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श्रावकधर्मफल-वर्णन
१३७ समचतुरस्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी, नवीन नीलकमलके समान सुगंधित निःश्वासवाला होता है ॥४९४-४९७॥
पडिबुज्झिऊण सुत्तुठियो ब्व संखाइमहुरसद्देहिं । दळूण सुरविभूइ विभियहियो पलोएइ ॥४९८।। किं समिणदसणमिणं ण वेत्ति जा चिट्ठए वियप्पेण । आयंति तक्खणं चिय थुइमुहला आयरक्खाई ॥४९९॥ जय जीव णंद वड्ढाइचारुसद्देहि सोयरम्मेहिं ।
अच्छरसयाउ' वि तो कुणंति चाडूणि विविहाणि ॥५००। सोकर उठे हुए राजकुमारके समान वह देव शख आदि बाजोंके मधुर शब्दोंसे जागकर देव-विभूतिको देखकर और आश्चर्यसे चकितहृदय होकर इधर उधर देखता है। क्या यह स्वप्न-दर्शन है, अथवा नही, या यह सब वास्तविक है. इस प्रकार विकल्प करता हुआ वह जब तक बैठता है कि उसी क्षण स्तुति करते हुए आत्मरक्षक आदि देव आकर, जय (विजयी हो), जीव (जीते रहो), नन्द (आनन्दको प्राप्त हो), वर्द्धस्व (वृद्धिको प्राप्त हो), इत्यादि श्रोत्र-सुखकर सुन्दर शब्दोंसे नाना चाटुकार करते हैं। तभी सैकड़ों अप्सराएँ भी आकर उनका अनुकरण करती है ॥४९८-५००॥
एवं थुणिज्जमाणो सहसा णाऊण श्रोहिणाणेण । गंतूण रहाणगेहं वुड्डुणवाविम्हि यहाऊण ॥५०॥ बाहरणगिहम्मि तो सोलसहाभूसणं च गहिऊण । पूजोवयरणसहिओ गंतूण जिणालए सहसा ॥५०२॥ वरवजविविहमंगलरवेहिं गंधक्खयाइदब्वेहिं । महिऊण जिणवरिंदं थुत्तसहस्सेहिं थुणिऊण ॥५०३॥ गंतूण सभागेहं अणेयसुरसंकुलं परमरम्मं । सिंहासणस्स उवरि चिट्ठइ देवेहिं थुन्वंतो ॥५०॥ उस्सियसियायवत्तो सियचामरधुव्वमाणसवंगो। । पवरच्छराहिं कीडइ दिव्वद्वगुणप्पहावेण ॥५०५॥ दीवेसु सायरेसु य सुरसरितीरेसु सेलसिहरेसु ।
अखलियगमणागमणो देवुजाणाइसु रमेइ ॥५०६॥ इस प्रकार देव और देवांगनाओंसे स्तुति किया गया वह देव सहसा उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे अपना सब वृत्तान्त जानकर, स्नानगृहमें जाकर स्नान-वापिकामे स्नान कर तत्पश्चात् आभरणगृहमें जाकर सोलह प्रकारके आभूषण धारण कर पुनः पूजनके उपकरण लेकर सहसा या शीघ्र जिनालयमें जाकर उत्तम बाजोंसे, तथा विविध प्रकारके मांगलिक शब्दोंसे और गंध, अक्षत आदि द्रव्योंसे जिनेन्द्र भगवान्का पूजन कर, और सहस्रों स्तोत्रोंसे स्तुति करके तत्पश्चात् अनेक देवोंसे व्याप्त और परम रमणीक सभा-भवनमें जाकर अनेक देवोंसे स्तुति किया जाता हुआ, श्वेत छत्रको धारण करता हुआ और श्वेत चमरोंसे कम्पमान या रोमांचित है सर्व अंग • जिसका, ऐसा वह देव सिहासनके ऊपर बैठता है। (वहाँपर वह) उत्तम अप्सराओंके साथ
क्रीड़ा करता है, और अणिमा, महिमा आदि दिव्य आठ गुणोंके प्रभावसे द्वीपोंमे, समुद्रोंमे, गंगा आदि नदियोंके तीरोंपर, शैलोंके शिखरोंपर, तथा नन्दनवन आदि देवोद्यानोंमे अस्खलित (प्रतिबन्ध-रहित) गमनागमन करता हुआ आनन्द करता है ॥५०१-५०६॥
१झ. अच्छरसहिओ, ब. अच्छरसमो। २ ध. विविहागं। ३ प. माणा । ४ इ. सरित्तीसु ।