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वसुनन्दि-श्रावकाचार सत्तमि-तेरसि दिवसम्मि अतिहिजणभोयणावसाणम्मि । भोत्तण भुंजणिज्जं तत्थ वि काऊण मुहसुद्धिं ॥२१॥ पक्खालिऊण वयण कर-चरणे णियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिंदभवण गंतूण जिण णमंसित्ता ॥२२॥ गुरुपुरो किदियम्मं बंदणपुव्वं कमेण काऊण । गुरुसक्खियमुववासं गहिऊण चउब्विह विहिणा ॥२८॥ वायण-कहाणुपेहण-सिक्खावण-चिंतणोवोगेहिं । णेऊण दिवससेस अवरारिहयवंदण किच्चा ॥२८॥ रयणि समयम्हि ठिच्चा काउस्सग्गेण णिययसत्तीए । पडिलेहिऊण भूमि अप्पपमारोण संथार ॥२५॥ दाऊण किंचि रत्तिं सइऊण जिणालए णियघरे वा। अहवा सयलं रतिं काउस्सग्गेण पोऊण ॥२६॥ पचुसे उद्वित्ता वदणविहिणा जिणं णमंसित्ता । तह-दव्व-भावपुज जिण-सुय-साहूण काऊण ॥२७॥ उत्तविहायोण तहा दियहं रत्तिं पुणो वि गमिऊण । पारणदिवसम्मि पुणो पूर्य काऊण पुष्व व ॥२८॥ गंतूण णिययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊण ।
जो भुजइ तस्स फुड पोसहविहि उत्तम होइ ॥२८९॥ सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अतिथिजनके भोजनके अन्तमें स्वयं भोज्य वस्तुका भोजनकर और वहींपर मुख-शुद्धिको करके, मुखको और हाथ-पैरोंको धोकर वहांपर ही उपवास सम्बन्धी नियम करके पश्चात् जिनेन्द्र-भवन जाकर और जिनभगवान्को नमस्कार करके, गुरुके सामने वन्दनापूर्वक क्रमसे कृतिकर्मको करके, गुरुकी साक्षीसे विधिपूर्वक चारों प्रकारके आहारके त्यागरूप उपवासको ग्रहण कर शास्त्र-वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षाचिन्तन, पठन-पाठन आदिके उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके तथा आपराह्निक-वंदना करके, रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्गसे स्थित होकर, भूमिका प्रतिलेखन (संशोधन) करके, और अपने शरीरके प्रमाण विस्तर लगाकर रात्रिमे कुछ समय तक जिनालय अथवा अपने घरमें सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्गसे बिताकर प्रातःकाल उठकर वंदनाविधिसे जिन भगवान्को नमस्कार कर, तथा देव, शास्त्र और गुरुकी द्रव्य वा भावपूजन करके पूर्वोक्त विधानसे उसी प्रकार सारा दिन और सारी रात्रिको फिर
१ ब. किरियम्मि। ध. म. ब. प्रतिषु 'णाऊण' इति पाठः ।
* उत्तमो मध्यमश्चैव जघन्यश्चेति स विधा। यथाशक्तिर्विधातव्यः कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥१७॥ सप्तम्यां च त्रयोदश्यां जिनाचर्चा पात्रसरिक्रयाम् । विधाय विधिवच्चैकमक्तं शुद्धवपुस्ततः ॥१७॥ गुर्वादिसन्निधिं गत्वा चतुराहारवर्जनम् । स्वीकृत्य निखिला रात्रि नयेच्च सत्कथानकैः ॥१७२॥ प्रातः पुनः शुचिर्भूत्वा निर्माप्याहत्पूजनम् । सोत्साहस्तदहोरात्रं सद्धधानाध्ययनैनयेत् ॥१७३॥ तत्पारणान्हि निर्माप्य जिनार्चा पात्रसक्रियाम् । स्वयं वा चैकभक्तं यः कुर्यात्तस्योत्तमो हि सः॥१७॥