग्यप्रतीकारादिनिर्मितिः। विधीयते यतीनां यत्कायिको विनयो हि सः ॥२०॥ (३) प्रत्यक्षोऽप्ययमेतस्य परोक्षस्तु विनापि वा। गुरूंस्तदाज्ञयैव स्यात्प्रवृत्तिः धर्मकर्मसु ॥२०१॥ (४) शशांकनिर्मला कीर्तिः सौभाग्यं भाग्यमेव च । श्रादेयवचनत्वं च भवेद्विनयतः सताम् ॥२०२॥ (५) विनयेन समं किंचित्रास्ति मित्रं जगाये। यस्मात्तेनैव विद्यानां रहस्यमुपलभ्यते ॥२०॥-गुण० श्राव० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . संसारमे देवेन्द्र, चक्रवर्ती, और मांडलिक राजा आदिके जो सुख प्राप्त हैं, वह सब विनयका ही फल है। और इसी प्रकार मोक्षका सुख पाना भी विनयका ही फल है ॥ ३३४ ॥ सामण्णा वि य विजा ण विणयहीणस्स सिद्धिमुवयाइ । किं पुण णिन्वुइविज्जा विणयविहीणस्स सिझेइ ॥३३५॥ जब साधारण विद्या भी विनय-रहित पुरुषके सिद्धिको प्राप्त नही होती है, तो फिर क्या मुक्तिको प्राप्त करानेवाली विद्या विनय-विहीन पुरुषके सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं सिद्ध हो सकती ॥ ३३५ ॥ सत्तू वि मित्तभागं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणो तिविहेण तो कायचो देसविरएण ॥३३६॥(१) चूंकि, विनयशील मनुष्यका शत्रु भी मित्रभावको प्राप्त हो जाता है, इसलिए श्रावकको मन, वचन, कायसे विनय करना चाहिए ॥ ३३६ ॥ वैयारत्यका वर्णन अइबाल-बुड्ड-रोगाभिभूय-तणुकिलेससत्ताणं । चाउवण्णे संघे जहजोग्गं तह मणुएणाणं ॥३३७॥(२) कर-चरण-पिट्ठ-सिरसाणं महण-अभंग-सेवकिरियाहिं । उब्वत्तण-परियाण-पसारणाकुंचणाईहिं ॥३३॥ पडिजग्गणेहि तणुजोय-भत्त-पाणेहिं भेसजेहिं तहा। उच्चराईण विकिंचणेहिं तणुधोवणेहिं च ॥३३९।। संथारसोहणेहि य विजावच्चं सया पयत्तेण । कायचं सत्तीए णिम्विदिगिच्छेण भावेण ॥३४०।। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका, इस चार प्रकारके चतुर्विध संघमें अतिबाल, अतिवृद्ध, रोगसे पीड़ित अथवा अन्य शारीरिक क्लेशसे संयुक्त जीवोंका, तथा मनोज्ञ अर्थात् लोकमें प्रभावशाली साधु या श्रावकोंका यथायोग्य हाथ, पैर, पीठ और शिरका दबाना, तेलमर्दन करना, स्नानादि कराना, अंग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग पसारना, सिकोड़ना, करवट दिलाना, सेवा-शुश्रूषा वा आदि वा समयोचित कार्योके द्वारा, शरीरके योग्य पथ्य अन्न-जल द्वारा, तथा औषधियोंके द्वारा उच्चार (मल) प्रस्रवण (मूत्र) आदिके दूर करनेसे, शरीरके धोनेसे, और संस्तर (बिछौना) के शोधनेसे सदा प्रयत्नपूर्वक ग्लानि-रहित भावसे शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिए ॥ ३३७-३४० ॥ हिस्संकिय-संवेगाइय जे गुणा वरिणया मणो विसया । ते होंति पायडा पुण' विजावचं करंतस्स ॥३४॥ देह-तव-णियम-संजम सील-समाही य अभयदाणं च । गइ मह बलं च दिण्णं विज्जावच्चं करतेण ॥३४२॥(३) १ इ. सिज्मेह, म. सिज्झिहइ, ब. सब्मिहइ । २ इ. पडित्तग्गा०, ब. पडिज्जग्ग० । ३३. मुणे। ४ ध, गुण । (१) विद्वेषिणोऽपि मित्रत्वं प्रयान्ति विनयाद्यतः। तस्मात्त्रेधा विधातव्यो विनयो देशसंयतैः ॥२०॥ ) बालवाक्यरोगादिक्लिष्टे संघे चतुर्विधे । वैयावृत्यं यथाशक्तिविधेग देशसंयतैः ॥२०५॥ ३) वपुस्तपोबलं शीलं गति-बुद्धि-समाधयः । निर्भलं नियमादि स्याद्वैयावृत्त्यकृतार्पणम् ॥२०६॥-गुण० श्रा० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्त्य वर्णन ११७ नि.शंकित आदि और संवेग आदि जो मनोविषयक गुण पहले वर्णन किये गये है, वे सब गुण वैयावृत्त्य करनेवाले जीवके प्रकट होते है ॥३४१॥ वैयावृत्त्यको करनेवाले श्रावकके द्वारा देह, तप, नियम, संयम और शीलका समाधान, अभय दान तथा गति, मति और बल दिया जाता है ॥ ३४२ ॥ भावार्थ--साधु जन या श्रावक आदि जब रोग आदिसे पीड़ित होकर अपने व्रत, संयम आदिके पालनेमे असमर्थ हो जाते है, यहाँ तक कि पीड़ाकी उग्रतासे उनकी गति, मति आदि भी भ्रष्ट होने लगती है और वे मृतप्राय हो जाते है, उस समय सावधानीके साथ की गई वैयावृत्ति उनके लिए संजीविनी वटीका काम करती है, वे मरनेसे बच जाते है, गति, मति यथापूर्व हो जाती है और वे पुनः अपने व्रत, तप संयम आदिकी साधनाके योग्य हो जाते हैं, इसलिए ग्रन्थकारने यह ठीक ही कहा है कि जो वैयावृत्त्य करता है, वह रोगी साधु आदिको अभयदान, व्रत-संयम-समाधान और गति-मति प्रदान करता है, यहाँ तक कि वह जीवन-दान तक देता है और इस प्रकार वैयावृत्त्य करनेवाला सातिशय अक्षय पुण्यका भागी होता है। गुणपरिणामो जायइ जिणिंद-प्राणा य पालिया होइ। जिणसमय-तिलयभूत्रो लब्भइ प्रयतो वि गुणरासी ॥३४३।। भमइ जए जसकित्ती सजणसुइ-हियय-णयण-सुहजणणी। अण्णेवि य होति गुणा विजावञ्चेण इहलोए ॥३४॥(१) वैयावृत्त्य करनेसे गुण-परिणमन होता है, अर्थात् नवीन सद्गुणोंका प्रादुर्भाव और विकास होता है, जिनेन्द्र-आज्ञाका परिपालन होता है, और अयत्न अर्थात प्रयत्नके बिना भी गुणोंका समूह प्राप्त होता है तथा वह जिन-शासनका तिलकभूत प्रभावक व्यक्ति होता है ।। ३४३ ॥ सज्जन पुरुषोंके श्रोत्र, नयन और हृदयको सुख देनेवाली उसकी यश.कीर्ति जगमें फैलती है, तथा अन्य भी बहुतसे गुण वैयावृत्त्यसे इस लोकमे प्राप्त होते है ॥ ३४४ ॥ परलोए वि सरूवो चिराउसो रोय-सोय-परिहीणो। बल-तेय-सत्तजुत्तो जायह अखिलप्पयानो वा ॥३४५॥ जल्लोसहि-सम्वोसहि-अक्खीणमहाणसाइरिद्धीनो । अणिमाइगुणा य तहा विजावच्चेण पाउणइ ॥३४६॥ किं जंपिएण बहुणा तिलोहसंखोहकारयमहंत । तित्थयरणामपुण्णं विजावच्चेण अजेइ ॥३४७॥ वैयावृत्त्यके फलसे परलोकमे भी जीव सुरूपवान्, चिरायुष्क, रोग-शोकसे रहित, बल, तेज और सत्त्वसे युक्त तथा पूर्ण प्रतापी होता है ॥ ३४५ ॥ वैयावृत्त्यसे जल्लौषधि, सर्वोषधि, और अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, तथा अणिमा आदि अष्ट गुण प्राप्त होते है ॥३४६॥ अधिक कहनेसे क्या, वैयावृत्त्य करनेसे यह जीव तीन लोकमे संक्षोभ अर्थात् हर्ष और आश्चर्य को करनेवाला महान् तीर्थङ्कर नामका पुण्य उपार्जन करता है ॥ ३४७ ॥ तरुणियण-णयण-मणहारिरूव-बल-तेय-सत्तसंपण्णो । जाओ विजावचं पुब्वं काऊण वसुदेवो ॥३८॥ जीव पूर्वभवमें वैयावृत्त्य कर तरुणीजनोंके नयन और मनको हरण करने वाले रूप, बल, तेज और सत्त्वसे सम्पन्न वसुदेव नामका कामदेव हुआ ॥ ३४८ ॥ (१) वैयावृत्यकृतः किञ्चिदुर्लभं न जगज्ये । विद्या कीर्ति यशोलक्ष्मीः धीः सौभाग्यगुणेष्वपि ॥२०७॥-गुण श्रा० Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १ वसुनन्दि-श्रावकाचार वारवईए' विजाविञ्च किच्चा असंजदेणावि । तित्थयरणामपुरणं समजियं वासुदेवेण ॥३४९॥ द्वारावतीमें व्रत-संयमसे रहित असयत भी वासुदेव श्रीकृष्णने वैयावृत्त्य करके तीर्थकर नामक पुण्यप्रकृतिका उपार्जन किया ॥ ३४९ ॥ एवं णाऊण फलं विजावच्चस्स परमभत्तीए । णिच्छयजुत्तेण सया कायव्वं देसविरएण ॥३५०॥ इस प्रकार वैयावृत्त्यके फलको जानकर दढ निश्चय होकर परम भक्तिके साथ श्रावक को सदा वैयावृत्त्य करना चाहिए ॥ ३५० ।। कायक्लेशका वर्णन आयंबिल णिम्वियडी एयहाणं छठमाइखवणेहिं । जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयन्वो ॥३५१॥(१) आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, (एकाशन) चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास, षष्ठ भक्त अर्थात् वेला, अष्टमभक्त अर्थात् तेला आदिके द्वारा जो शरीरको कृश किया जाता है, उसे कायक्लेश जानना चाहिए ।। ३५१ ॥ मेहाविणरा एएण चेव बुज्झति बुद्धिविहवेण । ण य मंदबुद्धिणो तेण किं पि वोच्छामि सविसेसं ॥३५२॥ बुद्धिमान् मनुष्य तो इस सक्षिप्त कथनसे ही अपनी बुद्धिके वैभव द्वारा कायक्लेशके विस्तृत स्वरूपको समझ जाते है। किन्तु मन्दबुद्धि जन नही समझ पाते है, इसलिए कायक्लेश का कुछ विस्तृत स्वरूप कहूँगा ॥ ३५२ ॥ पंचमी व्रतका वर्णन आसाढ कत्तिए फरगुणे य सियपंचमीए गुरुमूले । गहिऊण विहिं विहिणा पुवं काऊण जिणपूजा ॥३५३॥ पडिमासमेक्कखमणेण जाव वासाणि पंच मासा य। अविच्छिण्णा' कायव्वा मुत्तिसुहं जायमाणेण ॥३५४॥ आषाढ़, कार्तिक या फाल्गुन मासमें शुक्ला पचमीके दिन पहले जिन-पूजनको करके पुनः गुरुके पाद-मूलमें विधिपूर्वक विधिको ग्रहण करके, अर्थात् उपवासका नियम लेकर, प्रतिमास एक क्षमणके द्वारा अर्थात् एक उपवास करके पाँच वर्ष और पाँच मास तक मुक्ति-सुखको चाहनेवाले श्रावकोंको अविच्छिन्न अर्थात् विना किसी नागाके लगातार यह पंचमीव्रत करना चाहिए ॥ ३५३-३५४ ।। अवसाणे पंच घडाविऊण पडिमानो जिणवरिंदाणं । तह पंच पोत्थयाणि य लिहाविऊणं ससत्तीए ॥३५५॥ तेसिं पइट्टयाले जं किं पि पइट्टजोग्गमुवयरणं । तं सव्वं कायव्वं पत्तेयं पंच पंच संखाए ॥३५६॥ व्रत पूर्ण हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान्की पांच प्रतिमाएँ बनवाकर, तथा पाँच पोथियों (शास्त्रों) को लिखाकर अपनी शक्तिके अनुसार उनकी प्रतिष्ठाके लिए जो कुछ भी प्रतिष्ठा १द्वारावत्याम् । २ ब. बुब्भंति । ध, जुज्झति । ३ प. पुज्जा। ध, अविछिण्णा । (१) प्राचाम्लं निर्विकृत्यैक भक्त-षष्टाष्टमादिकम् । यथाशक्तिव क्रियेत कायक्वशः स उच्यते ॥२०॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा-विधान रंगावलिं च मज्झे उविज सियवत्थपरिवुडं पीठं । उचिदेसु तह पइट्ठोवयरणदव्वं च ठाणेसु ॥४०६॥ प्रतिष्ठा-मंडपमें जाकर तत्रस्थ पूर्वोक्त वेदिकाके मध्यमें पंच वर्णवाले चूर्णके द्वारा प्रतिष्ठाकलापकी विधिसे पृथु अर्थात् विशाल कणिकावाले नील कमलको लिखे और उसमे रंगावलिको भरकर उसके मध्यमें श्वेत वस्त्रसे परिवत पीठ अर्थात सिंहासन या ठौनाको स्थापित कर तथा प्रतिष्ठामे आवश्यक उपकरण द्रव्य उचित स्थानोंपर रखे ॥ ४०५-४०६ ॥ एवं काऊण तो ईसाणदिसाए वेइयं दिव्वं ।। रहऊण राहवणपीठं तिस्से मज्झम्मि ठावेजो ॥४०७॥ अरुहाईणं पडिमं विहिणा संठाविऊण तस्सुवरि । धूलीकलसहिसेयं कराविए सुत्तहारेण ॥४०८॥ वस्थादियसम्माणं कायन्वं होदि तस्स सत्तीए । पोक्खणविहिं च मंगलरवेण कुज्जा तो कमसो॥४०९।। इस प्रकार उपर्युक्त कार्य करके पुनः ईशान दिशामें एक दिव्य वेदिका रचकर, उसके मध्यमें एक स्नान-पीठ अर्थात् अभिषेकार्थ सिहासन या चौकी वगैरहको स्थापित करे । और उसके ऊपर विधिपूर्वक अरहंत आदिकी प्रतिमाको स्थापित कर सूत्रधार अर्थात् प्रतिमा बनानेवाले कारीगरके द्वारा धूलीकलशाभिषेक करावे। तत्पश्चात् उस सूत्रधारका अपनी शक्तिके अनुसार वस्त्रादिकसे सन्मान करना चाहिए। तत्पश्चात् क्रमशः प्रोक्षणविधिको मांगलिक वचन गीतादिसे करे। (धूलीकलशाभिषेक और प्रोक्षणविधिके जाननेके लिए परिशिष्ट देखिए) ॥ ४०७-४०९ ॥ तप्पाप्रोग्गुवयरणं अप्पसमीवं णिविसिऊण तो। आगरसुद्धिं कुजा पइट्टसत्थुत्तमग्गेण ॥४१०॥ तत्पश्चात् आकर-शुद्धिक योग्य उपकरणोंको अपने समीप रखकर प्रतिष्ठाशास्त्रमें कहे हुए मार्गके अनुसार आकर शुद्धिको करे । (आकरशुद्धिके विशेष स्वरूपको जाननेके लिए परिशिष्ट देखिए) ॥ ४१० ॥ एवं काऊण तमो खुहियसमुद्दोव्व गजमाणेहिं । वरभेरि-करड-काल-जय-घंटा-संख-णिवहहिं ॥४११॥ गुलुगुलुगुलंत तविलेहिं कंसतालेहिं झमझमंतेहिं। घुम्मंत पडह-महल' हुडकमुक्खेहिं विविहेहिं ॥४१२।। गिज्जत संधिबंधाइएहिं गेएहिं बहुपयारेहिं । वीणावंसेहिं तहा प्राणयसहेहि रम्मेहिं ॥४१३॥ बहुहाव-भाव-विब्भम-विलास-कर-चरण-तणुधियारेहिं । णच्चंत णवरसुम्भिरण-णाडएहिं विविहेहिं ॥४१४॥ थोत्तेहि मंगलेहि य डाहसएहि महुरवयणस्स। धम्माणुरायरत्तस्स चाउब्वण्णस्स संघस्स ॥४१५॥ भत्तीए पिच्छमाणस्स तो उच्चाइऊण जिणपडिमं । उस्सिय सियायवत्तं सियचामरधुव्वमाण सव्वंग ॥४१६॥ आरोविऊण सीसे काऊण पयाहिणं जिणगेहस्स । विहिणा उविज्ज पुवुत्तवेइयामझपीठम्मि ॥४१७॥ १ब, मंहल। २ इ. गएहि, ब. गोएहिं । ३ ब. उम्भिय । ४ इ. दोलिमाण । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वसुनन्दि-श्रावकाचार चिट्ठज्ज जिणगुणारोवणं कुणंतो जिणिंदपडिबिंवे । इढविलग्गस्सुदए चंदणतिलयं तो दिज्जा ॥४१८॥ सवावयवेसु पुणो मंतण्णासं कुणिज्ज पडिमाए । विविहच्चणं च कुज्जा कुसुमेहिं बहुप्पयारेहिं ॥४१६॥ दाऊण मुहपडं धवलवत्थजुयलेण मयणफलसहियं । अक्खय-चरु-दीवेहि य धूवेहिं फलेहिं विविहेहिं ॥४२०॥ बलिवत्तिएहिं जावारएहि य सिद्धत्थपण्णरुक्खेहिं । पुव्वुत्तुवयरणेहि य' रएज्ज पुज्ज सविहवेण ॥४२१॥ इस प्रकार आकरशुद्धि करके पुनः क्षोभित हुए समुद्रके समान गर्जना करते हुए उत्तमोत्तम भेरी, करड, काहल, जयजयकार शब्द, घटा और शखोंके समूहोंसे, गुल-गुल शब्द करते हुए तबलोंसे, झम-झम शब्द करते हुए कसतालोंसे, घुम-घुम शब्द करते हुए नाना प्रकारके ढोल, मृदंग, हुड़ क्क आदि मुख्य-मुख्य बाजोंसे, सुर-आलाप करते हुए सधिबधादिकोंसे अर्थात् सारंगी आदिसे, और नाना प्रकारके गीतोंसे, सुरम्य वीणा, बाँसुरीसे तथा सुन्दर आणक अर्थात् वाद्यविशेषके शब्दोंसे नाना प्रकारके हाव, भाव, विभ्रम, विलास तथा हाथ, पैर और शरीरके विकारोंसे अर्थात् विविध नृत्योंसे नाचते हुए नौ रसोंको प्रकट करनेवाले नाना नाटकोंसे, स्तोत्रोंसे, मांगलिक शब्दोंसे, तथा उत्साह-शतोसे अर्थात् परम उत्साहके साथ मधुरभाषी, धर्मानुराग-रक्त और भक्तिसे उत्सवको देखनवाले चातुर्वर्ण सघके सामने, जिसके ऊपर श्वेत आतपत्र (छत्र ) तना है, और श्वेत चामरोके ढोरनेसे व्याप्त है सर्व अंग जिसका, ऐसी जिनप्रतिमाको वह प्रतिष्ठाचार्य अपने मस्तकपर रखकर और जिनेन्द्रगृहकी प्रदक्षिणा करके, पूर्वोक्त वेदिकाके मध्य-स्थित सिहासनपर विधिपूर्वक प्रतिमाको स्थापित कर, जिनेन्द्र-प्रतिबिम्बमे अर्थात् जिन-प्रतिमामे जिन-भगवान्के गुणोंका आरोपण करता हुआ, पुनः इष्ट लग्नके उदयमें अर्थात् शुभ मुहूर्तमें प्रतिमाके चन्दनका तिलक लगावे । पुनः प्रतिमाके सर्व अंगोपांगोंमें मत्रन्यास करे और विविध प्रकारके पुष्पोंसे नाना पूजनोको करे। तत्पश्चात् मदनफल (मैनफल या मैनार) सहित धवल वस्त्र-युगलसे प्रतिमाके मुखपट देकर अर्थात् वस्त्रसे मुखको आवृत कर, अक्षत, चरु, दीपसे, विविध धूप और फलोंसे, बलि-वत्तिकोंसे अर्थात् पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियोंसे जावारकोंसे, सिद्धार्थ (सरसों) और पर्ण वृक्षोंसे तथा पूर्वोक्त उपकरणोंसे पूर्ण वैभवके साथ या अपनी शक्तिके अनुसार पूजा रचे ॥४११-४२१॥ रत्तिं जग्गिज्ज' पुणो तिसट्टि सलायपुरिससुकहाहि । सघेण समं पुज्ज पुणो वि कुजा पहायम्मि ॥४२२॥ पुनः संघके साथ तिरेसठ शलाका पुरुषोंकी सुकथालापोंसे रात्रिको जगे अर्थात् रात्रिजागरण करे और फिर प्रातःकाल संघके साथ पूजन करे ॥४२२। एवं चत्तारि दिणाणि जाव कुज्जा तिसंझ जिणपूजा । ___ *नेत्तुम्मोलणपुज्जं चउत्थण्हवणं तो कुजा ॥४२३॥ इस प्रकार चार दिन तक तीनों संध्याओंमें जिन-पूजन करे। तत्पश्चात् नेत्रोन्मीलन पूजन और चतुर्थ अभिषेक करे ॥४२३॥ म. जुवारेहि । २ध, प. परए। ३ ब. ब. जग्गेज्ज । प. जगोज, ४ ब. तेसटाठि । विदध्यात्तेन गन्धेन चामीकरशलाकया। चक्षुरुन्मीलनं शक्रः पूरकेन शुभोदये ॥४१॥-वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा-विधान एवं गहवण काऊण सत्थमग्गेण संघमज्झम्मि । तो वक्खमाणविहिणा जिणपयपूया य कायव्वा ॥४२॥ इस प्रकार शास्त्रके अनुसार सघके मध्यमे जिनाभिषेक करके आगे कही जानेवाली विधिसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोकी पूजा करना चाहिए ॥४२४॥ गहिऊण सिसिरकर-किरण-णियर-धवलयर-रययभिंगारं । मोतिय-पवाल-मरगय-सुवगण-मणि खचिय'वरकंठं ॥४२५॥ सयवत्त-कुसुम कुवलय-रजपिंजर-सुरहि-विमल-जलभरियं । जिणचरण-कमलपुरो खिविजि ओ तिरिण धाराश्रो ॥४२६॥ मोती, प्रवाल, मरकत, सुवर्ण और मणियोंसे जटित श्रेष्ठ कण्ठवाले, शतपत्र (रक्त कमल) कुसुम, और कुवलय (नील कमल) के परागसे पिजरित एवं सुरभित विमल जलसे भरे हुए शिशिरकर (चन्द्रमा) की किरणोंके समूहसे भी अति धवल रजत (चांदी) के भृङ्गार (झारी) को लेकर जिनभगवान्के चरण-कमलोंके सामने तीन धाराएँ छोड़ना चाहिए। ॥ ४२५-४२६ ॥ कप्पूर-कुंकुमायरु-तुरुक्कमीसेण चंदणरसेण ।। वरवहलपरिमलामोयवासियासासमूहेण ।।४२७॥ वासाणुमग्गसंपत्तमुइयमत्तालिरावमुहलेण । सुरमउडधिट्ठचलणं' भत्तीए समलहिज जिणं ॥४२॥ कपूर, कुंकूम, अगर, तगरसे मिश्रित, सर्वश्रेष्ठ विपूल परिमल (सगन्ध ) के आमोदसे आशासमूह अर्थात् दशों दिशाओंको आवासित करनेवाले और सुगन्धिके मार्गके अनुकरणसे आये हुए प्रमुदित एवं मत्त भूमरोंके शब्दोंसे मुखरित, चंदनरसके द्वारा, (निरन्तर नमस्कार किये जानेके कारण) सुरोंके मुकुटोंसे जिनके चरण घिस गये हैं, ऐसे श्रीजिनेन्द्रको भक्तिसे विलेपन करे ॥४२७-४२८॥ ससिकंतखंडविमलेहिं विमलजलसित्त अईसुयंधेहिं । जिणपडिमपट्टयज्जियविसुद्धपुण्णंकुरेहिं व ॥४२६॥ वर कलम-सालितंडुलचएहिं सुषंडिय' दोहसयलेहिं । मणुय-सुरासुरमहियं पुजिज जिणिंदपयजुयलं ॥४३०॥ __ चन्द्रकान्तमणिके खंड समान निर्मल, तथा विमल (स्वच्छ) जलसे धोये हुए और अतिसुगंधित, मानों जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठासे उपार्जन किये गये हों, ऐसे अखड और लंबे उत्तम कलमी और शालिधान्यसे उत्पन्न तन्दुलोंके समूहसे, मनुष्य सुर और असुरोंके द्वारा पूजित श्रीजिनेन्द्रके चरण-युगलको पूजे ॥४२९-४३०॥ मालइ-कर्यब-कणयारि-चंपयासोय-बउल-तिलएहिं । मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहिं ॥४३॥ कणवीर-मल्लियाहिं कचणार-मचकुंद-किंकराएहिं । सुरवणज जूहिया-पारिजातय -जासवण-टगरेहिं ॥४३२॥ सोवण्ण-रुप्पि-मेहिय-मुत्तादामेहिं बहुवियप्पेहिं । जिणपय-पंकयजुयलं पुजिज सुरिंदसयमहियं ॥४३३॥ अट कुर ही १ ब. खविय । २ ध. प. कमल । ३ म. चरणं। ४ म. मिउ । ५ ब. सुछडिय। ६ध, प. मल्लिया। ७ म. ब. ध. प. सुरपुण्ण । ८ध,प, पारियाय । ९ ब, सेहिय । (निवृत्त इत्यर्थ) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ वसुनन्दि-श्रावकाचार ___ . मालती, कदम्ब, कर्णकार (कनर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलक, मन्दार, नागचम्पक, पद्म (लाल कमल), उत्पल (नीलकमल), सिदुवार (वृक्षविशेष या निर्गुण्डी), कर्णवीर (कर्नेर) मल्लिका, कचनार, मचकुन्द, किंकरात (अशोक वृक्ष), देवोंके नन्दनवनमे उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम, और तगर (आदि उत्तम वृक्षोंसे उत्पन्न) पुष्पोंसे, तथा सुवर्ण, चांदीसे निर्मित फूलोंसे और नाना प्रकारके मुक्ताफलोकी मालाओंके द्वारा, सौ जातिके इन्द्रोंसे पूजित जिनेन्द्रके पद-पकज-युगलको पूजे ॥४३१-४३३॥ दहि-दुख-सप्पिमिस्सेहिं कलमभत्तेहिं बहुप्पयारेहिं । तेवहि-विजणेहिं य बहुविहपक्कएणभेएहिं ॥४३॥ रुप्पय-सुवरण-कंसाइथालिणिहिएहिं विविहभक्खेहिं । पुज्जं वित्थारिज्जो भत्तीए जिणिंदपयपुरो ॥४३५॥ चांदी, सोना और कांसे आदिकी थालियोंमें रखे हुए दही, दूध और घीसे मिले हुए नाना प्रकारके चांवलोंके भातसे, तिरेसठ प्रकारके व्यंजनोंसे, तथा नाना प्रकारकी जातिवाले पकवानोंसे और विविध भक्ष्य पदार्थोसे भक्तिके साथ जिनेन्द्र-चरणोंके सामने पूजाको विस्तारे अर्थात् नैवेद्यसे पूजन करे ॥४३४-४३५॥ दीवेहि णियपहोहामियक'तेएहि धूमरहिएहिं । मंदं चलमंदाणिलवसेण गच्चंत अञ्चीहिं ॥४३६।। घणपडलकम्मणिवहब्व दूर मवसारियंधयारेहिं । जिणचरणकमलपुरो कुणिज्ज रयणं सुभत्तीए ॥३७॥ अपने प्रभासमूहसे अमित (अगणित) सूर्योके समान तेजवाले, अथवा अपने प्रभापुञ्जसे सूर्यके तेजको भी तिरस्कृत या निराकृत करनेवाले, धूम-रहित, तथा धीरे-धीरे चलती हई मन्द वायुके वशसे नाचती हुई शिखाओंवाले, और मेघ-पटलरूप कर्म-समूहके समान दूर भगाया है अंधकारको जिन्होंने, ऐसे दीपकोंसे परमभक्तिके साथ जिन-चरण-कमलोंके आगे पूजनकी रचना करे, अर्थात् दीपसे पूजन करे ॥४३६-४३७।। कालायरु-णह-चंदह-कप्पूर-सिल्हारसाइदब्वेहिं'। णिप्पणधूमवत्तीहिं परिमलायत्तियालीहिं ॥४३८।। उग्गसिहादेसियसग्ग-मोक्खमग्गेहि बहलधूमेहिं । धूविज्ज जिणिंदपयारविंदजुयलं सुरिंदणुयं ॥३९॥ कालागुरु, अम्बर, चन्द्रक, कपूर, शिलारस (शिलाजीत) आदि सुगंधित द्रव्योंसे बनी हुई, जिसकी सुगन्धसे लुब्ध होकर भूमर आ रहे हैं, तथा जिसकी ऊँची शिखा मानों स्वर्ग और मोक्षका मार्ग ही दिखा रही है, और जिसमेंसे बहुतसा धुआँ निकल रहा है, ऐसी धूपकी बत्तियोंसे देवेन्द्रोंसे पूजित श्री जिनेन्द्रके पादारविद-युगलको धूपित करे, अर्थात् उक्त प्रकारकी धूपसे पूजन करे ॥४३८-४३९॥ जंबीर-मोच-दाडिम-कविथ-पणस-णालिएरेहिं । हिंताल-ताल-खज्जूर-णिबु-नारंग-चारेहिं ॥१०॥ पूईफल-तिंदु-आमलय-जंबु-विल्लाइसुरहिमिटेहिं । जिणपयपुरो रमणं फलेहि कुज्जा सुपक्केहिं ॥४४॥ निराकृत इत्यर्थः। २ प. ब. ध, मुवसा०।३२. ब. तुरुक्क । १ . ब. दिव्वेहिं । ५प. वत्ताहिं। ६ इ. पंति०, श. यदि, ब, यड्डि०। ७ब. कपिह। ८ श.वारेहि । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा-विधान १२९ जंबीर (नीबू विशेष), मोच (केला), दाडिम (अनार), कपित्थ (कवीट या कैया), पनस, नारियल, हिताल, ताल, खजर, निम्ब, नारंगी, अचार (चिरोंजी), पूगीफल (सुपारी), तेन्दु, आँवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकारके सुगंधित, मिष्ट और सुपक्व फलोंसे जिन-चरणोंके आगे रचना करे अर्थात् पूजन करे। ॥४४०-४४१॥ अट्टविहमंगलाणि य बहुविहपूजोवयरणदग्वाणि । धूवदहणाइतहा जिणपूयथं वितीरिज्जा ।।४४२॥ आठ प्रकारके मंगल-द्रव्य, और अनेक प्रकारके पूजाके उपकरण द्रव्य, तथा धूप-दहन (धूपायन) आदि जिन-पूजनके लिए वितरण करे ॥४४५।। एवं चलपडिमाए ठवणा भणिया थिराए एमेव । णवरिविसेसो आगरसुद्धिं कुज्जा सुठाणम्मि ॥४४३॥ चित्तपडिलेवपडिमाए दप्पणं दाविऊण पडिबिंबे। तिलयं दाऊण तो मुहवत्थं दिज्ज पडिमाए ॥४४४॥ आगरसुद्धिं च करेज्ज दप्पणे अह व अण्णपडिमाए । एत्तियमेतविसेसो सेसविही जाण पुव्वं व॥४४५॥ इस प्रकार चलप्रतिमाकी स्थापना कही गई है, स्थिर या अचल प्रतिमाकी स्थापना भी इसी प्रकार की जाती है। केवल इतनी विशेषता है कि आकरशुद्धि स्वस्थानमे ही करे। (भित्ति या विशाल पाषाण और पर्वत आदिपर) चित्रित अर्थात् उकेरी गई, प्रतिलेपित अर्थात् रंग आदिसे बनाई या छापी गई प्रतिमाका दर्पणमे प्रतिबिम्ब दिखाकर और मस्तकपर तिलक देकर तत्पश्चात् प्रतिमाके मुखवस्त्र देवे । आकरशुद्धि दर्पणमें करे अथवा अन्य प्रतिमामें करे । इतना मात्र ही भेद है, अन्य नहीं। शेषविधि पूर्वके समान ही जानना चाहिए ॥४४३-४४५।। एवं चिरंतणाणं पि कहिमाकडिमाण पडिमाणं । जं कीरइ बहुमार्ण ठवणापुज्ज हितं जाण ॥४४६॥ इसी प्रकार चिरन्तन अर्थात् अत्यन्त पुरातन कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओंका भी जो बहुत सम्मान किया जाता है, अर्थात् पुरानी प्रतिमाओंका जीर्णोद्धार, अविनय आदिसे रक्षण, मेला, उत्सव आदि किया जाता है, वह सब स्थापना पूजा जानना चाहिए ॥४४६॥ जे पुन्वसमुट्ठिा ठवणापूयाए पंच अहियारा। चत्तारि तेसु भणिया अवसाणे पंचमं भणिमो ॥४४७॥ . स्थापना-पूजाके जो पांच अधिकार पहले (गाथा नं० ३८९ में) कहे थे, उनमेसे आदि के चार अधिकार तो कह दिये गये है, अवशिष्ट एक पूजाफल नामका जो पंचम अधिकार है, उसे इस पूजन अधिकारके अन्तमे कहेगे ॥४४७॥ द्रव्य-पूजा दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दवपूजा सा। दब्वेण गंध-सलिलाइपुब्वभणिएण कायव्वा ॥४४८॥ जलादि द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यकी जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह द्रव्यसे अर्थात् जल-गंध आदि पूर्व में कहे गये पदार्थ-समूहसे (पूजन-सामग्रीसे) करना चाहिए ॥४४८॥ १ झबभूयाणाईहि। २ म. ब. पूयहूँ। ३ ब बिंबो। जलगंधादिकैव्यैः पूजनं द्रव्यपूजनम् । . द्रव्यस्याप्यथवा पूजा सा तु द्रव्यार्चना मता ॥२१६॥-गुण० श्रा० Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तिविहा दब्वे पूजा सञ्चित्ताचित्तमिस्सभेएण । पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा' जहाजोग्गं ॥४४९॥ तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्स वि अचित्तपूजा सा । जा' पुण दोण्हं कीरइ णायब्वा मिस्सपूजा सा १४५०॥(१) द्रव्य-पूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदिका यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन, तीर्थ कर आदिके, शरीरकी, और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदिपर लिपिबद्ध शास्त्रकी जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है। और जो दोनोंका पूजन किया जाता है वह मिश्रपूजा जानना चाहिए ॥४४९-४५०॥ अहवा आगम-णोागमाइभेएण बहुविहं दव्वं । णाऊण दवपूजा कायवा सुत्तमग्गेण ॥४५१॥ अयवा आगमद्रव्य, नो आयमद्रव्य आदिके भेदसे अनेक प्रकारके द्रव्यनिक्षेपको जानकर शास्त्र-प्रतिपादित मार्गसे द्रव्यपूजा करना चाहिए ॥४५१॥ क्षेत्र-पूजा जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु । णिसिहीसु खेत्तपूजा पुब्वविहाणेण कायच्या ॥४५२॥(२) जिन भगवान्की जन्मकल्याणकभूमि, निष्क्रमणकल्याणकभूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थचिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण-भूमियोंमें पूर्वोक्त विधानसे क्षेत्रपूजा करना चाहिए, अर्थात् यह क्षेत्रपूजा कहलाती है ॥४५२॥ काल-पूजा गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण-णाण-णिव्वाणं । जम्हि दिणे संजाद जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ॥४५३।। इच्छुरस-सपिप-दहि-खीर-गंध-जलपुण्णविविहकलसेहिं । णिसिजागरणं च संगीय-णाडयाईहिं कायब्वं ॥४५॥ गंदीसरहदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु ।। जं कीरह जिणमहिमं विपणेया कालपूजा सा ॥४५५।।(३) जिस दिन तीर्थङ्करोंके गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन इक्षुरस, घृत, दधि, क्षीर, गंध और जलसे परिपूर्ण विविध अर्थात् अनेक प्रकारके कलशोंसे, जिन भगवान्का अभिषेक करे तथा संगीत, नाटक आदिके द्वारा जिनगुणगान करते हुए रात्रि-जागरण करना चाहिए। इसी प्रकार नन्दीश्वर १ ब. घ. पुज्जा । २ ध. जो। ३ प. प. संजायं । (१) चेतनं वाऽचेतनं वा मिश्रद्व्यमिति त्रिधा । साक्षाज्जिनादयो द्रव्यं चेतनाख्यं तदुच्यते ॥२२०॥ तद्वपुर्द्रव्यं शास्त्रं वाऽचित्तं मित्र तु तवयम् । तस्य पूजनतो द्रव्यपूजनं च विधा मतम् ॥२२॥ (२) जन्म-निःक्रमणज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम् । निषिध्यास्वपि कर्त्तव्या क्षेत्रे पूजा यथाविधि ॥२२२॥ (३) कल्याणपंचकोत्पत्तियस्मिन्नन्हि जिनेशिनाम् । तदन्हि स्थापना पूजाऽवश्यं कार्या सुभक्तितः ॥२२३॥ पर्वण्यष्टाह्निकेऽन्यस्मिन्नपि भक्त्या स्वशक्तितः । महामहविधानं यतत्कालार्चनमुच्यते ॥२२४॥-गुण० श्रा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा-वर्णन पर्वके आठ दिनोंमे तथा अन्य भी उचित पर्वोमें जो जिन-महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए ॥४५३-४५५।। भाव-पूजा काऊणाणंतचउट्ठयाइगुणकित्तणं जिणाईणं । जं वंदणं तियालं कोरइ भावच्चणं तं खु॥४५६॥ पंचणमोकारपएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए'। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि॥४५७॥ पिंढथं च पयत्थं स्वत्थं स्ववज्जियं अहवा। जं झाइज्जइ माणं भावमहं तं विणिहिट ॥४५८॥(१) परम भक्तिके साथ जिनेन्द्रभगवान्के अनन्तचतुष्टय आदि गुणोंका कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चयसे भावपूजा जानना चाहिए ॥४५६॥ अथवा पंच णमोकार पदोंको द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार जाप करे। अथवा जिनेन्द्र स्तोत्र अर्थात् गुणगान करनेको भावपूजन जानना चाहिए ॥४५७॥ अथवा पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकारका ध्यान किया जाता है, उसे भी भावपूजा कहा गया है ॥४५८॥ पिंडस्थ-ध्यान सियकिरणविप्फुरतं अटठमहापाडिहरपरियरियं । झाइज्जइ जं णिययं पिंडत्थं जाण तं झाणं ॥४५६॥(२) श्वेत किरणोंसे विस्फुरायमान, और अष्ट महाप्रातिहार्योसे परिवृत (संयुक्त) जो निजरूप अर्थात् केवली तुल्य आत्मस्वरूपका ध्यान किया जाता है, उसे पिडस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४५९॥ अहवा णाहिं च वियप्पिऊण मेरु अहोविहायम्मि । झाइज्ज' अहोलोयं तिरियम्मं तिरियए वीए ॥४६०॥ उड्ढम्मि उडढलोयं कप्पविमाणाणि संधपरियंते । गेविजमया गीवं अणुद्दिसं हणुपएसम्मि ॥४६॥ विजयं च वइजयंतं जयंतमवराजियं च सम्वत्थं । झाइज्ज मुहपएसे खिलाडदेसम्मि सिद्धसिला ॥४६२॥(३) १ म. सुभत्तीए । २ मणियरूवं । ३ इ. वियप्पेऊण । ४ इ. माइज्जई। ५ ध. परेयंतं प. परियंतं । (१) स्मृत्वानन्तगुणोपेतं जिनं सन्ध्यात्रयेऽर्चयेत् ।। वन्दना क्रियते भक्त्या तभावार्चनमुच्यते ॥२२५॥ जाप्यः पंचपदानां वा स्तवनं वा जिनेशिनः । क्रियते यद्यथाशक्तिस्तद्वा भावार्चनं मतम् ॥२२॥ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम् । तद्ध्यानं ध्यायते यद्वा भावपूजेति सम्मतम् ॥२२७॥ (२) शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्याष्टकान्वितम् । यद् ध्यायतेऽहंतो रूपं तद् ध्यानं पिण्डसंज्ञकम् ॥२२॥ अधोभागमधोलोकं मध्याशं मध्यमं जगत् । नाभौ प्रकल्ययेन्मेरुं स्वर्गाणां स्कन्धमूवतः ॥२२९॥ (३) गैवेयका स्वग्रीवायां हन्वामनुदिशान्यपि । विजयाद्यान्मुखं पंच सिद्धस्थानं ललाटके ॥२३०॥ मूनिं लोकानमित्येव लोकत्रितयसन्निभम् । चिन्तनं यत्स्वदेहस्थं पिण्डस्थं तदपि स्मृतम् ॥२३॥--गुण० श्राव० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ वसुनन्दि-श्रावकाचार तस्सुवरि सिद्धणिलयं जह सिहरं जाण उत्तमंगम्मि । एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पि पिंडत्थं ॥४६३ ॥ अथवा, अपने नाभिस्थानमे मेरुपर्वतकी कल्पना करके उसके अधोविभागमें अधोलोकका ध्यान करे, नाभिपार्श्ववर्ती द्वितीय तिर्यग्विभागमें तिर्यग्लोकका ध्यान करे। नाभिसे ऊर्ध्वभागमें ऊर्ध्वलोकका चिन्तवन करे ? स्कन्धपर्यन्त भागमें कल्पविमानोंका, ग्रीवास्थानपर नवग्रैवेयकोका, हनुप्रदेश अर्थात् ठोड़ीके स्थानपर नव अनुदिशोंका, मुखप्रदेशपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिका ध्यान करे। ललाट देशमें सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमागमें लोकशिखरके तुल्य सिद्धक्षेत्रको जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देहका ध्यान किया जाता है, उसे भी पिडस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४६०-४६३॥ पदस्थ-ध्यान जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेडिमंतपयममलं । एयक्खरादि विविहं पयत्थझाणं मुणेयध्वं ॥४६४॥(१) एक अक्षरको आदि लेकर अनेक प्रकारके पच परमेष्ठीवाचक पवित्र मंत्रपदोंका उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४६४॥ विशेषार्थ--ओं यह एक अक्षरका मंत्र है। अर्ह, सिद्ध ये दो अक्षरके मंत्र है। ओं नमः यह तीन अक्षर का मत्र है। अरहंत, अर्ह नमः, यह चार अक्षरका मंत्र है। अ सि आ उ सा यह पाँच अक्षरका मंत्र है। ओं नमः सिद्धेभ्यः यह छह अक्षरका मंत्र है। इसी प्रकार ओं, ह्री नमः, ऊं ह्री अर्ह नमः, ओं ह्री श्री अर्ह नमः, अर्हत, सिद्ध, अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नमः, इत्यादि पंचपरमेष्ठी या जिन, तीर्थ कर वाचक नामपदोंका ध्यान पदस्थ ध्यानके ही अन्तर्गत है। सुगणं अयारपुरो माइज्जो उड्ढरेह-बिंदुजुयं । पावंधयारमहणं समंतश्रो फुरियसियतेयं ॥४६५॥(२), पापरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला और चारों ओरसे सूर्यके समान स्फुरायमान शुक्ल तेजवाला ऐसा तथा ऊर्ध्वरेफ और बिन्दुसे युक्त अकारपूर्वक हकारका, अर्थात् अर्ह इस मंत्रका ध्यान करे ॥४६५॥ असि आउ सा सुवण्णा झायब्वा पंतसत्तिसंपरणा। चउपत्तकमलमज्झे पढमाइकमेण णिविसिऊणं ॥४६६॥(३) चार पत्रवाले कमलके भीतर प्रथमादि क्रमसे अनन्त शक्ति-सम्पन्न अ, सि, आ, उ, सा इन सुवर्णों को स्थापित कर ध्यान करना चाहिए। अर्थात् कमलके मध्यभागस्थ कर्णिका में अं (अरहंत) को, पूर्व दिशाके पत्रपर सि (सिद्ध) को, दक्षिण दिशाके पत्रपर आ (आचार्य) को पश्चिम दिशाके पत्रपर उ (उपाध्याय) को और उत्तर दिशाके पत्रपर सा (साधु) को स्थापित कर उनका ध्यान करे ॥४६६॥ ते चिय वण्णा अदल पंचकमलाण मज्झदेसेसु । णिसिऊण सेसपरमेट्ठि अक्खरा चउसु पत्तेसु ॥४६७॥ (१) एकाक्षरादिक मंत्रमुच्चार्य परमष्ठिनाम् । क्रमस्य चिन्तनं यत्तत्पदस्थध्यानसंज्ञकम् ॥२३२॥ (२) अकारपूर्वक शून्यं रेफानुस्वारपूर्वकम् । पापान्धकारनिर्णाशं ध्यातव्यं तु सितप्रभम् ॥२३३॥ (३) चतुर्दलस्य पद्मस्य कर्णिकायंत्रमन्तरम् । पूर्वादिदिक्क्रमान्भ्यस्य पदाधक्षरपंचकम् ॥२३॥-गुण० श्राव. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपस्थध्यान-वर्णन रयणत्तय-तव-पडिमा-वरणा णिविसिऊण सेसपत्तेसु । सिर-वयण-कंठ-हियए णाहिपएसम्मि मायब्वा ।।४६८॥ . अहवा णिलाडदेसे पढमं बीयं विसुद्धदेसम्मि। दाहिणदिसाइ णिविसिऊण सेसकमलाणि भाएज्जो ॥४६९॥(१) पुनः अष्टदलवाले कमलके मध्यदेशमे दिशासम्बन्धी चार पत्रोंपर उन्ही वर्णोको स्थापित करके, अथवा पंच परमेष्ठीके वाचक अन्य अक्षरोको स्थापित करके तथा विदिशा सम्बन्धी शेष चार पत्रोंपर रत्नत्रय और तपवाचक पदोके प्रथम वर्णोको अर्थात् दर्शनका द, ज्ञानका ज्ञा , चारित्रका चा और तपका त इन अक्षरोंको क्रमशः स्थापित करके इस प्रकार के अष्ट दलवाले कमलका शिर, मुख, कंठ, हृदय और नाभिप्रदेश, इन पांच स्थानोंमे ध्यान करना चाहिए। अथवा प्रथम कमलको ललाट देशमे, द्वितीय कमलको विशुद्ध देश अर्थात् मस्तकपर, और शेष कमलोंको दक्षिण आदि दिशाओं में स्थापित करके उनका ध्यान करना चाहिए ॥४६७-४६९॥ अट्ठदलकमलमज्झे झाएज णहं दुरेहबिंदुजुयं। . सिरिपंचणमोक्कारेहिं वलइयं पत्तरेहासु ॥४७०॥ णिसिऊण णमो अरहताण पत्ताइमठ्ठवग्गेहिं । भणिऊण वेढिऊण य मायाबीएण तं तिउणं ॥४७१॥(२) अष्ट दलवाले कमलके भीतर कर्णिकामे दो रेफ और बिन्दुसे युक्त हकारके अर्थात 'ह' पदको स्थापन करके कर्णिकाके बाहर पत्ररेखाओंपर पंच णमोकार पदोंके द्वारा वलय बनाकर उनमें क्रमशः 'णमो अरहंताणं' आदि पाँचों पदोंको स्थापित करके और आठों पत्रोंको आठ वर्णोके द्वारा चित्रित करके पुनः उसे मायाबीजके द्वारा तीन बार वेष्टित करके उसका ध्यान करे ॥४७०-४७१॥ प्रायास-फलिहसंणिह-तणुप्पहासलिलणिहिणिब्बुडतं । णर-सुरतिरीडमणिकिरणसमूहरंजियपयंबुरुहो ॥४७२॥ वरअट्ठपाडिहरेहिं परिउट्ठो समवसरणमझगयो । परमप्पाणंतचउट्ठयरिणो पवणमग्गट्ठो ॥४७॥(३) १ ब. रेहेसु । (१) तच्चाष्टपत्रपद्मानां तदेवाक्षरपंचकम् । पूर्ववन्न्यस्य हरज्ञानचारित्रतपसामपि ॥२३५॥ विदिचवाद्यक्षरं न्यस्य ध्यायेन्मूनि गले हृदि । नाभौ वक्त्रेऽथवा पूर्व ललाटे मूर्धिन वापरमू ॥२३६।। चत्वारि यानि पद्मानि दक्षिणादिदिशास्वपि । विन्यस्य चिन्तयेन्नित्यं पापनाशनहेतवः ॥२३७॥ (२) मध्येऽष्टपत्रपद्मस्य खं द्विरेफ सबिन्दुकम् । स्वरपंचपदावेष्टयं विन्यस्यास्य दलेषु तु ॥२३॥ भृत्वा वर्गाष्टकं पत्रं प्रान्ते न्यस्यादिमं पदम् । मायाबीजेन संवेष्टयं ध्येयमेतत्सुशर्मदम् ॥२३॥ आकाशस्फटिकाभासः प्रातिहार्याष्टकान्वितः। सर्वामरैः ससंसेव्योऽप्यनन्तगुणलक्षितः ॥२४॥ नभोमार्गेऽथवोक्तेन वर्जितः क्षीरनोरधीः। मध्ये शशांकसंकाशनोरे जातस्थितो जिनः ॥२४१॥-गुण. श्रा० १८ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ वसुनन्दि-श्रावकाचार एरिसरो श्चिय परिवारवज्जिो खीरजलहिमज्झे वा। वरखोरवण्णकंदुत्थ' करिणयामझदेसहो ॥४७॥ खीरुवहिसलिलधाराहिसेयधवलीकयंगसन्वंगो। जं शाइज्जइ एवं रूवत्थं जाण तं झाणं ॥४७५॥ (१) आकाश और स्फटिकमणिके समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीरकी प्रभारूपी सलिलनिधि (समुद्र) में निमग्न, मनुष्य और देवोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंकी किरणोंके समूहसे अनुरजित है चरण-कमल जिनके, ऐसे, तथा श्रेष्ठ आठ महाप्रातिहायोसे परिवृत, समवसरणके मध्यमें स्थित, परम अनन्त चतुष्टयसे समन्वित, पवन मार्गस्थ अर्थात् आकाशमें स्थित, अरहन्त भगवान्का जो ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है। अथवा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभासे समन्वित किन्तु समवसरणादि परिवारसे रहित, और क्षीरसागरके मध्यमे स्थित, अथवा उत्तम क्षीरके समान धवल वर्णके कमलकी कर्णिकाके मध्यदेशमे स्थित, क्षीरसागरके जलकी धाराओंके अभिषेकसे धवल हो रहा है सर्वाग जिनका, ऐसे अरहन्त परमेष्ठीका जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४७२-४७५॥ रूपातीत-ध्यान वण्ण रस-गंध-फासेहिं वज्जिो णाण-दसणसरूवो । ज झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरहियं ति ॥४७६॥(२) वर्ण, रस, गध और स्पर्शसे रहित, केवल ज्ञान-दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठीका या शुद्ध आत्माका ध्यान किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान है ॥४७६॥ अहवा आगम-णोआगमाइ भेएहिं सुत्तमग्गेण । णाऊण भावपुज्जा कायव्वा देसविरएहिं ॥४७७॥ अथवा आगमभावपूजा और नोआगमभावपूजा आदिके भेदसे शास्त्रानुसार भावपूजाको जानकर वह श्रावकोंको करना चाहिए ॥४७७॥ एसा छब्बिहपूजा णिच्चं धम्माणुरायरत्तेहिं । जहजोगं कायव्वा सम्वेहिं पि देसविरएहिं ॥४७८।।(३) इस प्रकार यह छह प्रकारकी पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशव्रती श्रावकोंको यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए ॥४७८॥ एयारसंगधारी जीहसहस्सेण सुरवरिंदो वि। पूजाफलं ग सका णिस्सेसं वएिणउ जम्हा ॥४७९॥ तम्हा हणियसत्तीए थोयवयणेण किं पि वोच्छामि । धम्माणुरायरत्तो भवियजणो होइ ज सम्बो ॥४०॥ जब कि ग्यारह अंगका धारक, देवोंमे सर्वश्रेष्ठ इन्द्र भी सहत्र जिह्वाओंसे पूजाके समस्त फलको वर्णन करनेके लिए समर्थ नहीं है, तब मै अपनी शक्तिके अनुसार थोड़ेसे वचन द्वारा कुछ कहूँगा, जिससे कि सर्व भव्य जन धर्मानुरागमें अनुरक्त हो जावें ॥४७९-४८०॥ १ ब. कंदुट्ट। २ . ब. णोश्रागमेहिं । ३ ध. सव्वे ।। (१) तीराम्भोधिः क्षीरधाराशुभ्राशेषाङ्गसङ्गमः। एवं यञ्चिन्त्यते तत्स्याद् ध्यानं रूपस्थनामकम् ॥२४२॥ २) गन्धवर्णरसस्पर्शवर्जितं बोधङ्मयम् । यश्चिन्त्यतेऽहंद्र पं तद्ध्यानं रूपजितम् ॥२४३॥ इत्येषा षडविधा पूजा यथाशक्ति स्वभक्तितः । यथाविधिविधातच्या प्रयतैर्देशसंयतैः ॥२५॥-गुण० श्राव० Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजनफल-वर्णन 'कुत्थंभरिदलभेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं । सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं ॥४८॥ जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहि-तोरणसमग्गं । णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कइ वरिणउं सयलं ॥४२॥(1) जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसोंके बराबर भी जिनप्रतिमाको स्थापन करता है, वह तीर्थ कर पद पानेके योग्य पुण्यको प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदिसे संयुक्त जिनेन्द्रभवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ हो सकता है ॥४८१४८२॥ जलधाराणिक्खेवेण पाबमलसोहणं हवे णियमं । चंदणलेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णो ॥४८॥ पूजनके समय नियमसे जिन भगवान्के आगे जलधाराके छोड़नेसे पापरूपी मैलका संशोधन होता है। चन्दनरसके लेपसे मनुष्य सौभाग्यसे सम्पन्न होता है ॥४८३॥ जायइ अक्खयणिहि-रयणसामिश्रो अक्खएहि अक्खौहो। अक्खीणलद्धिजुत्तो अक्खयसोक्खं च पावेइ ॥१८॥ अक्षतोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ अर्थात् रोग-शोक-रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धिसे सम्पन्न होता है और अन्तमें अक्षय मोक्ष-सुखको पाता है ॥४८४॥ . कुसुमेहिं कुसेसयवयणु तरुणीजणणयण-कुसमवरमाला वलएणञ्चियदेहो जयइ कुसमाउहो चेव ॥४८५।। पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनोंके नयनों- . से और पुष्पोंकी उत्तम मालाओंके समूहसे समर्चित देहवाला कामदेव होता है ॥४८५॥ जायइ णिविज्जदाणेण सत्तिगो कंति-तेय संपण्णो। लावण्णजलहिवेलातरंगसंपावियसरीरो॥८६॥ नैवेद्यके चढ़ानेसे मनुष्य शक्तिमान्, कान्ति और तेजसे सम्पन्न, और सौन्दर्यरूपी समुद्रकी वेला (तट) वर्ती तरंगोंसे संप्लावित शरीरवाला अर्थात् अतिसुन्दर होता है ॥४८६॥ दीवहिं दीवियासेसजीवदन्वाइतञ्चसम्भावो। सम्भावणियकेवलपईवतेएण होइ णरो ॥४८॥ दीपोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावोंके योगसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीपके तेजसे समस्त जीवद्रव्यादि तत्त्वोंके रहस्यको प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है ॥४८७॥ धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधवलियजयतो पुरिसो। जायह फल्लेहि संपत्तपरमणिव्वाणसोक्खफलो ॥४८॥ ध, कुस्तुंबरी दलय । प. कुस्तंभरिदलभेत्ते अर्धक,बरिफलमात्रे। २ धणियादलमात्रे। ३. णिवेज। () कुंस्तुवरखण्डमानं यो निर्माप्य जिनालयम् । स्थापयेत्प्रतिमां स स्यात् त्रैलोक्यस्तुतिगोचरः ॥२१५॥ यस्तु निर्मापयेत्तुङ्ग जिनं चैत्यं मनोहरम् । वक्तुं तस्य फलं शक्तः कथं सर्वविदोऽखिलम् ॥२४६॥-गुण० श्राव. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ वसुनन्दि-श्रावकाचार धूपसे पूजा करनेवाला मनुष्य चन्द्रमाके समान धवल कीर्तिसे जगत्त्रयको धवल करनेवाला अर्थात् त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाणका सुखरूप फल पानेवाला होता है ॥४८८॥ घंटाहिं घंटसघाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि । ___ संकीदइ सुरसंघायसेविप्रो वरविमाणेसु ॥४८९॥ जिनमन्दिरमें घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घंटाओंके शब्दोंसे आकुल अर्थात् व्याप्त, श्रेष्ठ विमानोंमें सुर-समूहसे सेवित होकर प्रवर-अप्सराओंके मध्यमे क्रीड़ा करता है ॥४८९॥ छत्तेहि' एयछत्तं भुंजइ पुहवी सवत्तपरिहीणों'। चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं ॥४९०॥ छत्र-प्रदान करनेसे मनुष्य, शत्रुरहित होकर पृथिवीको एक-छत्र भोगता है। तथा 'चमरोंके दानसे चमरोंके समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं ॥४९०॥ अहिंसेयफलेण णरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि । खीरोयजलेण सुरिंदप्पमुहदेवेहिं भत्तीए ॥४९१॥ जिनभगवान्के अभिषेक करनेके फलसे मनुष्य सुदर्शनमेरुके ऊपर क्षीरसागरके जलसे सुरेन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा भक्तिके साथ अभिषिक्त किया जाता है ॥४९१॥ विजयपडाएहिं णरो संगाममुहेसु विजइश्रो होइ । छक्खंदविजयणाहो णिपडिवक्खो जसस्सी' य ॥४९२॥ जिन-मन्दिरमें विजय-पताकाओंके देनेसे मनुष्य संग्रामके मध्य विजयी होता है । तथा षट्खंडरूप भारतवर्षका निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है ॥४९२॥ किं जंपिएण बहुणा तीसु वि लोएसु किं पिजं सोक्खं । पूजाफलेण सव्वं पाविज्जइ णत्थि सदेहो ॥४१३॥ अधिक कहनेसे क्या लाभ है, तीनों ही लोकोंमें जो कुछ भी सुख है, वह सब पूजाके फलसे प्राप्त होता ह, इसमे कोई सन्देह नहीं है ॥४९३॥ अणुपालिऊण एवं सावयधम्मं तोवसाणम्मि । सल्लेहणं च विहिणा काऊण समाहिणा कालं ॥४९॥ सोहम्माइसु जायइ कप्पविमाणेसु अच्चुयंतेसु । उववादगिहे कोमलसुयंधसिलसंपुडस्संते" ॥४१५॥ अंतोमुहुत्तकालेण तो पज्जत्तियो समाणेइ । दिन्वामलदेहधरो जायइ णवजुब्वणो चेव ॥४९॥ समचउरससंठाणो रसाइधाऊहिं वज्जियसरीरो। दिणयरसहस्सतेश्रो णवकुवलयसुरहिणिस्सासो ॥४९७॥ इस प्रकार श्रावकधर्मको परिपालन कर और उसके अन्तमे विधिपूर्वक सल्लेखना करके समाधिसे मरण कर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त कल्पविमानोंमें उत्पन्न होता है। वहाँके उपपादगृहोंके कोमल एवं सुगंधयुक्त शिला-सम्पुटके मध्य में जन्म लेकर अन्तर्मुहुर्त काल द्वारा अपनी छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्तके ही भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक एवं नवयौवनसे युक्त हो जाता है। वह देव १. छत्तिहिं । २ सपनपरिहीनः। ३ ब. जसंसी। ४ भ. प. संपुडस्संतो। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मफल-वर्णन १३७ समचतुरस्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी, नवीन नीलकमलके समान सुगंधित निःश्वासवाला होता है ॥४९४-४९७॥ पडिबुज्झिऊण सुत्तुठियो ब्व संखाइमहुरसद्देहिं । दळूण सुरविभूइ विभियहियो पलोएइ ॥४९८।। किं समिणदसणमिणं ण वेत्ति जा चिट्ठए वियप्पेण । आयंति तक्खणं चिय थुइमुहला आयरक्खाई ॥४९९॥ जय जीव णंद वड्ढाइचारुसद्देहि सोयरम्मेहिं । अच्छरसयाउ' वि तो कुणंति चाडूणि विविहाणि ॥५००। सोकर उठे हुए राजकुमारके समान वह देव शख आदि बाजोंके मधुर शब्दोंसे जागकर देव-विभूतिको देखकर और आश्चर्यसे चकितहृदय होकर इधर उधर देखता है। क्या यह स्वप्न-दर्शन है, अथवा नही, या यह सब वास्तविक है. इस प्रकार विकल्प करता हुआ वह जब तक बैठता है कि उसी क्षण स्तुति करते हुए आत्मरक्षक आदि देव आकर, जय (विजयी हो), जीव (जीते रहो), नन्द (आनन्दको प्राप्त हो), वर्द्धस्व (वृद्धिको प्राप्त हो), इत्यादि श्रोत्र-सुखकर सुन्दर शब्दोंसे नाना चाटुकार करते हैं। तभी सैकड़ों अप्सराएँ भी आकर उनका अनुकरण करती है ॥४९८-५००॥ एवं थुणिज्जमाणो सहसा णाऊण श्रोहिणाणेण । गंतूण रहाणगेहं वुड्डुणवाविम्हि यहाऊण ॥५०॥ बाहरणगिहम्मि तो सोलसहाभूसणं च गहिऊण । पूजोवयरणसहिओ गंतूण जिणालए सहसा ॥५०२॥ वरवजविविहमंगलरवेहिं गंधक्खयाइदब्वेहिं । महिऊण जिणवरिंदं थुत्तसहस्सेहिं थुणिऊण ॥५०३॥ गंतूण सभागेहं अणेयसुरसंकुलं परमरम्मं । सिंहासणस्स उवरि चिट्ठइ देवेहिं थुन्वंतो ॥५०॥ उस्सियसियायवत्तो सियचामरधुव्वमाणसवंगो। । पवरच्छराहिं कीडइ दिव्वद्वगुणप्पहावेण ॥५०५॥ दीवेसु सायरेसु य सुरसरितीरेसु सेलसिहरेसु । अखलियगमणागमणो देवुजाणाइसु रमेइ ॥५०६॥ इस प्रकार देव और देवांगनाओंसे स्तुति किया गया वह देव सहसा उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे अपना सब वृत्तान्त जानकर, स्नानगृहमें जाकर स्नान-वापिकामे स्नान कर तत्पश्चात् आभरणगृहमें जाकर सोलह प्रकारके आभूषण धारण कर पुनः पूजनके उपकरण लेकर सहसा या शीघ्र जिनालयमें जाकर उत्तम बाजोंसे, तथा विविध प्रकारके मांगलिक शब्दोंसे और गंध, अक्षत आदि द्रव्योंसे जिनेन्द्र भगवान्का पूजन कर, और सहस्रों स्तोत्रोंसे स्तुति करके तत्पश्चात् अनेक देवोंसे व्याप्त और परम रमणीक सभा-भवनमें जाकर अनेक देवोंसे स्तुति किया जाता हुआ, श्वेत छत्रको धारण करता हुआ और श्वेत चमरोंसे कम्पमान या रोमांचित है सर्व अंग • जिसका, ऐसा वह देव सिहासनके ऊपर बैठता है। (वहाँपर वह) उत्तम अप्सराओंके साथ क्रीड़ा करता है, और अणिमा, महिमा आदि दिव्य आठ गुणोंके प्रभावसे द्वीपोंमे, समुद्रोंमे, गंगा आदि नदियोंके तीरोंपर, शैलोंके शिखरोंपर, तथा नन्दनवन आदि देवोद्यानोंमे अस्खलित (प्रतिबन्ध-रहित) गमनागमन करता हुआ आनन्द करता है ॥५०१-५०६॥ १झ. अच्छरसहिओ, ब. अच्छरसमो। २ ध. विविहागं। ३ प. माणा । ४ इ. सरित्तीसु । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धसुनन्दि-श्रावकाचार श्रासाद कात्तिए फग्गुणे य णंदीसरढदिवसेसु । विविहं करेइ महिमं णंदीसरचेइय'गिहेसु ॥५०७॥ पंचसु मेरुसु तहा विमाणजिणचेइएसु विविहेसु । पंचसु कालाणेसु य करेइ पुज्ज बहुवियप्पं ॥५०८॥ इच्चाइबहुविणोएहि तत्थ विणेऊण सगढिई तत्तो। उज्वट्टिो समाणो चक्कहराईसु जाएइ ॥५०९॥ वह देव आषाढ, कात्तिक और फाल्गुन मासमे नन्दीश्वर पर्वके आठ दिनोंमे, नन्दीश्वर द्वीपके जिन चैत्यालयोंमें जाकर अनेक प्रकारकी पूजा महिमा करता है। इसी प्रकार पांचों मेरुपर्वतोपर, विमानोंके जिन चैत्यालयोंमें, और अनेकों पंच कल्याणकोंमे नाना प्रकारकी पूजा करता है। इस प्रकार इन पुण्य-वर्धक और आनन्दकारक नाना विनोदोके द्वारा स्वर्गमें अपनी स्थितिको पूरी करके वहाँसे च्युत होता हुआ वह देव मनुष्यलोकमे चक्रवर्ती आदिकोमें उत्पन्न होता है ॥५०७-५०९॥ भोत्तण मणुयसोक्खं पस्सिय वेरग्गकारणं किं चि । मोत्तण रायलच्छी तणं व गहिऊण चारित्तं ॥५१०॥ काऊण तवं घोरं लद्धीओ तप्फलेण लण । अढगुणे सरियत्तं च किं ण सिझइ तवेण जए ॥५११॥ मनुष्य लोकसें मनुष्योंके सुखको भोगकर और कुछ वैराग्यका कारण देखकर, राज्य-. लक्ष्मीको तृणके समान छोड़कर, चारित्रको ग्रहण कर, घोर तपको करके और तपके फलसे विक्रियादि लब्धियोंको प्राप्त कर अणिमादि आठ गुणोंके ऐश्वर्यको प्राप्त होता है । जगमें तपसे क्या नही सिद्ध होता ? सभी कुछ सिद्ध होता है ॥५१०-५११॥ बुद्धि तवो वि य लद्धी विउवणलद्धी तहेव श्रोसहिया । रस-बल-अक्खीणा वि य रिद्धीनो सत्त पण्णत्ता ॥५१२॥ अणिमा महिमा लघिमा पागम्म वसित्त कामरूवित्तं । ईसत्त पावणं तह अद्वगुणा वएिणया समए ॥५१३॥ बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि और अक्षीण महानस ऋद्धि, इस प्रकार ये सात ऋद्धियाँ कही गई है ॥५१२॥ अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वशित्व, कामरूपित्व, ईशत्व, और प्राप्यत्व, ये आठ गुण परमागममें कहे गये हैं ॥५१३॥ एवं काऊण तवं पासुयठाणम्मि तह य गंतूण । पलियंक बंधित्ता काउस्सग्गेण वा ठिच्चा ॥५१४॥ जइ खाइयसद्दिट्ठी पुन्वं खवियाउ सत्त पयडीयो। सुर-णिरय-तिरिक्खाऊ तम्हि भवे णिठियं चेव ॥५१५॥ अह वेदगसहिट्ठी पमत्तठाणम्मि अप्पमत्ते वा। सिरिऊण धम्ममाणं सत्त वि पिट्ठवह पयढीश्री ॥१६॥ काऊण पमत्तेयरपरियत्त सयाणि खवयपाउग्गो। होऊण अप्पमत्तो विसोहिमाऊरिऊण खणं ॥१७॥ करणं अधापवत्तं पढम पडिवजिऊण सुकं च। जायइ अपुन्वकरणो कसायखवणुज्जो वीरो ॥५१॥ . प. घरेसु । २. ध. प. गुणी। ३ म. सन्मुं। ध. प. सझ ( साध्यमित्यर्थः) १.प. परियत। ५इ.ध. जियो। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ आपकश्रेणि वर्णन इस प्रकार वह मुनि तपश्चरण करके, तथा प्रासुक स्थानमें जाकर और पर्यकासन बाँधकर अथवा कायोत्सर्गसे स्थित होकर, यदि वह क्षायिक-सम्यग्दृष्टि है, तो उसने पहले ही अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक, इन सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है, अतएव देवायु, नारकायु और तिर्यगायु इन तीनों प्रकृतियोंको उसी भवमे नष्ट अर्थात् सत्त्व-व्युच्छिन्न कर चुका है। और यदि वह वेदकसम्यग्दृष्टि है, तो प्रमत्त गुणस्थानमे, अथवा अप्रमत्त गुणस्थानमे धर्मध्यानका आश्रय करके उक्त सातों ही प्रकृतियोंका नाश करता है । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें सैकड़ों परिवर्तनोंको करके, क्षपक श्रेणिके प्रायोग्य सातिशय अप्रमत्त संयत होकर क्षणमात्रमे विशोधिको आपूरित करके और प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको और शुक्लध्यानको प्राप्त होकर कषायोके क्षपण करनेके लिए उद्यत वह वीर अपूर्वकरण संयत हो जाता है ॥५१४-५१८॥ एक्केक्क ठिदिखंड पाडइ अंतोमुहत्तकालेण । ठिदिखडपडणकाले अणुभागसयाणि पाडेइ ॥५१९।। गच्छइ विसुद्धमाणो पडिसमयमणंतगुणविसोहीए। . अणियद्विगुणं तत्थ वि सोलह पयडीयो पाडेइ ॥५२०।। अपूर्वकरण गुणस्थानमे वह अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा एक एक स्थितिखंडको गिराता है। एक स्थितिखडके पतनकालमें सैकड़ों अनुभागखंडोंका पतन करता है। इस प्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है। वहॉपर पहले सोलह प्रकृतियोंको नष्ट करता है ॥५१९-५२०॥ विशेषार्थ-वे सोलह प्रकृतियाँ ये है-नरकगति, नरकगत्यानपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत, आतप, एकेन्द्रियजाति, साधारण, सूक्ष्म और स्थावरं । इन प्रकृतियोंको अतिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागमे क्षय करता है। अट्ट कसाए च तयो णधुसयं तहेव इस्थिवेयं च । छएणोकसाय पुरिसं कमेण कोह पि संछुहइ ॥५२॥ कोहंमाणे माण मायाए तं पि छुहइ लोहम्मि । बायरलोह पितो कमेण णिट्ठवह तस्थेव ॥५२२॥ .. सोलह प्रकृतियोंका क्षय करनेके पश्चात् आठ मध्यम कषायोंको, नपुसकवेदको, तथा स्त्रीवेदको, हास्यादि छह नोकषायोंको और पुरुषवेदका नाश करता है और फिर क्रमसे संज्वलन क्रोधको भी संक्षुभित करता है। पुनः संज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें, संज्वलनमानको संज्वलन मायामें और संज्वलन मायाको भी बादर-लोभमे संक्रामित करता है । तत्पश्चात् क्रमसे बादर लोभको भी उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमे निष्ठापन करता है, अर्थात् सूक्ष्म लोभरूपसे परिणत करता है ॥५२१-५२२॥ अणुलोह वेदंतो संजायइ सुहुमसंपरायो सो। खविऊण सहुमलोहं खीणकसानो तो होइ ॥५२३॥ तत्थेव सकमाणं विदिय पडिवजिऊण तो तेण । णिहा-पयलाउ दुए दुचरिमसमयम्मि पाडेइ ॥५२॥ १ब. कंड। २ ब. कंड। म. लोहम्मि । प. लोयम्मि । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० वसुनन्दि-श्रावकाचार णाणंतरायदसयं दसण चत्तारि चरिमसमयम्मि । हणिऊण तक्खणे चिय सजोगिकेवलिजिणो होइ ॥५२५।। तभी सूक्ष्मलोभका वेदन करनेवाला वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संयत होता है। तत्पश्चात् सूक्ष्म लोभका भी क्षय करके वह क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थानमें जाकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ होता है। वहांपर ही द्वितीय शुक्लध्यानको प्राप्त करके उसके द्वारा बारहवें गुणस्थानके द्विचरम समयमे निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियों को नष्ट करता है। चरम समयमें ज्ञानावरण कर्मकी पाँच, अन्तरायकर्मकी पाँच और दर्शनावरणकी चक्षुदर्शन आदि चार इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करके वह तत्क्षण ही सयोगि-केवली जिन हो जाता है ॥५२३-५२५॥ तो सो तियालगोयर-अणंतगुणपज्जयप्पयं वत्थु । जाणइ पस्सइ जुगवं णवकेवललद्धिसंपएणो ॥५२६।। दाणे लाहे भोए परिभोए वीरिए सम्मत्ते। णवकेवललद्धीश्रो देसण णाणे चरित्ते य ॥५२७॥ तब वह नव केवललब्धियोंसे सम्पन्न होकर त्रिकाल-गोचर अनन्त गुण-पर्यायात्मक वस्तुको युगपत् जानता और देखता है । क्षायिकदान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक परिभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दर्शन (केवल दर्शन), क्षायिक ज्ञान, (केवल ज्ञान), और क्षायिक चारित्र (यथाख्यात चारित्र), ये नव केवललब्धियां है ॥५२६५२७॥ उक्कस्सं च जहएणं पजाय विहरिऊण सिझेह । सो अकयसमुग्धामो जस्साउसमाणि कम्माणि ॥५२८।। जस्स ण हु आउसरिसाणि णामागोयाणि वेयणीयं च । सो कुणइ समुग्घायं णियमेण जियो ण संदेहो ॥५२९॥ वे सयोगि केवली भगवान् उत्कृष्ट और जघन्य पर्याय-प्रमाण विहार करके, अर्थात् तेरहवें गुणस्थानका उत्कृष्ट काल-आठ वर्ष और अन्तर्मुहर्तकम पूर्वकोटी वर्षप्रमाण है और जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है, सो जिस केवलीकी जितनी आयु है, तत्प्रमाण काल तक नाना देशोंमे विहार कर और धर्मोपदेश देकर सिद्ध होते हैं। (इनमे कितने ही सयोगिकेवली समुद्धात करते है और कितने ही नही करते हैं।) सो जिस केवलीके आयु कर्मकी स्थितिके बराबर शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति होती है, वे तो समुद्धात किये विना ही सिद्ध होते हैं। किन्तु जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म आयु के बराबर नही हैं, वे सयोगिकेवली जिन नियमसे समुद्धात करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥५२८-५२९॥ छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं होज्ज'। सो कुणइ समुग्धायं इयरो पुण होइ भयणिज्जो ॥५३०॥ छह मासकी आयु अवशेष रहनेपर जिसके केवल ज्ञान उत्पन्न होता है, वे केवली समुद्धात करते हैं, इतर केवली भजनीय हैं, अर्थात् समुद्धात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं ॥५३०॥ । अंतोमहत्तसेसाउगम्मि दर्द कवाड पयर च। जगपूरणमथ पयरं कवाड दंड गियतणुपमाणं च ॥५३१॥ एवं पएसपसरण-संवरणं कुणइ असमएहिं। होहिंति जोइचरिमे अघाइकम्माणि सरिसाणि ॥५३२॥ इ.म. गाणं । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगनिरोध-वर्णन १४१ सयोगिकेवली अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण आयुके शेष रह जानेपर (शेष कर्मोंकी स्थितिको समान करनेके लिए) आठ समयोंके द्वारा दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, पुनः प्रतर, कपाट, दंड और निज देह-प्रमाण, इस प्रकार आत्म-प्रदेशोंका प्रसारण और संवरण करते हैं। तब सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तमें अघातिया कर्म सदृश स्थितिवाले हो जाते है ॥५३१-५३२॥ बायरमण-वचिजोगे रुंभइ तो थूलकायजोगेण । सुहमेण तं पि रुंभइ सुहमे मण-वयणजोगे य ॥५३३॥ तो सुहुमकायजोगे वहतो झाइए तइयसुक्कं । रुभित्ता तं पि पुणो अजोगिकेवलिजिणो होइ ।।५३४॥ तेरहवें गुणस्थानके अन्तमे सयोगिकेवली जिनेन्द्र बादरकाययोगसे बादर मनोयोग और बादर वचनयोगका निरोध करते हैं। पुनः सूक्ष्म-काययोगसे सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करते है। तब सूक्ष्म काययोगमे वर्तमान सयोगिकेवली जिन तृतीय शुक्लध्यानको ध्याते है और उसके द्वारा उस सूक्ष्म काययोगका भी निरोध करके वे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली जिन हो जाते है ॥५३३-५३४॥ • बावत्तरि पयडीओ चउत्थसुक्केण तस्थ घाएइ। दुचरिमसमयम्हि तो तेरस चरिमम्मि णिहवइ ॥५३५॥ तो तम्मि चेव समये लोयग्गे उगमणसम्भात्रो। संचिहइ असरीरो पवरहगुणप्पो णिच्चं ॥५३६॥ उस चौदहवें गुणस्थानके द्विचरम समयमें चौथे शुक्लध्यानसे बहत्तर प्रकृतियोंका घात करता है और अन्तिम समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाश करता है। उस ही समयमें ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला यह जीव शरीर-रहित और प्रकृष्ट अष्ट-गुण-सहित होकर नित्यके लिए लोकके अग्र भागपर निवास करने लगता है -॥५३५-५३६।। सम्मत्त णाण दंसण वीरिय सुहम तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमव्वाबाह सिद्धाणं वणिया गुणटुंदे ॥५३७॥ सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व, ये सिद्धोंके आठ गण वर्णन किये गये हैं ॥५३७।। जं किं पि सोक्खसारं तिसु वि लोएसु मणुय-देवाणं । तमणंतगुणं पि ण एयसमयसिद्धाणुभूयसोक्खसमं ॥५३८।। तीनों ही लोकोंमे मनुष्य और देवोंके जो कुछ भी उत्तम सुखका सार है, वह अनन्तगुणा हो करके भी एक समयमे सिद्धोंके अनुभव किये गये सुखके समान नहीं है ॥५३८॥ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमहमए । भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ॥५३॥ (उत्तम रीतिसे श्रावकोंका आचार पालन करनेवाला कोई गृहस्थ) तीसरे भवमे सिद्ध होता है, कोई क्रमसे देव और मनुष्योंके सुखको भोगकर पांचवें, सातवें या आठवें भवमें सिद्ध पदको प्राप्त करते हैं ॥५३९॥ * म और इप्रतिमें ये दो गाथाएं और अधिक पाई जाती हैं: मोहक्खएण सम्म केवलणाणं हणेइ अण्णाणं । केवलदसण देसण अणंतविरियं च अन्तराएण ॥१॥ सुहुमं च णामकम्म पाउहणणेण हवइ अवगहण । गोयं च गुरुलहुयं अवाबाहं च वेयणीयं च ॥२॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति श्रासी ससमय-परसमयविद् सिरिकुंदकुंदसंताणे । भन्वयणकुमुयवणसिसिरयरो सिरिणंदिणामेण ॥५०॥ ____श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नायमें स्व-समय और पर-समयका ज्ञायक, और भव्यजनरूप कुमुदवनके विकसित करनेके लिए चन्द्र-तुल्य श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए ॥५४०॥ कित्ती जस्सिदुसुब्भा सयलभुवणमझे जहिच्छ भमित्ता, णिच्चं सा सजणाणं हियय-वयण-सोए णिवासं करेई । जो सिद्धतंबुरासि सुणयतरणमासेज्ज लीलावतिएणो। वएणेलं को समत्थो सयलगुणगणं से वियड्ढो' वि लोए ॥५४१॥ - जिसकी चन्द्रसे भी शुभ कीर्ति सकल भुवनके भीतर इच्छानुसार परिभूमण कर पुनः वह सज्जनोंके हृदय, मुख और श्रोत्रमें नित्य निवास करती है, जो सुनयरूप नावका आश्रय करके सिद्धान्तरूप समुद्रको लीलामात्रसे पार कर गये, उस श्रीनन्दि आचार्य के सकल गुणगणोंको कौन विचक्षण वर्णन करने के लिए लोकमें समर्थ है ? ॥५४१॥ सिस्सो तस्स जिणिंदसासणरो सिद्धंतपारंगो, खंती महव-लाहवाइदसहाधम्मम्मि णिच्चुजनो। पुण्णेंदुज्जलकित्तिपूरियजनो चारित्तलच्छीहरो, __ संजाओ णयणंदिणाममुणिणो भन्वासयाणंदो ५४२॥ ___ उस श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य, जिनेन्द्र-शासनमें रत, सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश प्रकारके धर्म में नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्रके समान उज्ज्वल कीत्तिसे जगको पूरित करनेवाला, चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और भव्य जीवोंके हृदयोंको आनन्द देनेवाला ऐसा नयनन्दि नामका मुनि हुआ ॥५४२॥ सिस्सो तस्स जिणागम-जलणिहिवेलातरंगधोयमणो। संजामो सयलजए विक्खाओ णेमिचन्दु ति ॥५४३॥ उस नयनन्दिका शिष्य, जिनागम रूप जलनिधिकी वेला-तरंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र इस नामसे सकल जगत्में विख्यात हुआ ॥५४३॥ तस्स पसाएण मए आइरियपरंपरागयं सस्थं । वच्छलयाए रइयं भवियाणमुबासयज्मयणं ॥५४॥ उन नेमिचन्द्र आचार्य प्रसादसे मैंने आचार्य-परम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययन शास्त्र वात्सल्य भावनासे प्रेरित होकर भव्य जीवोंके लिए रचा है ॥५४४॥ जं कि पि एस्थ भणियं अयाणमाणेण पवयणविरुद्धं । खमिऊण पवयणधरा सोहित्ता तं पयासंतु ॥५४५॥ अजानकार होनेसे जो कुछ भी इसमें प्रवचन-विरुद्ध कहा गया हो, सो प्रवचनके धारक (जानकार) आचार्य मुझे क्षमाकर और उसे शोधकर प्रकाशित करें ॥५४५॥ इच्च सया पण्णसुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाणं । वसुणंदिया णिबद्ध वित्थरियव्वं वियड्ढेहिं ॥५४६॥ वसुनन्दिके द्वारा रचे गये इस ग्रन्थका परिमाण (अनुष्टुप् श्लोकोंकी अपेक्षा) पचास अधिक छह सौ अर्थात् छह सौ पचास (६५०)है । विचक्षण पुरुषोंको इस ग्रंथका विस्तार करना चाहिए, अथवा जो बात इस ग्रन्थमें संक्षेपसे कही गई है, उसे वे लोग विस्तारके साथ प्रतिपादन करें ॥५४६॥ इत्युपासकाध्ययनं वसुनन्दिना कृतमिदं समाप्तम् । 1. सेवियट्ठो म. सेवियतो । ( विदग्ध इत्यर्थः) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि ष्ट प रि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ विशेष-टिप्पण गाथा नं० १५–विशेषार्थ-विवक्षित गतिमें कर्मोदयसे प्राप्त शरीरमें रोकनेवाले और जीवनके कारणभूत आधारको आयु कहते है। भिन्न-भिन्न शरीरोंकी उत्पत्तिके कारणभूत नोकर्मवर्गणाके भेदोंको कुल कहते हैं। कन्द, मूल, अण्डा, गर्भ, रस, स्वेद आदिकी उत्पत्तिके अाधारको योनि कहते है। जिन स्थानोंके द्वारा अनेक अवस्थाश्रोमे स्थित जीवोंका ज्ञान हो, उन्हें मार्गणास्थान कहते हैं। मोह और योगके निमित्त से होनेवाली आत्माके सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणोंकी तारतम्यरूप विकसित अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं। जिन सदृश धर्मों के द्वारा अनेक जीवोका संग्रह किया जाय, उन्हें जीव-समास कहते हैं। बाह्य तथा श्राभ्यन्तर कारणों के द्वारा होनेवाली अात्माके चेतनगुण की परिणतिको उपयोग कहते हैं। जीवमें जिनके संयोग रहनेपर 'यह जीता है और वियोग होनेपर 'यह मर गया' ऐसा व्यवहार हो, उन्हे प्राण कहते है। श्राहारादिकी वांछाको संज्ञा कहते हैं। . गाथा नं. ४६-विशेषार्थ-वस्तुके स्वरूप या नाममात्रके कथन करनेको निर्देश कहते हैं। वस्तुके आधिपत्यको स्वामित्व करते हैं। वस्तु की उत्पत्ति के निमित्तको साधन कहते हैं। वस्तुके अधिष्ठान या आधारको अधिकरण कहते हैं । वस्तुकी कालमर्यादाको स्थिति कहते हैं और वस्तुके प्रकार या भेदोंको विधान कहते है। परमागममे इन छह अनुयोग-द्वारोंसे वस्तु-स्वरूपके जाननेका विधान किया गया है। गाथा नं० २६५-आयंबिल या आचाम्लवत-अष्टमी श्रादि पर्वके दिन जब निर्जल उपवास करनेकी शक्ति नहीं हो, तब इसे करनेको जघन्य उपवास कहा गया है। पर्वके दिन एक बार रूक्ष एवं नीरस श्राहारके ग्रहण करनेको आयंबिल कहते हैं। इसके संस्कृतमे अनेक रूप देखनेमे पाते हैं, यथाअायामाम्ल, श्राचामाम्ल और आचम्ल । इनमेसे प्रारम्भके दो रूप तो श्वे० ग्रन्थों में ही देखनेमे आते है और तीसरा रूप दि० और श्वेताम्बर दोनो ही साम्प्रदायके ग्रन्थोंमें प्रयुक्त किया गया है। उक्त तीनोंकी निरुक्तियां विभिन्न प्रकारसे की गई हैं और तदनुसार अर्थ भी भिन्न रूपसे किये गये है। पर उन सबका अभिप्राय एक है और वह यह कि छह रसोमे अाम्लनामका चौथा रस है, इस व्रतमें उसे खानेका विधान किया गया है। इस व्रतमें नीबू इमली श्रादिके रसके साथ केवल पानीके भीतर पकाया गया अन्न घूघरी या रूखी रोटी श्रादि भी खाई जा सकती है। पानी में उबले चावलोंको इमली आदिके रसके साथ खानेको भी कुछ लोगोंने श्राचाम्ल कहा है । इस व्रतके भी तीन भेद किये गये हैं। विशेषके लिए इस नं०की गाथा पर दी गई टिप्पणीको देखो। णिव्वियडी या निर्विकृति व्रत इस व्रतमें विकार उत्पन्न करनेवाले भोजनका परित्याग किया जाता है। दूध, घी, दही, तेल, गुद श्रादि रसोंको शास्त्रोंमें विकृति संज्ञा दी गई है, क्योंकि वे सब इन्द्रिय-विकारोत्पादक हैं। अतएव उक्त रसोंका या उनके द्वारा पके हुए पदार्थोंका परित्याग कर बिलकुल सात्त्विक एवं रूक्ष भोजन करनेको निर्विकृतिव्रत कहा गया है। इसे करनेवालेको नमक तकके भी खानेका त्याग करना आवश्यक माना गया है। कुछ प्राचार्योको व्याख्यानुसार रसादिके संपर्कसे सर्वथा अलिप्त रूक्ष एक अन्नके ही खानेका विधान इस व्रतमें किया गया है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तदनुसार भाड़के भुंजे चना, मक्का, जुवार, गेहूँ आदि या पानीमे उबले अन्न धुंधरी आदि ही खाये जा सकते हैं। कुछ लोगोंकी व्याख्याके अनुसार नीरस दो अन्नोके संयोगसे बनी खिचड़ी, सत्तू आदि खाये जा सकते हैं। इस विषयका स्पष्टीकरण पं० आशाधरजीने अपने सागार धर्मामृतमे इस प्रकार किया है निर्विकृति:-विक्रियेते जिह्वा-मनसी येनेति विकृतिोरसेक्षुरस-फलरस-धान्यरसभेदाच्चतुर्धा । तत्र गोरसः क्षीर-धृतादिः, इक्षुरसः, खण्ड-गुडादि, फजरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैल-मण्डादिः। अथवा यद्येन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । विकृतेर्निष्क्रान्तं भोजनं निर्विकृति । -सागा० ध० अ० ५ श्लोक ३५ टीका ' अर्थात्-जिस भोजनके करनेसे जिह्वा और मन विकारको प्राप्त हो उसे विकृति कहते हैं। इसके चार भेद हैं:-गोरस विकृति, इक्षुरसविकृति, फलरसविकृति और धान्यरस विकृति । दूध, दही, घी, मक्खन आदिको गोरस विकृति कहते हैं । गुड़, खांड, शक्कर, मिश्री आदिको इक्षुरस विकृति कहते हैं। अंगर, अनार, श्राम. सन्तरे, मौसम्मी आदि फलोंके रसको फलरस विकृति कहते हैं और तेल, मांड आदिको धान्यरस विकृति कहते हैं। इन चारों प्रकारकी विकृतियोंसे यहाँ तक कि मिर्च मसालेसे भी रहित बिलकुल सात्त्विक भोजनको निर्विकृति भोजन कहा जाता है। गाथा नं० २६५ एयहाण एकस्थान या एकासन व्रत एयहाण शब्दका अर्थ एक स्थान होता है। भोजनका प्रकरण होनेसे उसका अर्थ होना चाहिए एक स्थानका भोजन, पर लोक-व्यवहारमै हमें इसके दो रूप देखने में आते हैं। दिगम्बर-परम्प गके प्रचलित रिवाजके अनुसार एयहाणका अर्थ है एक बार थालीमें परोसे गये भोजनका ग्रहण करना अर्थात् दुबारा परोसे गये भोजनको नहीं ग्रहण करना। पर इस विषयका प्ररूपक कोई दि० आगम-प्रमाण हमरे देखने में नहीं आया। ताम्बर आगम परम्पराके अनुसार इसका अर्थ है--जिस प्रकारके आसनसे भोजनके लिए बैठे, उससे दाहिने हाथ और मुंहको छोड़कर कोई भी अंग-उपोगको चल-विचल न करे। यहां तक कि किसी अंगमें खुजलाहट उत्पन्न होने पर उसे दूर करनेके लिए दूसरा हाथ भी उसको नहीं उठाना चाहिए । जिनदास महत्तरने आवश्यक चूर्णिमे इसकी व्याख्या इस प्रकार की है :एकट्ठाणे ज जथा अंगुवंग, ठवियं तहेव समुद्दिसितव्वं, प्रागारे से अाउंटण-पसारणं नथि । श्राचार्य सिद्धसेनने प्रवचनसारकी वृत्तिमें भी ऐसा ही अर्थ किया है : एक-अद्वितीय स्थान-अंगविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थानप्रत्याख्यानम् । तद्यथा-भोजनकालेऽङ्गोपाङ्ग स्थापितं तस्मिंस्तथा स्थित एव भोक्तव्यम् । मुखस्य हस्तस्य च अशक्यपरिहारत्वञ्चलनमप्रतिषिद्धमिति । भावार्य-भोजन प्रारम्भ करनेके समय अपने अंग-उपांर्गोको जिस प्रकारसे स्थापित किया हो और जिस श्रासनसे बैठा हो, उसे उसी स्थितिमें रहकर और उसी बैठकसे बैठे हुए ही भोजन करना चाहिए । ग्रास उठानेके लिए दाहिने हाथका उठाना और ग्रास चबानेके लिए मुखका चलाना तो अनिवार्य है। एकासनसे एकस्थानव्रतका महत्त्व इन्हीं विशेषताओंके कारण अधिक है। एक-भक्त या एकात्त एक + भक्त अर्थात् दिनमें एक बार भोजन करनेको एकभक्त या एकाशन कहते हैं। एकात्तका भी यही अर्थ है एक अत्त अर्थात् एक बार भोजन करना । दि० और श्वे० दोनों परम्पराओंमे इसका समान ही अर्थ किया गया है। आवश्यक चूर्णिमें जिनदास महत्तर कहते हैं :एगासणं नाम पूता भूमीतो न चालिज्जति, सेसाणि हत्थे पायाणि चालेजावि। श्रावश्यक वृत्तिमें हरिभद्रसूरि कहते हैंएकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचलनेन भोजनम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा-विधान १४७ प्रवचनसारोद्धार वृत्तिमें आचार्य सिद्धसेन कहते हैं: एकं-सकृत् , अशनं-भोजन; एकं वा असनं-पुताचलनतो यत्र प्रत्याख्याने तदेकाशनमेकासनं वा। प्राकृते द्वयोरपि एगासणमिति रूपम् । अर्थात्-भोजनके लिए बैठकर फिर भूमिसे नहीं उठते हुए एक बार भोजन करनेको एकाशन या एकभक्त कहते है। पुतनाम नितम्बका है। एकाशन करते समय नितम्ब भूमिपर लगे रहना चाहिए। हां, एकाशन करनेवाला नितम्बको न चलाकर शेष हाथ-पैर आदि अंग-उपांगोको अावश्यकता पड़नेपर चला भी सकता है। गाथा नं. २६७ पर प प्रतिमें निम्न टिप्पणी है चतस्त्रः स्त्रीजातयः ४। ताः मनोवाकायैस्ताडिताः १२। ते कृतकारितानुमतैः गुणिताः ३६। ते पंचेन्द्रियह ताः१८० । तथा दशसंस्कारैः(शरीरसंस्कारः १, शृंगारसरागसेवा २, हास्यक्रीडा ३, संसर्गवांछा ४, विषयसंकल्पः५, शरीरनिरीक्षणम् ६, शरीरमंडनम् ७, दानम् ८, पूर्वरतानुस्मरणः ९, मनश्चिन्ता१०) एतैर्दशभिर्गुणिताः १८०० । ते दशकामचेष्टाभिर्गुणिताः १८०००। (तथाहि-चिन्ता ३, दर्शनेच्छा २, दी?छवासः ३, शरीरातिः ४, शरीरदाहः ५, मन्दाग्निः ६, मूर्छा ७, मदोन्मत्तः प्राणसन्देहः ९, शुक्रमोचनम् १० एतैर्दशभिर्गुणिताः।) अर्थात्-उक्त प्रकारसे शीलके १८००० अठारह हजार भेद होते हैं। १ प्रतिष्ठा-विधान गाथा नं. ३६३-प्रतिमालक्षणम् अथ विम्बं जिनेन्द्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वितम् । ऋज्वायतसुसंस्थान तरुणांगं दिगम्बरम् ॥१॥ श्रीवृक्षभूभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । निजांगुलप्रमाणेन साष्टांगुलशतायुतम् ॥२॥ मानं प्रमाणमुन्मानं चित्रलेपशिलादिषु । प्रत्यंगपरिणाहोध्वं यथासख्यमुदीरितम् ॥३॥ कक्षादिरोमहीनांग श्मश्ररेखाविवर्जितम् । ऊवं प्रलम्बकं दत्त्वा समाप्त्यन्तं च धारयेत् ॥४॥ तालं मुखं वितस्तिः स्यादेकार्थ द्वादशांगुलम् । तेन मानेन तद्विम्बं नवधा प्रविकल्पयेत् ॥५॥ प्रातिहायांष्टकोपेतं सम्पूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धांगं कारयेद्विम्बमहंतः ॥६९।। प्रातिहाय विना शुद्ध सिद्धविम्बमपीडशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् ॥७॥ लक्षणैरपि संयुक्त विम्बं दृष्टिविजितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुर्याद्दष्टिप्रकाशनम् ॥७२॥ नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमीलिता। सिर्यगूलमथो दृष्टिं वर्जयित्वा प्रयत्नतः ॥७३॥ नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्याऽधोत्तमा तथा ॥७॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अर्थनाशं विरोधं च तिर्यग्दृष्टिभयं तथा । अधस्तात्सुतनाश च भार्यामरणमूर्ध्वगा ॥७५॥ शोकमुद्वेगसंतापं स्तब्धा कुर्याद्धनक्षयम् । शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थाशाभिवृद्धिप्रदा भवेत् ॥७६॥ सदोषार्चा न कर्त्तव्या यतः स्यादशुभावहा । कुर्याद्रौदा प्रभोनाशं कृशांगीव्यसंक्षयम् ॥७७॥ सक्षिप्तांगीः क्षयं कुर्याञ्चिपिटा दुःखदायिनी । विनेत्रा नेत्रविध्वंसं हीनवक्त्रा त्वशोभनी॥७॥ व्याधि महोदरी कुर्याद् हृद्रोग हृदये कृशा । अशहीनानु हन्याच्छुष्कजंघा नरेन्द्रही ॥७९॥ पादहीना जन हन्यात्कटिहीना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनी-प्रतिमां दोपवर्जिताम् ॥२०॥ सामान्येनेदमाख्यातं प्रतिमालक्षणं मया । विशेषतः पुनर्जेय श्रावकाध्ययने स्फुटम् ॥१॥ (वसुनन्दिप्रतिष्ठापाठ, परि० ४) अर्थात्-प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होना चाहिए, अन्यथा वह प्रतिष्ठाकारकके धन-जन-हानि आदिकी सूचक होती है। । गाथा नं० ४०८-धूलीकलशाभिषेक गोशृङ्गागजदंताच्च तोरणात्कमलाकरात् । नगात्प्रसिद्धतीर्थाच्च महासिन्धुतटाच्छुभात् ॥७॥ श्रानीय मृत्तिकां क्षिप्त्वा कुम्भे तीर्थाम्बुसंभृते । तेन कुर्याजिनार्चाया धूलीकुम्भाभिषेचनम् ॥७॥ धूलिकाकलशस्नपनमंत्रः ( वसुनन्दिप्रतिष्ठापाठ) भावार्थ-गोशृग, गजदन्त आदिसे अर्थात् आजकी भाषामें कुदाली, कुश आदिके द्वारा किसी तीर्थ, तालाब, नदी या प्रसिद्ध स्थानकी मृत्तिका खोदकर लावे और उसे तीर्थ-जलसे भरे घड़े में भरकर गलावे । पुनः उस गली हुई मिट्टीसे प्रतिमाका लेप करे, इसे धूलोकलशाभिषेक कहते हैं । यह प्रतिमाकी शुद्धिके लिए किया जाता है। गाथा नं. ४०६-प्रोक्षणविधि लोकप्रसिद्धसद्व्यैः सदजन्यादिभिः स्वयम् । सप्रोच्या विधवाभिश्च निःशल्याभिः सुजातिभिः ॥७२॥ प्रोक्षणमत्रः अर्थात-कुलीन सधवा या विधवा व्रती स्त्रियोके द्वारा लोक-प्रसिद्ध सद्रव्योंसे प्रतिमाका प्रोक्षण या संमार्जन करावे । गाथा नं. ४१०-आकरशुद्धि न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थचम्पकाशोककिंशुककदम्बप्लक्ष-विल्वाम्रवकुलाजुनपल्लवैः ॥७३॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा-विधान १४६ प्रच्छादितास्यसत्कुम्भैः सर्वतीर्थाम्बुसंभृतैः । मंत्राभिमंत्रितैः कुर्याजिनविम्बाभिषेचनम् ॥४॥ द्वादशपल्लवकलशा भषेकमंत्रः रोचनादर्भसिद्धार्थपद्मकागुरुचन्दनम् । दूर्वाङ्करयवव्रीहिश्रीखण्डरौप्यकांचनम् ॥७५॥ मालतीकुंदपुष्पाणि नंद्यावतं तिलस्तथा । गोमयं भूमिमप्राप्तं निम्नगाढा सुमृत्तिका ॥७६।। एतैर्द्रव्यैः समायुक्तसर्वतीर्थाम्बुसम्भृतैः । चामीकरप्रभैः कुम्भैः जिनाच्चों स्नापयेत्सदा ॥७७॥ मंगलद्रव्यकलशस्नपनमंत्रः अमृता सहदेवी च विष्णुकांता शतावरी । भुंगराजः शमी श्यामा सप्तौषध्यः स्मृता इमाः ॥७॥ एताभिर्युक्ततीर्थाम्बुपूर्णशुभ्रमहावटैः । मंत्राभिमंत्रितैर्भक्त्या जिनार्चामभिषिचयेत् ॥७॥ सप्तौषधिकलशस्नपनमंत्रः जातीफललवंगाम्रविल्वभल्लातकान्वितैः । सर्वतीर्थाम्बुभिः पूर्णैः कुम्भैः संस्नापयेजिनम् ॥८॥ फलपंचकलशस्नपनमंत्रः पालाशोदुम्बराश्वत्थशमीन्यग्रोधकत्वचा । मिश्रतीर्थाम्बुभिः पूर्णैः स्नापयेच्छुभ्रसद्धटैः ॥॥ छल्लपंचककलशस्नपनमत्रः सहदेवी बला सिंही शतमूली शतावरी । कुमारी चामृता व्याघ्री तासां मूलाष्टकान्वितैः ॥२॥ सर्वतीर्थाम्बुभिः पूर्ण चित्रकुम्भ वैईहै। मंत्राभिमंत्रितैजैन विम्बं संस्नापयेत्सदा ॥३॥ दिव्यौषधिमूलाष्टकलशस्नपनमंत्रः लवगैलावचाकुष्टं ककोलाजातिपत्रिका । सिद्धार्थनंदनायैश्च गन्धद्व्यविमिश्रितैः ॥४४॥ तीर्थाम्बुभिर्भूतैः कुम्भैः सौंषधिसमन्वितैः । मंत्राभिमंत्रितेजैनीप्रतिमामभिषेचयेत् ॥४५॥ सौषधिकलशस्नपनमंत्रः एवमाकरसंशुद्धिं कृत्वा शास्त्रोक्तकर्मणा । श्रीवर्धमानमंत्रेण जिना मभिमंत्रयेत् ॥८६॥ 'ॐ णमो भयवदो वड्ढमाणस्स रिसिस्स जस्स चक्कं जलंतं गच्छद आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जए वा, विवाए वा, थंभणे वा, मोहणे वा, रणंगणेवा, रायंगणे वा, सव्वजीवसत्ताणं अवराजिनो भवदु मे रक्ख रक्ख स्वाहा।' अनेन श्रीवर्धमानमंन्त्रेण प्रतिमां सप्तधारानभिमंत्रयेत् । २० Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वसुनन्दि-श्रावकाचार : भावार्थ-न्यग्रोध आदि बारह वृक्षोके पत्रों के द्वारा ढके दूर्वा कुर आदि मागलिक द्रव्योंसे मुक्त अमृतादि सप्त औपधियोंके, जातीफलादि पंच फलोके, पलाशादिको छालके, सहदेवी आदि आठ दिव्यौषधियोकी जड़ों के और लवंगादि सौंषधियोके रसोसे भरे घटोसे खानिके भीतर ही प्रतिमाको शुद्धि करनेको आकरशुद्धि कहते हैं। गाथा नं० ४१८ गुणारोपण विधि सहजान्धातिनाशोत्थान् दिव्याचाँतिशयान् शुभान् । स्वर्गावतारसज्जन्मनिःक्रमज्ञाननिवृतीः ॥१५॥ कल्याणपंचकं चैतत्प्रातिहार्याष्टकं तथा । संध्यायां रोपयेत्तस्यां प्रतिमायां बहिर्भवम् ॥९६॥ अनन्तदर्शनं ज्ञानं सुखं वीर्य तथान्तरम् । सम्यग्ध्यात्वाऽहतां विम्ब मनसाऽऽरोपयेत्तत्तः ॥१७॥ सम्यक्त्वं दर्शन ज्ञानं वीर्यागुरुलघू सुखम् । अव्याबाधावगाहौ च सिद्धविम्बेषु संस्मरेत् ॥१८॥ रत्नत्रयं च विम्बेषु शेषाणां परमेष्ठिनाम् । अंग-पूर्वमयं देहं श्रुतदेव्याश्च चिन्तयेत् ॥१९॥ पुस्तकार्थमपि ध्यायेदनन्तार्थाक्षरात्मकम् । अनेन विधिना तिष्ठेद्यावदिष्टांशकोदयः ॥१०॥ प्रतिमायां गुणारोपणम् अर्थात्-उक्त प्रकारसे अर्हन्तकी प्रतिमामे अरिहंतोंके, सिद्ध के बिम्बमें सिद्धोके और शेष परमेष्ठियोंकी मूर्तियों में उनके गुणोंको अारोपण करे। शास्त्रोमे द्वादशांग श्रुतका अध्यारोपण करे | गाथा नं. ४१८ चन्दन तिलक दधिसिद्धार्थसदूर्वाफलपुष्पाक्षतान्यपि । सवृद्धिरुद्धिकर्पूरप्रियंगुयुतचन्दनम् ॥१०॥ एवमादिशुभैव्यैः समावाहनपूर्वकम् । लग्नेष्टांशोदये सम्यक् स्मृत्वा मंत्रं प्रतिष्ठयेत् ॥१०२॥ प्रतिष्ठातिलकद्रव्याणि तिलकमंत्रोऽयं-ॐ णमो अरहताणं अहं स्वाहा' तिलकं दद्यात् । अर्थात्-- उक्त द्रव्योंसे प्रतिमाके तिलक करे । गाथा नं. ४१६ मंत्रन्यास अत्र स्थापनानिक्षेपमाश्रित्यावाहनादिमंत्राः कथ्यन्ते । यथा-ॐ ह्रां ह्रीं हह्रौं हः असि आ उसा एहि एहि सवौषट् । आवाहनमन्त्रः। ॐ ह्रां ह्रीं हू ह्रौं हः असि पा उ सा तिष्ठ तिष्ठ ठ । स्थापनमंत्रः। ॐ हां ह्रीं ह्रौं हः असि आ उ सा अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । सन्निधीकरणमंत्रः । आवाहनादिकं कृत्वा सम्यगेवं समाहितः।। स्थिरात्माष्टप्रदेशानां स्थाने बीजाक्षरं न्यसेत् ॥१०३॥ ॐ हा ललाटे, ॐ ह्रीं वामकर्णे, ॐ हदक्षिणकणे, ॐ ह्रौं शिरः पश्चिमे, ॐ हः मस्तकोपरि, ॐ चमां नेत्रयोः, ॐचमी मुखे, ॐ चमू कण्ठे, ॐ चमाँ हृदये ॐ चमः बाह्वोः, ॐ क्रौं उदरे, ॐ ह्रीं कठ्यां, ॐ तू जंधयोः, ॐ तू' पादयोः, ॐ क्षः हस्तयोः। श्रीखण्डकपूरेण प्रतिमांगे गंधं विलिप्य प्रतिष्ठापयेत् । बीजाक्षराणि विन्यस्येत् । अर्थात्-उक्त प्रकार प्रतिमाके विभिन्न अंगोंपर बीजाक्षरोंको लिखे, यह मंत्रन्यासक्रिया कहलाती है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ प्रतिष्ठा-विधान गाथा नं. ४२० मुखपटविधानादि बहुमूल्यं सितश्लचण प्रत्यग्रं सुदशान्वितम् । प्रनष्टावृत्तिदोषस्य मुखवस्त्रं ददाम्यहम् ॥१०७।। ॐ नमोऽहंते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं सर्वधान्ययुतं मुखवस्त्रं ददामि स्वाहा।' मदनफलसहितमुखवस्त्रमंत्रः ॐ अट्ठविहकम्ममुक्को तिलोयपुज्जो य संथुश्रो भयवं । अमरणरणाहमहिनो अणाइणिहणो सि बंदसि ओ ॥ स्वाहा । कंकणबधनम् निरस्त्रमन्मथास्त्रस्य ध्यानशस्त्रास्तकर्मणः । विघ्नौघघ्नानि काण्डानि वस्त्रप्रान्तेषु विन्यसेत् । काण्डस्थापनम् गाथा नं. ४२१ यावारकस्थापनादि सर्वद्विदलसंभूतैर्बालांकुरविरूढकैः । पूजयामि जिनं छिन्नकर्मबीजांकुरोकरम् ॥११२॥ यवादिधान्यसंभूतैः प्रौढोल्लासिहरिप्रभैः। यावारकैर्जिनं भक्त्या पूजयामि शुभप्रदैः॥११३॥ यावारकस्थापनम् पंचवोल्लसच्छायैः शक्रचापानुकारिभिः। जगद्वर्णितसत्कीर्तिवर्णपूरैर्यजे जिनम् ॥११४॥ वर्णपूरकम् प्रोद्दण्डैः सदसोपेतैः यौवनारम्भसन्निभैः । निराकृतेक्षुकोदंडं यजे पुण्ड्रेक्षुभिर्जिनम् ॥१५॥ इक्षुस्थापनम् । अर्थात्-मंत्रन्यासके पश्चात् मैनफलके साथ धवल वस्त्रयुगलसे प्रतिमाके मुखको आच्छाद न करे । पुनः प्रतिमाके कंकणबन्धन, काण्डकस्थापन, यावारक-(जवार) स्थापन, वर्णपूरक और इच्छुस्थापन क्रियाओंको करे। गाथा नं० ४२१ बलिवर्तिकादि सत्पुष्पपल्लवाकारैः फलाकारैरनेकधा । आनः पिष्टोद्भवैः शम्भु बलिवयुत्करैर्यजेत् ॥१६॥ बलिवत्तिकास्थापनम् सौवर्ण राजतं पूर्ण सुवारिपल्लवाननम् । दधिदूर्वाक्षताक्तांगं भुंगारं पुरतो न्यसेत् ॥११७॥ भुंगारस्थापनम् अनेन विधिना सम्यक् द्वे चत्वारि दिनानि वा । त्रिसन्ध्यमर्चनं कुर्वन् जिनार्चामधिवासयेत् ॥११८॥ अधिवासनाविधानम् Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वसुनन्दि-श्रावकाचार अथारार्तिकमुत्तार्य धूपमुत्क्षिप्य चोत्तमम् । श्रीमुखोद्धाटनं कुर्यात् सुमंत्रजपभावितः ॥११९॥ ॐ उसहाइवडढमाणाणं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं महइ-महावीर-वड्डमाणसामीणं सिज्झउ मे महइ महाविज्जा अढमहापाडिहरसहियाणं सयलकल्लाणधराणं सज्जोजादरूवाणं चउतीस अइसयविसेससंजुत्ताणं बत्तीसदेविंदमणिमउडमत्थयमहियाणं सयललोयस्स संति-बुद्धि-तुहि-कल्लाणाउप्रारोग्गकराणं बलदेवचक्कहर-रिसि-मुणि-जदि-अणगारोवगूढाणं उभयलोयसुहफलयराणं थुइसयसहस्सणिलयाणं परापरमप्पाणं श्रणाइणिहणाणं बलिबाहुबलिसहियाणं वीरे-बीरे ॐ हां हां सेणवीरे वड्ढमाणवीरे सं जयंतवराइए वज्जसिलत्थंभमयाण सस्सदबंभपइट्ठियाणं उसहाइ-वीरमंगलमहापुरिसाणं णिचकालपइट्टियाणं एत्थ सरिणहिदा मे भवंतु ठः ठः क्षः क्षः स्वाहा । श्रीमुखोद्धाटनमंत्रः। उक्त मंत्रके द्वारा प्रतिमाके मुखको उघाड़ देवे । गाथा नं० ४२३ नेत्रोन्मीलनमंत्रादिः रौप्यपात्रस्थदुग्धाज्यशर्करापूरसिताक्तया। चक्षरुन्मीलन कुर्याच्चामीकरशलाकया ॥१२॥ ॐणमो अरहताणं णाण-दसण-चक्खुमयाणं अमीयरसायणविमलतेयाणं संति-तुहि-पुद्धि-वरद-सम्मादिट्ठीणं वं झं अमियवरिसीणं स्वाहा । नेत्रोन्मीलनमंत्रः अर्थात्-इस मंत्र द्वारा प्रतिमाके नेत्रोंमे कनीनिका(पुतली)का आकार सोनेकी सलाईसे अष्टगंधद्वारा निकाले । इसे नेत्रोन्मीलन संस्कार कहते है। ॐ सत्तक्खरसज्झाणं अरहताणं णमो ति भावेण । जो कुणइ अणहयमणो सो गच्छइ उत्तमं ठाणं ॥१२२॥ कंकणमोक्षणम् । अर्थात्-इस मंत्रसे कंकण छोड़े। पुनः प्रतिमाका अभिषेक और पूजन करके निम्न मंत्रसे विसर्जन करे। अभिषेकं ततः कुर्यात् स्थानशास्त्रोक्तकर्मणा । बलिं शास्त्रोक्तमार्गेण भ्रामयेच्च चतुर्दिशम् ॥१२३॥ मंगलार्थ समाहूता विसाखिलदेवताः । विसर्जनाख्यमंत्रेण वितीर्य कुसुमांजलिम् ॥१२॥ ॐ जिनपूजार्थं समाहृता देवता विसर्जनाख्यमंत्रेण सर्वे विहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत गच्छत यःयः यः। इति विसर्जनमंत्रः। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ सल्लेखना-विधान सल्लेखना या समाधिमरण (गाथा २७१-२७२)--आ० वसुनन्दिने सल्लेखनाका जो स्वरूप कहा है, वह स्वामी समन्तभद्र द्वारा रत्नकरण्डकमे प्रतिपादन किये गये स्वरूपसे भिन्न हैं। स्वामी समन्तभद्रने सल्लेखनाका जो स्वरूप बताया है उसमे उन्होने गहस्थ या मुनिकी अपेक्षा कोई भेद नही रखा है। बल्कि समाधिमरण करने वालेको सर्वप्रकारका परिग्रह छुडाकर और पचमहाव्रत स्वीकार कराकर विधिवत् मुनि बनानेका विधान किया है। उन्होने आहारको क्रमश घटाकर केवल पानपर निर्भर रखा और अन्तमे उसका भी त्याग करके यथाशक्ति उपवास करनेका विधान किया है। परन्तु आ० वसुनन्दि अपने प्रस्तुत ग्रन्थमें सल्लेखना करनेवालेके लिए एक वस्त्रके धारण करने और जलके ग्रहण करनेका विधान कर रहे है और इस प्रकार मुनिके समाधिमरणसे श्रावकके समाधिमरणमे एक विभिन्नता बतला रहे है। समाधिमरणके नाना भेदोका विस्तारसे प्ररूपण करनेवाले मूलाराधना ग्रन्थमें यद्यपि श्रावक और मुनिकी अपेक्षा समाधिमरणमें कोई भेद नही किया है, तथापि वहाँ भक्त-प्रत्याख्यान समाधिमरणके औत्सर्गिक और आपवादिक ऐसे दो भेद अवश्य किये गये है। जान पड़ता है कि उस आपवादिक लिगको ही आ० वसुनन्दिने श्रावकके लिए विधेय माना है। हालाँकि मूलाराधनाकारने विशिष्ट अवस्थामें ही अपवाद-लिगका विधान किया है, जिसे कि स्पष्ट करते हुए पं० आशाधरने सागारधर्मामृतमे भी लिखा है कि यदि कोई श्रीमान् महद्धिक एवं लज्जावान् हो और उसके कुटुम्बी मिथ्यात्वी हों, तो उसे सल्लेखना कालमे सर्वथा नग्न न करें। मूलाराधनाकार आदि सर्व आचार्योन सल्लेखना करनेवालेके क्रमशः चारो प्रकारके आहारका त्याग आवश्यक बताया है, पर आ० वसुनन्दि उसे तीन प्रकारके आहार-त्यागका ही विधान कर रहे है, यह एक दूसरी विशेषता वे गृहस्थके समाधिमरणमें बतला रहे है। ज्ञात होता है कि सल्लेखना करनेवालेकी व्याधि आदिके कारण शारीरिक निर्बलनाको दृष्टिमे रखकर ही उन्होंने ऐसा विधान किया है, जिसकी कि पुष्टि पं० आशाधरजीके द्वारा भी होती है। वे लिखते है व्याध्याद्यपेक्षयाऽम्भो वा समाध्यर्थ विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जहयात्तदप्यासन्नमृत्युक ॥६५॥ सागार० अ०८ ___ अर्थात्-व्याधि आदिके कारण कोई क्षपक यदि चारो प्रकारके आहारका त्याग करने और तृषापरीषह सहन करनेमे असमर्थ हो, तो वह जलको छोडकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करे और जब अपनी मृत्यु निकट जाने तो उसका भी त्याग कर देवे । 'व्याध्याद्यपेक्षया' पदकी व्याख्या करते हुए वे लिखते है-- १ श्रावसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महढिो हिरिमं । मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंग ॥ -मूलारा० आ० २, गा० ७६ २ हृीमान्महद्धिको यो वा मिथ्यात्वप्रायबान्धवः । सोऽविविक्त पद नाग्न्यं शस्तलिंगोऽपि नार्हति ॥३७॥-सागार० अ०८ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ वसुनन्दि-श्रावकाचार 'यदि पैत्तिकी व्याधिर्वा, ग्रीष्मादि कालो वा, मरुस्थलादिर्देशो वा, पैत्तिकी प्रकृतिर्वा, अन्यदप्येवविधतुषापरीषहोद्रेकासहन-कारण वा भवेत्तदा गुर्वनुज्ञया पानीयमुपयोक्ष्येऽहमिति प्रत्याख्यान प्रतिपद्यतेत्यर्थ । -सागार० टीका। अर्थात--यदि पैत्तिक व्याधि हो, अथवा ग्रीष्म आदि काल हो, या मरुस्थल आदि शुष्क और गर्म देश हो, या पित्त प्रकृति हो, अथवा इसी प्रकारका अन्य कोई कारण हो, जिससे कि क्षपक प्यासकी परीवह न सह सके, तो वह गुरुकी आज्ञासे पानीको छोडकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करे। ४ व्रत-विधान व्रत विधान (गा० ३५३-३८१)--आ० वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमे ग्यारह प्रतिमाओके निरूपण करने के पश्चात् श्रावकके अन्य कर्तव्योको बतलाते हुए पचमी आदि कुछ व्रतोका भी विधान किया है और कहा है कि इन व्रतोके फलसे जीव देव और मनुष्योके इन्द्रिय-जनित सुख भोगकर अन्तमे मोक्ष पाता है । अन्तमें लिखा है कि व्रतोका यह उद्देश्य-मात्र वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त अन्य भी सूत्रोक्त व्रतोको अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिए। (गा० ३७८-३७६) तदनुसार यहाँ उनपर कुछ विशेष प्रकाश डाला जाता है। पंचमी विधान-इसे श्वेत पचमी व्रत भी कहते है । यह व्रत पाँच वर्ष और पॉच मास मे समाप्त होता है। आषाढ, कात्तिक या फाल्गुन इन तीन मासोमेसे किसी एक मासमे इस व्रतको प्रारम्भ करे। प्रतिमास शुक्लपक्षकी पचमीके दिन उपवास करे। लगातार ६५ मास तक उक्त तिथिमे उपवास करनेपर अर्थात् ६५ उपवास पूर्ण होने पर यह विधान समाप्त होता है । व्रतके दिन णमोकार मत्रका त्रिकाल जाप्य करना चाहिए। रोहिणी विधान-इसे अशोक रोहिणी व्रत भी कहते है। यह व्रत भी पाँच वर्ष और पाँच मासमे समाप्त होता है। इस व्रतमें प्रतिमास रोहिणी नक्षत्रके दिन उपवास करना आवश्यक माना गया है। क्रियाकोषकार पं० किशन सिंहजी दो वर्ष और तीन मासमे ही इसकी पूर्णता बतलाते है। व्रतके दिन णमोकार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करना चाहिए । अश्विनी विधान-इस व्रतमे प्रतिमास अश्विनी नक्षत्रके दिन उपवास किया जाता है। लगातार सत्ताईस मास तक इसे करना पड़ता है। सौख्यसंपत्ति विधान---इस व्रतके वृहत्सुखसम्पत्ति, मध्यम सुख-सम्पत्ति और लघु सुख-सम्पत्ति ऐसे तीन भेद व्रत विधान-सग्रहमे पाये जाते है। आ० वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमे वृहत्सुख-सम्पत्ति व्रतका विधान किया है। इस व्रत सब मिलाकर १२० उपवास किये जाते हैं। उनके करनेका क्रम यह है कि यह व्रत माससे प्रारम्भ किया जाय, उस मासके प्रतिपदा को एक उपवास करना चाहिए। तदनन्तर अगले मासकी दोनो दोयजोंके दिन दो उपवास करे । तदनन्तर अगले मासकी दो तीजे और उससे अगले मासकी एक तीज ऐसी तीन तीजोके दिन तीन उपवास करे। इस प्रकार आगे आनेवाली ४ चतुर्थियोंके दिन ४ उपवास करे । उससे आगे आनेवाली ५ पंचमियोंके दिन क्रमशः ५ उपवास करे। उपवासोंका क्रम इस प्रकार जानना चाहिए:१ एक प्रतिपदाका एक उपवास. २. दो द्वितीयाओंके दो उपवास । ३. तीन तृतीयाओके तीन उपवास । ४. चार चतुर्थियोंके चार उपवास । ५. पाँच पचमियोंके पॉच उपवास । ६ छह षष्ठियोंके छह उपवास । ७. सात सप्तमियोंके सात उपवास । ८ आठ अष्टमियोंके आठ उपवास । ६. नौ नवमियोंके नौ उपवास । १० दश दशमियोंके दश उपवास । ११. ग्यारह एकादशियोंके ग्यारह उपवास । १२. बारह द्वादशियोके बारह उपवास । १३. तेरह त्रयोदशियोंके तेरह उपवास । १४ चौदह चतुर्दशियोके चौदह उपवास । १५. पन्द्रह पूर्णिमा-अमावस्याओके पन्द्रह उपवास । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत-विधान मध्यम सुखसम्पत्ति-व्रत-इसमे व्रत प्रारम्भ करनके मासकी अमावस्या और पूर्णिमाके दिन उपवास करना पड़ता है । इस प्रकार एक वर्षमे २४ और पाँच वर्षमे १२० उपवास करना आवश्यक बताया गया है। लघु सुखसम्पत्ति-व्रत--यह व्रत सोलह दिनमे पूर्ण होता है। जिस किसी भी मासकी शुक्ला प्रतिपदासे अग्रिम मासकी कृष्णा प्रतिपदा तक लगातार १६ दिनके १६ उपवास करना इसमे आवश्यक बताया गया है। । उक्त तीनो ही प्रकारके व्रतोमे उपवासके दिन तीनो सध्याओमे एक-एक णमोकारमत्रकी मालाका जाप्य आवश्यक है। नन्दीश्वरपंक्ति-विधान--यह व्रत १०८ दिनमे पूरा होता है, इसमे ५६ उपवास और ५२ पारणा करना पडते है। उनका क्रम इस प्रकार है--पूर्व दिशा-सम्बन्धी अजन गिरिका वेला एक, उसके उपवास २, पारणा १। चार दधिमुखके उपवास ४, पारणा ४ । आठो रतिकरोके उपवास ८, पारणा ८ । इस प्रकार पूर्व-दिशागत जिनालय-सम्बन्धी उपवास १४ और पारणा १३ हुए। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाके उपवासोके मिलानेपर कुल ५६ उपवास और ५२ पारणा होते है। इस व्रतमे 'ॐ ह्री नन्दीश्वरद्वीपे द्वापचाशज्जिनालयेभ्यो नम.' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य आवश्यक है। यदि यह व्रत आष्टान्हिका पर्वमे करे, तो उसकी उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसी तीन विधियॉ बतलाई गई है। उत्तमविधिमें सप्तमीके दिन एकाशन करके उपवासकी प्रतिज्ञा कर अष्टमीसे पूर्णमासी तक ८ उपवास करे। पश्चात् प्रतिपदाको पारणा करे। दशो दिन उपर्युक्त मत्रका त्रिकाल जाप्य करे। इस प्रकार कात्तिक, फाल्गुण और आषाढ तीनों मासमे उपवास करे। इसी प्रकार आठ वर्ष तक लगातार करे । मध्यमविधिमे सप्तमीके दिन एकाशन करके उपवासकी प्रतिज्ञाकर अष्टमीका उपवास करे और ॐ ह्री नन्दीश्वरसज्ञाय नम' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे । नवमीके दिन पारणा करे और 'ॐ ह्री अष्टमहाविभूतिसज्ञाय नम' इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे। दशमीके दिन केवल जल और चावल का आहार ले । 'ॐ ह्री त्रिलोकसारसज्ञाय नम' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे । एकादशीके दिन एक बार अल्प आहार करे। 'ॐ ह्री चतुर्मुखसंज्ञाय नम.' इ स मत्रका त्रिकाल जाप्य करे । द्वादशीके दिन एकाशन करे। 'ॐ ह्री पंचमहालक्षणसज्ञाय नम.' इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे। त्रयोदशीके दिन आचाम्ल करे अर्थात् जलके साथ नीरस एक अन्नका आहार करे।'ॐ ह्री स्वर्गसोपानसंज्ञाय नम.' इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे। चतुर्दशीके दिन चावल वा जल ग्रहण करे । 'ॐ ह्री सर्वसम्पत्तिसंज्ञाय नम' इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे । पूर्णमासीको उपवास करे। 'ॐ ह्री इन्द्रध्वजसज्ञाय नमः' इस मत्रका जाप्य करे । अन्तमे प्रतिपदाको पारणा करे । जधन्यविधिमे अष्टमीसे पूर्णिमासी तक प्रतिदिन एकाशन करे। 'ओ ह्री नन्दीश्वरद्वीपे द्वापंचाशज्जिनालयेभ्यो नम.' मत्रका त्रिकाल जाप्य करे। विमानपंक्ति-विधान-यह व्रत स्वर्गलोक-सम्बन्धी ६३ पटल-विमानोके चैत्यालयोकी पूजनभावनासे किया जाता है। प्रथम स्वर्गके प्रथम पटलका वेला १, पारणा १। इसके चारो दिशा-सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानोके चैत्यालयोंके उपवास ४, पारणा ४ । इस प्रकार एक पटल-सम्बन्धी वेला १, उपवास ४ और पारणा ५ हुए। इस क्रमसे सोलह स्वर्गोके ६३ पटलके वेला ६३, उपवास २५२ और पारणा ३१५ होते है। इसमे व्रतारंभका तेला १ पारणा १ जोड़ देनेपर उपवासोंकी संख्या ३८१, पारणा ३१६ होते है । व्रतारम्भमे एक तेला करे फिर पारणा करके व्रत आरम्भ करे।'ॐ ह्री ऊर्ध्वलोक सम्बन्धि-असख्यात-जिनचैत्यालयेभ्यो नम.' इम मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। यह व्रत ६६७ दिनमे पूरा होता है। षोडशकारण-व्रत-यह व्रत एक वर्षमें भादों, माघ और चैत्र इन तीन महीनोंमें कृष्ण पक्षकी एकमसे अगले मासकी कृष्णा एकम तक किया जाता है। उत्तमविधिके अनुसार बत्तीस दिनके ३२ उपवास करना आवश्यक है। मध्यम विधिके अनुसार एक दिन उपवास एक दिन पारणा इस प्रकार १६ उपवास और १६ पारणा करना पड़ते है । जघन्य विधिमें ३२ एकाशन करना चाहिए । 'ॐ ह्री दर्शनविशुद्धचादि-षोड़श Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार कारणभावनाभ्यो नम' मत्रका त्रिकाल जाप्य करना चाहिए । प्रतिदिन षोडशकारण भावनामेसे एक-एक भावनाकी भावना करना चाहिए। यह व्रत लगातार सोलह वर्ष तक किया जाता है। दशलक्षण-व्रत-यह व्रत भी वर्षमे तीन वार भादों, माघ और चैत्र इन तीन महीनोमे किया जाता है। यह शुक्ल पक्षकी पचमीसे प्रारम्भ होकर चतुर्दशीको पूर्ण होता है। उत्तमविधिमे दश दिन के १० उपवास करना आवश्यक है । मध्यमविधिमे पचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी इन चार दिनोमे उपवास और शेष छह दिनोंमे छह एकाशन करना आवश्यक है । जघन्य विधिमें दश दिनके १० एकाशन करना चाहिए। प्रतिदिन उत्तमक्षमा आदि एक-एक धर्मका आराधन और जाप्य करना चाहिए । यह व्रत लगातार दश वर्ष तक किया जाता है। रत्नत्रय व्रत--यह व्रत भी दशलक्षण व्रतके समान वर्षमें तीन बार किया जाता है। शुक्ला द्वादशीको एकाशन करके तीन दिनका उपवास ग्रहण करे। चौथे दिन पारणा करे। प्रतिदिन रत्नत्रय धर्मका आराधन और जाप्य करे। यह व्रत लगातार तीन वर्ष तक किया जाता है। पुष्पांजलि व्रत-यह व्रत भादो, माघ और चैतकी शुक्ला पंचमीसे प्रारम्भ होकर नवमीको समाप्त होता है। उत्तम विधिमें लगातार पाँच उपवास करे। मध्यम विधिमें पचमी, सप्तमी और नवमीके दिन उपवास और षष्ठी वा अष्टमीको एकाशन करे। जघन्य विधिमे आदि और अन्तके दिन उपवास तथा मध्यके तीन दिन एकाशन करे । प्रतिदिन ॐ ह्री पच-मेरुसम्बन्धि-अशीतिजिनचैत्यालयेभ्यो नम' इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे। अकृत्रिम चैत्यालयोकी पूजा करे। इन व्रतोके अतिरिक्त शास्त्रोमे और भी व्रतोके विधान है जिनमेसे क छके नाम पाठकोके परिज्ञानार्थ यहाँ दिये जाते है:-- लब्धि विधान, सिहनिष्क्रीडित, सर्वतोभद्र, धर्मचक्र, जिनगुणसम्पत्ति, श्रुतिकल्याणक, चन्द्रकल्याणक, रत्नावली, मुक्तावली, एकावली, द्विकावली, कनकावली, मेरुपक्ति, अक्षयनिधि, आकाशपचमी, चन्दनषष्ठी, निर्दोषसप्तमी, शीलसप्तमी, सुगन्धदशमी, अनन्तचतुर्दशी, नवनिधि, रुक्मिणी, कवलचन्द्रायण, नि शल्य अष्टमी, मोक्षसप्तमी, परमेष्ठीगुणवत आदि। इन व्रतोंके विशेष विवरणके लिए प० किशनसिहजीका क्रियाकोष, जैन व्रत-कथा और हाल ही में प्रकाशित नव्रत-विधान सग्रहो देखना चाहिए। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ प्राकृत-धातु-रूप-संग्रह इस विभागमें ग्रन्थ-गत धातु-रूपोंका संग्रह किया गया है। प्राकृत धातु धातुरूप विशेष वक्तव्य गाथाङ्क कृदन्त, क्त्वा प्रत्ययान्त वर्तमान कृदन्त १६४ १०५ २११ (अगणित्ता १-+गण-गणय (गिनना) अगणंतो २- +गह-ग्रह (ग्रहण करना) अगिराहतस्स ३-अच्छ-प्रास् (बैठना) अच्छा ४-अ+जाण-ज्ञा (जानना) अजाणमारणस्स ५-+जंप-जल्प (बोलना) अजंपणिज्ज ६-अज्ज-अर्ज (पैदा करना) अज्जे ७-अणु+गण (गिनना) अणुगणंतण ८-अणु+पाल-पालय (पालन करना) अणुपालिऊण ६-अणु+बंध-बन्ध (बाँधना) अणुबंधइ १०-अणु+वट्ट-वृत् (अनुसरण करना) अणुवट्टिज्जह ११-अणु+ हव-अनु+भू (अनुभव (अणुहवा वर्तमान लकार ११५, १७७, १८७ वर्तमान कृदन्त कृत्यप्रत्ययान्त वर्तमान लकार ११२, ३४७ वर्तमान कृदन्त सबधक कृदन्त ४६४ वर्तमान लकार ३३० ७७ • ४५, ७० करना) अणुहविऊण सबधक कृदन्त वर्तमान लकार २६६ ११४ आज्ञा लकार वर्तमान कृदन्त १६६ ६१, २०३, २२६ १२-आण-श्राणी (ले श्राना) अराणेमि (आणेमि) १३-अत्थ-स्था (बैठना) अत्थइ १४–अस (अस्थि । (होना) । अत्थु १५-अ+मुण-श्रा मुण (जानना) अमुणंतो १६-अ+ लभ-लम् (पाना) अलभमाणो । अलहमाणो १७-अव+ लिह (चाटना) अवलेहइ १८-अहिलस-अभि+ लष (चाहना) अहिलसइ अहिलसदि १६-अहिसिंच-अभि-सिच (अभिषेक अहिसिंचिज्जइ करना) १.१३ ११५ वर्तमान लकार ४६१ ५१७ २०-आऊर-श्रा+ पूरय (भरपूर करना) श्राऊरिऊण २१-श्रा+या (श्राना) आयंति २२-आरोव-श्रा+ रोपय् (ऊपर आरोविऊण चढ़ाना, लादना) संबंधक कृदन्त वर्तमान लकार संबंधक कृदन्त ४६६ ४१७ २१ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ वसुनन्दि-श्रावकाचार २३-आलिंग-श्रा+ लिङ्ग (आलिं- आलिंगाविति प्रेरणार्थक वर्तमान लकार गन करना) २४-श्रालोअ-श्रा+लोच (श्रालो- आलोइऊरण सबधक कृदन्त २७२ चना करना) (आलोचेज्जा विधि लकार २५–आसव-श्रा + सु (प्रास्त्रव होना) आसवइ वर्तमान लकार ३६, ४० २६-आस-पास (बैठना) (आसि भूतकाल १४३, १५६, १६४, पासी २७-आसि-पा+श्रि (आश्रय लेना) आसिय सबधक कृदन्त ' आसेज, आसिज विधि ल. ५४४ २८-श्राहार-श्रा+ हारय् आहारेऊण सब०कृ० १३६ (श्राहार करना, ग्रहण करना) ५४२ २७ २९-इच्छ-इप् (इच्छा करना) वर्तमान लकार । इच्छति ११७ वर्त० ल. सबधक कृदन्त ६०, २३३ ४१६ ० 9 वर्त० लकार सबधक कृदन्त वर्त० ल. सबधक कृदन्त MAM . ३०-वय-वच् (बोलना) उच्च ३१-उच्चाव-उच्चय (उठाना) उच्चाइऊण ३२-उच्चा-उत् + चारय उच्चारिऊण (उच्चारण करना) ३३-उजम-उद् + यम्(उद्यम करना) उज्जमेदि ३४-उद्य-उत् + स्था (उठना) उद्वित्ता ३५-उप्पज्ज-उत् + पद (उत्पन्न होना) / उप्पज्जइ . । उप्पजिऊण ३६-उप्पाय-उत् + पादय् उप्पाइऊण (उत्पन्न करना) ३७-उप्पड-उत् + पत् उप्फडदि, उप्पडदि . (उड़ना, उछलना) ३८-उल्लोव-(देशी)(चंदोवा तानना) उल्लोविऊण ३६-उवया-उप + या (पासमे जाना) उवयाइ ४० ---उववज-उप-पद् (उत्पन्न होना) [उववजा । उववज्जति ४१-उववट्ट-उप + वृत् (च्युत होना) उध्वट्टिो ४२-उववरण-उपपन्न (उत्पन्न) ' उववरणो ४३-उव्वह-उद्+वह (धारण करना) उव्वहंतेण वर्त० ल. १३७ सबंधक कृदन्त वर्त० ल० ३६८ २४५ भू० कृ २४० ५०६ १७६ वर्तमान कृदन्त ४४-कर-कृ (करना) वर्त० ल० १९७६७,१०,११२, ३०२, ३०५, ३७०, ५१०, ५११, ५४६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह .१४६ (करेमि करंतस्स करंति करतेण वर्त० ल. वर्त० कृ० वर्त० ल० वर्त० कृ० सं० कृ० कर-कृ (करना) कार ३४४ २७२ ३४५ ३६२ ७७, ८६ इत्यादि २२ इत्यादि २७३ कृत्यप्रत्ययान्त ११४ ४०८ ४५ -कह-कथय एकहना) ४५-काराव-काराय (कराना) कर-कृ. (करना) ४६-किलिस-क्लिशू (क्लेश पाना) ४७-कीड-क्रीडू (खेलना) कर-कृ. (करना) काऊरण कायव्वा कायब्वो (कायव्वं कहमि काराविए किच्चा किलिस्समाणो कीड कीरइ । कुजा (कुण्ड कुणदि कुरणसि कुणह कुणिन्न कुणेइ कुणंति कुतस्स (कुणतो कुव्वंतस्स वर्त० ल. वि० ल० स० कृ० ११६ इत्यादि वर्त० कृ० वर्त० ल० ५०४ कर्मवाच्य वर्त० ल० १०६,१५३ इत्यादि वि० ल. २३८ वर्त० ल० ६३, ६१ इत्यादि ५२६ १६० आज्ञा ल. वि. ल. ३११ इत्यादि वर्त० ल० ६८, ७०, ६५, ७२, २५५ वर्त० कृ० ३१४ ४८-कुण-कृ (करना) ३०६ ४१८ ४६-कुब्व-कृ, कुर्व (करना) ५०-कंद-क्रन्द् (रोना) १८८ १४२ [कंदसि कंदतो वर्त० ल० वर्त कृ० १५७ ५१-खइ-क्षपित (नाश करना) १२८ १२ १८३ ५४६ ५२-खा, खा-खाद् (खाना) ५३ --खम-ज्ञम् (क्षमा करना) ५४-खल-स्खल (गिरना) ५५-खव-शय (नाश करना) ७३ ५२३ खाऊण संबंधक कृदन्त (खज्जमाणो कर्मणि वर्त० कृदन्त खजंतो खमिऊण सबधक कृदन्त खलंतो वर्त० कृदन्त (खविऊण संब० कृदन्त खवियानो (क्षपिताः) भू० कृ० - खिविज विधि लकार खिविजंति वर्त० ल० (खिवेइ खेलंतस्स वर्त० कृदन्त खंडंति बर्त० ल ५६-खिव-क्षिप् (क्षेपण करना) ५१४ ४२६ ३८२ १३८, १३६ ५७-खेल-खेल (खेलना) ५८-खंड-खंडय (तोड़ना) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार १२७, १३१ ५२० ५६-गच्छ-गम् (जाना) भू० कृ० वर्त० ल. वर्त० कृ० वि० ल० व० ल० व० कृ० व० ल. सं० कृ० ३२८ ३०८ ३६८ गो गच्छइ गच्छमाणे गच्छिजो गच्छंति गजंतो गणेइ (गमिऊण गहिऊण गहियं गायइ गेण्हति गंतूण ६०-गज-गर्ज (गरजना) ६१--गण-गणय् (गिनना) ६२-गम-गमय (व्यतीत) करना ६३-गह-ग्रह (ग्रहण करना) ६४-गा-गै (गाना) (देखो नं० ६३) ६५-गम-गम्-(जाना) . २८९ २८३, इत्यादि भ०० वर्त० ल० ७४ सब० कृ० ११० ७५,११० इत्यादि ३५८ ६६ -घड-घटय (बनाना) ६७-घस-घृषु (घिसना) ६८-घाय-हन् (विनाश करना) (घडाविऊण घडाविजा घसंति घाएइ संब० कृ० वि० ल० व० ल. ३६३ १६६ ६९-घि-ग्रह (ग्रहण करना) घित्तण स० कृ० व० ल० ७५,१४७ घिप्पड़ १०२ ७० [चय-त्यज् (छोड़ना) चु-च्यु (मरना) चइऊरण ७१-चड-श्रा+रुह (चढ़ना) चडाविऊण (चिट्ठ ७२-चिह-स्था (बैठना) चिट्टए ) चिट्ठ (चिट्टेज ७३-चिंत-चिन्तय (चिन्ता करना) चिंतेइ ७४-चुएण+कर-चूर्ण+कृ (चूर्ण चुरणीचुएणीकुणंति करना) सं० कृ० प्रे०णि० सं० कृ० व० ल० व० ल० सं० कृ० वि० ल० वर्त० ल० १०७ ५०४ ४६६ १८७ ४१८ ११४ १६७ १५८ ७५-छेत्र-छेदय (छेदना) ७६–छिव-स्पृश् (छूना) ७७-छुट्ट-छुट् (छूटना) ७४ छिंदामि छिवे । छुट्टसि सं० कृ० व० ल. सं० कृ० व० ल० भू० कृ० वर्त० ल. 1 छुट्टो १५६ ५८–छुह-क्षिप् (डालना) ५२३ छुहति १४४, १५८ छुहिति Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह (छंडिऊण ११६, २७१ ७६-छंड-मुच् (छोड़ना) रछंडिओ छंडित्ता १८६ २६० ८०-जग्ग-जागृ (जागना) वि० ल. ४२५ व. ल. ८१-जण-जनय (उत्पन्न करना) ८२-जय-जि (जितना) २५५ (जगिज । जग्गेज जण्णदि ।जणेइ जय (जाइ जाइज्जा जाप (जाण । जाणेह जामि जायइ जायइ (याचते) जापज ८३-जा-या (जाना) " " आ० ल० व० ल० वि० ल० व० ल. आ० ला० व० ल ५०३ ७४,८४ २०१ ८४-जाण-ज्ञा (जानना) (देखो नं०८३) ८५-जा-जन् (उन्पन्न होना) ८६-जाय-याच (मांगना) व० ल० व. ल. वि० ल०. १७२, १७५, इत्यादि ६६, ७६ इत्यादि १६७ २०१, २०३ इत्यादि ३०४ ३०७ २६२, ३६५ २६६ (जायंति (देखो नं०८५) १८६ ८७-जिन-जीव (जीना) ७४ जीव-जीव (जीना) जायते (जायतो जिवंतो [जीव जीवइ जीवंतस्स (जंप, जंपणीयं सं० ० व० कृ० আ০ ল ০ व० ल. व० कृ० व० ल. कृ० प्र० वर्त० ल. ५०० १८५ १०६ ६७, ७६ २१० ८८-जंप-जल्यू (बोलना) (जह (माइए झाइज्ज, भाएज झाइज ८६-झा-ध्यै (ध्यान करना) भाइजो झाएजो माय झायव्वा १०-भूर-जुगुप्स् (घृणा करना, विसूरना) झरइ व० ल० वि० ल. ४६०,४६२,४७० णि० व० ल० ४५८, ४५६ इत्यादि वि. ल. ४६५ वि० ल. व० ल० कृ० प्र० ४६६, ४६८ व० ल. ४६६ २७६ २२७ ९१-ठव-स्थापय् (स्थापन करना) (ठविऊण ठविज (ठवेइ सं० कृ० वि० ल० व० ल० ४१७,४०६ ४८१ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३१४ (ठाइ ठाविजद ठावेज्जो ठावेयव्वा ३२६ ४०७ ९२-ठा-स्था (बैठना) कर्म० व० ल. वि० ल. कृ० प्र० आ० ल. म० कृ० ३६१ ठाहु ( ठिच्या २२६ २८५,३०४,५१४ डहाइ ९३-डह-दह (जलाना) व० ल० कर्म० व. ल. कृ० प्र० १४७ उज्झतो ण मबधक कृदन्त २८२,२८७ " , १५, २२, ६९ इत्यादि २६ कृत्य प्र० २७२ इत्यादि स० कृ० कर्म० ब० ल. २६१ ३०५ १०८, १२२ व० ल० ५१६, ५२२, ५३५, ८१ ६४–णम-नम् (नमन करना) गमिऊण ९५-मंस-नमस्य (,). णमंसित्ता (णाऊण रणा ६६-णा-ज्ञा (जानना) रणायव्वा णायव्वो (णायव्वं १७-णित्त-नि+ वृत् णियत्तिऊण १८-णी-नी (ले जाना) णिज्जा १६-णिव-नि+ स्थापय (समाप्त करना) णिट्ठवह १००-णिडीव-निष्ठीव (थूकना) णिट्ठिवह १०१-णिण्णास-निर् + नाशय (नाश करना) गिरणासिऊण (णित्थरइ १०२-णित्थर-निर् + तृ (पार करना) णित्थरसि (णिच्छरसि १०३–णिद्दिस-निर् + दिश (निरूपण करना) णिद्दिट्ट (णिबडंति १०४–णि+पड = नि+पत् गिरना 'णिबडइ (णिबडतं १०५-णिब्भच्छ = निर् + भर्त्स (तिरष्कार करना) णिब्भच्छिज्जंतो १०६-णिम्माव-निर+मापय् ( निर्माण करना) १०७-णि-दृश (देखना) णियह (देखो नं०६७) णियत्ताविऊण १०८–णिअम-नि+यमय (नियम करना) णियमिऊण सं० कृ० व० ल० ११६ १५० भू० कृ० वर्त० ल० वर्त० ल. वर्त० कृ० ४०, १७५,२१३,२३३ १५६, ३१६ १३७ १६७ वर्त० कृ० ११७ णिम्मावा व० ल० व० ल. स० कृ० ४८२ १२१ ३२६ २८४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व० ल० मं० ० .