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वसुनान्द-श्रावकाचार अचौर्याणुव्रतके अतीचारोंकी व्याख्यामे चोरोंको चोरीके लिए भेजने, चोरीके उपकरण देने और चोरीका माल लेनेपर भी व्रतकी सापेक्षता बताकर उन्हें श्रुतीचार ही बतला रहे हैं।
ये और इसी प्रकारके जो अन्य कुछ कथन प०अाशाधरजी द्वारा किये गये है, वे अाज भी विद्वानो के लिए रहस्य बने हुए हैं और इन्ही कारणोसे कितने ही लोग उनके ग्रथो के पठन-पाठनका विरोध करते रहे हैं। पं० श्राशाधर जैसे महान् विद्वान्के द्वारा ये व्युत्क्रम-कथन कैसे हुए, इस प्रश्नपर जब गंभीरतासे विचार करते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने श्रावक-धर्मके निरूपणकी परम्परागत विभिन्न दो धारायोके मूलमे निहित तत्त्वको दृष्टिमे न स्खकर उनके समन्वयका प्रयास किया, और इसी कारण उनसे उक्त कुछ व्युत्क्रम-कथन हो गये। वस्तुतः ग्यारह प्रतिमानोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परासे बारह व्रतोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परा बिलकुल भिन्न रही है। अतीचारोंका वर्णन प्रतिमाअोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परामे नहीं रहा है । यह अतीचार-सम्बन्धी समस्त विचार बारह व्रतोको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका वर्णन करनेवाले उमास्वाति, समन्तभद्र श्रादि आचार्योंकी परम्परामे ही रहा है।
(ब) देशावकाशिक या देशव्रतको गुणवत माना जाय, या शिक्षाबत, इस विषयमे श्राचार्यों के दो मत हैं, कुछ प्राचार्य इसे गुणवतम परिगणित करते हैं और कुछ शिक्षाव्रत मे। पर सभीने उसका स्वरूप एक ही दंगसे कहा है और वह यह कि जीवन-पर्यन्तके लिए किये हुए दिखतमे कालकी मर्यादा द्वारा अनावश्यक क्षेत्रमें जाने-अानेका परिमाण करना देशव्रत है। जहाँतक मेरी दृष्टि गई है, किसी भी प्राचार्यने देशव्रतका स्वरूप अन्य प्रकारसे नहीं कहा है । पर श्रा० वसुनन्दिने एकदम नवीन ही दिशासे उसका स्वरूप कहा है। वे कहते हैं:
'दिव्रतके भीतर भी जिस देशमे व्रत-भगका कारण उपस्थित हो, वहॉपर नहीं जाना सो दूसरा गुणव्रत है। (देखो गा० २१५)
जब हम देशव्रतके उक्त स्वरूपपर दृष्टिपात करते हैं और उसमे दिये गये 'व्रत-भग-कारण' पदपर गंभीरतासे विचार करते हैं, तब हमें उनके द्वारा कहे गये स्वरूपकी महत्ताका पता लगता है । कल्पना कीजिए-किसीने वर्तमानमे उपलब्ध दुनिया में जाने-बाने और उसके बाहर न जानेका दिग्व्रत किया। पर उसमें अनेक देश ऐसे है जहाँ खानेके लिए मांसके अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता, तो दिग्वतकी मर्यादाके भीतर होते हुए भी उनमें अपने अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए न जाना देशव्रत है। एक दूसरी कल्पना कीजिए-किसी व्रतीने भारतवर्षका दिग्ब्रत किया। भारतवर्ष प्रार्यक्षेत्र भी है। पर उसके किसी देश-विशेष में ऐसा दुर्भिक्ष पड़ जाय कि लोग अन्नके दाने-दानेको तरस जाय, तो ऐसे देशमै जानेका अर्थ अपने आपको
और अपने व्रतको संकटमे डालना है। इसी प्रकार दिग्व्रत-मर्यादित क्षेत्रके भीतर जिस देशमें भयानक युद्ध हो रहा हो, जहाँ मिथ्यात्वियों या विधर्मियोंका बाहुल्य हो, व्रती संयमीका दर्शन दुर्लभ हो, जहाँ पीने लिए पानी भी शुद्ध न मिल सके, इन और इन जैसे व्रत-भंगके अन्य कारण जिस देशमें विद्यमान हो उनमे नहीं जाना, या जानेका त्याग करना देशव्रत है। इसका गुणवतपना यही है कि उक्त देशोंमें न जानेसे उसके व्रतोंकी सुरक्षा बनी रहती है। इस प्रकारके सुन्दर और गुणवतके अनुकूल देशव्रतका स्वरूप प्रतिपादन करना सचमुच श्रा० वसुनन्दिकी सैद्धान्तिक पदवीके सर्वथा अनुरूप है।
१ सत्र चौरप्रयोगः-चोरयतः स्वयमन्येन वा चोरय त्वमिति चोरणक्रियायां प्रेरणं, प्रेरितस्य वा - साधु करोषोत्यनुमननं, कुशिका-कतरिकाघर्धरिकादिचोरोपकरणानां वा समर्पणं विक्रयणं वा। अत्र च यद्यपि
चौर्य न करोमि, न कारयामोत्येवं प्रतिपन्नव्रतस्य चौरप्रयोगो व्रतभंग एव । तथापि किमधुना यूय नियापारास्तिष्ठथ ! यदि वो भक्कादिकं नास्ति तदाहं तद्ददामि । भवदानीतमोषस्य वा यदि क्रेता नास्ति तदाह विक्रष्ये इत्येवंविध वचनैश्चौरान व्यापारयतः स्वकल्पनया तव्यापारणं परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतीचारः ॥
-सागारध० ० ४ श्लो० ५० टीका०