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वसुनन्दि-श्रावकाचार पास कोई साधन नहीं है। ग्रन्थके अन्तमे दी हुई उनकी प्रशस्तिसे केवल इतना ही पता चलता है कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामे श्रीनन्दिनामके एक प्राचार्य हुए। उनके शिप्य नयनन्दि और उनके शिष्य नेमिचन्द्र हुए। नेमिचन्द्रके प्रसादसे वसुनन्दिने यह उपासकाध्ययन बनाया । प्रशस्तिमे ग्रन्थ-रचनाकाल नहीं दिया गया है। पं० श्राशाधरजीने सागारधर्मामृतकी टीकाको वि० सं० १२९६ मे समाप्त किया है। इस टीकामे उन्होंने श्रा० वसुनन्दिका अनेक बार आदरणीय शब्दोंके साथ उल्लेख किया है और उनके इस उपासकाध्ययनकी गाथाश्रोको उद्धृत किया है। अतः इनसे पूर्ववर्ती होना उनका स्वयंसिद्ध है। श्री प० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'पुरातन-वाक्य-सूची' की प्रस्तावनामे और श्री पं० नाथरामजी प्रेमीने अपने 'जैन इतिहास मे वसुनन्दिका समय प्रा० अमितगतिके पश्चात् और पं० श्राशाधरजीसे अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दी निश्चित किया है। पर विशेप अनुसन्धानसे यह पता चलता है कि वसुनन्दिके दादागुरु श्रीनयनन्दिने विक्रम संवत् ११०० मे 'सुदर्शनचरित' नामक अपभ्रंश भाषाके ग्रन्थको रचा है, अतएव श्रा० बमुनन्दिका समय बारहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध निश्चित होता है ।
__वसुनन्दि नामके अनेक प्राचार्य हुए हैं। वसुनन्दिके नामसे प्रकाशमे आनेवाली रचनाओंमे श्राप्तमीमांसावृत्ति, जिनशतकटोका, मूलाचारवृत्ति, प्रतिष्ठासारसंग्रह और प्रस्तुत उपासकाध्ययन प्रसिद्ध हैं। इनमेंसे अन्तिम दो ग्रन्थ तो स्वतत्र रचनाएँ हैं और शेष सब टीका-ग्रन्थ हैं। यद्यपि अभी तक यह सुनिश्चित नहीं हो सका है कि प्राप्तमीमांसा आदिके वृत्ति-रचयिता और प्रतिष्ठापाठ तथा उपासकाध्ययनके निर्माता आचार्य वसुनन्दि एक ही व्यक्ति हैं, तथापि इन ग्रन्थोके अन्तःपरीक्षणसे इतना तो अवश्य ज्ञात होता है कि प्राप्तमीमासा-वृत्ति और जिनशतक-टीकाके रचयिता एक ही व्यक्ति होना चाहिए। इसी प्रकार प्रतिष्ठापाठ और प्रस्तुत उपासकाध्ययनके रचयिता भी एक ही व्यक्ति प्रतीत होते है, क्योंकि प्रतिष्ठापाठके समान प्रस्तुत उपासकाध्ययनमे भी जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठाका खूब विस्तारके साथ वर्णन करके भी अनेक स्थलोपर प्रतिष्ठा शास्त्रके अनुसार विधि-विधान करनेको प्रेरणा की गई है। इन दोनों ग्रन्थोकी रचनामे भी समानता पाई जाती है और जिन धूलीकलशाभिषेक, आकरशुद्धि आदि प्रतिष्ठा-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दो का यहाँ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है, उनका प्रतिष्ठासंग्रहमे विस्तृत रूपसे वर्णन किया गया है । यहाँ एक बात खास तौर से जानने योग्य है कि प्रतिष्ठासंग्रहकी रचना संस्कृत-भाषामें है, जब कि प्रस्तुत उपासकाध्ययन प्राकृतमैं रचा गया है। यह विशेषता वसुनन्दिकी उभय-भाषा-विज्ञता को प्रकट करती है तथा वसुनन्दिके लिए परवर्ती विद्वानो द्वारा प्रयुक्त 'सैद्धान्तिक' उपाधि भी मूलाचारवृत्तिके कत्तृत्वकी ओर सकेत करती है।
५-नयनन्दिका परिचय और वसुनन्दिका समय
श्राचार्य वसुनन्दिने प्राचार्य नयनन्दिको अपने दादागुरुरूपसे स्मरण किया है। नयनन्दि-रचित अपभ्रंशभाषाके दो ग्रन्थ-सुदर्शनचरित और सकल-विधि-विधान अामेरके शास्त्रभंडारमें उपलब्ध हैं। इनमेसे सदर्शनचरितके अन्त में जो प्रशस्ति पाई जाती है, उससे प्रकट है कि उन्होंने उक्त ग्रन्थकी रचना विक्रम संवत् ११०० मे धारा-नरेश महाराज भोजदेवके समयमै पूर्ण की थी। सुदर्शनचरित की वह प्रशस्ति इस प्रकार है :
जिणिंदस्स वीरस्स तित्थे वहते, महाकुदकुदण्णए एतसंते । सुसिक्खाहिहाणें तहा पोमणंदी, पुणो विसहणंदी तश्रो णंदणंदी ॥ जिणुदिछु धम्म धुराणं विसुद्धो, कयाणेयगंथो जयते पसिद्धो । भवं बोहि पोउं महोविस्स (ह) गंदी, खमाजुत्तसिद्धतिश्रो विसहणंदी ॥
१. देखो-सागारध० अ० ३ श्लो०१६ को टीका आदि । २. देखो उपासकाध्य० गाथा नं० ३९६,४१० इत्यादि।