१६४ ८१०, ४६७ ४६६ ४७१ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह १०६-णिवस = नि+वस् (वसना) णिवसइ ११०-णिविस-नि+विश (बैठना) णिविसिऊण णिविसिऊणं १११-णिस = नि+अस् (स्थापन करना) णिसिऊण ११२-णिसाम = नि+ शमय (सुनना) णिसामेह ११३-णिस्सर -निर + सु (बाहर पिस्सरइ निकलना) हिस्सरमाणं 'णिस्सरिउणं ११४-णिस्सस = निर् + श्वस (निःश्वास लेना) हिस्ससह ११५-निहण = नि+ हन् (मारना) णिहणंति स० कृ० आ० ल० व० ल० व० कृ० स० ० १६२ १४८ १७८ MUSIWAN व० ल० १६६ ( णीह ११६–णीनी (ले जाना) रणेऊण णेो व० ल० स० कृ० कृ० प्र० १५२,१५७ २८५, २८६ (णेत्तूण ०. ० २६ इत्यादि णा+ज्ञा (जानना) (देखो नं०६६) ११७–णंद = नन्द् (खुश होना) ११८-रहा = स्ना (नहाना) गया रणेयाणि (णेयं णंद राहाऊण २४ इत्यादि ५०० आ० ल० सं० कृ० व० ल० ११९-तर = शक् (समर्थ होना) १२०-तीर तरह तीरए २००, ३५६ ८५ १२१-थुण = स्तु (स्तुति करना) १२२-थुव्व = स्तु (,) थुिणिऊण थुणिन्जमाणो थुव्वंतो स० कृ० व० कृ० क०व०कृ० ५०३ ३७८, ५०१ ५०४ १२३-दक्ख = दृश् (देखना) १२४-दक्ख = दर्शय (दिखलाना) १२५–दा = दा (दना) १२६-दाव = दर्शय (दिखलाना) दळूण दरिसइ दाऊण । दायव्वो दाविऊण (दिज्ज दिज्जा दिज्जा २ दिज्जंति दिरणं (दत्तं) सव० कृ० ८१,६५ इत्यादि व० ल० ३०५ स० कृ० १८८, १६१ इत्यादि कृ० प्र० २३४ इत्यादि संतं० कृ० ४४४ कर्म० वि० ल. ४४४ , व० ल. २३१ , वि० ल. ४१८ , व० ल. २३७ भू० कृ० २४० इत्यादि वर्त० कृ. व० ल० २५०, २५२, इत्यादि १२७–दा = दा (देना) दिता (दिति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (देखो नं० १२३) (देखो नं० १२७) वसुनन्दि-श्रावकाचार दीसइ कर्म० व० ल० । दीसंति देइ कर्तृ० ल० १२२, १६२, ७२, १२०, इत्यादि १२८-धर = धृ (धारण करना) सब० कृ० वि० ल. व० ल० १५८,१६३, इत्यादि ३१४, ५६, १४६, । धरिऊण धरिज्ज धरह (धरेऊणं धाव धारेइ धूविज्ज १२६-धाव = धाव (दौड़ना) १३०-घार = धारय् (धारण करना) १३१-धूव = धूपय् (धूप खेना) ७३, १०२, वि० ल० १६७ ४३६ वि० ल० व० कृ० स० कृ० २८२, ३०४, ३०८, ४०२, व० ल० १०३, १२१ क० व० ल० - व० ल० भू० कृ० स० कृ० ११३, १३७, २११, ४६८, १३२-पउंज = प्र+ युज् जोड़ना पउंजए (व्यवहार करना) १३३-पकुव्व = प्र+कृप्र+कुर्व पकुव्वंतो (करना) १३४-पक्खाल = प्र+क्षालय (धोना) पक्खालिऊण १३५-पक्खल % प्र+स्खल पखलइ (स्खलित होना) १३६-पच्चार % उप्पा + लम्भ पञ्चारिज (उलाहना देना) १३७-पड = पत् (गिरना) पडइ पडियं १३८-पडिबुज्झ% प्रति+बुध (पडिबुज्झिऊण (जागृत होना) पडिबुद्धिऊण १३६-पडिलेह = प्रति+लेखम, पडिलेहाइ (देखना) पडिलेहिऊण १४०-पडिबज = प्रति+पद (स्वीकार करना) पडिवजिऊण (देखो नं० १३७) पडंति १४१-पत्थ = प्र + अर्थय् (चाहना) पत्थेइ (पभइ १४२–पभण = प्र+भण (कहना) उपभणंति (पभणामि १४३-पयच्छ प्र+ यम् (दना) पयच्छति १४४-पयास % प्र+काशय (व्यक्त पयासंतु करना) २६८, व० ल० सं० कृ० ३०२, २८५, ५१८, ५२४, व० ल० ७१, १५२, वर्त० ल. वर्त० ल. । ३०६ ६० १४२ २४४ २५५,२५६,२५७ २४६ आ.ल. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ - परिब्भम= परि + भ्रम ( भ्रमण करना) १४६ परिवख परि + वयू (छोड़ना) १४८ - परुष प्ररूपय (प्रति पादन करना) १४९ - पलाय परा+अयू (भागना) १४० परिहर परि+ड (छोड़ना) परिहरे - = परिहरेइ परूवेमो १५० पोच प्र + लोक (देखना) – : १५१ - पवक्ख = प्र + वच् १५२ - पविस = प्र + विशू (घुसना) १५.३ पसेस + शंसू (प्रशंसा करना) १५४ - परस = दृश् (देखना) १५५ – पहर = प्र+छ (प्रहार करना) { १५६ - पापा (पीना) { १५७ पाउण = प्र + श्रप् ( प्राप्त करना ) १५८ - पाड - पातय ( गिराना) 刘 322 (देखो नं० १५६ ) १५९ - पिच्छ = दृश् प्र + ईद (देखना) प्रीकृत धातुरूप संग्रह परिभ्रमइ १६० - पिब - पा (पीना) २२ परिवज्जए परिवज्जियव्वाइं परिहरियण्वं पलाइ पलाइऊ पलायमाणो पलायमाणं पलोह पवक्खामि पविसइ पविसति पविसंता पसंसंति परस पस्सिय पहरह पहरंति पाइज्जइ पाविज्जइ पाउण्ड पाउदि पाडह पाडिऊण पाडेद पावइ पावर पाविऊण पाविज्जइ पावेर पावंति पिच्छर पिच्छद्द पिच्छता पिबह व० ल० विधि० ल० कृ० प्र० " 11 वि० ल० 23 17 21 23 33 स० कृ० 22 वर्त० कृ० 27 व० ल० 33 " 11 वर्त० कृ० वर्त० ल० स० कृ० आ० ल० 33 " 22 कर्म रिण वर्त० ल० व० ल० 22 सं० कृ० वर्त० ल० 17 31 वि० ल० स० कृ० क० व० ल० व० ल० 27 17 व० ल० आ० ल० व० कृ० व० ल० १६५ १७६ १११,१०२ ५८ ६६ २०५ १०३,१२१ १५१ १५४ १५,६६. १०१,४१८ २०६,२७९ १५१,३०४ ३०६ ३८ २२४ २७७,३१५,५२६ ५१० १४६ १४१,१६६ १५४ ८६१०१, १०४३० १००, ३६२ ५१६ १६ ५१६, ५२०, ५२४ ७२, १३ इत्यादि ११८ १३० २०१, ४६३ ४५४, ५४१ १०१, १०२ २६४ ३६५ २०३ ११० ८१ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ १६६ वसुनन्दि-श्रावकाचार (पिबिऊण - पिब-पा (पीना) पिबेहि १६१-पिल्ल = पीडय (पीडा देना) पिल्लेऊण १६२-पुज्ज-पूजय् (पूजना) पुजिज्ज (देखो नं० १५६) पेच्छह स० कृ० आ० ल० सं० कृ० वि० ल० आ० ल० १५५ १४८ ११०, १५० व० ल० १६३-फार्ड = पाटय स्फाट्य (फाड़ना) फाडंति १६४-फोड = कोट् (फोड़ना) फोडेइ १६७ सं० कृ० १२२ १६५-बंध = बन्ध् (बांधना) बंधिऊण एबंधिऊणं (बंधित्ता बुज्झति ५१४ ३१५ १६६-बुझ = बुध् (जानना) । बोहव्या कृ० १६७-भक्ख = भक्षय (खाना) ( भक्खदि र भक्खइ भक्खंतो भइ भणिऊण भणिो भणिजमाणं भणिदो भणिमो भणिया भणियाणि भणियं भणेह ( भणंति १६८-भण = भण (कहना) वर्त० ल. १८२ (टि०) ८८, व० कृ० १५६, १८५, व०, ल०, १४५, ३०७, स० कृ० १०८, १५६, इत्यादि भू० कृ० ५२, ५७, इत्यादि क० व० कृ० ३, ३६१, भू० ० ३८२, व० ल० भू० कृ० ५०, २२२, इत्यादि ४७, ३३२, भू० कृ० ३७, २०६, इयतदि व. ल. ६७, ३०६, ८२, १५६, व० ल० स० कृ० ५४१, वि० ल० ३०७ कृ० प्र० ५३०, सं० कृ० ३६७, व० ल० ६८, ११८, इत्यादि भमा भमित्रो १६९-मम% भ्रम् (भ्रमण करना) भमित्ता । भमेज १७० --भय = भज (विकल्प करना) भयणिजो भुत्तुण मुंजइ १७१-मुंज = भुज् (भोग करना) मुंजए भुंजिऊण ( भुजिज्जो सं० ० वि० ल. २६७, ३०८, ३११, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह १६७ भुजिवि भुंजेइ भुंजतो भोत्तुं । भोत्तण सं० कृ० वि० ल० व० कृ० स० कृ. भुंज-भुज (भोग करना) ११५, ३०३, ३१७, ८५, १५६, २०५, २८१, इत्यादि १७२-मरण %3D मन् (मानना) व० कृ० व० ल० सं० कृ० १७३–मर = मृ (मरना) १५१, १८२, १८६, १२६, १३० इत्यादि २६४ १५३, १७४-मह = मह (पूजना) व० ल० सं० कृ० सं० कृ० २६३, २३६, कृ० प्र० मपणतो मर मरिऊण मरित्ता मरेइ महिऊण मुणिऊण मुणेऊण मुण्यव्वा मुणेयवो मुणेयवं मुणेह मुणेहि मुणंति मुत्तण मुयह मुयह मुयंति मेल्लंता १२, १४ इत्यादि ४७, ३५१, ६, ४४, इत्यादि १७५-मुण%Dमुण, ज्ञा (जानना) आ० ल. २२१, ११० २६, १७६--मुंच = मुच् (छोड़ना) १७७–मुत्र = मुच (छोड़ना) " " व० ल० स० कृ० व० ल० आ० ल० व० ल० व० कृ० १४६, ३७, १५०, १७८-मेल्ल = मिल (मिलना) (देखो नं. १७६) मोत्तूण ६०, २६६, सं० कृ० ३९७,४०१, ४०७, ४४५, १७६-रय = रचय (रचना) वि० ल० ४२१, स० कृ० १८० --रक्ख-रक्ष (रक्षा करना) • १८१-रड = रट (रोना चिल्लाना) । रइयं रपज्ज रक्खिडं रडिऊण रडतं रमा रमित्रो रमियं २००, १५२, १४८, १६६, ०० भू० कृ० . १८२ ---रम = रम् (क्रीडा करना) .. व० ल. व० कृ० १४३, '१४६ ५०६, १२६ '६४ १८३ ११३, १६५ . रमंता रमंतस्स राखेदि रुया (देखो नं० १८०) १८३- रु = रुद् (रोना) व० ल० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार रुवइ ___ रुव = रुद् रोना रुवसि १४६ १६४ रुवेइ रहेइ १४२ रुंभइ १८४-रुह-हह(उत्पन्न होना) १८५-रुभ-रुध् (रोकना) १८६-रोव-रुद् (रोना) १८७-रज-रजय (रंगना) रुभित्ता रोवंतो रंजियो स० कृ० व० कृ० भू० कृ० २४५ १५४, ५३३ ५३४ १४४ १४३ १८८-लग्ग = लग (लगना, संग करना) लग्गइ १८६-लभ = लभ (पाना) लक्ष्ण लब्भ लहइ १६०-लह = लभ् (पाना) लहिऊरण लहिज्जो लहेइ व० ल० . १५३ सं० कृ० १६३, ५११ कर्मणि व० ल० व० त० १०८, १८६, १८७ सं० कृ० ७३, २६६ वि० ल० व० ल० ६८, ६६, १०३, ४८१ १७० णि० सं० कृ० २३७, ३५५, ३६२ णि व० ल. १६६ सं० कृ० १४३ व० ल० - १०३, १२१ १६१-लाय = लागय (लगाना) लायंति १६२-लिह = लिख (लिखना) लिहाविऊण १६३-लोट्ट = लुठ (लोटना) लोट्टाविंति १६४-लंघ%लं लंघय लंपित्ता १६५-ल्हिक्क ल्हुक्क नि + ली (छिपना) ल्हुक्का १९६-बच्च-व्रज् (जाना) व० ल० १६७–वज = वर्जय् (छोड़ना) वञ्चइ वञ्चमि वज्जइदव्यं वज्जए वज्जिऊण অভিসা वज्जिज्जा वज्जिज्जो वज्जयवं वट्टतो ६४, ३०५ १६७ ८४ २६० ३२४ कृ० प्र० वि० ल. सं० कृ० कर्मणि व. ल. वि० ल० २ २६५ १२४ कृ०प्र० १९८-वट्ट=वृत् (बरतना) १९९-वड्ड% वृध (बढ़ना) व० ० ८० ५३४ वड्डइ व० ल० भ० ल. हे० कृ० २३२, २३६ ४७६, ४८२ २००-वरण = वर्णय . (वर्णन करना) वरणइस्सामि वरिण वण्णिए वण्णिो वरिणजए वरिणया वणियं वरणेउं कमणि व० ल० भू० ० १३२ १७० इत्यादि ८७,२७३ सं० कृ० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह आ० ल. व० ल० ८८, १७८ १६६ २४१ कृ०प्र० भू० कृ० आ० ल० क०व० ल. २४१ ४६० ५०६ प्र (देखो नं० १६) वद्ध (वड्ड) २०१-वय = व्यय (व्यय होना) वयंति वसइ २०२-वस = वस् (वसना) वसियव्य २०३-वप = वप् (बोना) वावियं २०४-विजाण = वि+ज्ञा (जानना) विजाणह २०५-विज = वीजय (पंखा चलाना) विजज्जइ २०६-विणि = वि+ नी (बिताना, विणेऊण दूर करना) २०७-विएणय = वि+ज्ञा (जानना) [ विरणेओ ।।विण्णेया २०८-वितर = वि+तृ (अर्पण करना) वितीरिज्जा २०६-वित्थर = वि+स्तु (फैलना) वित्थारियन्वं वित्थारिऊण २१०–वित्थार % वि+स्तारय् २ विस्थारिज्जइ फैलाना ( वित्थारिज्जो २११-विद्धंस = विध्वंस (विनष्ट विधंसेइ करना) २१२-विभग्ग =वि+मार्गय (अन्वे- विमग्गित्ता षण करना) २१३-वियप = वि+कल्पय, वियप्पिऊण (विचार करना) वियप्पिय वि० ल० कृ० प्र० स० कृ० क० व. ल. वि० कृ० व० ल० ३७१, ३८२, ४५५ ४८५ ५४७ ३५७ १०७ ४३५ ७६ सं० कृ०. सं० कृ० २२६ ४६० ४०४ २२६, ३०० इत्यादि वियाण " " आ० ल० ३४५ २३४ वि० ल. ब० ल. १३८ ००० ७१ १२० (देखो नं० २०३) वियाणसु वियाग्रह वियाणीहि २१४-विलिज = वि + ला (नष्ट होना) विलिज्ज २१५-विलिह = वि+ लिह (चाटना) विलिहंति विलवमाणो २१६-विलव = वि+ लपू विलवमाणं (विलाप करना) ( विलवंतो विवज्जा विवज्जए २१७-विवज = वि+ वर्जय विवज्जियवा (छोड़ना) विवज्जे (विवज्जंतो २१८-विस = विश् (प्रवेश करना) विसइ . १६३ AAA १५०, १५४ २६७ वि. ल. २६४, २६६ कृ० ब० ल. व० कृ० व० ल० आ० ल० व० ल० ५७, २६८ २१४, २९७ १५६, १६१ १४४ विसह १८० २१९ -विसह = वि+ सह विसहह (सहन करना) विसहदे विसहतो २२०–विसुज्झ - वि+शुध् (शुद्ध होना) विसुद्धमारणो २२१-विसूर = खिद् (खेद करना) विसूरइ १९४ ५२० १९२ व० ल० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० वसुनन्दि-श्रावकाचार वि० ल० ४०४ भू० कृ० १६० . (देखो नं० २१८) विसेज्ज २२२-विस्सर = वि+ स्मृ (भूल जाना) विस्सरियं २२३-विहर = वि+ह (विहार करना) विहरिऊण २२४-विध%D विद् (जानना) विति (देखो न० २२२) वीसरियं २२५-बुच्च = वच् (बोलना) वुच्चा २२६-वे + वेदय् (अनुभव करना) वेपह २२७-वेढ % वेष्ट्र (लपेटना) वेढिऊण वोच्छामि २२८-वय-वच् (बोलना) । वोच्छ सं० ० ब० ल. भू० कृ० व० ल० ५२८ ३७६ २१३ ६० सं० कृ० भविष्यत्काल ५, १३४ इत्यादि २७३, २६४ २८६ ४७६ ४८२ १३६ १८६ 더 व० कृ० 4 ३४६ ४३८ १३६ ४६६ ५१६ २२६-सय = शी, स्वप् (सोना) सइऊण सं० कृ० २३०-सक्क = शक् (सकना). सका व० ल. २३१-सड = सद्, शद् (सड़ना) सडिज्ज, सडेज्ज वि० ल० सद्दहदि व० ल. २३२-सद्दह = श्रद्धा सद्दहमाणो (श्रद्धा करना) . सदहंतस्त सहहंतो २३३-समज्ज = सम् + अर्ज, (उपा- समज्जियं जैन करना) २३४-समालह % समा+लभ समलहिज, समालहिज्ज वि० ल० (विलेपन करना) २३५-समाण = सम् + श्राप (पूरा करना) समाणेइ व० ल० २३६-सर = सु (आश्रय लेना) सरिऊण सहा २३७-सह + सह. (सहना) सहसि सहह २३८-साह = साधू (सिद्ध करना) साहामि २३९-सिम = सिध् (सिद्ध होना) [ सिज्झइ । सिज्मेह २४०-सुण = श्रु (सुनना) सुबह आ० ल० २४१-सुमराव % स्मारय (याद दिलाना) सुमराविऊण सं० ० २४२-सुस्स%शुष् (सूखना) सुस्सइ सेवा २४३--सेव = सेव (सेवा करना) र सेविओ । सेवंतो व० ० २४४-सो, सोश्र = स्वप् (सोना) सोऊण •सं० कृ० २४५--सोह = शोधय् (शुद्धि करना) ला सोहित्ता २४६-सकप्प = सम् + कल्पय संकप्पिऊण (संकल्प करना) २४७-संकीड % संम् + कीड (खेलना) संकीडइ व० ल० १७६, २०१ १०७ ५११, ५३६ ३३५ ___५, २६४ १७० व० ल० ४४ १३२ भू० ० ११३, १६४ १४० २३१, ३०८ ५४६ ३८४ ४८६ . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह १७१ संचिटइ संछुहइ ५२१ संजायइ ३७२, ५२३ २४८-सचिट्ट = सम् + स्था (वैठना) २४६-संछुह = सम् + क्षिप् (क्षेपण करना) २५०-संजाय = सम् + जन (उत्पन्न होना) २५१-संठा = सम् + स्थापय् (स्थापन करना) २५२-संभव = सम् + भू (होना) २५३-संभूस = सम् + भूष (अलंकृत करना) २५४-संसोह = सम् + शोधय (शुद्ध करना) संठाविऊण स० कृ० ४०८ . io संभवइ संभूसिऊण 200 MG स० कृ० संसोहिऊण स० कृ० (हणइ ८३, ११३ हणह বিতা हणिऊण व० ल० आ० ल. क०व० ल० स० कृ० व० ल० २५५-हण = हन् (बध करना) ५२५ ६७,५३८ हणंति हम्ममाणो १८२ २५६-हम्म = हन् (बध करना) २५७-हर = हृ (हरण करना) २५८-हव = भू (होना) हरिऊण हवा हवे हवेइ हवंति हसमाणेण २५९-हस = हस् (हसना) व० कृ० व० ल० ८६, १०४, १०८ स० कृ० १०२ व० ल० ५६, १८, ११८ इत्यादि वि० ल० २२१, २२३ इत्यादि व० ल. ४८३ " . ६०, २०७, २६० व० कृ० १६५ व० ल० णि०व० ल० भू० कृ० १३० व० कृ० १७७ क०व० ल० कृ० वि० ल. ६७ १४,४६ १४०, १७३, २१३ २६०-हिंड = हिण्ड (भ्रमण करना) १०७ (देखो २५३) २६१-हिंस = हिंस् (हिंसा करना) हिंडाविज्ज हिंडिओ हिंडंतो हिप्पा हिंसियव्वा हुज्जा •७३ २०६ हुँति होड २६२-हु-भू (होना) १२६, १३१ होदि होऊण होज्जउ होति होहा होहिंति स० कृ० आ० ल. व० ल० भ० ल० ६२, २३० इत्यादि १६६ ५३२ - - Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्राकृत-शब्द-संग्रह प्राकृत संस्कृत हिन्दी गाथाङ्क अति १८ अइदु? अइथूल अाइबाल अइसरस अइसुगंध अक्क अकक्कस अकट्टिम अकय अक्ख अति दुष्ट अति स्थूल अति बाल अति सरस अति सुगंध अर्क अकर्कश अकृत्रिम अकृत अक्ष अक्खय अक्खर अक्खलिय अक्खीण अक्खीणमहानस अक्खीणलद्धि अक्खोह *अगणित्ता अगिराहत अग्गि अगुरुलहु अघाइ अचित्त अचित्तपूजा प्रचणअच्चि अक्षत अक्षर अस्खलित अक्षीण अक्षीणमहानस अक्षीणलब्धि अक्षोभ अगणयित्वा अगृह्णन् । अधिक अत्यन्त दुष्ट ६७ बादर-बादर बहुत छोटा ३३७ अतिरस-पूर्ण २५२ अति उत्तम गन्ध २५२ सूर्य, आक, सुवर्ण दूत (दे०) ४२७ कोमल ३२७ स्वाभाविक, बिना बनाया ४४६ अकृत ५२८ ऑख, आत्मा, द्विन्द्रियजन्तु चकेकी धूरी, कील, पाशा अखंड, चावल, धाव-रहित, अखंडित, सपूर्ण ३८४ वर्ण, ज्ञान, चेतना, अविनश्वर, नित्य ४६४ अबाधित, निरुपद्रव, अपतित. प्रतिध्वनित क्षय-रहित, अखूट, परिपूर्ण, ह्रास-शून्य ५१२ अक्षय भोजनवाला रसोईघर ३४६ अक्षय ऋद्धि ४८४ क्षोभ-रहित, स्थिर, अचल, ४८४ नही गिनकर नहीं ग्रहण कर २१२ आग न छोटा, न भारी कर्म-विशेष जीव-रहित, अचेतन ४४६ प्रासुक-द्रव्योंसे पूजा ४५० पूजन, सन्मान २२५ दीपशिखा, अग्निज्वाला, कान्ति, तेज, किरण, (लौकान्तिक देवोंका विमान) सोलहवाँ स्वर्ग, विष्णु देवी, रूपवती स्त्री अचरज १६४ अग्नि ५३५ अगुरुलघु अघाति अचित्त अचित्तपूजा अर्चन अार्च xx6 ४३६ अच्युत अच्छर अच्युत अप्सरा ४६५ अच्छेरय - अाश्चर्य ४८८ ८२ . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत शब्द-संग्रह १७३ ५३४ अजोगकेवलि *अजंपणिज्ज *अज्ज अज्जिय अज्भयण अभावण अयोगकेवली अजपणीय अद्य । आर्य अर्जित अध्ययन अध्यापन ३१२ अट्ट श्रा अट्ट अट्ठ अष्ट mr mr अट्टमभत्त अट्ठमी अट्टि श्रणयार अरावरय अष्टमभक्त अष्टमी अस्थि अनगार अनवरत WM १५६ अराण अन्य १८२ योग-रहित केवली नही कहने योग्य आज, आर्य, वैश्य, स्वामी, ७४ उत्तम, श्रेष्ठ, साधु, पूज्य उपाजित, पैदा किया हुआ १६१ अध्ययन, अध्याय पढाना २३७ पीड़ित, ऋत, गत, प्राप्त, दुकान हाट, २२८ घरका ऊपरी भाग, आकाश अट्ट (दे०) कृश, महान्, निर्लज्ज, शुक, शब्द, सुख, असत्य आठ, वस्तु, विषय, वाच्य, तात्पर्य, प्रयोजन, फल, धन, इच्छा, लाभ ५६ तेला, तीन दिनका उपवास तिथि-विशेष हड्डी, अथिन्-अभिलापी, याचक ८६ गृह-रहित मुनि, भिक्षुक, आकार-रहित निरन्तर, सदा दूसरा ६० अन्य जगह २७४ मिथ्याज्ञान ५३६ अज्ञ, मिथ्याज्ञानी २३६ भविष्यकाल नही चाहते हुए अप्रीतिकर अत्यन्त छोटा बन जानेकी ऋद्धि ३४६ नवाँ गुणस्थान पवन युक्त, सहित परमाणु, पुद्गलका अविभागी अश दया करना, भक्ति करना गिनता हुआ ३३० कल्पातीत विमान अनुपालन कर ४६४ ज्ञान, बोध, कर्म-फलका भोग, निश्चय प्रभाव, माहात्म्य अनुभव किया हुआ, अनुभव कर ५३८ अनुसार २१६ अनुमति देना ४ अनुमोदन करना ३०० प्रशंसा करना अनुमति देना २४८ *अण्णत्थ अण्णाण अण्णाणी अगागद अिणिच्छमाण । अणि अणिमा अणियट्टिगुण अणिल अरिणय अणु अणुकंपा *अणुगणंत अणुहिस *अणुपालिऊण अणुभव अणुभाग अणुभूय अणुमग्ग अणुमण अणुमणण अणुमोय अणुमायण Mon अन्यत्र अज्ञान अज्ञानी अनागत अनिच्छमान अनिष्ट अणिमा अनिवृत्तिगुण अनिल अन्वित अणु अनुकम्पा अनुगणयन् अनुदिश अनुपाल्य अनुभव अनुभाग अनुभूत अनुमार्ग अनुमन अनुमनन अनुमोद अनुमोदन ४६ ४६१ ४१ ५१९ २३ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ४१५ ३२६ १७२ अणुराय अणुरूव अणुलोह अणुवट्ठ अणुवेहण अणुव्वय *अणुहविऊण प्रणयविह अराणोण्ण अणंगकीडा अणंत अणंतचउट्टय १७० अत्त अत्ता अतिहि अत्थ अत्थ-पज्जय अत्थु अदन अदत्त अदीणवयण अधम्म वसुनन्दि-श्रावकाचार अनुराग प्रेम, प्रीति अनुरूप अनुकूल, योग्य, उचित अणुलोभ सूक्ष्म लोभ ५२३ अन्वर्थ सार्थक अनुप्रेक्षण चिन्तवन २८४ अणुव्रत स्थूलव्रत २०७ अनुभूय अनुभव कर २६६ अनेकविध नाना प्रकार १३ अन्योन्य परस्पर अनङ्ग-क्रीडा अप्राकृतिक मैथुन सेवन अनन्त अनन्तरहित अनन्तचतुष्टय अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य प्राप्त सत्यार्थ देव, आत्मा, आर्त-पीडित, आत्म दुखनाशक, सुख-उत्पादक, आत्त-गृहीत श्राप्त, अात्मा ज्ञानादि गुण-सम्पन्न आत्मा, जीव ७७६ अतिथि तिथिके विचार-रहित साधु २१६ अर्थ, अस्त्र, अस्त वस्तु, धन, प्रयोजन, अस्त्र, भोगना, बैठना २८ अर्थपर्याय सुक्ष्मपर्याय अस्तु हो, रहा आवे १८६ अदय निर्दय अदत्त नही दिया हुआ २०८ अदीन वचन दीनता-रहित वचन अधर्म द्रव्य, पाप कार्य आधा अर्धा आधेका आधा, चौथाई अर्धपथ अर्ध-मार्ग अपर्याप्त पर्याप्तियोकी पर्णतासे रहित, असमर्थ अपात्र अयोग्य, पात्रता-रहित २२३ अप्रवेश प्रवेशका अभाव २४ आत्मा, अल्प, प्राप्त आत्मा, आप्त, पिता, बाप २४१, २८५ अप्रमत्त सातवाँ गुणस्थान श्रात्मा जीव अपृष्ट (नही पूछा हुआ, अस्पृष्ट नही छुआ हुआ अपूर्ण अधूरा १५३ अपूर्वकरण परिणाम विशेष, आठवाँ गुणस्थान अस्पर्श स्पर्शका अभाव अभ्यंग तैल-मर्दन, मालिश ३३८ अभ्युत्थान आदरके लिए खड़ा होना अभ्युदय उन्नति, उदय, स्वर्गीय सखोंकी प्राप्ति अभिभूत पराभूत, पराजित १२६ ० ० 66xnxn ० ० अधर्म अर्ध अद्धद्ध अद्धवह अपज्जत्त अपत्त अपवेस अप्प अप्पमत्त अप्पा ०. W xm m ० अपुट ५१८ ३२७ अपुण्ण अपुव्वकरण अफरस अब्भंग अब्भुटाण अब्भुदय अभिभूय ३२८ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह अमिय अमित अमुग 'अमुणंत अमूढदिट्ठी अमेझ ४८ प्रय २१६ । अमृत अमुक अजानन् अमूदृष्टि अमेध्य (अयस् , अायस (अज अगुरु श्रयश अजाणमाण अकार अरति अरण्य अरविंद अहेत्, अरुह अयरु अयस 'अयाण्माण अयार अरइ अरण्ण अरविंद বহু ४२८ murde Durtured परिमारण-रहित ४३६ सुधा, चन्द्रमा (दे०) वह, कोई ३८४ नही गिन कर, नही जान कर सम्यग्दृष्टि, तत्त्वदर्शी अशुचि वस्तु, विष्टा ८५ लोहा, लोहेसे बना हुआ, आग-पर्वत बकरा सुगन्धित काष्ठ-विशेष अपयश नही जानता हुआ अ-अक्षर ग्लानि, बेचैनी बन, जगल कमल पूजाके योग्य, परिग्रह-रहित, जन्म-रहित जन्म नही लेनेवाला ३८२ रूप-रहित, अमूर्तिक नही पाता हुआ ११५ अप्राप्ति भ्रमर असत्य वचन, झूठ, निप्पल, निरर्थक, कपाल २१० लोभ-रहित अवलोकन, ५३५ अवस्थान, अवगाहन पाप, निन्दनीय पार उतरा हुआ ५४२ तिरस्कार १२५ दूसरा, पाश्चात्य, हीन, तुच्छ कल्पातीत विमान सायकालिक कसूर, अपराध (दे०) कटी, कमर पराधीन २७६ ४२८ २२४ ७ अरूवि अलहमाण अलाह अलि अलिय अलुद्धय अवगहण अवगाहन अवज्ज अवतिरण अवमाण अवर अवराजिय अवरारिहय अवराह अवस अवसाण अवसारिय अवसेस अवाय अब्वावाह अविच्छिराण अविभागी अविरह अविरयसम्माइट्ठी अरूपि अलभमान अलाभ अलि अलीक अलुब्धक अवगहन अवगाहन अवद्य अवतीर्ण अपमान अपर, अवर अपराजित अपराह्निक अपराध अवश अवसान अपसारित अवशेष अवाय अव्याबाध अविच्छिन्न अविभागी अविरति अविरतसम्यग्दृष्टि ४६२ २५४ १४६ अन्त २८१ ४३७ २७१ दूर किया हुआ, खीचा हुआ अवशिष्ट, बाकी ज्ञान विशेष बाधा-रहित विच्छेद-रहित विभाग-रहित असयम चतुर्थगुणस्थानवर्ती ३५४ ३६ २२२. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ११६ ११४ ३८३ ३८४ ११ or mr orroro xom ४३१ १७६ अविवाग असई असण असप्पलाव असब्भाव असब्भावट्ठवणा असरीर असाय अस्सिणी असुह असुइ असुहावह असेस असोय असंख असंखज्जय असंजद प्रह अहवा अहिय अहिव अहियरण *अहिभूसिय अहिमुह अहियार अहिलास अहिसित्त अहिसेय अहोलोय अहोविहाय अविपाक फल-रहित असती कुलटा अशन भोजन असत्प्रलाप मिथ्या बकबाद असद्भाव यथार्थताका अभाव असद्भावस्थापना अतदाकार स्थापना अशरीर शरीर-रहित असात साता-रहित अश्विनी नक्षत्र विशेष अशुभ, असुख बुरा, दुःख अशुचि अपवित्र अशुभावह दुःखजनक अशेष समस्त अशोक वृक्षविशेष असंख्य सख्या-रहित असंख्येय गिननेके अयोग्य असंयत अविरत,सयम-रहित अथ, अघ, अहन् , अधः अब, पाप, दिन, नीचे अथवा विकल्प श्रहित, अधिक,अधीत, अहितकर, शत्रु, अधीर, पठित. विशेष अधिप स्वामी, मुखिया श्रधिकरण आधार अभिभूषित, *अभिभूष्य आभूषण-युक्त, आभूषण पहन कर अभिमुख, समुख अधिकार आधिपत्य अभिलाष इच्छा अभिषित्त अभिषेक किया गया अभिषेक विशेष स्नान अधोलोक पाताल-भुवन अधोविभाग नीचेका भाग १७६ ३४६ २७७ १८६ १२६ ४६ ३६५ २७४ ३१२ ११२ ४६१ १७१ ४६० आ बाकीर्ण श्राचार्य श्रायु श्राकुल व्याप्त गुरु, विद्वान् ७८ ५४५ १६६ श्रायु आइराण आइरिय प्राउ पाउल. आऊ ग्राऊरिऊण आगम आगर आगरसृद्धि आगास १७३ ५१७ श्रापूर्य आगम आकर आकरशुद्धि श्राकाश व्यग्र जीवन-काल पूरा करके शास्त्र खानि खानिमें प्रतिमाकी शुद्धि गगन Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ १०५ ३३२ २५७ ४२६ ४१६ आणय प्राणा प्रादणास आदा आदिज्ज आभूसण आमलय आमोय आयरक्ख प्रायवत्त प्रायास आयंबिल प्रारक्खिय आरोवण आलोइऊण आवत्त श्रावस्सय प्रासय आसव प्रासा आसाढ आसामुह ३५१ १०६ प्राकृत-शब्द-संग्रह १७७ पानक वाद्यविशेष प्राज्ञा उपदेश, निर्देश ३४३ प्रात्मनाश अपना विनाश, आत्मघात ३१७ आत्मा जीव प्रादेय उपादेय, ग्रहण करने योग्य आभूषण आभरण, गहना, जेबर ५०२ श्रामलक ऑवला ४४१ श्रामोद हर्ष, सुगन्ध प्रात्मरक्ष अंग-रक्षक प्रातपत्र छत्र, आर्यावर्त अाकाश, श्रायास नभ, परिश्रम ४७२ श्राचाम्ल तप-विशेष अारक्षक कोटवाल अारोपण ऊपर चढाना १०६ अालोच्य आलोचना करके . चक्राकार भ्रमण, भंवर श्रावश्यक नित्य कर्तव्य श्राशय अभिप्राय, निकट, आश्रन, सहारा, आलंबन ५४३ श्रासव, प्रास्त्रव मद्य, कर्मों का आना अाशा उम्मेद, दिशा ४२७ श्राषाढ़ मास-विशेष अाशामुख दिशामुख २५७ आश्रित्य आश्रय पाकर अाश्विक अश्व-शिक्षक प्राशित खिलाया हुआ श्रासित बैठा हुआ आसज्य, सजकर ५४२ प्रासाद्य आश्रय पा करके श्राहार भोजन (साभरण भूषण श्रा+हरण चोरी करना बुलाना आभरण-गृह शृंगार-सदन आहार्य आहार ग्रहण कर १३६ श्रावर्त ३५३ आसिय आसज "आसिज्ज आहार M २ अाहरण ५०२ आहरणगिह आहरिऊण ४५४ इक्खु इञ्चाइ इत्यादि ५० इट्ठ इरिहह इत्थि इथिकहा इत्थिवेय २४४ ईख प्रभूति, वगैरह अभिलषित इस समय, अब नारी स्त्रियोंकी कथा स्त्रीलिंग इदानीम् स्त्री स्त्रीकथा स्त्रीवेद १६७ ३२१ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ वसुनन्दि-श्रावकाचार स्त्री-सेवा । इन्द्रक इत्थिसेवा इंद इंद्भइ इंदिय इयर स्त्री-सेवन ( देवोंका स्वामी । स्वर्ग वा नरकका मध्यवर्ती विमान गौतम गणधर जाननेका द्वार दूसरा इन्द्रभूति इन्द्रिय इतर दूसरेपर प्रभाव डालनेवाली ऋद्धि विशेष ५१३ ईसत्त ईसरिय ईशत्व ऐश्वर्य उकत्तण उक्कस्स उत्कर्तन उत्कर्ष उत्कृष्ट उकिट्ठ उच्चत्व उच्चस्थान उत्थापयित्वा उच्चार उच्चार्य उचित उत्साह ४१५ उग्ग उच्चत्त उच्चठ्ठाण *उच्चाइऊण उच्चार *उच्चारिऊण उचिय उच्छाह उच्छि ? ভজাম্ব उजम उज्जल उज्जवण उज्जाण उज्जोय उट्टरी *उद्वित्ता काटना उत्तम, गर्व उत्तम, श्रेष्ठ २५८ तीव्र, तेज, प्रबल ४३८ ऊँचापना ऊँचा आसन २२५ ऊँचा उठाकर मल, उच्चारण, उच्चार (दे०)निर्मल,स्वच्छ ३३६ उच्चारण कर ४६४ योग्य, अनुरूप ४५५ उत्कठा, उत्सुकता, पराक्रम, सामर्थ्य जूठा उद्युक्त, प्रयत्नशील ५१८ उद्योग, प्रयत्न २६३ निर्मल, स्वच्छ ३३२ ब्रतका समाप्ति-कार्य ३५८ उपवन, बगीचा प्रकाश, उद्यम ऊँचा करना उठाकर ऊपर उपरितन भुवन, ऊपरका लोक ऊपर जाना ५३६ उनचास ३६२ १२६ उच्छिष्ट उद्यत उद्यम उज्ज्वल उद्यपन, उद्यापन उद्यान उद्योत, उद्योग उत्थान उत्थाय ऊर्ध्व ऊर्ध्वलोक ऊर्ध्वगमन ऊनपंचाशत उष्णा उक्त २५६ २८७ ४६१ उडलोय उड्डगमण उगवण्ण उरह १६२ उत्तप्त उत्तत्त उत्तमंग उत्तुंग उदयागय उत्तमांग उत्तुंग उदयागत कहा हुआ संतप्त शिर, श्रेष्ठ अग ऊँचा, उन्नत उदयमें आया हुआ २८६ २६० ४६३ २५८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह १८९ ३१५ १४५ ४५२ ४३१ उद्दिट्ट उद्दिट्टपिंडविर दुर उप्पराण उप्पत्ति उप्पल *उप्पजिऊण उप्पह *उप्पाइऊण उन्भिरण *उब्भिय उल्लोविऊण उवयोग उवकरण उवग्रहण उवयरण १६२ १०२ २६८ ४१४ ४१६ ३९८ २८४ ३२६ उद्दिष्ट उद्दिष्टपिडविरत उन्दुर उत्पन्न उत्पत्ति उत्पल उत्पद्य उत्पथ उत्पाद्य उद्भिन्न ऊध्वित, ऊर्वीकृत उल्लोकयित्वा उपयोग उपकरण उपगृहन उपकरण उपकार उपचार औपचारिक उपलम्भ, उपालंभ उपरि उपरोध उदधि; उपधि उपपाद उपपादग्रह उपपेत उपवास उपेत उद्वर्तन ४८ ३०२ उवयार सकल्पित, कथित सकल्पित भोजनका त्यागी मूषक, चूहा उद्भूत प्रादुर्भाव कमल उत्पन्न होकर उन्मार्ग, कुमार्ग उत्पन्न होकर अंकुरित, खड़ा हुआ ऊँचा किया हुआ चॅदोवा तानकर चैतन्य, परिणाम पूजाके वर्तन, साधन, सामग्री प्रच्छन्न, रक्षण, सम्यक्त्वका पाचवां अंग सामग्री भलाई, परोपकार पूजा, आदर, गौण उपचारसे सबंध रखनेवाला प्राप्ति, उपालभ, उलाहना ऊपर आग्रह, अड़चन समुद्र, परिग्रह; उपाधि, माया देव या नारकियोंका जन्म प्रसूति-भवन युक्त, सहित भोजनका त्याग सयुक्त उबटन, शरीरके मैलको दूर करने वाला द्रव्य उद्वर्तन करना, क्षीण करना किसी गतिसे बाहर निकलना धारण करना कषायका अभाव सुशोभित ३२० ३२५ २७ ३६५ उवयारिय उवलंभ उवरि उवरोह उवहि उववाय उववादगिह उववेद उववास उवेद उव्वट्टण उवत्तण उव्वट्टिय उव्वहंत उवसम उवसोहिय उसिण उस्सिय उवहारड्ड उवाय उवासयज्झयण उम्बर ४१५ ३८६ २८३ ३६० २६६ ३३६ ५०६ १६१ ३६५ गर्म उद्वर्तित उद्वहन्त उपशम उपशोभित, उष्ण उछ्रित, उत्सूत उपहाराव्य उपाय उपासकाध्ययन उदुम्बर १३८ ५०५ ३६४ ऊँचा किया हुआ उपहारसे युक्त साधन श्रावकाचार गूलरका फल या वृक्ष ११४ २१३ ऊसर ऊपर क्षारभूमि, जिसमें अन्न उपज न हो २४२ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० वसुनन्दि-श्रावकाचार एकेन्द्रिय २०१ एकैक ५१६ एइंदिय एकेक एग एगचकणयर एगिदिय एरिह एत्तिय एत्तियमेत्त एत्तो एक एकचक्रनगर एकेन्द्रिय इदानीम् एतावान् एतावन्मात्र ३१ १२७ १६६ २३२ १७६ ४४५ २०६ २४ २५१ एक स्पर्शन-इन्द्रियवाला जीव एक-एक एक इस नामका नगरविशेष एक इन्द्रियवाला अब इतना इतना ही इससे, इस कारण एक एक अखड स्थान व्रतविशेष तपविशेष एक बार गोचरी ग्यारह तिथिविशेष एक दिनके अन्तरसे इन्द्र का हस्ती ऐसा, इस प्रकारका अन्वेषण, निर्दोष आहारकी खोज भोजनकी शुद्धि एक एकक्षेत्र एकस्थान एकभक्त एक-भिक्षा एकादश । एकादशी एकान्तर एयखित्त एयट्ठाण एयभत्त एयभिक्ख एयारस एयारसी एयंतर एरावण *एरिस २६२ ३०६ ३६६ ऐरावत २७६ १६८ । ईदृश । एतादृश एषणा एषणासुद्धि एसणा एसणसुद्धी ३८७ २३१ २२४ प्रोसह दवा श्रौषध औषधर्द्धि अोसहियरिद्धी ओह प्रोहिणाय २३३ ५१२ ३३२ औषध-सिद्धिवाली ऋद्धिविशेष समूह रूपी पदार्थको जाननेवाला अतीन्द्रिय ज्ञान श्रोध अवधिज्ञान अंगण अंजन अंजलि ३७३ अंडय अंतराय अंतोमुहुत्त अंधयार अङ्गण अञ्जन अञ्जलि अंडक अन्तराय अन्तर्मुहूर्त अन्धकार अम्बर अम्बुराशि अम्बुरुह आंगन, चौक कज्जल हाथका संपुट अंडकोश विघ्न, रुकावट डालनेवाला कार्य मुहतके भीतरका समय अंधेरा आकाश, वस्त्र समुद्र कमल ८१ ५२५ ४६६ ४३७ अंबर अंबुरासि अंबुरुह . ४७२ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह कदाचित् *कइया (ककस । कक्कड कचणार कञ्चोल कर्कश कचनार कच्चोलक कार्य कण कनक कज क किसी समय कठोर, परुष, निष्ठुर ककर-पत्थर, कड़ा कठिन वृक्षविशेष पात्रविशेष, प्याला प्रयोजन, कर्तव्य, उद्देश्य, काम लेश, ओदन, दाना स्वर्ण, विल्ववृक्ष धतूरेका वृक्ष (कनेरका वृक्ष । कनेरका फूल कनेरका वृक्ष १९८ २२६ १३७ ४३२ २५५ २३६ २३० २६० ४३१ ० ०. कर्णिकार कर्णवीर m करण कणय करण्यार । कण्णियार कणवीर कण्णिय । कणिया (कत्ता र कत्तार कत्तिय कत्तरि कर्णिका कमलका बीजकोश, मध्य भाग ० ० 000r mm ३५३ ३०२ कर्ता कार्तिक कर्तरी (कल्प । कल्प्य कल्पद्रुम कल्पविमान करनेवाला कातिकका महीना कैची युगविशेष देवोंका स्थान कल्पवृक्ष स्वर्गविमान कप्प १९३ २५० ४६५ ४३८ ४२७ कपूर कर्म कप्पदुम कप्पविमाण (कप्पुर । कप्पूर कम्म कय *कया कयंब कर करकच करड ४३१ कृत कदा कदम्ब कर क्रकच करट (करण । परिणाम कल, कला १६७ करण कपूर, सुगन्धित द्रव्यविशेष जीवके द्वारा किया जानेवाला कार्य किया हुआ, कच, केश कभी १०१ वृक्षविशेष किरण, हस्त १५७ शस्त्रविशेष, करोत वाघ-विशेष, काक, व्याघ्र, कबरा, चितकबरा ४११ इन्द्रिय, आसन करणविशेष शब्द, मनोहर, कर्दम, धान्य-विशेष २६३ स्त्री ११२ उत्तम धान्य, चोर ४३० चाँवल, भात ४३४ ताम लोहा आदिका रस वृक्ष विशेष १६६ घड़ा समूह, जत्था, तूणीर, कंठका आभूषण सुख, मंगल कलत्र कल कलत्त कलम कलमभत्त कलयल कलंब कलस कलाव कल्लाण २४ कलम कलमभक्त कलकल कदम्ब कलश कलाप कल्याण ३५७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ५३१ ४४० १७८ २८५ ३०६ कपाट कपित्थ कषाय कथ कथा कापुरिस कायोत्सर्ग कृत्वा कामरूपित्व काय कायक्लेश कत्तव्य कारापक कारित कास्क वसुनन्दि-श्रावकाचार कपाट, एक समुद्धात विशेष कैथ, एक फल क्रोधादि परिणाम कैसे, किसी प्रकार कहानी, चरित्र कायर पुरुष शरीरसे ममत्वका त्याग करना करके इच्छानुसार रूप-परिवर्तनकी ऋद्धि शरीर शरीरको कष्ट देनेवाला तप करने योग्य कार्य करानेवाला कराया हुआ शिल्पी, कारीगर समय, मरण चन्दन विशेष वाद्य विशेष, महाढक्का कुक्कुट, मुर्गा करके बनाया हुआ स्तुति करना क्षुद्र कीट कीट-समूह ५१४ ३४८ ५१३ ७६ ३१६ १५ го 1G1 о л काल о कवाड कवित्थ कसाय कहं कहा काउरिस काउस्सग्ग काऊण कामरूवित्त काय कायकिलेस कायव्व कारावग कारिद कारुय काल कालायरु काहल किकवाय *किच्चा किट्टिम कित्तण किमि किमिकुल (किरिय किरिया किरियकम्म किराय किलिस्समाण किलेस किदिवस कीड *कुत्थ कुभोयभूमि л о कालागुरु काहल कृकवाक कृत्वा कृत्रिम कीर्तन २८४ कृमि कृमिकुल ४५३ ८५ १६६ २४, ३२ क्रिया व्यापार, प्रयत्न २८३ क्रियाकर्म किरात क्लिश्यमान क्लेश किल्विष २०२ २३६ १६४ ३१५ कीट शास्त्रोक्त अनुष्ठान विधान भील क्लेश युक्त होता हुआ दुख, पीडा पाप, नीच देव जंतु, कीड़ा कहा, किस स्थानमें कुत्सित भोगभूमि चन्द्र-विकाशी कमल खोटा पात्र जाति, यूथ मिथ्यामती कमल कु+ बलय भूमंडल क्रोधित कूलता हुआ कुत्र कुभोगभूमि कुमुद कुपात्र कुल वंश कुलिंग कुवलय ३६१ ५४० २२३ कुपत्त कुलिंग कुवलय कुवित्र +कुब्वंत ३८५ ४२६ कुपित ७५ कुसुम १८८ २२८ पुष्प Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह १८३ कुसुमदाम कुसुमाउह कुसेसय कुसुमदाम कुसुमायुध कुशेशय २६५ ४८५ ४८५ २१६ कूट कूट कूर १८६ र क्रूर केवल केवलणाण d १७० २३० केवल केवल ज्ञान . केस केश कोवीण कौपीन as wF9 Mmmm or १०. pr 0X9 ०. ० m disx9) 10 क्रोध कोह कोहंध । कंचण कंत कंतार कंद पुष्पमाला कामदेव कमल, पर्वतका मध्यभाग, नकली, माया, छल भात, ओदन निर्दय हिसक असहाय, अकेला क्षायिक ज्ञान बाल, क्लेश लंगोटी रोष क्रोधसे अन्धा सुवर्ण सुन्दर, अभिलषित . अरण्य, जगल जमीकन्द, मूल, जड़, स्कन्द कातिकेय चिल्लाता हुआ नीलकमल कामदेव, अनग गुफा, विवर कॉसा, कासेका पात्र झालर, वाद्य विशेष क्षुद्रघटिका कुछ, अल्प अशोकवृक्ष कुछ भी सिकोड़ना शस्त्र विशेष, भाला घणिया विनाश क्रोधान्ध कांचन कान्त कान्तार कन्द २६५ कंदंत क्रंदन्त (देशी) कन्दर्प १६४ ४३५ कंदुत्थ कंदप्प कंदर कंस कंसताल किकिणि किंचि किंकराय किंपि कुंचण ४१२ ३६६ कंदरा कांस्य कांस्यताल किकिणी किञ्चित् किंकरात किमपि कुञ्चन कुन्त १०४ ४३२ २३३ कुंत कुंथुभरि क्खय ४४५ कुस्तुम्भरी क्षय ७४ खन खचित ४२५ खाद्यमान १८२ १८० ४४० खग्ग खचिय +खज्जत (खजमाण खज्जूर खण खणखइमा खमरण खमा खमिऊण तलवार जटित खाया गया खाया जाता हुआ खजूर, सबसे छोटा काल क्षण-विनश्वर उपवास, श्रमण, साधु क्षान्ति, पृथ्वी क्षमा करके खजूर क्षण क्षणक्षय क्षमण क्षमा क्षन्वा, क्षान्त्वा २७६ ३५४ ५४८ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ खर वसुनन्दि-श्रावकाचार खचर विद्याधर पक्षी रासभ, कठोर खल खलिहान, दुर्जन स्खलन्त गिरता हुआ क्षपण क्षय करना क्षपक क्षय करनेवाला क्षपित नष्ट किया हुआ खाद्य खानेयोग्य क्षायिक सद्दृष्टि क्षायिक सम्यग्दृष्टि १०७ १०६ ७३ ५१८ ५१७ ५१५ २३४ खारा ५१२ १६२ २४० खयर खर खल खलंत खवण खवय खविय खाइय खाइयसहिही खार खित्त खिदि खिल्लविल्लजोय खिवित्ता खीणकसाय खीर खीरजलहि खीरुवहि खीरोद खुहिय खेत्र खत्त +खेलंत खोम खंति खंध खेत पृथिवी आकस्मिक योग क्षेपण कर बारहवां गुणस्थान २३६ ५२३ २४३ दूध क्षीरसागर ४६८ क्षिति (दशी) दिश्त्वा क्षीणकषाय क्षीर . क्षीरजलधि क्षीरोदधि क्षीरोद क्षुभित खेद क्षेत्र क्रीडन्त ४११ क्षीरसमुद्र क्षीरोदधि क्षुब्ध रज, शोक खेत खेलता हुआ रेशमी वस्त्र क्षमा कंधा, परमाणुओंका समुदाय क्षौम २५६ ५४३ क्षान्ति स्कन्ध, गति, ३४२ ७५ गर्जन्त, गर्जमान, ४११ गह गज्जंत गज्जमाण गब्भ गब्भावयार गमण *गमिऊण गयण गरहा ज्ञान, गमन, जन्मान्तर प्राप्ति गर्जना करता हुआ, गरजता हुआ, उदर, उत्पत्तिस्थान गर्भ-कल्याणक गति, जाकर, आकाश २६४ ४५३ गर्भावतार गमन गमित्वा गगन २१४ २८८ गर्दा गृहीत्वा गृहीत ग्राम *गहिऊण गहिय गाम २८३ निन्दा करना, लेकर ग्रहण किया हुआ, स्वीकृत, पकड़ा हुआ छोटा गांव, समूह गीध पक्षी ७४ । गिद्ध. २११ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह गिर गिर, गिरा गिह गिहदुम गिहारंभ गृह गृहद्रुम गृहारम्भ २५४ ३९८ १५ गुण २०७ गुणण्णिय गुणव्वय गुरु गुलुगुलु गुणान्वित गुणवत गुरु गुलगुलाय वाणी, भाषा, धर गृहदाता कल्पवृक्ष घरके आरम्भ गुण, स्वभाव गुणसे युक्त इस नामका श्रावकवत भारी, शिक्षा-दीक्षादाता आचार्य गुलगुल शब्द करना गाने योग्य इस नामका अहमिन्द्र पटल गाय, रश्मि, वाणी, अप्रधान, साक्षी गुण निष्पन्न, गोत्र, नाम, पर्वत विषय, गायोके चरनेके भूमि जाकर शास्त्र, परिग्रह गेय ४१२ ४१३ गेय गेविज्ज गो गोण गोय ग्रैवेय, अवेयक गो, गौ गौण गोत्त गोचर गत्वा ग्रन्थ गोयर ५२६ ५२६ *गंतूण ३८६ गंथ २०८ *घडाविऊण ३५५ घटाग्य घटयित्वा धन गृह बना कर, बनवा कर मेघ, सघन घण २५३ २८६ घर घर घिट्ट धृष्ट सघर्ष करना, ४२८ चित्तूण लेकर ७५ गृहीत्वा घूर्णन ४१२ घुिम्मत घोर घंटा घोर घूमता हुआ भयानक शब्द करनेवाला कांस्य वाद्य घण्टा ४११ २२६ *चइऊण २६८ त्यक्त्वा ।च्युत्वा चतुष्टय चतुर्थ चतुर्थ स्नपन चतुर्थी चतुर्दश छोड़कर चयकर चारका समूह चौथा चौथा स्नान चौथी तिथि ५३५ ४२३ ३६८ चौदह २३०, १२६ चउट्टय चउत्थ चउत्थरहवण चउत्थी चिउद्दस चउदह चउर चउरिदिय चउन्विह चउसट्टि चक्क चक्कवटि चतुर चतुरिन्द्रिय चतुर्विध चतुःषष्ठि चक्र चक्रवर्ती चार चार इन्द्रियवाला जीव चार प्रकार चौसठ पहिया, पक्षिविशेष सम्राट Mrur २६३ १६७ १२६ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३६२ ५०६ १०७ चक्रवर्तित्व चक्रधर चटापयित्वा चतुर्धा चर्म चामर चय २३० ४०० चक्कवट्टित्त चक्कहर *चडाविऊण *चदुधा चम्म चमर चय चरण चरित्त चरिम चरिया चलण चलपडिमा चवण चाउव्वण्ण चरण १५४ चारित्र ३२० ३०६ २१८ चर्या चरण चलप्रतिमा च्यवन चातुर्वण्र्य ४४३ १६५ चक्रवत्तिपना चक्री, चक्रका धारक चढाकर चार प्रकार चमड़ा चॅवर समूह, शरीर सयम, पाद बत, नियम अन्तिम आचरण, गमन, भोजनार्थ विहार पाद, पाव अस्थिर मूर्ति मरण, पतन चार वर्णवाला; मुनि, आयिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ खुशामद ठहरनेके लिए लॉछन, निशान चित्रगत मूत्ति चिरस्थायी दीर्घजीवी पुरातन चिन्तासे पीडित छोटा, चीन देश चीनका बना वस्त्र बारीक पिसा चून चूर्ण चूर्ण किया गया ४१५ चाडु चिट्ठ चिरह १८७ ४५२ ४३८ २६ चाटु स्थातु चिन्ह चित्रप्रतिमा चिरव्यवस्था चिरायुष्क चिरंतन चिंतातुर चीन चीनपट्ट चित्तपडिमा चिरविवत्था चिराउस चिरंतण चिंताउर चीण चीणपट्ट ३४५ ४४६ ११४ २५६ ४०५ १५२ चुण्णित्र चूर्णित च्युत पतित, गिरा हुआ २९, ३० चतुरशीति चूर्ण चैत्य चुय चुलसीइ चूरण चेय चेयगिह चेयणा चोदस चोइसी चोरिया चंडाल १७१ १६८ २६७ २७४ चैत्यगृह चेतना चौरासी चून प्रतिबिम्ब, स्मारक चैत्यालय चैतन्य ज्ञान चौदह चौदस तिथि चोरी डोम, हत्यारा, बधिक सुगन्धित वृक्ष विशेष अर्ध चन्द्रके समान आभावाला चन्द्रके समान चतुर्दश चतुर्दशी चोरिका चाण्डाल चन्दन चन्द्रा चन्द्राम ३७० ३७० ११० ८८ चंदण २६७ चंदक ३६६ चंदह Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २६८ चंदोवम चंपय ४३१ चंपा चिंतण चन्द्रोपम चम्पक चम्पा नगरी चिन्तन चिन्तातुर चन्द्र तुल्य वृक्ष विशेष मगध देशकी नगरी विचार चिन्ताकुल Xsur चिंताउर षष्ठ षष्ठमादिखवण षष्ठी छठा दो दिनका उपवास आदि छठवी तिथि आतपत्र, छाता छट्ट छट्टमाइखवण छट्टी छत्त छब्भय छम्मास छिराण छिह *छि ३७३ ३५१ ३६८ ४०० १८ १६७. २३० छह भेद षड्भेद षण्मास छिद्र छह महीना कटा हुआ विवर, छेद छने के लिए छुरा, उस्तरा भूख छेदना छोडा हुआ, मुक्त, परित्यक्त ३०२ क्षुधा छेदन W १८४ US छेयण (छडिअ छडिय (*छडिऊण *छडित्ता मुक्त, त्यक्त ४३० त्यक्त्वा छोड़कर २७१, २६० २३१ यतना जगत्पूरण यज्ञावनि जननी सावधानी लोक-पूरण समुद्धात विशेष यज्ञभूमि ५३१ माता M० यत्न जहणा जगपूरण जग्गावणि जणणी जत्त नजदो जम जम्म जम्मण जम्माहिसेय जम्हा OS OS 9 यतः यम WWWM जन्म उद्योग, चेष्टा जिस कारण कृतान्त उत्पत्ति उत्पाद जन्म-कल्याणक जिससे लोक, विजय तीन लोक कल्पातीत-विमान वृद्धपना ३० जय जन्मन् जन्माभिषेक यस्मात् जगत्, जय जगत्त्रय जयन्त जरा जलनिधि जलधारा जलधि ५४६ ४६८ ४६२ जयत्तत्र जयंत जर, जरा जलणिहि जलहारा जलहि समुद्र पानीकी धार समुद्र ४८३ ४८६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जल्लोसहि जल्लोषधि ३४६ १०५ ३४४ जस जसकित्ती जसस्सी जह जहराण जहाजोग्ग यश यश कीर्ति यशस्वी यथा जघन्य यथायोग्य यथोक्त ५२८ २४८ ३७१ जाइ जाति १०१ १८६ ३६३ १६४ ४२१ ४३२ १० जादव जायणा जायंत जावउ जावज्जीव जावारय जासवण जिण जिणक्खाद जिणचेइय जिणण्हवण जिणयत्त जिणवरिंद जिणसासण जिणालय जिणिंद जिब्भा जिमिंदिय वसुनन्दि-श्रावकाचार शरीरके मलसे रोग दूर करनेवाली ऋद्धि विशेष ख्याति प्रसिद्धि यशवान् जैसे, जिस प्रकार निकृष्ट यथोचित कहे अनुसार जन्म, कुल, गोत्र यदुवशी पीड़ा उत्पन्न होता हुआ जब तक जीवन पर्यन्त जबारे जौके हरित अकुर जपावृक्षका फूल जिनेन्द्र जिनेन्द्रके द्वारा कहा हुआ जिनमुत्ति जिनाभिषेक पंचम अगमें प्रसिद्ध पुरुष जिनोमे श्रेष्ठ जैनमत जिन-मन्दिर जिनराज जीभ रसना-इन्द्रिय प्राणी जीभ जीता हुआ एक साथ पुराना संयुक्त संग्राम, लड़ाई सहित, जोड़ा जोड़ा जुआ जवानी ज्येष्ठ पांडव यादव यातना जायमान यावत् यौवजीव यवांकुर, जपाकुसुम जिन 'जिनाख्यात जिनचैत्य जिनस्नपन जिनदत्त जिनवरेन्द्र जिनशासन जिनालय जिनेन्द्र जिह्वा जिह्वन्द्रिय जीव जिह्वा ३७३ ४५३ ४० GW120 जी ४७९ जीवन् जीह +जीवंत गजुगव जुण्ण ५२६ युगपत् जीर्ण युत ३ जुद्ध युद्ध युत, युग १७० ४६५ युगल २६२ चूत ६५ जुयल जुव्व जुव्वण जुहिट्टर ४६६ यौवन युधिष्ठर 0 जूय जुआ जूयंध द्यूतान्ध जुआसे अंधा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृित-शब्द-संग्रह जूहिया जोइ जोइदुम द्यूत यूथिका ज्योति, योगी ज्योतिद्रम ज्योतिष्क योग योनि योग ,योग्य । जोइस जोग २५४ २५१ ४३ १७७ जोणि जोय जोयण जोव्वरण जुआ चमेली प्रकाश, साधु प्रकाश करनेवाला कल्पवृक्ष ज्योतिषी देव मन, वचन, कायका व्यापार उत्पत्ति स्थान समाधि, लायक चार कोश जवानी छोटा प्राणी कहने योग्य वृक्ष विशेष, जामुन, जम्बुक-गीदड कहा हुआ निम्बू बिशेष, जबीरी योजन २१४ जंतु यौवन जन्तु जपनीय २६५ २३० जंपणीय जंबु जंपिय जंबीर जल्पित जम्बीर ४४० भ भमझमंत ४१२ भष ध्यान झमझम शब्द करता हुआ अश्वविशेष, मत्स्य एकाग्र होना, चिन्ता रोकना माण १४८ १३० टगर टिंटा तगर (देशी) सुगन्धित वृक्ष विशेष जुआ खेलनेका अड्डा mo ठवणा *ठविऊण ठाण W1 ५ +ठाहु २२६ स्थापना स्थापयित्वा स्थान तिष्ठ स्थिति स्थितिज स्थित्वा स्थिति स्थितिखड स्थितिकरण आरोपण करना स्थापना करके भूमि, जगह, अवकाश ठहरो, ऐसा वचन कहना आयु स्थिति-जन्य ठहराकर उन आयुके खंड, कांडक स्थितीकरण अवस्थित टिइ ठिइज *ठिच्चा ठिदि ठिदिखड ठिदियरण ठिय ५०६ १६२ २५५ ४१ ४८ स्थित २२२ डिज्मंत डोंब 0 दह्यन् डोम जलता हुआ नीच जाति, चडाल .15 सरिता नाशको प्राप्त २११ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ वसुनन्दि-श्रावकाचार नही है नमस्कार करके नमस्कार मत्र नमस्कार हो, ऐसा वचन प्रणाम करके *णत्थि गमिऊण णमोकार *णमोत्थु *णमंसित्ता रायण रायणंदि गयर एयरी २२६ नास्ति नत्वा नमस्कार नमोऽस्तु नमस्कृत्य नयन नयनन्दि नगर नगरी ऑख ३०४ . ५४५ १८७ णर नर नरक १२० ४६७ नव ४६१ २२८ गरय गव रावगीव रावण णवमी गवविह गवर णवयार एवंसय ३६६ इस नामके एफ आचार्य शहर पुरी मनुष्य नारक बिल नौ सख्या कल्पातीत विमान नमस्कार नवी तिथि नौ प्रकार केवल, नई बात नमस्कार, नवकार पद इस नामका वेद, खसिया आकाश, नाखून नख, तीक्ष्ण अभिषेक नहानेका आसन स्नान करके नहाना स्नानघर जानकार अभिनय, खेल २२५ २६० २७७ नवग्रैवेयक नमन नवमी नवविध विशेप नवकार नपुंसक नम, नख नखर स्नपन स्नपनपीठ स्नात्वा स्नान स्नानगेह ज्ञात्वा नाटक ५२१ २२६.८४६,८७० राह ४१३ ४०७ ५०१ राहवण ण्हवणपीठ *ण्हाऊण ण्हाण ण्हाणगह *णाऊण णाडय २६३ ४१४ णाण ज्ञान बोध ४५२ ज्ञानोपकारण नाम ३२२ ५२९ ४३१ ४४० गाणुवयरण णाप गाय गारंग गाराय णारय गालिएर गाव पास णासावहार णाह 'णांहि । कणिउयत्तिऊण नाग नारंग नाराच नारक नालिकेर ज्ञानका साधक अर्थ एक कर्म, सज्ञा सर्प, एक वृक्ष विशेष फल विशेष, संतरा, नारंगी वाण नारकी जीव नारियल नाव, नौका स्थापन करना, धरोहर धरोहरको हड़प जाना स्वामी शरीरका मध्य भाग लौटकर ४४० ४१६ न्यास न्यासापहार नाथ नाभि निवृत्त्य ४६२ ३०५ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २०६ १८० निःकांक्षा निष्कारण निःखलन निष्क्रमण निक्षेपण निग्रह निघण ४५२ " णिक्कंखा णिक्करण णिक्खलण णिक्णमण णिक्खिवण णिग्गह णिग्घण णिग्घिण णिच्च णिच्छय णिज्जरण णिज्जरा णिज्जास णिट्ठवण णिट्टिय णिदुर कणिण्णासिऊण णित्थर X X X नित्य निश्चय निर्जरणं निर्जरा निर्यास निष्ठापन निष्ठित निष्ठुर निर्माश्य निस्तर निर्दिष्ट निद्रा निर्देश निंदनीय आकाक्षा रहित, सम्यक्त्वका गुण अकारण नाक, कान आदि छेदना निर्गमन, दीक्षार्थ प्रयाण स्थापन दंड, शिक्षा निर्दय करुणा-रहित निरन्तर निर्णय करना झडना, विनाश होना कर्मो का झड़ना रस, निचोड़, गोंद समाप्त करना, पूरा करना समाप्त किया हुआ कठोर, परुष नाश करके पार पहुँचना कथित, प्रतिपादित नीद नाममात्र कथन निन्दाके योग्य बदनामी सम्पन्न, पूरा होना प्रतिपक्षी-रहित फलरहित बुद्धि-रहित भर्सन किया जाता हुआ ३७७ ५१५ २२६ 0 0 ० णिद्दिट्ट णिहा ० णिद्देस जिंदणिज्ज गिंदा णिप्परण णिप्पडिवक्ख ८ or ou निन्दा ४३८ ४६२ णिप्फल णिब्बुद्धी २३६ ११५ ११७ तल्लीन १११ २१४ ३२६ निष्पन्न निष्प्रतिपक्ष निष्फल निर्बुद्धि निर्भर्थद् निमम निज निवृत्ति निवृत्य नियम नियम्य निजक निकर निदान नरक निरवद्य निरपराध निरुपम निरोध २२१ कणिब्मच्छिज्जंत णिमण्ण णिय णियत्ति "णियत्ताविऊण णियम गणियमिऊण णियय गियर णियाण णिरय णिरवज णिरवराह णिरुवम णिरोह २८२ अपना प्रवृत्तिका निरोध लौटाकर : प्रतिज्ञा, व्रत नियमन करके निजका, अपना समूह आगामी-भोग-वॉछा नारक भूमि निर्दोष अपराध-रहित उपमा-रहित, अनुपम रुकावट ४२५ २०१ १२६ २२६ ३८८ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ वसुनन्दि-श्रावकाचार MM h गिलय बिलाट पिल्लज्ज गिल्लोय गिल्लंछण ६४ १६६ १८० णिव नृप २६८ १६७ +णिवडंत णिवह ३६२ चतुर विरक्ति निलय घर, आश्रय ललाट भाल, कपाल निर्लज शर्म-रहित नृलोक मनुष्य-लोक निाच्छन शरीरके अवयवका छेदना, दागना नर-पालक, राजा निपतन्त गिरता हुआ निवह समूह, वैभव निर्वाण मुक्ति नैवेद्य देवार्थ-सकल्पित पक्वान्न निवृत्त लौटना, हटाना निविश्य स्थापन कर, रखकर, बैठकर निर्विघ्न विघ्न-रहित निर्षिचिकित्सा ग्लानि-रहित, सम्यक्त्वका गुण निर्विकृति निविकार भोजनवाला तप निपुण निवृत्ति निष्पत्ति निवृति मुक्ति निमज्जंत डूबता हुआ निवृत्त रचित, मुक्त निर्वेद निःशङ्क शंका-रहित निःशङ्का सम्यक्त्वका गुण निःश्वास दीर्घ सांस निशि रात्रि निशिभुक्ति रात्रि भोजन निशिभोजन रातका खाना निविश्य, निवेश्य स्थापन करके निःशंकित शंकामुक्त निःसृत्य निकल करके निशिथिका, नैधिकी स्वाध्योयभूमि, निर्वाणभूमि, नशिया निशुंभन . व्यापादन करना, कहना निःशेष समस्त निधि भंडार स्थापित क्षुद्र, ओछा नीला रंग नुत नम्रीभूत लेजाकर ज्ञेय जानने योग्य नेत्र नेत्रोद्धार आँख निकालना णिव्वाण गिविज्ज णिवित्त अणिविसिऊण णिधिग्ध णिविदिगिच्छ णिवियडी णिवुण णिवुत्ती गिवघुइ +णिव्वुडत णिवुद गिब्वे हिस्संक - णिस्संका णिस्सास णिसि णिसिमुत्ति णिसिमोयण *णिसिऊण हिस्संकिय गणिस्सरिऊण णिसिही णिसुंभण णिस्सेस णिहि णिहिय गीय णील णुय गणेऊण ५२ ४६७ ३१५ ४६६ ३२१ १७८ ४५२ ४५ ८७२ निहित ४३५ नीच नील १६३ ८३६ नीत्वा २८४ २७ होत ऑख ३९८ १०६ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह णेत्तम्मीलणपुज्ज रणेत्तण नेत्रोन्मीलन पूजा नीत्वा २ ोय ज्ञेय ५४६ णेमिचंद ऐवज्ज गोपागम णोकसाय णंदावत्त णंदीसर नेमिचन्द्र नैवेद्य नोबागम नोकषाय नन्द्यावर्त नन्दीश्वर प्रतिष्ठा-गत संस्कार-विशेष लेजाकर जानने योग्य एक आचार्यका नाम नेवज, देवतार्थ संकल्पित पक्वान द्रव्य निक्षेपका एक भेद छोटी कषाय एक प्रकारका स्वस्तिक आठवॉ द्वीप ४५.४ ५२१ तइज्ज तृतीय तीसरा ततः तत्त्व तत्त्वार्थ *तो तच्च तच्चत्थ तक्खण तणु तणुकिलेस तणुताव तराहा तण्हाउर तत्क्षण तनु तनुक्लेश तनुताप तृषा, तृष्णा तृष्णातुर इसके अनन्तर पदार्थ सत्यार्थ, तत्त्वरूप पदार्थ तत्काल शरीर, कृश कायक्लेश शारीरिक-सताप प्यास, मूर्छा तृष्णासे पीडित सतप्त इसलिए वहाँ, कहाँपर तीसरा सप्तम नरक पृथ्वी षष्ठ नरक पृथ्वी १८४ तप्त w तस्मात् is MY २११ १७२ तृतीय तमस्तमप्रमा तमोभासा (तमःप्रभा) तस्मात् तत तरणी १७२ तत्तो तत्थ तदिय तमतमपहा तमभासा *तम्हा तय तरणि तरु तरुणी तव तवस्ती तविल तल तह इससे वाद्य बिशेषका शब्द नौका २५३ ५४४ तरु तरुणी युवती तप ३४८ ४४ तपस्वी तपस्या तपशील तबला, वाद्य विशेष दो-इन्द्रियादि जीव ४ त्रस तथा - उस प्रकार १०, १८० ताडन तामलित्त पत्यरं तारिस ताडन ताम्रलिप्त तादृश मारना एक प्राचीन नगरी वैसा ५५ १४० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ० ताल तालवृन्त वसुनन्दि-श्रावकाचार वृक्ष विशेष पखा पीडन तिगुना ० त्रासन ० तेज २६७ ताल तालवंट तासण तिउण तिक्ख तिण तिणचारी तित्थ तित्थयर तिदिय तिदु तिपल्लाउग त्रिगुण तीक्ष्ण तृण तृणचारी तीर्थ तीर्धकर तृतीय ४५० ३८७ २१६ तेन्दु तिय त्रिपल्यायुष्क त्रय, त्रिया त्रिकाल त्रिकालयोग तिर्यगायु तिर्यक् तिर्यग्गति किरीट-मुकुट तिलक तिलकभूत त्रिलोक तियाल तियालजोग तिरिक्खाउ तिरिम तिरियगई तिरीट तिलय तिलयभूय तिलोय तिविह तिव्व तिसत्र तिसट्ठी *तिसट्टिखुत्त तिसा तिसूल तिंसंझ तिनका, घास घास खानेवाला पवित्र भूमि तीर्थ-प्रवर्तक तीसरा तेंदू फल तीन पल्यकी आयुवाला तीन, स्त्री तीनो काल त्रिसन्ध्य, समाधि तियंचोंकी आयु तिरछा पशुयोनि शिरका आभूषण चदन आदिका टीका श्रेष्ठ तीन लोक तीन प्रकार तेज प्यासा तिरेसठ तिरेसठ वार प्यास शस्त्रविशेष तीनो काल ४४१ २५८ २५ ५२६ ३१२ ५१५ १८१ १७७ ३६१ ३४३ ३४७ २२१ त्रिविध १७६ १८८ ४२२ ३७६ १२६ १४१ ४२३ तिहि तीद मिति ३६२ २२ तीव्र तृषित, तृषात त्रिषष्ठि त्रिषष्ठि कृत्वा तृषा त्रिशूल त्रिसन्ध्य तिथि अतीत तृतीया त्वक तुष्टि त्वरित तुरूष्क तुन्द तूर, तूर्य तूर्यांग त्रयत्रिंशत् तेज २६५ तीया तुय, तय तुट्ठी *तुरित्र, तुरिय तुरुक्क तुंड तीसरी तिथि छाल, चमड़ा संतोष तुरन्त सुगन्धित द्रव्य विशेष २२४ १६२ ४२७ मुख तुरई २५१ २५३ व तेत्तीस वादित्र देनेवाला कल्पवृक्ष देवोंकी एक जाति विशेष, तेतीस प्रताप १७४ २५८ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द संग्रह १ तेरह तेरसि तेवटि तंडुल तंबय तंबोल. त्रयोदश त्रयोदशी त्रिषष्ठि तन्दुल ताम्रक ताम्बूल तेरह तेरहवी तिथि तिरेसठ चावल तॉवा पान मुख तीस तोष सतोप • GROcti GKCK8 MUNN r स्थल भूमि थल (थाला थाली थावर थिर स्थाली थाली 'स्थावर स्थिर स्तुति स्तुत्वा स्तूयमान 688 ५०३. ३७८ स्तोत्र एकेन्द्रिय जीव अचल गुण-कीर्तन स्तुति करके स्तुति किया जाता हुआ स्तुति-पाठ मोटा स्थूल व्रत स्तुति किया जाता हुआ औदारिक काययोग एकदेश नियम अल्प, #थुणिऊण थुणिज्जमाण थुत्त थूल थूलयड +थुव्वंत थूलकायजोग थूलवय ५०३ २०६ २१२ स्थूलकृत स्तूयमान स्थूलकाययोग स्थूल व्रत ०, ५३३ २११ थोक स्तोक थोग थोड़ा २६८ थोव " थोत्त स्तोत्र ४८० ४५७ दक्षिण टळूण दक्षिण दृष्ट्वा दग्ध २१४ १६३ १६२ ८६ दर्पण दप्प दप्पण दमण दलण ४०० दमन दक्षिणदिशा, निपुण, चतुर, दाहिना देखकर जला हुआ, अहकार शीशा, आदर्श वश में करना, दमन करना दलना, पीसना अनुकम्पा वस्तु, धन पुस्तक ग्रन्थ सख्या विशेष दशका समूह तिथि विशेष दश प्रकार १८० १८० दया दव्य दलन दया द्रव्य द्रव्यश्रुत दश दशक दशमी दशधा दव्वसुद दस दसय २८७ ४५० १७४ ५२५ ३६६ २५१ दसमी *दसहा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ वसुनन्दि-श्रावकाचार १७३ दह दहि दहिमुह *दाऊण दाडिम ३७३ दाण दश दद्धि दधिमुख दत्वा दाडिम दान दानविधान दातव्य दातार द्वार, स्त्री दारुण दापयित्वा दासत्व दक्षिण दाणविहोण दायव्व दाथार दार दारुण दाविऊण दासत्तण दाहिण . rism o दस सख्या दही नन्दीश्वरस्थ गिरिविशेष दे करके अनार त्याग, दानके भेद देने योग्य वस्तु देनेवाला दरवाजा, नारी भयकर दिलाकर दासपना दाहिना देखा हुआ नजर, निरीक्षण मजबूत दिनको प्रतिमावत होकर ध्यान करना २२० ३६८ १८१ ४४४ ६१ दिट्ठ दिट्टि दृष्टि ४६९ २५२ ३१६ ४६७ दिढ दिणपडिमा ज्योग दियर दिण्ण दिनप्रतिमा योग दिनकर ३१२ सूर्य ८६७ २८० दिण्ह r ३३२ दियंत दिव्य दिल, दिसा दीउज्जोय दीणमुह २५४ दिवस दिगंत दिव्य दिग दिशा दीपोद्योत दीनमुख (दीप द्वीप दीपद्रुम दीपाग दिया हुआ दिन दिशान्त स्वर्गीय, अनुपम दिशा दीपकोंका प्रकाश करुण-वदन दीपक द्वीप, टापू प्रकाश करनेवाला कल्पवृक्ष २७४ ३१६ १४२ २२८ २१४ दीव दीवदुम २५५ दीवंग दीह दीर्घ २५१ १३० दुक्ख दुग्गा दुगंध आयत, लम्बा कष्ट कुगति बुरी गंध उपान्त्य, अन्तिम क्षणसे पूर्वका समय खोटा मन द्वेषयुक्त, दो में स्थित दुःख दुर्गति दुर्गन्ध द्विचरम दुश्चित्त दुष्ट, द्विष्ठ दुचरिम दुञ्चित्त १६६ ५२४ १२३ १८० ४३४ दुग्ध दूध २५ दुण्णि दुष्परिणाम .. दुरायार दुष्परिणम दुराचार ३२६ दुर्विवाक दुष्ट आचरण भूमर, भवरा द्विरेफ, १४२ ४७० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह १९७ दुवार दुविह दुवियप्प दुहावह देउलय (देवत्त । देवत्तण देविंद द्वार, द्विवार द्विविध द्विविकल्प दुखावह देवालय दरवाजा, दो बार दो प्रकार दो विकल्प दुःखपूर्ण देव-मन्दिर ३१३ २४२ १२० देवत्व २६४ देवेन्द्र १६१ ३३४ प्रान्त देसविरद देसविरथ देसि देशविरत देशित देवपना सुरेन्द्र अश प्रान्त, भाग पाचवां गुणस्थान देश सयम उपदिष्ट दूषण, द्वेष, ईर्ष्या द्रोह, दोष (दे०) हाथ, बाहु, सजा, निग्रह, कुकृत्य दात देखना, उपयोग-विशेष प्रथम प्रतिमाधारी ००० दोस द्वेष । दोष, दोषा दण्ड, पाप दन्त दंत दंसण दसण-सावय दर्शन ५३१ १६८ २२१, २७ २०६ दार्शनिक श्रावक १०३ धक-धक् आवाज करता हुआ विभव भाग्यशाली, अन्न विशेष धण्ण चाप २१२ २१३ २५८ ३१,२ द्रव्यविशेष, पुण्य, कर्तव्य शुभध्यान आशीर्वचन केश, वृक्ष विशेष पताका पृथ्वी आदि ३०४ ३०२ ३६६ +धग धगंत धण धन धन्य, धान्य धणु धनुष धर्म धम्मज्माण धर्मध्यान धम्म-लाह धर्मलाभ धम्मिल्ल धम्मिल्ल घय ध्वज धराइय धरादिक (*धरिऊण, धरऊण धरऊणं धृत्वा धरिय धरित,धृत, धृत्वा धवल - धवलिय धवलित धिग धुव्वंत धूयमान धूयमाण धूयमान धूलीकलसहिसेय धूलीकलशाभिषेक धूप घूवदहण धूपदहन धवल ४२५ धिक धारण कर धारण किया हुआ, घर करके उज्ज्वल श्वेत श्वेत किया हुआ धिक्कार फहराती हुई कॅपते हुए मृत्तिका-स्नान हवनयोग्य सुगधित द्रव्य धप जलानेका पात्र mro 0.oro r" २६ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ वसुनन्दि-श्रावकाचार धौत धोय धोवण प्रक्षालित, धोया हुआ प्रक्षालन, धोना धोवन ५३२ ३५६ mr mr mro sxisax 2 ३५६ tu milliteilibrumin पइट्ट पइट्रिय पइट्ठयाल पइट्टलक्षण पइटुसत्थ पइट्ठा .