SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ध्ययन' रखा है। सोमदेवने समन्तभद्रके रत्नकरएडकको आधार बनाकर अपने उपासकाध्ययनका निर्माण किया है, ऐसा प्रत्येक अभ्यासीको प्रतीत हुए विना न रहेगा। छठे श्राश्वासमे उन्होने समस्त मतोंकी चर्चा करके तत्तन्मतों द्वारा स्वीकृत मोक्षका स्वरूप बतलाकर और उनका निरसन कर जैनाभिमत मोक्षका स्वरूप प्रतिष्ठित किया कि जहाँपर 'श्रात्यन्तिक अानन्द, ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य और परम सूक्ष्मता है, वही मोक्ष है' और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक ही उसका मार्ग है। पुनः प्राप्तके स्वरूपकी विस्तारके साथ मीमासा करके आगम-वर्णित पदार्थों की परीक्षा की और मूढतात्रोका उन्मथन करके सम्यक्त्वके आठ अगोका एक नवीन शैलीसे विस्तृत वर्णन किया और साथ ही प्रत्येक अगमे प्रसिद्धि पानेवाले व्यक्तियोंका चरित्र-चित्रण किया। इसी श्राश्वासके अन्तमे उन्होने सम्यक्त्वके विभिन्न भेदो और दोषोंका वर्णन कर सम्यक्त्वको महत्ता बतलाकर रत्नत्रयकी आवश्यकता बतलाई और उसका फल बतलाया कि सम्यक्त्वसे सुगति, ज्ञानसे कीर्ति, चारित्रसे पूजा और तीनोंसे मुक्ति प्रास होती है। सातवें आश्वासमे मद्य, मास, मधु और पाँच उदुम्बरफलोंके त्यागको अष्टमूल गुण बताया। जहाँतक मैं समझता हूँ, स्वामि-प्रतिपादित और जिनसेन-अनुमोदित पंच अणुव्रतोंके स्थानपर पंच-उदुम्बर-परित्यागका उपदेश देवसेन और सोमदेवने ही किया है, जिसे कि परवर्ती सभी विद्वानोंने माना है। सोमदेवने अाठ मूलगुणोंका प्रतिपादन करते हुए 'उक्ता मूलगुणाःश्रुते ऐसा जो कथन किया है, उससे यह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके सामने कोई ऐसा शास्त्राधार अवश्य रहा है, जिसमें कि पाँच उदुम्बर-त्यागको मूलगुणोंमे परिगणित किया गया है। जिनसेन और सोमदेवके मध्य यद्यपि अधिक समयका अन्तर नहीं है, तथापि जिनसेनने मूलगुणोंमे पाँच अणुव्रतोंको और सोमदेवने पाँच उदुंबर फलोंके त्यागको कहा है, दोनोंका यह कथन रहस्यसे रिक्त नहीं है और ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मूलगुणोंके विषयमे स्पष्टतः दो परम्पराएँ चल रही थीं, जिनमेंसे एकका समर्थन जिनसेन और दूसरेका समर्थन सोमदेवने किया है। इतनेपर भी आश्चर्य इस बातका है कि दोनों ही अपने-अपने कथनकी पुष्टिमे श्रुतपठित-उपासकाध्ययन' या उपासक सूत्रका आश्रय लेते हैं, जिससे यह निश्चय होता है कि दोनोंके सामने उपस्थित उपासकाध्ययन या उपासक सूत्र सर्वथा भिन्न ग्रन्थ रहे हैं। दुःख है कि आज वे दोनों ही उपलब्ध नहीं है और उनके नाम शेष रह गये हैं। मद्य, मांसादिकके सेवनमें महापापको बतलाते हुए प्रा० सोमदेवने उनके परित्यागपर जोर दिया और बताया कि 'मांस-भक्षियोंमें दया नहीं होती, मद्य-पान करनेवालोंमें सत्य नहीं होता, तथा मधु और उदुम्बरफल-सेवियोमें नृशंसता-क्रूरताका अभाव नहीं होता। इस प्रकरणमें मांस न खानेके लिए जिन युक्तियोंका प्रयोग सोमदेवने किया है, परवर्ती समस्त ग्रन्थकारोने उनका भरपूर उपयोग किया है। १ श्रानन्दो ज्ञानमैश्वर्यं वीर्यं परमसूचमता। एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः॥-यश० श्रा० ६. २ सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीर्तिरुदाहृता। वृत्तात्पूजामवामोति याच लभते शिवम् ॥-यश० प्रा० ६. ३ मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपञ्चकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणा अ ते ॥-यश० आ० ७. ४ इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रुतपठितमुपासकाध्ययनम् ॥-यश० प्रा० ५ ५ गुणेष्वेष विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्तादधिगम्यः प्रपञ्चतः ॥२१३॥-श्रादिपु० पर्व ४० ६ मांसादिषु दया नास्ति, न सत्यं मद्यपायिषु । अनृशंस्यं न म]षु मधदम्बरसेविष ॥-यश० प्रा० .
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy