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वसुनन्दि-श्रावकाचार सगसत्तीए महिला-वत्थाहरणाण जंतु परिमाणं ।
तं परिभोयणिवुत्ती' विदियं सिक्खावयं जाण ॥२१८॥(१) अपनी शक्तिके अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र-आभूषणोंका जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग-निवृत्ति नामका द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए ॥ २१८ ॥
अतिहिस्स संविभागो तइयं सिक्खावयं मुणेयव्वं ।
तत्थ वि पंचहियारा णेया सुत्ताणुमग्गेण ॥२१९॥(२) अतिथिके सविभागको तीसरा शिक्षाव्रत जानना चाहिए। इस अतिथिसंविभाग के पांच अधिकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार (निम्न प्रकार) जानना चाहिए ॥ २१९ ॥
पत्तंतर दायारो दाणविहाणं तहेव दायव्वं ।
दाणस्स फलं णेया पंचहियारा कमेणेदे ।।२२०॥(३) पात्रोंका भेद, दातार, दान-विधान, दातव्य अर्थात् देने योग्य पदार्थ और दानका फल, ये पांच अधिकार क्रमसे जानना चाहिए ॥ २२० ॥
- पात्रभेद-वर्णन तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण ।
वय-णियम-संजमधरो उत्तमपत्तं हवे साहू ॥२२१॥(४) उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र जानना चाहिए। उनमें व्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र है ॥ २२१ ॥
एयारस ठाणठिया मज्झिमपत्तं खु सावया भणिया।
अविरयसम्माइट्ठी जहएणपत्तं मुणेयव्यं ॥२२२॥(५) ग्यारह प्रतिमा-स्थानोंमें स्थित श्रावक मध्यम पात्र कहे गये हैं, और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र जानना चाहिए ॥ २२२ ॥
वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिो कुपत्तं तु ।
सम्मत्त-सील वयवज्जियो अपत्तं हवे जीश्रो ॥२२३॥(६) जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है। सम्यक्त्व, शील और व्रतसे रहित जीव अपात्र है ॥ २२३ ॥
१ बणियत्ती । २ झ. विइय, ब. बीयं ।
(१) उपभोगो मुहुर्भाग्यो वस्त्रस्याभरणादिकः । ___ या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रमोच्यते ॥१४५॥ २) स्वस्य पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रयसमृद्धये ।
यद्दीयतेऽत्र तहानं तत्र पञ्चाधिकारकम् ॥१४६ (३) पात्रं दाता दानविधिदेय दानफलं तथा ।
अधिकारा भवन्त्येते दाने पञ्च यथाक्रमम् ॥१४७॥ (४) पात्रं निधोत्तमं चैतन्मध्यमं च जघन्यकम् ।
सर्वसंयमसंयुक्तः साधुः स्यात्पात्रमुत्तमम् ॥१८॥ ५) एकादशप्रकारोऽसौ गृही पात्रमनुत्तमम् ।
विरल्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्रं जघन्यकम् ॥१४॥ ६) तपःशीलवतैर्युक्तः कुदृष्टिः स्याकुपात्रकम् । .
अपात्रं व्रतसम्यक्त्वतमाशीलविवर्जितम् ॥१५०॥-गुण० श्राव.