पइट्ठाइरिय पइराण पईव पउर पउलण पपस पक्कण्ण *पक्खालिऊण पञ्चक्ख पञ्चक्खाण पच्चूस पच्चेलिउ पच्छा पच्छिम प्रतिष्ठ, प्रविष्ट प्रतिष्ठित प्रतिष्ठाकाल प्रतिष्ठालक्षण प्रतिष्ठाशास्त्र प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाचार्य प्रकीर्ण प्रदीप, प्रतीप प्रचुर, पौर प्रज्वलन प्रदेश पक्कान्न प्रक्षाल्य प्रत्यक्ष प्रत्याख्यान प्रत्यूष प्रत्युत पश्चात् पश्चिम पर्यात पर्याप्ति पर्यायात्मक पर्याय प्रज्वलित पट्ट प्रतिष्ठा, प्रवेश हुआ प्रतिष्ठा-प्राप्त प्रतिष्ठा-समय प्रतिष्ठा-लक्षण प्रतिष्ठा-शास्त्र स्थापना प्रतिष्ठा करानेवाला आचार्य ३८६ प्रक्षिप्त, विस्तीर्ण, प्रतीर्ण, २८० दीपक, प्रतीप-प्रतिकूल, शत्रु ४८७ बहुत, पुर-सम्बन्धी, नगरमे रहनेवाला जलाना १८० अविभागी क्षेत्रांश पकवान प्रक्षालन करके २८२ विशद, स्पष्ट, अतीन्द्रिय ज्ञान १२३ त्यागका नियम ३१० प्रभातकाल वैपरीत्य, बल्कि ११८ पीछे, अनन्तर ३६२ एक दिशा, पिछला २१४ पर्याप्तिसे युक्त, समर्थ, शक्तिमान् शक्ति, सामर्थ्य पर्यायस्वरूप एकक्षणभावी अवस्थाविशेष दग्ध, जलाया हुआ पहननेका वस्त्र, रथ्या, मुहल्ला, रेशमी कपड़ा, सनका कपड़ा, पाट, अधिकारपत्र, काष्ट-पाषाणका फलक, तख्ता, ललाटपर बॉधनेका पट्टा। २५६ नगर प्रारम्भ १५७ कमल वस्त्र गिरना समूह, सघात, वृन्द ध्वजा १३ १३६ पज्जत्ति पज्जयप्पय पज्जाय पज्जलिय ५२६ ५२८ पट्टण पट्ठवण पुट्टि पत्तन प्रस्थापन पृष्ठ २१० ३७७ पीठ पउम पन ४३१ ४२० !!! पट पतन पटल पताका १५० ४३७ ४६२ पडाया Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडि प्रति प्रतिग्रहण प्रतिचीन प्रतिजाग्रण प्रतिबुध्य प्रतिबिम्ब प्रतिमा पतित पडिगहण पडिचीण पडिजग्गण पडिवुभिऊण पडिबिंब पडिमा पडिय पडियरण पडिलिहणं पडिलेवपडिमा *पडिलेहिऊण *पडिवजिऊण पडिवा पढम पणम पणस पणिवाय पण्ण पण्णत्त पण्णरस पण्णास प्रतिचरण प्रतिलिखन प्रतिलेपप्रतिमा प्रतिलेख्य प्रतिपद्य प्रतिपद् प्रथम प्रणम, प्रणाम पनस प्रणिपात पर्ण प्रज्ञप्त प्राकृत-शब्द-संग्रह १९९ विरोध, विशेषता, वीप्सा, प्रत्यावर्तन, प्रतिदान, बदला, प्रतिनिधिपना, प्रतिषेध, प्रतिकूलता, समीपता,अधिकता,सदशता, लघुता, प्रशस्तता, वर्तमानता आदि सूचक अव्यय ३५४ बदलेमें लेना २२५ चीनी वस्त्र या चीनी वस्त्र-जैसा ३६८ जागने वालेके पीछे तक जागना ३३६ प्रतिबुद्ध होकर, जागकर ४६८ प्रतिमा, प्रतिच्छाया ४४४ मूत्ति गिरा हुआ सेवा-शुश्रूषा ३२२ प्रति-लेखन, निरीक्षण ३२६ लेपकी हुई मूर्ति प्रतिलेखन करके २८५ प्राप्त होकर ५१८ एकम तिथि ३६८ पहला ३८३ नमस्कार २२५ फल-विशेष ४४० नमन, बदन ३२४ पत्र, पत्ती ४२१ निरूपित, कथित • २१ ३७० पचास ५४६ दल, पत्ता २६५ दान देने योग्य, अतिथि, भाजन, बर्तन २२१, ३०७ मिला हुआ पात्र-संबधी भेद एक-एक हितकर भोजन २३.६ अभिलाषा, याचना, मॉगना छठा गुणस्थान सम्यग्ज्ञान, सादर, मान, योग्य विभक्त्यन्त पद, चरण १,४३० दूध, जल, व्यक्त ५१५ स्वभाव, मार्ग (दे०) ३०१ चेष्टा, उद्यम, प्रवृत्त, प्रदत्त पदका विषयभूत अर्थ ध्यान-विशेष स्थान-च्युत पंचदश पन्द्रह पत्त पञ्चाशत (पत्र पात्र (प्राप्त पात्रान्तर प्रत्येक पथ्य प्रार्थना प्रमत्तस्थान प्रमाण पत्त र पत्तेय पत्थ पत्थरणा पमत्तठाण पमाण पय २२० Our पद पयड पयडि पयत्त पयस् प्रकट प्रकृति प्रयत्न mr (पदार्थ पयत्थ (पदस्थ पदभ्रष्ट . पयभट्ट Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० वसुनन्दि श्रावकाचार पयर ५३१ पयला पयात्र पयार प्रतर । प्रकर प्रचला प्रताप प्रकार (प्रकाश प्रयास प्रकाशित प्रदक्षिणा पयास पयासिय पथाहिण पर पर परदो परमट्ट परमाणु परमेष्ठी परतः परमार्थ परमाणु परमेष्ठी GKKM २७५ १६० परयार परसमयविदू परस्स पराहुत्त परिउट्ठ परिग्गह परिणय परिणइ परित्थी परिभोय परियत्त परियत्तण परियरिय परियंत परिरक्खा परिवाडी परिवुड +परिवेवमाण परिसम परिसेस परिहि 'परूवय परोक्ख पलायमाण पलाव पल्ल पल्लाउग १६४ एक समुद्धात, पत्राकार, गणित विशेप समूह निद्राविशेष, एक कर्म ५२४ तेज ३४५ भेद, रीति २५० दीप्ति २५४ उद्यम प्रकाश किया हुआ १४ दाहिनी ओर घूमना प्रधान, श्रेष्ठ, अन्य अनन्तर, आगे यथार्थ, सत्य सबसे छोटा पुद्गलका अग परम पदमे स्थित–अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु परस्त्री परमतका ज्ञाता ५४२ पर-धन १०२ विमुख, पराभूत, अपमानित वेष्टित ४७३ धनादिका सग्रह परिपक्क, विवाह परिणमन पराई स्त्री जिसका बार-बार उपभोग किया जाय २१८ परिभ्रमण ५१७ ३३८ परिवृत्त, परिवेष्टित समीप सर्व ओरसे रक्षा ३३८ परम्परा घिरा हुआ ४०६ कंपता हुआ मेहनत २३६ अवशेष घेरा, परकोट ४८२ निरूपण करनेवाला अविशद ज्ञान, पीठ पीछे, ३२५ भागता हुआ ६५ अनर्थक-भाषण, बकवाद माप-विशेष २५६ एक पल्यकी आयुका धारक २६० परदार परसमयविज्ञ परस्व पराडमुख परिवृत्त परिग्रह परिणत, परिणय परिणति परस्त्री परिभोग परिवर्त परिवर्तन परिकरित पर्यन्त परिरक्षा परिपाटी परिवृत्त परिवेष्यमान परिश्रम परिशेष ४५६ ४६१ १२१ ८६ परिधि प्ररूपक परोक्ष पलायमान प्रलाप पल्य पल्यायुष्क १४२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २०१ ५१३ ४८४ पर्यङ्क प्रवचन प्रवर प्रवचन पवनमार्गस्थ, गगनस्थ प्रवाल पवित्र पलियंक पवयण पवर पवयणराणू पवणमग्गट्ठ पवाल पवित्त पन्त्र पब्वय पसरण पसारण पसाय पसूण पस्सवण पस्सिय पहाय पहाय पहावा पद्मासन, पलग उत्तम वचन, जिन-प्रणीत शास्त्र श्रेष्ठ, उत्तम - शास्त्रज्ञ अधर-स्थित, अन्तरीक्ष नव-अकुर, मूंगा निर्दोष व्रतका दिन, उत्सव, त्योहार, ग्रन्थि, गाँठ पहाड़ विस्तार फैलाना कृपा, प्रसन्नता ५४५ ४७३ ४२५ २२८ २१२ '३ ५३२ पर्व ३३८ ५४५ पुष्प पर्वत प्रसरण प्रसारण प्रसाद प्रसून प्रस्रवण दृष्ट्वा प्रभात प्रभाव प्रभावना प्रभृति ५१० ४२२ ५०५ ४८ CG GE प्रभौघ ४३६ ५१७ पहीह पाउग्ग पाएण पात्रोदय पाग पाठय *पाडिऊण पाडिहेर मूत्र, पेशाब देखकर प्रात.काल शक्ति-सामर्थ्य गौरव या प्रभाव बढ़ाना इत्यादि प्रभा-पुंज अतियोग्य प्रायः करके चरण-जल विपाक, उदय अध्यापक, उपाध्याय गिराकर देवकृत पूजा-विशेष जीवनका आधार पीनेकी वस्तु पेय द्रव्य अहिसाणुव्रत जीव प्रायोग्य प्रायेण पादोदक पाक पाठक पातयित्वा प्रातिहार्य प्राण पान पानक प्राणातिपातविरति प्राणी or wrr Low ३८० २३४ पाण १८० २५२ पाणय पाणाइवायविरह २०८ पाणि पाणि हाथ १०६ ४४ जल हाथ ही जिनका पात्र हो जीव-घात चरण-जल पाणिय पाणिपत्त पाणिबह पादोदय पाय पायर पायव पारण, पारणा पारंग पानीय, पेय पाणिपात्र प्राणि-वध पादोदक पाद पाकर पादप पारणा पारंगत rrror एक क्षीरी वृक्ष वृक्ष उपवासके दूसरे दिनका भोजन पारको प्राप्त २५३ २८८ ५४३ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ वसुनन्दि-श्रावकाचार कल्प वृक्ष आखेट, शिकार पारगी-जातीय ० पारिजातय पारद्धि पारसिय पाव पाविठ्ठ पावरोय पावण पाहण बुरा कार्य पारिजातक पारर्द्धि पारसीक पाप पापिष्ठ पायरोग प्रापण पाषाण प्राग्य पाश पाव प्रासाद १८७ ५१३ पाविऊण २७ पास पापी कुष्ट, कोढ प्राप्ति, लाभ पत्थर पा करके जाल समीप भवन जीव-रहित अनि पीछी, मोरपख, पटना देखते हुए २१६ २५४ प्रासुक ८०२ पासाय [पासुय । पासुग पिच्छ +पिच्छंता +पिच्छमाण पिंजर पिट्रि पिंडत्थ पित्तल पिय पियर देखते हुए पिच्छ, पृच्छा प्रेक्ष्यन्तः प्रेक्ष्यमाण पिंजर पृष्ठ पिडस्थ पित्तल पिक, प्रिय पितर, पिता स्तनन्धय पिल्लय पिहु . WA000 WA ० ००००G G60x1 जी पिजरा पीठ ध्यान विशेष, धर्मध्यानका प्रथम भेद पीतल कोकिल, पक्व, प्यारा बाप, सरक्षक पिल्ला, बच्चा विस्तीर्ण दुःखित पीपलका वृक्ष ओर फल अचेतन मत्तिक द्रव्य सम्मान्य अर्चा अर्चन पिछला भाग पृथु पीडिय पीपल २३६ पुग्गल पीडित पिपल पुद्गल पूज्य पूजा पूजन पुज्जण पुट्ठ पुडि पृष्ठ पीठ पुष्टिकर पुट्टियर पुढवी, पुढिवी **पुण पृथिवी पौष्टिक जमीन फिर, अनन्तर सुकृत, शुभकर्म २५२ १७१ १६६ पुण्ण ८० पूरा ३९५ पुण्णिमा पुण्णंकुर पुण्णिंदु पुरणेंदु पुण्य पूर्ण पूर्णिमा पुण्याकुर पूर्णेन्दु पूर्णेन्दु पूर्णमासी पुण्यके अंकुर पूर्ण चन्द्र पूर्ण चन्द्र ३७० ४२६ २५६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-सग्रह २०३ सुत - पुस्तक पोथी पुत्त पुत्थय पुप्फ पुष्फंजलि पुरिस *पुरो पुष्प पुष्पाञ्जलि पुरुष पुरतः १८८ ३६२ २१७ ३८२ २२६ २५६ २२६ पुन्व पुवाहरणा पुहवी पूर्वाभरणा पृथिवी ३६१ पूइ पूति १६ पूइफल पूंगीफल पूजा H पूय (पूत पूया फूलोंकी अजुलि मनुष्य आगे पूर्व दिशा पूर्वरूप आभूषणवाली धरित्री दुर्गन्धित वस्तु, पीव सुपारी अची पवित्र अर्चा प्रतिष्ठा-सम्बधी क्रियाविशेष सजिल्द शास्त्र पर्वके दिनका उपवास कमल आगन पाच सख्या तिथि-विशेष पाँच प्रकारका पाँचो इन्द्रियवाला जीव श्रेणी १३५ ३८१ पोक्खणविहि पोत्थय ४०६ ३५५ पोसह २७६ ४३३ पूजा प्रोक्षणविधि पुस्तक प्रोषध पंकज प्राङ्गण पंच पंचमी पंचविध पचेन्द्रिय पंकय पंगण पंच पंचमी पंचविह पंचिंदिय ३०४ २५ १२ १७६ पंति पंक्ति ३७४ मास-विशेष, फागुन कठोर फग्गुण फरुस फल फलिह परुष फल स्फटिक ३५३ १३५ २६५ •४७२ फल, अतिम परिणाम मणि-विशेष स्पष्ट, व्यक्त दीप्त, कम्पित विदारण .८४ फुरिय फोडण स्फुरित स्फोटन ४६५ बज्झ बत्तीस बद्धाउग बला बलिवत्ति बहिर बहिणी बाह्य द्वात्रिशत् बद्धायुष्क बलात् बलिवर्ति बाहिर, बहिरग, बन्धन, बद्ध, बत्तीस जिसकी पहले आयु बँध चुकी हो जबरदस्ती भेट या पूजामे चढ़ानेकी बत्ती । बहरा बहिन १८६ २६३ २४६ ११८ ४२१ २३५ बधिर भगिनी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ वसुनन्दि-श्रावकाचार बहु बहु ७७ ७७ बहुशः बादर द्वादश बालत्व द्वासप्तति ब्याधित २७६ १८७ बहुत, अधिक वार-वार स्थूल बारह संख्या बालपन बहत्तर पीडित छाया, मूर्ति बोनेका अन्न जानने योग्य बन्धन २६३ १८६ बिम्ब बहुसो बायर बारस, बारह बालत्तण बाहत्तरि बाहिब बिंव बीय *बोहव्व बंधण (बंधिऊण बंधित्ताबंधु बंभचेर बंभयारी ४४० बीज बोधव्य बन्धन १८१ बध्वा बाँध करके १९७ बन्धु ब्रह्मचर्य ब्रह्मचारी रिस्तेदार काम-निग्रह, शील-पालन काम-विजयी २०८ २१२ ३०४ भक्ष्य भक्षयन् भणित्वा भण्यमान भणित भक्त भक्ति १६ ३३६ ४६ भद्र भक्ख भक्खंत *भणिऊण **भणिज्जमाण भणिय भत्त भत्ति, भत्ती भद्द भमित्ता भयणिज्ज भयभीद भयविठ्ठ भरिय भविय भव्वयण भागी भावच्चण भावमह भायण भायणदुम भायणंग भारोपण भासण मिक्ख खाने योग्य खाता हुआ कह कर कहा जानेवाला कहा गया भात श्रद्धा, अनुराग कल्याण भ्रमण कर विकल्प-योग्य डरा हुआ भय-युक्त भरा हुआ मोक्ष जानेके योग्य भव्य जीव भाग्यवान् भाव-पूजन भावपूजा पात्र, बर्तन कल्पवृक्ष-विशेष कल्पवृक्ष-विशेष भारका लादना कथन भीख REE २४५ ५४३ ५३० ११० १०३ भ्रमित्वा भजनीय भयभीत भयाविष्ट भृत, भरित भव्य भव्यजन भाग्यी भावार्चन भावमह, भाजन भाजनद्रुम भाजनांग भारारोपण भाषण ५४२ ४५६ ३०३ २५५ २५१ १८१ ३२७ मिक्षा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २०५ भिण्ण भिंगार भुक्ख भुक्खिय (अँजिवि * जिऊण भिन्न भृगार क्षुधा हुधित अन्य, भिन्न किया गया भाजन-विशेप, झारी भूख भूखा ~ २० ॥ is is भुक्त्वा खाकर, भोगकर ५८१, २६७ ( भुत्तण भुजंग सर्प, विट (लुच्चा), जुआरी, बदमाश, गुडा ३१५ प्राणी, अतीत काल, उपमा ३५ भुयंग भूत्र भूसण भूसगदुम भूसा भेत्र गहना भूषण भूषणद्रुम भूषा २५३ भेद Mr orm ० ० ० मेय भेयण भेदन भेरी भेसज “भोत्त भोत्तण आभूषण-दाता कल्पवृक्ष-विशेष आभूपण-सज्जा प्रकार भाग छेदन वादय-विशेष औषधि भोगनेके लिए, खानेके लिए खाकर, भोगकर एकवार सेवन योग्य भोगनेवाला आहार आहार-दाता कल्पवृक्ष-विशेष ४११ २३६ भोय भोय ३६२ ३६२ मेरी भैषज्य भोक्तु भुक्त्वा भोग भोक्ता भोजन भोजनाग भोजनवृक्ष भोगभूमि भोगविरति भोक्ता भण्ड, भाण्ड भ्रंश २८१ २५१ २५६ भोयण भोयणंग भोयणरुक्ख भोयभूमि भोयविरह भोया भंड भंस २४५ २१६ सुख-मही भोग-निवृत्ति भोगनेवाला अश्लील-भाषी, पात्र, बर्तन गिरना ४०१ ५ मइ मउड मति मुकुट मद २५३ मन बुद्धि मौलि, मस्तक-भूषण गर्व, अहकार रास्ता अन्वेषण वृक्ष विशेष मार्ग ४२४ १५ ४३२ ८१ मधु मग्ग मग्गण मचकुंद मच्छिय मज्ज मज्जंग मज्झ मज्झिम मार्गणा मचकुन्द माक्षिक मद्य मद्यांग मध्य मध्यम २५२ शराब पय-द्रव्य-दाता कल्पवृक्ष-विशेष बीच मध्यवर्ती ३१५ २२१ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ वसुनन्दि-श्रावकाचार मिट्टी मृत्तिका मन हृदय मनोहारि मणि मट्टिया मण मणहारि मणि मणुन मणुयत्त मणुयत्तण मणुयलोय मणुस्स मणोराण मनुज मनुजत्व मनुजत्व मनुजलोक मनुष्य मनोज्ञ चित्तहारी रत्न मनुष्य मनुप्यत्व मनुप्यता मनुष्य-लोक मानव सुन्दर उन्मत्त, पागल MOHAMMA ३३७ ७१ मत्त केवल मात्र मर्दन मर्दल मार्दव ३२८ ४०६ २८७ मालिश वाद्यविशेप अभिमानका अभाव गर्व, नशा मैनफल पन्ना-मणि मद ४२० मदनफल मरकत मृत्वा १२६ मद्दण मद्दण मद्दव मय मयणफल मरगय मरिऊण मरित्ता मलग मलिण मल्ल मल्लिया महड्डि महड्डिय महण महप्पा महिय महियल महिला महिविट्ठ १८० १६५ मर करके मर्दन मैला माला पुष्पविशेष मलिन माल्य मल्लिका २९३ ४३२ २६६ १६२ ४६५ १९८ ८३३ ११३ महु महर्द्धिक मथन महात्मा महित, मह्य महीतल महिला महीपृष्ठ मधु मधुरान्न मथुरा मागध मान मान मानस मानसिक माता बडी ऋद्धिवाला विलोडन बडा पुरुप पूजित, पूज्य भूतल स्त्री भूपृष्ठ क्षौद्र, शहद मिष्टान्न मथुरा नगरी मगध देश, बंदीजन माप विशेष एक कषाय चित्त, अभिप्राय मन-संबंधी जननी महुरपण महुरा मागह माण माणस मागस्सिद माय मायर, माया । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २०७ छल 'ह्री' वीजाक्षर वृक्ष विशेष, पुष्प माला-दाता कल्पवृक्ष विशेष माया मायबीय मालई मालादुम मालंग माहप्प मिच्चु, मिच्चू मिच्छत्त मिच्छाइट्टी माया मायाबीज मालती माल्यद्रम माल्याग माहात्म्य मृत्यु मिथ्यात्व मिथ्याष्टि ४७१ ४३१ २५७ २५१ महिमा ११० मौत २६४ २०२ मिथ्यादर्शन मिथ्यात्वी जीव मीठा केवल मिट्ट मित्त मित्त मिष्ट ४४१ मात्र मित्र १६२ सुहृद् मित्तभाव मिय ३३६ मिस्स मिस्सपूजा ४२७ ४५६ १२७ 'मुक्क मुक्ख मुक्खकज्ज मुग्गर मुच्छ *मुणिऊण मुणेयव्व मित्रभाव मित मिश्र मिश्रपूजा मृत मुक्त मुख्य मुख्य कार्य मुद्गर मूर्छा मत्वा मन्तव्य ४०२ २१ १६७ २६६ २६१ २३ ३६६ मुत्तादाम मुत्ताहल मुत्ति मुह मैत्री परिमित मिला हुआ सचित्त-अचित्तपूजा मरा हुआ सिद्ध छटा हुआ प्रधान प्रधान कार्य एक अस्त्र मोह जानकर मानने योग्य रूपी मोतियोकी माला मोती सिद्धि मुह वाचाल, बकवादी मुखकी शुद्धि वाचाल स्त्री एक आयुध दो घडी या ४८ मिनिटका समय गूगा प्रमित बुद्धिमान् रचे गये संभोग मुक्ति, छुटकारा प्रसन्न, मोचित, छुडवाया हुआ मोतियों से बना मुक्तादाम मुक्ताफल मुक्ति मुख मुखर मुखशुद्धि मुखरा मुशल ३६० मुहसुद्धि मुहका मुसल मुहुत मूय ३४७ २७४ ४२८ २९१ ४६८ १६७ ३६२ २३५ २७१ २४४ ४३३ २६६ मेहावी मेहिय मेहुण सोक्ख मोइय मोत्तिय मूक मात्र मेधावी निर्वृत्त (देशी) मैथुन मोक्ष मोदित मौक्तिक २५७ ४२५ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार २०८ [मुत्ता, मोत्तु मुक्त्वा छोडकर मोत्तूण मोय मोरवंध मोस मोच मयूरबन्ध मृपा मोहित मडप माण्डलिक मंडलीक मंत्र मन्दार माम मोहिय मंडअ मंडलिय मंडलीय मंतर मंदार मंस मोचा, केला एक प्रकारका बन्धन मोष, वोरी, असत्य भाषण मुग्ध हुआ सभारथान राजा मडलका स्वामी, राजेन्द्र गुप्त सलाह, कार्य साधक बीजाक्षर कल्पवृक्ष विशेष गोश्त ३१६ ३६३ २६६ ४१६ रति *रइऊण रइय रक्ख *रक्खि रति रचयित्वा रचित • रक्ष, राक्षस रक्षितु राज्य स्टन्त ३९७ ५४ १२७ ० ० +रडत रात्रि रत्ति रथ्था रद प्रीति, प्रेम रचकर निर्मित निशाचर, क्रव्याद रक्षा करनेके लिए राजाका अधिकृत प्रदेश शब्द करता हुआ लाल वर्ण, अनुराग युक्त रात कुल्या, गली दात रम्य, रमणीय क्रीडा करते हुए सृष्टि जवाहरात सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र नरक पृथिवी रात्रि रथ्या रम्य ४१३ +रमंत रम्य रमन्त रचना ४३७ रयण १२६ .७.01 60000 MG २८६ चादी रयणत्तय रयणप्पह रयणि रजय रहस्स रहिय বম্ব राइभत्त राइभुत्ति राय राय • रायगिह राया रत्नत्रय रत्नप्रभा रजनि रजत रहस्य रहित राग रात्रिभक्त रात्रिमुक्ति राग राज्य राजगृह राजा प्रायश्चित्त विवर्जित प्रेम, प्रीति ३१८ रात्रि-भोजन प्रेम राजाका अधिकृत प्रदेश मगध देशकी राजधानी भूपति ५१. ५२ १२५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत शब्द-संग्रह २०९ रिक्ख रिद्धि रिसि राव ऋक्ष ऋद्धि ऋषि शब्द रीछ सिद्धि ३६३ १६२ ३३० ४२१ साधु वृक्ष पड़ रुद्द २२८ १३३ रुद्रदत्त रुद्रवरनगर रुद्दवरगयर रुद्ध रुप्पय रुपय, रुप्पि रुभित्ता रुयण रोषयुक्त कुध्यान, भयानक व्यक्ति विशेषका नाम एक प्राचीन नगर रुका हुआ चादीका बना रुपया रोककर रोना रक्त, खून वर्ण एक प्रकारका ध्यान रूपातीत धर्मध्यानका एक भेद ३६० ४३५ ५३४ रूप्यक रौप्यक रुन्ध्या रुदन रुधिर रूप रूपस्थ रूपवर्जित रूपी १४४ १६६ रूवत्थ रूववज्जिय ४५८ रूवि मूर्तिक रेवई रेवती ५३ रेफ, रेखा ४६५ रेखा दरिद्र रोम ४७० २३५ २३० १८६ रोम रोय रोवंत चौथे अगमें प्रसिद्ध रानी रकार, पंक्ति, श्रेणि चिह्न विशेष, लकीर निर्धन बाल, केश बीमारी रोता हुआ क्रोधित रोकना, अटकाना एक नक्षत्र राग-युक्त रोग रुदन् रोषाविष्ट रोधन रोहिणी रजिस रोसाइट्ठ रोहण १४५ १८१ रोहिणी रजिअ लउडि ७५ लक्ख लक्षण लग्ग लच्छी लच्छीहर *लज्जणिज्ज लद्धि * लघृण ललाट लकुटि लक्ष लक्षण लग्न लक्ष्मी लक्ष्मीधर लजनीय लब्धि लब्ध्वा ललाट लकड़ी लाख संख्या ' चिह्न विशेष मेष आदि राशिका उदय सम्पत्ति, वैभव लक्ष्मीका धारक, वासुदेव लज्जाके योग्य क्षयोपशम विशेष, यौगिक शक्ति, ऋद्धि प्राप्त करके मस्तक, भाल 9rWS 9 mro JcK ७७ ५२६ १६३ ४६२ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार २६६ ४८६ लहिऊण लावण्ण लाह लाहव लिहाविऊण लुद्धय २७६ ५४३ লা । लावण्य लाभ लाघव लिखाप्य लुब्धक लेप लौकिक लोक ३५५ ४८३ पाकर सौन्दर्य प्राप्ति, नफा, फायदा लघुता लिखकर भील लेपन, द्रव्य सासारिक भुवन लोचना, केशोका उखाडना विष्टप, ससार लोक-शिखर जीवादि द्रव्योके रहने का स्थान एक कषाय लोहेका गोला रावण उल्लंघन करके ur mr Har m 9 mm oxyr लौंच लोइय लोग लोच लोय लोयग्ग लोयायास लोह लोहंड लंकेस लंधित्ता लंब्ण ८३ ३१० ५३६ २१ लोक लोकाग्र लोकाकाश लोभ लोह + अंड लकेश लवयित्वा लाछन १३८ १३१ चिह्न १७४ ४३१ वैतरणी बकुल वक्ष्यमाण बक, वृक वचोयोग वात्सल्य ४२४ नरककी नदी वृक्ष-विशेष आगे कहा जानेवाला एक मास-भक्षी राजा, भेडिया वचन-योग अनुराग, प्रेम एक अस्त्र विशेष, हीरकमणि एक बाजा एक राजकुमार परित्याग वज्रमय शरीर सहनन १२७ ५३३ ८८ १६६ वज्र वाद्य वज्रकुमार २५३ वर्जन वइतरणी वउल विक्खमाण वग वचिजोग वच्छल्ल वज्ज वज्ज वज्जकुमार वज्जण वज्जसरीरसंहणण वज्जाउह *वज्जि वज्जिय वज्जिऊण वट्ट वट्टण वड. वडा वडिलिय वण्ण वणफ्फर २०७ वज्रशरीरसंहनन वज्रायुध वयं वर्जित वर्जयित्वा छोड़कर रहित छोड़कर वृत्त गोल ३२४ १३६ २० वर्तना वट पताका - पटलित वर्ण वनस्पति प्रतिक्षण बदलना बड़का पेड़ ध्वजा पटलोंसे युक्त ५६ ३६८ लता, गुल्मादि Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणिक्सुता वर्णित प्राकृत-शब्द-संग्रह वैश्य-पुत्री जिसका वर्णन किया गया हो २७१ वणिगसुदा (वण्णि वण्णिय वत्ति वत्थ वत्त्थंग वत्थदुम वत्थहर वप्प विराडय । वरालय वय वस्त्र वस्त्राग वस्त्रद्रुम वस्त्रधर वता, बाप बत्ती कपड़ा एक कल्पवृक्ष वस्त्र-दाता, वस्त्र देनेवाला कल्पवृक्ष वस्त्रका धारक बोनेवाला, पिता २५१ २५६ २६१ १०४ "वराटक कौड़ी ३८४ २४ व्रत वचन वयण वयण २१० बदन ४६८ २०६ ४७० २१ १२५ ५१३ ५४६ ३४८ ७७ नियम, त्याग वचन, वाणी मुख द्वितीय प्रतिमाधारी. वलयाकार, वलयको प्राप्त एकनय, आचरण, व्यापार निवास वशमे करनेवाली ऋद्धिं प्रस्तुत ग्रन्थके निर्माता आचार्यका नाम कृष्णके पिता वशको प्राप्त मिथ्यादृष्टि पवन वचन-सम्बन्धी सूत्रपाठ, वाचना स्थूल नवम गुणस्थानका नाम काक कृष्णपुरी बारह तिथि-विशेष श्रेणिक-पुत्र २४६ १२ २२८ वयसावय वलइय ववहार वसण वसित्त वसुणंदि वसुदेव वसंगद वामदिट्टी वाउ वचित्र वायण वायर वायरलोह वायस वारवई वारस वारसी वारिसेण वालय वालुप्पहा वाबत्तरि वाविय वावी वास, वस्स वासिय वासि वासुदेव २८४ व्रतिकश्रावक वलयित व्यवहार वसन वशित्व वसुनन्दि वसुदेव वशगत वामदृष्टि वायु वाचिक वाचन बादर बादर-लोभ चायस द्वारावती द्वादश द्वादशी वारिषेण बालुका बालुप्रभा द्वासप्तति उप्त वापी वर्ष वासित वासि वासुदेव ५२२ ३४६ ३७० ३७० ५४ १६६ १७२ ५३५ नरक-भूमि बहत्तर बोया गया बावड़ी साल, संवत्सर सुगन्धित वसूला कृष्ण २४१ ५०१ ३६३ ४०४ २७६. ३४६ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार बारहवे तीर्थ कर सवारी शारीरिक रोग वासुपुज्ज वाहण वाहि विइन विउण १६४ २३६ ३१० दूसरा वासुपूज्य वाहन व्याधि द्वितीय द्विगुण विपुल विपुलगिरि विगूर्वण वियोग ३५६ ३६५ विउल दुगुना अधिक, बहुत विपुलाचल विक्रिया ५१२ विछुडना ३१, १७९ २१३ ७१ विउलगिरि विउव्वण (विप्रोग विनोय विकत्तण विक्कय विकिंचण विचिट्ठ विजय विजइभ विजण विज्जा विजाविञ्च विण विणिवाय विणीय *विणेऊण विणोय विपणाण ४६२ ४३४ ३३५ ३८६ विकर्तन विक्रय व्याकुंचन विचेष्ट विनय विजयी व्यञ्जन विद्या वैयावृत्य विनय विनिपात विनीत विनीय विनोद विज्ञान विष्णु वितत विस्तरयित्वा कतरना बेचना विवेचन, दूर करना नाना चेष्टाएँ कल्पातीत विमान-विशेष विजेता वर्ण, अक्षर, पकवान, मशा आदि चिह्न, शास्त्र-ज्ञान सेवा-शुश्रूषा नम्रता, भक्ति विनाश, प्रणिपात नम्र, विनय-युक्त व्यतीत कर मनोरजन विशेष ज्ञान कृष्ण, देवता विशेष वाद्यका स्वर विशेष विस्तार करके जानकार दूसरा ५०६ ५०६ २२४ विण्ड २५३ २५७ विप्र mm PM विदिशा वितय वित्थारिऊण विदण्णू विदिय विदिस विप्प विप्पोय विप्फुरंत विब्भम विभिय विरयाविरय विरह विलक्ख विलवमाण विलप्पमाण द्वितीय विदिग विप्र विप्रयोग विस्फुरन्त विभ्रम विस्मित विरताविरत ८४ २६५ ४५६ ४१४ ब्राह्मण वियोग स्फुरायमान विलास, विपरीत ज्ञान चित्त-भ्रम, आश्चर्यको प्राप्त संयतासंयत वियोग लज्जित or GI KI विरह विलक्ष विलपमान विलाप करता हुआ १६३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ २२६ विमग्गित्ता विमाणपती विमुक्क ३७७ विवज्जिय विवरीय विविह G २५७ विमार्गयित्वा विमानपंक्ति विमुक्त विस्मय विवजित विपरीत विविध विचक्षण विदग्ध विकल्प विकल्प्य विकलेन्द्रिय विकार वियोग विलित विलोकन विल्व १३१ ५४७ प्राकृत-शब्द-संग्रह अन्वेषण करके विमानोंकी श्रेणी छूटा हुआ आश्चर्य रहित उलटा नाना प्रकार बुद्धिमान् चतुर, निपुण भेद विकल्प करके द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव विकृत भाव विछोह अत्यन्त लिप्त देखना वेलफल हलाहल, जहर बुरी आदत गोचर-योग्य ४०६ १७८ ४४१ विष ६५ १३२ व्यसन २६ वियक्खण वियड्ड वियष्पय वियप्पिऊण वियलिंदिय वियार वियोय विलित विलोयण विल्ल विस विसण विसय विसहर विसा विसुद्ध विसुद्धमाण (विसोहि । विसोही विस्सास विहव विहाण *विहरिऊण विहि वीचि वीणा वीभच्छ विषय विषधर सर्प २४३ रज, खेद ___ विषाद विशुद्ध विशुध्यमान अत्यन्त शुद्ध विशुद्ध होता हुआ विशुद्ध विशोधि ५२० ४२१ २३२ ५२८ विश्वास विभव विधान विहृत्य विधि बीचि वीणा वीभत्स द्वितीया वीरचर्या वीर्य विंशति विस्मृत ब्रुडन् प्रतीति समृद्धि निर्देश विहार करके रीति तरंग वाद्य-विशेष भयानक दोज, दूसरी तिथि सिह-वृत्तिसे गोचरी करना बल, पराक्रम बीस ४१३ ८५ वीया ३६८ वीरचरिया वीरिय वीस वीसरिय ३१२ ५२७ १७४ भूला हुआ . डूबना, डुबकी लगाना बूढ़ा बबूला २१० ५०१ ३२४ बुव्वुय बुद्बुद ३६६ २८ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार वेदी २१४ वेइ । वेइय वेजयंत *वेढिऊण वेदगसद्दिट्टी *वेदंत वेयणीय वेर वेरग्ग वेसा । वेस्सा वोसरण वेदिका वैजयन्त वेष्टयित्वा वेदकसम्यग्दृष्टि वेदयन् वेदनीय वेदिका गोलाकृति उच्च भूमिका विमान विशेष वेष्टित करके क्षायोपशमिक-सम्यक्त्वी अनुभव करता हुआ एक कर्म विरोध, शत्रुता उदासीनता वैर ०००) ~90) Um वैराग्य AG वेश्या बाजारू स्त्री . चंचण परित्याग छलना वर्ण, चिह्न, पकवान स्थूल पर्याय समूह वंजण वंजणपज्जाय वंद वंदण वंदणमाला वंभ वंभण वंभयारी वंस व्युत्सर्जन वचन व्यञ्जन व्यंजनपर्याय वृन्द वन्दना वदनमाला ब्रह्म ब्राह्मण ब्रह्मचारी वंश वन्दना २७५,३९५ आत्म स्वरूप विप्र, द्विज कामनिग्रही कुल, गोत्र, अन्वय -2006 Ax सकृत् सह सईऊण सक सक्कर सक्करप्पह सक्खिय शयित्वा शक शर्करा शर्कराप्रभा साक्षिक स्वक स्वर्ग एक वार सो कर इन्द्र बालु, शक्कर दूसरी नरक भूमि गवाह अपना देवलोक २६१ सग २१७ ४३६ स्वगृह अपना घर २७१,१६७ यथार्थ सग्ग (सगिह । सघर सञ्च सचित्त सचित्तपूजा :सञ्चित्त सजण सज्जण सिजोगिकवलिजिण सत्य सचित्त सचित्तपूजा सचित्त स्वजन . 'सजन सयोगकेवलिजिन ४६ 666 जीव-युक्त सचित्त द्रव्यसे पूजन या चेतनकी पूजा जीव युक्त कुटुम्बी सत्पुरुष तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र अरहन्त चैतन्य, होश, आहारादिकी वांछा संज्ञा ४२५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २१५ [सप्त सत्त (सत्व सात बल, जीव तिथि विशेष १७४ ३४८ २८१ सप्तमी ३६६ सत्तमि । सत्तमी सत्तरस सत्ति सप्तदश सत्तरह (आयुध विशेष १७४ १४१ शक्ति (सामर्थ्य १२० सत्त २७६ सत्थ सदद सद्द ग्रन्थ निरन्तर अक्षर, आलाप दृढ-प्रतीति ११४ ४१३ . शास्त्र सतत शब्द श्राद्धान श्रद्दधत् श्रद्दधन्त शब्दाकुल श्रद्धा सघन समग्र समचतुरस्त्र समचतुरस्त्र संस्थान समर्जित समप्रभ समभिभूत समय समवसरण सम्यक सम्यक्त्व सम्यग्दृष्टि समासतः समाधि सन्मान समुद्धात समुद्र समुद्दिष्ट समुत्पत्ति समुपविष्ट सप्रदेश सद्दहण सद्दहमाण सहहंत सद्दाउल सद्धा सधण समग्ग समचउरस्स समचउरस्ससंठाण समज्जिय समप्पह समभिभूत्र समय समवसरण सम्म सम्मत्त सम्मदिट्ठी समासो समाहि सम्माण समुग्धाय समुह समुद्दिट्ठ समुष्पत्ति समुवइट्ठ सपएस सप्प सप्पि सम्भाव समारण सय २६२ ३४६ २५६ १६१ श्रद्धान करता हुआ शब्दसे व्याप्त विश्वास धन-यक्त सम्पूर्ण सुन्दर संस्थान आकार प्रथम संस्थानका नाम उपाजित समान प्रभावाले अत्यन्त पराभूत परमागम, क्षण तीर्थकरोकी सभाविशेष सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन सम्यक्त्वी संक्षेपसे ध्यानावस्था प्रतिष्ठा आत्मप्रदेशो का शरीरसे बाहिर निकलना सागर कहा हुआ पैदायश बैठा हुआ प्रदेशयुक्त 2019 muro ro ११८ UMx mrox" सर्प साँप घी सर्पि सन्द्राव समान शत तदाकार, भद्रता तुल्य Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार सयं ३०४ आप, खुद सम्पूर्ण कमल सयल सयवत्त सया सयसहस्स सयास नित्य स्वय सकल शतपत्र सदा शतसहस्त्र सकास सर. शरण सर MA.6 0.00 XNAI GK सूत्वा लाख समीप सरोवर आश्रय जाकर समान सरसो लक्षण, अपना रूप प्रसिद्ध महापुरुप जल काय-कषायको कृश करना शत्रु, प्रतिपक्षी सौगध, प्रतिज्ञा समस्त सदृश सर्पप स्वरूप शलाकापुरुष सलिल सल्लेखना सपत्न ८८१ ३१, ३४५ ४२२ २७२ ४६१ शपथ सर्व मर्वव्याप्त ४६२ सरण सरिऊण सरिस सरिसव सरुव सलायपुरुष' सलिल सल्लेखण सवत्त सवह सव्व सव्वग सव्वगत सव्वंग सव्वत्थसिद्धि सव्वत्थ सव्वदा सव्वस्स सम्वोसहि सविवाग सविसेस ससमय ससंक ससंवेय ससि सहण सहस्स सहाव साइय सामरण सामाइय सामि सामित्त सायर सायरोपम ८६ ३४६ सर्वग सर्वगत सर्वाङ्ग सर्वार्थसिद्धि सर्वत्र सर्वदा सर्वस्त्र सर्वौषधि सविपाक सविशेष स्वसमय शशाङ्क ससंवेग शशि सहन सहस्त्र स्वभाव स्वाद्य सामान्य सामायिक ५४० mr सर्वशरीरमे व्याप्त सर्वार्थसिद्धि नामक कल्पातीत विमान सर्व स्थानपर सदाकाल सर्वधन एक ऋद्धिविशेष फल देनेवाली निर्जरा विशेषता-युक्त अपना सिद्धान्त चन्द्रमा सवेग-सहित चन्द्र सहना हजार प्रकृति आस्वादन योग्य विशेषता-रहित एक नियम, वृत विशेष अधिपति आधिपत्य मापविशेष, एक माप अलौकिक माप-विशेष २७८ ८२६ १०० २३४ ३३५ स्वामी " ०५ स्वामित्व सागर सागरोपम १७५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह सायार (सागार साकार स्वाद्य शारीर सारमेय शालि गृहस्थ आकारवान् आस्वाद-योग्य शारीरिक कुत्ता धान्य-विशेष व्रतीगृहस्थ मास-भक्षी जानवर सदोष दूसरा गुणस्थान ३८३ २६१ १७६ १७१ ४३० साय सारीर सारमेय सालि सावन सावय सावज्ज सासण साहण साहिय साहु सिक्खावय सिक्खावण सिग्घ सिट्ठ २६१ श्रापद सावध सासादन साधन साधिक ४५ ४६ १७४ साधु २३१ २०७ २८४ ३०५ सिंदुवार ४३१ सिद्ध सिद्धन्त सिद्धत्थ सिद्धिसोक्ख ५४२ ४२१ ३७५ सिय ४०६ शिक्षाव्रत शिक्षापन शीघ्र शिष्ट सिन्दुवार सिद्ध सिद्धान्त सिद्धार्थ सिद्धिसौख्य सित सितपंचमी सितातपत्र शिर श्री श्रीखंड श्रीनन्दि श्रीभूति शिला शिलारस शिष्य शिशिर सियपंचमी सियायवत्त सिर सिरि सिरिखंड ३५३ ५०५ कुछ अधिक मुनि मुनि शिक्षा देनेवाले व्रत शिक्षण , सिखाना । जल्दी सभ्य सिन्दुवार, वृक्ष-विशेष, निर्गुडीका पेड़ मुक्त सिद्धान्त, परमागम सरसो मोक्ष-सुख श्वेत शुक्लपक्षीय पचमी तिथि श्वेत-छत्र मस्तक लक्ष्मी चन्दन-विशेष आचार्य-विशेष एक आचार्यका नाम चट्टान शिलाजीत अन्तेवासी, दीक्षित शीतल, ऋतु विशेष बच्चा चोटी, अग्रभाग ज्वाला, चोटी मस्तक-मणि सिहाकृति आसन-विशेष ४६६ ४०३ सिरिणदि सिरिभूइ सिला ४४२ १३० १५२ ४३८ सिल्हारस सिस्स सिसिर सिसु शिशु सिहर शिखर शिखा CWW. 0.0am. MKAMM AUG शिखामणि सिंहासन सिहा सिहामणि सिंहासण (सीउण्ह । सीदुण्ह सीय "Ord शीतोष्ण सर्द-गर्म शीत ठंडा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ वसुनन्दि-श्रावकाचार शील २२३ सील सीस शीर्ष शुचि ३४८ सुकहा ब्रह्मचर्य मस्तक पवित्र शास्त्र उत्तम कथा उज्ज्व ल सर्वोत्तम ध्यान नील कमल आनन्द एक प्रत विशेष । श्रुति सुकथा शुक्ल शुक्लध्यान (देशीशब्द) सौख्य सौख्यसम्पत्ति सुकमाण सुकंदुत्थ सुक्ख सुक्खसम्पत्ति सुज्ज AA ८०. ००GG CG 1 .06 SA सूर्य रवि सुष्ठु सुणय सुण्ण . सुराणहर सुणिम्मल सुत्त 0 m सुनय शून्य शून्यगृह सुनिर्मल सूत्र .सूत्रधार सूत्रानुवीचि सुप्तोत्थित सूत्रार्थ सुदृष्टि शुद्ध सुपक्व सुप्रसिद्ध शुभ्र स्मारयित्वा स्वप्न श्रुत उत्तम सम्यक्नय खाली, रिक्त सूना घर अतिपवित्र परमागम, डोरा, धागा मुख्य पात्र शास्त्रानुमारी वचन सोकरके उठा हुआ सूत्रका अर्थ सम्यग्दृष्टि राग-द्वेषरहित उत्तम पका हुआ प्रख्यात उज्ज्व ल स्मरण कराकर स्वप्न शास्त्र-ज्ञान सुत्तहार सुत्ताणुवीचि सुत्तुठिय सुत्तत्थ सुदिट्ठी सुद्ध सुपक सुप्पसिद्ध सुब्भ *सुमराविऊण सुमिण 1 २४६ m ७ श्रुतदेवी सुय सुर्यदेवी सुयंध सुरतरु सुरवह सरस्वती खुशबू कल्पवृक्ष सुगंध सुरतरु सुरपति सुरभि ०८" सुरहि सुरा सुरिंद सुवइट्टय सुरा सुरेन्द्र सुप्रतिष्ठक सुवर्ण सुगध मदिरा देवोका स्वामी सांथिया सोना सुवर्णमय एक स्वर विशेष सुवरण 'सुसिर । सौवर्य सुषिर २५३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २१९ शुभ । सुख ३६ सुभग अच्छा आनन्द दूसरोका प्यारा पुण्यवर्धक योग १५७ २३२ ३२६ शुभयोग सुहग सुहजोय सुहम । सुहुम सुहावह सुहमलोह सुहुमसंपराय सुहुमसुहुम सुहोवयोग सुई सूर दृष्टि-अगोचर सुखदायक अत्यन्त क्षीण लोभ दशवे गुणस्थानका नाम अतिसूक्ष्म पुण्य-वर्धक योग प्रसूति ३३३ ५२३ ५२.३ ५१५ सुखावह सूक्ष्मलोभ सूक्ष्मसाम्पराय सूक्ष्म-सूक्ष्म शुभोपयोग सूति शूर शूल स्वेद श्वेत श्रेणि ४० वीर २६४ २५ १०६ से सेढि १७१ सेणिय सेयकिरिया श्रेणिक सेकक्रिया হল ३३८ सेल सेवित्र सेस सेवित १६८ शेष २६ सोऊण पीड़ा पसीना उज्ज्वल पक्ति मगधराज, श्रेणिक बिम्बसार सेकना पर्वत सेया गया अवशेष सुनकर आनन्द विषाद कर्ण सोलह सुन्दर वर्णवाला, सोने-सा रंगयुक्त सुन्दर भाग्य शोधना प्रथम स्वर्ग श्रुत्वा १२१ सोक्ख सौख्य सोग शोक १६५ सोय सोलह सोवण्ण सोहग्ग श्रोत्र षोडश सौवर्य सौभाग्य शोधन सौधर्म सोहण ४८३ ३४० शोधयित्वा शोध कर ३०८-५४८ सन्देह शंका संकल्प सोहम्म (*सोहिऊण सोहित्ता संक संकप्प *संकप्पिऊण संख संखा संखेव संखोय संगह संगाम संकल्प्य शंख २६३ ३८४ ४११ दृढ़ विचार सकल्प करके शख गणना साररूप हल-चल युक्ति-युक्त युद्ध संख्या संक्षेप संक्षोभ सगत संग्राम १७५ ३४७ २१६ ४८६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० वसुनन्दि-श्रावकाचार ८५४ . सगीत संघात सयम संयुत संयोग संस्थाप्य सन्निभ गायन समूह यम-नियम सयुक्त सप्राप्ति स्थापन करके सदृश २२१ २५७ २७६ ४७२ संतप्त अति सताप युक्त १८०-१०२ संगीय संघाय संजम संजय संजोय *संठाविऊण संणिह संतट्ट संतत्त संताविय संथार संदेह संधाण संधिबन्ध संपण्ण संपुण्ण संपत्त संपाविय संपुड “संपुडंग संभूसिऊण संतापित संस्तर सन्देह सन्धान सन्धिबन्ध सम्पन्न सम्पूर्ण सम्प्राप्त .सप्लावित, सम्प्राप्य संपुट संपुटांग संभूष्य सम्मोह संयोगज संवत्सर संवर संवरण सवेग संसारस्थ संसिक्त संश्रित सताप युक्त विस्तर शका अचार एक वाद्य-विशेष समाप्त सम्यक् प्रकार पूर्ण हस्तगत ओत-प्रोत, अच्छी तरह पाकर दो समान भागोका जोड़ना जुडा हुआ अग आभषित होकर मोहित करना सयोग-जनित ४६५ ३६६ सम्मोह १६८ वर्ष १०३ १२५ ४३२ संयोयज संवच्छर संवर संवरण संवे संसारत्थ संसित्त संसिय कस्रिव रोकना सकुचित वैराग्य ससारी सिंचा हुआ, व्याप्त आश्रित ११ ५८ २०२ हणिऊण हत्वा मार कर ठोड़ी, दाढ़ी ५२५ ४६१ हाथ हथणापुर *हम्ममाण हस्त हस्तिनापुर हन्यमान १८० धर *हरिऊण हरिय हृत्वा हरित प्राचीन पांडव-पुरी मारा जाता हुआ धारण करना हर करके हरा वर्ण भलाई हरा हुआ २६३ १०२ २६५ हिय. हित Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २२१ हृदय ४६८ हियय हिरराण हिंडत हिंडित हिंताल हिरण्य हिडन्त २१३ १७७ भ्रमित हिन्ताल (देशी शब्द) हुडावसर्पिणी मन सोना, चादी झूलता हुआ भ्रमण किया हुआ हिन्ताल वृक्षविशेष वाद्य-विशेष काल-विशेष, जिसमे अनुचित एवं असंगत बातें भी होवें साधन हो करके ४४० ४१२ टुंडावसप्पिणी . ३८५ २६३, ३६ १३१ होऊण भूत्वा * इस चिह्नवाले संबंध बोधक कृदन्त शब्द है। + इस चिह्नवाले वर्तमान कृदन्त शब्द है। * इस चिह्नवाले अव्यय शब्द है । आवश्यक निवेदनमुझे इस संग्रह में कुछ प्रसिद्ध या प्रचलित विषयों के विरुद्ध भी लिखना पड़ा है वह केवल पाठकों की सुगमता के लिए ऐसा किया है । ग्रन्थ में आये हुए शब्दों की अकारादि क्रम से तालिका दी गई है, साथमे उनका अर्थ भी । ग्रन्थ गत अर्थ पहले और उसके अन्य अर्थ उसके पीछे दिये गये हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक-नाम-सूची Y गा० न० १३३ M m n १३१ o 15 अनन्तमती इन्द्रभूति उद्दायन राजा अजनचोर कुन्दकुन्द चारुदत्त जिनदत्त नयनन्दि नेमिचन्द्र वकराक्षस ब्रह्मदत्त यादव युधिष्ठिर X रुद्रदत्त रेवती लकेश (रावण) वज्रकुमार वमुनन्दि वसुदेव वारिषेण वासुदेव विष्णुकुमार श्रीनन्दि श्रीभूति ५४२ १२७ १२६ १२६ १२५ U०८ श्रेणिक - - - भौगोलिक-नाम-सूची १२७ ५२ ५३-५५ एकचक्रनगर चपानगरी ताम्रलिप्तनगरी मथुरा मागध राजगृह रुद्रवरनगर लंका साकेत हस्तिनापुर व्रत-नाम-सूची अश्विनीव्रत-विधान नन्दीश्वरपंक्ति-विधान ३७३-३७५ पंचमी-विधान ३५३-३६२ रोहिणी-विधान विमानपंक्ति-विधान ३७६-३७८ सौख्यसंपत्ति-विधान ३६८-३७२ xxxmmmx "rrorm" Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका गाथाङ्क गाथाङ्क .६७ १६१ २१० ३५५ २३४ ३३७ ७१ २३५ १७० ११६ २५२ ३८४ ३०७ mr १३६ १६४ ~ ४५१ ४७७ २६६ ५२१ २०० ४७० ३६२ ४६० अइणिठ्ठरफरसाई अइतिव्वदाहसताअइथूल-थूल-थूल अइबालबुड्ढरोगा अइलघिओ विचिट्ठो अइवुड्ढबालमूयअइसरसमइसुगध अक्खयवराडओ वा अक्वेहि णरो रहिओ अगणित्ता गुरुवयण अग्गिविसचोरमप्पा अच्छरसयमज्झगया अट्ट कसाए च तओ अट्ठदलकमलमज्झे अट्ठदसहत्थमेत्त अट्ठविहमगलाणि य अणिमा महिमा लघिमा अणुपालिऊण एवं अणु लोह वेदतो अण्णाणि एवमाईणि अण्णाणिणो वि जम्हा अण्णे कलबवालुयअण्णे उ सुदेवत्त अण्णो उ पावरोएण अण्णोणं पविसता अण्णोण्णाणुपवेसो अण्णो वि परम्स धण अतिहिस्स सविभागो अत्तागमतच्चाण अत्ता दोसविमुक्को अयदंडपासविक्कय अरहतभत्तियाइम् ३६३ ४४२ ५१३ अरुहाईण पडिम अलिय करेइ सवह अलिय ण जपणीय अवसाणे पच धडाअसण पाण खाइम अ सि आ उ सा सुवण्णा असुरा वि कूरपावा अह कावि पावबहुला अह ण भणइ तो भिक्ख अह तेवड तत्तं अह भुजइ परमहिल अहवा आगम-णोआअहवा आगम-णोआअहवा कि कुणइ पुराअहवा जिणागमं पुत्थअहवा णाहि च वियप्पिअहवा णिलाडदेसे अह वेदगसद्दिट्ठी अहिसेयफलेण णरो अतोमुहुत्तकालेण अंतोमु हुत्तसेसा प्रा आउ-कुल-जोणि-मग्गण आगमसत्थाइ लिहाआगरद्धि च करेज्ज आगासमेव खित्त आयविल-णिव्वियडी आयविल-णिव्वियडी आयास-फलिह-सणिह आरोविऊण सीसे आसाढ-कनिए फग्गु आमाढ कत्तिए फग्गुणे आसी मसमय-परममय ४६६ ५१६ ४६१ ४६६ ४६४ ५२३ १६० २३६ १६६ ५३१ २६६ १८७ २३७ ४४५ ३१ २६२ ३५१ ४७२ ४१७ ३५३ ५०७ ५४० Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ वसुनन्दि-श्रावकाचार ५०२ orm आहरणगिहम्मि तओ आहरणवासियाहि आहारोसहसत्था ३०४ २३३ १३२ ३११ ३७६ ४५४ इक्खुरस-सप्पि-दहि-खीइच्चाइगुणा बहवो इच्चाइ बहुविणोएइच्चेवमाइकाइयइच्चेवमाइबहुवो इच्चेवमाइबहुय इय अवराइ बहुसो इय एरिसमाहारं इय पच्चक्खो एसो इदो तह दायारो W० ० ४७९ १८२ ७७ ४७४ ३३१ mo ४०२ واد ४११ ५१४ ال مع ५२८ २५८ ४३६ الله २६४ ४२३ ८४३ ७२ ३८२ ३५६ १२६ ४६१ एदे कारणभूदा एदे महाणुभावा एमेव होइ विइओ एयस्से सजाय एयतरोववासा एया पडिवा वीया एयारसठाणठिया एयारस ठाणाइ एयारसम्मि ठाणे एयारसगधारी एयारसेसु पढम एरिसओ च्चिय परिएरिसगुण अट्ठजुय एव काऊण तओ एव काऊण तओ एवं काऊण तव एव काऊण विहि एव चउत्थठाण एव चत्तारि दिणाएव चलपडिमाए एव चिरतणाण पि एव णाऊण फल एव ण्हवण काऊण एव तइय ठाण एवं थुणिज्जमाणो एवं दसणसावयएव पएसपसरणएव पत्तविसेस एव पिच्छता बिहु एव बहुप्पयार एवं बहुप्पयार एव बहुप्पयारं एव बहुप्पयारं एवं बारसभेयं एवं भणिए चित्तूण एवं रयण काउण एवं सोऊण तओ एवं सो गज्जंतो एस कमो णायव्वो एसा छब्बिहपूजा २७६ २८० ५०१ उक्कस्स च जहण्ण उक्किट्ठभोयभूमीउग्गसिहादेसियसग्ग उच्चार पस्सवण उच्चारिऊण णाम उज्जवणविहि ण तरइ उज्जाणम्मि रमता उड्ढम्म उड्ढलोयं उत्तम मज्झ-जहण्ण उत्तविहाणेण तहा उद्दिट्टपिडविरओ उद्देसमेत्तमेय उप्पण्णपढमसमयम्हि उवगू हेणगुणजुत्तो उवयारिओ वि विणओ उववायाओ णिवडइ उववास-वाहि-परिसमउववासं पुण पोसहउववासा कायव्वा उस्सियसियायवत्तो उंबर-वड-पिप्पल-पिंप or m m २८८ ३१३ ३७६ ५३२ २७० १८४ ११० ३२५ १३७ २०१ २०४ ३१८ १८५ एक्केक्कं ठिदिखडं एत्तियपमाणकालं ५१६ ३६१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका २२५ २५५ ४३२ ३५ ४१३ ४२७ २४३ ३३८ गहिऊणस्सिणिरिक्खमि गंतूण गुरुसमीवं गतूण य णियगेहं गंतूण सभागेह गिज्जतसधिबधाइएहि गुणपरिणामो जायइ गुरुपुरओ किदियम्म गुलुगुलुगुलत तविलेहि गोणसमयस्स एए गो-बंभण-महिलाण गो-बभणित्थिघाय ३४३ o W KC WW GMWWWW KM . ५१८ १७८ १५६ १६४ २७६ ३७३ ५११ ५१७ घणपडलकम्मणिबहुव्व घटाहि घटसद्दा ४८४ ४५६ ३६४ कच्चोल-कलस-थाला कणवीर-मल्लियाहि कत्ता सुहासुहाण कप्पूर-कुकुमायरु कम्हि अपत्तविसेसे कर-चरण-पिट्ठ-सिरसाण करण अधापवत्त कहमवि णिस्सरिऊण कह वि तओ जइ छट्टो कंदप्प-किब्भिमासुर काउस्मग्गमि ठिओ काऊण अट्ठ एयंकाऊण तव घोर काऊण पमत्तयर काऊणाणतचउट्ठकाऊणुज्जवणं पुण कायाणुरूवमद्दण काराबगिदपडिमा कास्य-किराय-चडाल कालायरु-णह-चदहकिकवाय-गिद्ध-वायसकित्ती जस्सिदुसुब्भा किरियम्मब्भुट्ठाण कि करमि कस्य वच्चमि कि केण वि दिट्ठो हैं कि चुवसमेण पावस कि जपिएण बहुणा कि जपिएण बहुणा कि ममिणदमणमिण कुत्थुभरिदलमत्ते कुसुमेहि कुसेसयवयणु कोह माणे माण ३२६ २३१ ३८६ १६ चउतोरण-चउदारो चउदसमलपरिसुद्ध चउविहमरूविदव्व चउसु वि दिसासु चम्मट्टि-कीड-उदुर चिट्ठज्ज जिणगुणारोचित्तपडिलेवपडिमा चितेइ मं किमिच्छइ ४३८ ३९७ ३१५ ४१८ १६६ ११४ ५४१ ३२८ १६७ १०३ १६१ ३४७ ० ० ० ० ० छच्च सया पण्णासुत्तछत्तेहि एयछत्तं छत्तेहिं चामरहिं य छम्मासाउगसेसे छम्मासाउयसेसे छ हतण्हाभयदोसो छेयण-भेयण-ताडण 0 ० yee 0 ४८१ 1 ४८५ ० ५२२ mr ग्वीरुवहिमलिलवारा 0 mar ० जइ अद्धवहे कोइ वि जइ अंतरम्मि कारणजइ एवं ण रएज्जो जइ कोवि उसिणणरए जइ खाइयसद्दिट्ठी जइ देइ नह वि तत्त्थ ३०६ गच्छइ विसुद्धमाणो गब्भावयार-जम्माहिसेयगहिऊण सिमिरकर-किरण or ४५३ ४०५ १२० Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ १२२ ३३३ 6 १६६ ० ० ४८३ ." वसुनन्दि-श्रावकाचार जे केइ वि उवएसा जेणज्ज मझ दव्व १४६ जे तसकाया जीवा जे पुण कुभोयभूमीग जे गुण सम्माइट्ठी ३४६ जे पुव्वसम ट्ठिा जे मज्ज-मसदोमा जो अवलेहइ णिच्च जो पम्मद समभाव जो पुण जहण्णपत्तम्मि जो पुण जिणिदभवण जो मज्झिमम्मि पनम्मि जोव्वणगएण मनो २७७ ३४७ १८३ ठिदियरणगुणपउत्तो १०४ जह पूण केण वि दीसइ जइ मे होहिहि मरण जइ वा पुवम्मि भवे जय जीव णद वड्ढाजलधाराणिक्वेवेण जल्लोसहि-सव्वोसहि जस्स ण हु आउमरिसाजह उक्कस्स तह मज्झिम जह उत्तमम्मि खित्ते जह ऊसरम्मि खिते जह मज्ज तह य महू जह मज्झिमम्मि खिते जह रुद्धम्मि पवेमे ज किं चि गिहारभ ज कि चि तस्म दव ज कि पि एत्थ भणिय ज कि पि देवलोए ज कि पि पडियभिक्ख ज कि पि सोक्खसार ज कीरइ परिरक्खा ज कुणइ गुरुसयासम्मि ज झाइज्जइ उच्चारिऊण ज दुप्परिणामाओ ज परिमाणं कीरइ ज परिमाणं कीरइ जंबीर-मोच-दाडिमजं वज्जिज्जइ हरियं जायइ अक्खयणिहि-रयणजायइ कुपत्तदाणेण जायइ णिविज्जदाणेण जायंति जुयल-जुयला जिणजम्मण-णिक्खमणे जिणवयण-धम्म-चेइयजिण-सिद्ध-सूरि-पाठयजिब्भाछेयण-णयणाण जीवस्सुवयारकरा जीवाजीवासवबधजीवो हु जीवदव्वं जूयं खेलंतस्स हु जयं मज्ज मंसं ११५ ३७५ ३०८ ५३८ २३८ २७२ ४६४ ३२६ २१३ २१७ ४४० २६५ ४८४ २४८ ८८६ ४५५ ३७४ ५२५. ૩૨૨ ण गणेइ इट्ठमित्त ण गणेइ माय-बाप ण मुयति तह वि पापा ण य कत्थ वि कुणइ रह ण य भुजड आहार णवमामाउगि सेगे णदीसरदिवसे णदीमरम्मि दीवे णाणतरायदमय णाणे णाण वयरणे णामट्टवणादवे णामावहारदोमेण णिच्च पलायमाणो णिठर-कक्कसवयणादणिद्दा तहा विमाओ गिद्देस मामिनं णियय पि सुयं बहिणि णिव्विदिगिन्छो गओ णिसिऊण णमो अरहणिस्समइ रुयइ गायब णिस्सका णिक्कग्वा णिस्संकिय-संवेगाणिसंकिय-संवेगा २६२ ४५२ २७५ ३८० १६८ ३४ ११३ ३४१ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका २२७ १५७ णिरसेगकम्ममोवखो णेऊण णिययगेह णेच्छति जइ वि ताओ णेत्तुद्धार अह पाणेरइयाण सरीर २२७ ११७ १३६ तो तम्हि पत्तपडणेण तो तेसु समुप्पण्णो तो रोय-सोयभरिओ तो सु हुमकायजोगे तो सो तियालगोयर १८९ ५३४ ५२६ थ थोत्तेहि मगलेहि य ..xx Purrx wr or orr 90 ० ० mms ४३४ २८६ ४२० ५.४४ १४८ तनो णिस्सरमाण तत्तो पलाइऊण तत्थ वि अणतकाल तत्थ वि दहप्पयारा तत्थ वि दुक्खमणत तत्थ वि पडति उरि तत्व वि पविट्टमित्तो तत्थ वि बहुप्पयार तत्थेव मुक्कझाण तप्पाओग्गुवयग्ण नम्हा ह णियसत्तीए नय-वितय-धण समिर तणियण-णयण-मणतम्म पसाएग मए तम्म फलमुदयमागयतम्म फणिन्धी बा तम्म बहुमझदेम तस्मवरि सिणिलय तं कि ते विम्मग्यि त नारिसमीदुण्ह ताण पर्वमो बिना ना महमकायजोगे निरियगई, वि नहा तिविहं मुह पत्त तिविहा दव्वे पूजा तिसिओ विभुक्म्यिओ हैं तुरियं पलायमाण ते चिय वण्णा अद्वदलतेसिं च सरीराणं तेसि पइट्ठयाले तो खंडियसव्वगो तो खिल्लविल्लजोएण तो तम्हि चेव समए तो तम्हि जायमत्ते दळूण असणमझे दठूण णारया णीलदळूण परकलत्त दठूण महड्डीण दठूण मुक्ककेस दव्वेण य दव्वस्म दहि-दुद्ध-सप्पिमिस्सेहि दसण-णाण- चरित्ते दमण-वय-सामाइय दाऊण किचि रत्ति दाऊण मुहपड धवलदाणसमयम्मि एव दाण च जहाजोग्ग दाणे लाहे भोए दिणपडिम-बीरचरियादीउज्जोय जइ कुणइ दीवेमु सायरेसु य दीवेहि णियपहोहादीवेहि दीवियामेमदुण्णि य एय एय दुविहा अजीवकाया विद-चक्कहर-मइलीयदेम-कल-जादमुद्धो देह-नव-णियम-मंजमदेहम्मच्चत्त मज्झिमाम् दावणुमहम्मुनगा २३२ ३५८ ५२७ ३१२ ३१६ ४३६ ४८७ or ४४३ ३८८ ३४२ १८८ १५८ ४६७ ३५६ or. १४२ . G १७६ धम्माधम्मागामा धम्मिल्लाण वयण धरिऊण उद्ध परिण बत्थमनं भवण गिगिरयरधवल . ५.३६ १४१ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રક वसुनन्दि-श्रावकाचार ३०४ २८२ १५५ ३ पुट्ठो वा पुट्ठो वा पुढवी जल च छाया पुप्फजलि खिवित्ता पुर-गाम-पट्टणाइस पुवभवे ज कम्म पुव्व दाण दाऊण पुवुत्तणयविहाण पुव्वुत्तर-दक्खिण-पच्छिमासु पुवुत्तवेइमझे पूईफल-तिदु-आमलयपेच्छह मोहविणडिओ १८ २२६ २११ १६५ १८६ २६७ २१४ ४०५ ४४१ १२३ २२५ ३६८ ३३६ ४६८ २६८ ३५४ १७४ १७३ फलमेयस्से भोत्तूण २२६ २२० । पक्खालिऊण पत्त पक्खालिऊण वयण पच्चारिज्जइ ज ते पच्चूसे उद्वित्ता पज्जत्तापज्जत्ता पट्ठवणे णिवणे पडिगमुच्चट्ठाण पडिचीणणेत्तपट्टापडिजग्गणेहि तणु पडिबुज्झिऊण सुत्तुट्ठिओ पडिबुद्धिऊण चइऊण पडिमासमेक्कखमणेण पढमाइ जमुक्कस्सं पढमाए पुढवीए पत्तं णियघरदारे पत्ततर दायारो पभणइ पुरओ एयस्स परदव्वहरणसीलो परमट्ठो ववहारो परलोए वि य चोरो परलोए वि सरूवो परलोयम्मि अणंत परिणामजुदो जीओ परिणामि जीव मुत्त परिणामि जीवमुत्तापव्वेसु इत्थिसेवा पचणमोक्कारपएहि पंचमि उववासविहि पंचविह चारित्त पचसु मेरुसु तहा पंचुबरसहियाई पंचेव अणुव्वयाई पाओदयं पवित्तं पाणाइवायविरई पावेण तेण जर-मरणपावेण तेण दुक्खं पावेण तेण बहुसो पिच्छह दिव्वे भोए पिंडत्थ च पयत्थं १०१ २० ४२१ ४१४ १८१ ५३३ . १११ ३४५ 7 बताउगा सुदिट्ठी बलिवत्तिएहि जावारबहुहाव-भाव-विन्भमबधण-भारारोवण बायरमण-बचिजोगे बारस य बारसीओ बारह अगगी जा बालतणे वि जीवो बालो यं बुड्ढो य बावत्तरि पयडीओ बाहत्तरिकलसहिया वि-ति-चउ-पचिदियभेयओ बुद्धि तवो विय लद्धी ه م به لم له له س له ३६१ १८५ ३२४ ५३५ २६३ १४ ५१२ ه له * م ३६२ ३२३ ५०८ २०५-५७ ३४४ २०० २२८ २०७ भत्तीए पिच्छमाणस्स भमइ जए जसकित्ती भागी वच्छल्ल-पहावणा भुजेइ पाणिपत्तम्मि भो भो जिभिदियलुद्ध भोत्तुं अणिच्छमाणं भोत्तूण मणुयसोक्ख WWG १५६ 9 mm मज्जंग-तूर-भूसण मज्जेण णरो अवसो ७० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका २२९ ४७३ ३६० २५७ ० W IS WISD ० 9 २५.६ or २६४ मण-वयण-काय-कय-कारिमणि-कणय-रयण-रुप्पय मणुयत्ते वि य जीवा महु-मज्ज-मसमेवी मस अमेझसरिस मसासणेण गिद्धो मसासणेण वड्ढइ . माणी कुलजो सूरो मालइ-कयब-कणयारिमिच्छत्ताविरइकसायमिच्छादिट्ठी भद्दो मुणिऊण गुरुवकज्ज मुत्ता जीव काय महाविणरा एएण मेहावीणं एसा मोत्तूण वत्थमेत्त वरअट्ठपाडिहेहि वरकलम-मालितदुलवरबहुलपरिमलामोयवरवज्जत्रिविहमगलवरपट्ट-चीण-ग्वोमाझ्या वजणपरिणाविरहा वायण-कहाणुपेहण वारवईए विज्जावामाणुमग्गसपनविउलगिरिपब्बए ण विजयपडाएहि णरो विजय च ववजय विणएण ममकुज्जलविणओ वेआवच्च विहिणा गहिऊण विहि Jum M.06 ४३१ २४५ ४६२ २६१ ४६२ ३३२ ३५५ २४० २६४ ३६३ २१८ १३४ २८१ रज्जब्भस वसणं रत्त णाऊण णरं रत्ति जग्गिज्ज पुणो रयणत्तय-तव-पडिमारयणप्पह-सक्करपह रयणिसमयम्हि ठिच्चा रगावलिं च मझे रायगिहे णिस्संको रुप्पय-सुवण्ण-कसाइ १२५ ८६ ४२२ ४६८ १७२ २८५ ४०६ ५२ ३३६ ur ३६६ २२४ ४३५ २९ m सक्किरिय जीव-गुग्गल सगसत्तीए महिला सजणे य परजणे वा सनण्ह विमणाण मनमि-नेरसिदिवमम्मि सत्त वि तच्चाणि मए सत्तू वि मित्तभाव सनेव जहोलोए मनेव मत्तमीओ मद्धा भनी तुट्ठी मपएम पच कालं सम्भावामभावा गमचउरममंठाणो मम्मत्त-णाण-क्ष्मण गम्मत्तम्म पहाणो सम्मतेहि वह य सयल मुणेह वध मयवत्त-कुमम-कुवलयमविवागा अविवागा गव्वगदना गव्यग गव्वत्थ णिवणबद्धी सव्वाबयवेसु पृणो मसिकंतखटविमलेहि गमि-मग्पयागाओ ११६ लज्जा-कुलमज्जाय लज्जा तहाभिमाण लबंतकुसुमदामो लोइयसत्थम्मि वि लोगे वि सुप्पसिद्ध ३६५ 9 ८३ १२६ ८३ १९८ वज्जाउहो महापा वण्ण-रस-गध-फासेहि वत्थादियसम्माण वय-तव-सीलसमग्गो वयभंगकारणं होइ १२८ ४१६ ४२६ २५४ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ४६५ घसुनन्दि-श्रावकाचार सुण्णं अयारपुरओ सुरवइतिरीडमणिकिरण३४० सुहुमा अवायबिगया ३६६ सोऊण कि पि सद्द सो तेसु समुप्पण्णो सोवण्ण-रुप्प-मेहियसोहम्माइसु जायइ ४६ १२१ १३६ ४३३ ४६५ १२ १०० १३३ १७५ सहिरण्णपंचकलसे सकाइदोसरहिओ सथारसोहणेहि य संभूसिऊण चदद्धसवेओ णिव्वेओ ससारत्था दुविहा ससारम्मि अणत साकेते सेवतो सामण्णा विय विज्जा सायरसखा एसा सायारो अणयारो सावयगुणोववेदो •सिग्धं लाहालाहे सिज्झइ तइयम्मि भवे सिद्धसरूवं झायइ सिद्धा संसारत्था सियकिरणविप्फुरतं सिरहाणुव्वट्टण-गधसिस्सो तस्स जिणागमसिस्सो तस्स जिणिदसासणरओ १०२ ३८६ १६३ १४६ ३०५ १९६ ५३६ २७८ हरमाणो परदब्ब हरिऊण परस्स धण हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण हा मुयह म मा पहरह हा हा कह णिल्लोए हिय-मिय-पुज्ज सुत्ताहिंडाविज्जइ टिंटे हुंडावसप्पिणीए होऊण खयरणाहो होऊण चक्कवट्टी होऊण सई चेइय ३२७ ११ ३८५ ४५६ २६३ ५४३ १३१ १२६ ०७6 ५४२ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशीके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन [प्राकृत, संस्कृत ग्रंथ १. महाबन्ध [महाधवल सिद्धान्त शास्त्र]-प्रथम भाग, हिन्दी अनुवाद महित २.करलकवण सामुद्रिक शास्त्र]-हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ स्टिाक समाप्त ३. मदनपराजय-भाषानुवाद तथा ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना ४. कन्नड प्रन्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची५. न्यायविनिश्चय विवरण [प्रथम भाग] ६. तत्त्वार्थवृत्ति-श्रुतसागर सूरिचित टीका | हिन्दी सार सहित ७. आदिपुराण भाग [१]-भगवान् ऋपभदेवका पुण्य चरित्र ८. आदिपुराण भाग [२]-भगवान् ऋपभदेवका पुण्य चरित्र ९. नाममाला सभाज्य१०. केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि-ज्योतिष ग्रन्थ ११. सभाष्यरत्नमंजूषा-छन्दशास्त्र १२. वसुनन्दि-श्रावकाचार १३. समयसार-[अंग्रेजी] १४. कुरलकाव्य-तामिल भापाका पञ्चमवेद [ तामिल लिपि । [हिन्दी ग्रन्थ १५. मुक्तिदूत [उपन्यास]-अञ्जना-पवनञ्जयकी पुण्यगाथा १६. पथचिह्न-[स्वर्गीय बहिनके पवित्र संस्मरण और युगविश्लेषण १७. दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ१८. पाश्चात्य तर्कशास्त्र [अप्राप्य] १९. शेरो-शायरी [ उर्दू के सर्वोत्तम १५०० शेर और १६० नज्म 7 २०. मिलनयामिनी [गीत ] २१. वैदिक साहित्य-वेदोंपर हिन्दीमें साधिकार मौलिक विवेचन '२२. मेरे बापू-महात्मा गाँधीके प्रति श्रद्धाञ्जलि २३. पंच प्रदीप [गीत २४. भारतीय विचारधारा२५. ज्ञानगंगा-[संमारके महान् साधकोंकी सूक्तियोंका अक्षय भण्डार २६. गहरे पानी पैठ-सूक्तिरूपम ११८ मर्मस्पर्शी कहानियाँ २७. वर्द्धमान [ महाकाव्य] २८. शेर-श्री सुखन २९. जैन-जागरणके अग्रदूत ३०. हमारे आराध्य ३१. भारतीय ज्योतिष ३२. रजतरश्मि ३३. अाधुनिक जैन कवि ३४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करनेवाली मुन्दर रचना। ३५. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न३६. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास Easte भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस ४ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् 1951 की प्रकाशित पुस्तके 0 LT . . RAO andir . ( N EMAP / reSALM T . . --7 NIONARY 6 1 पानी ):.." 10 = - SIFFEO . . गोयलीय . . SMAYASARA Propery भारतीय ज्ञानपीठ काशी . भारतीय रानीठ काशी 6'0' BHARTIYA JNANAPITHA KASHI m 7.0/) ). . भारती य ज्ञा न पी का शी