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________________ २७ वसुनन्दि-श्रावकाचारको विशेषताएँ ये कुछ मुख्य प्रश्न है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताएँ भी पाई जाती है जो कि इस प्रकार हैं : १-पूर्व-परम्परा को छोड़कर नई दिशासे ब्रह्मचर्याणुव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्ड-विरति के स्वरूप का वर्णन करना। २-भोगोपभोग-परिमाण नामक एक ही शिक्षाव्रत का भोगविरति और उपभोगविरति नाम से दो शिक्षाबतो का प्रतिपादन करना। ३–सल्लेखना को शिक्षाव्रतों मै कहना । ४-छठी प्रतिमाका नाम 'रात्रिभुक्तित्याग रखने पर भी स्वरूप-निरूपण 'दिवा मैथुनत्याग' रूप मे करना। ५--ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेदो का निरूपण करना। तथा प्रथम भेदवाले उत्कृष्ट श्रावक को पात्र लेकर व अनेक घरो से भिक्षा माग एक जगह बैठकर आहार लेने का विधान करना । अब यहाँ प्रथम मुख्य प्रश्नो पर क्रमशः विचार किया जाता है: १-प्रत्येक ग्रन्थकार अपने समय के लिए आवश्यक एवं उपयोगी साहित्य का निर्माण करता है। श्रा० वसुनन्दि के सामने यद्यपि अनेक श्रावकाचार विद्यमान थे, तथापि उनके द्वारा वह बुराई दूर नही होती थी, जो कि तात्कालिक समाज एवं राष्ट्रमे प्रवेश कर गई थी। दूसरे जिन शुभ प्रवृत्तियो की उस समय अत्यन्त आवश्यकता थी, उनका भी प्रचार या उपदेश उन श्रावकाचारोसे नहीं होता था। इन्हीं दोनो प्रधान कारणों से उन्हे स्वतत्र ग्रन्थ के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई। सदाचारके स्वरूपमे कहा गया है कि 'असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्त' । द्रव्य सं० गा०४५ अर्थात् अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों मे प्रवृत्ति को सम्यक् चारित्र कहते है। श्रावको के मूलगुणों और उत्तरगुणों मे भी यही उद्देश्य अन्तर्निहित है। मूलगुण असदाचार की निवृत्ति कराते हैं और उत्तरगुण सदाचार में प्रवृत्ति कराते हैं। वसुनन्दि के समय में सारे देश मे सप्त व्यसनों के सेवन का अत्यधिक प्रचार प्रतीत होता है। और प्रतीत होता है सर्वसाधारण के व्यसनो में निरत रहने के कारण दान, पूजन श्रादि श्रावक क्रियाओंका अभाव भी। साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि उस समय जिनबिम्ब, जिनालय आदि भी नगण्य-जैसे ही थे। श्रावकोंकी संख्याके अनुपातसे वे नहीं के बराबर थे। यही कारण है कि वसुनन्दि को तात्कालिक परिस्थितियों से प्रेरित होकर अपने समय के कदाचार को दूर करने और सदाचार के प्रसार करने का उपदेश देने की आवश्यकता का अनुभव हुश्रा और उन्होने इसके लिए एक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की । यह बात उनके सप्त व्यसन और प्रतिमा-निर्माण आदि के विस्तृत वर्णन से भली भाँति सिद्ध है। २-यह ठीक है कि उमास्वाति के समय से जैन साहित्य का निर्माण संस्कृत भाषा मे प्रारभ हो गया था और ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी मै तो वह प्रचुरता से हो रहा था, फिर भी सस्कृत भाषा लोकभाषासर्वसाधारण के बोलचाल की भाषा-नहीं बन सकी थी। उस समय सर्वसाधारण में जो भाषा बोली जाती थी वह प्राकृत या अपभ्रंश ही थी। जो कि पीछे जाकर हिन्दी, गुजराती, महाराष्ट्री श्रादि प्रान्तीय भाषाश्रो के रूप में परिवर्तित हो गई। भगवान् महावीर ने अपना दिव्य उपदेश भी लोकभाषा अर्धमागधी प्राकृत मे दिया था। उनके निर्वाण के पश्चात् सैकड़ों वर्षों तक जैन ग्रन्थों का निर्माण भी उसी लोकभाषा में ही होता रहा । प्राकृत या लोक-भाषा मे ग्रन्थ-निर्माण का उद्देश्य सर्वसाधारण तक धर्म का उपदेश पहुँचाना था। जैसा कि कहा गया है: १-प्रस्तुत ग्रन्थमें व्यसनोंका वर्णन १४८ गाथाओंमें किया गया है, जब कि समग्र ग्रन्थमें कुल गाथाएँ ५४६ ही हैं। इसी प्रकार जिनप्रतिमा-प्रतिष्ठा और पूजनका वर्णन भी ११४ गाथाओंमें किया गया है। दोनों वर्णन ग्रन्थका लगभग आधा भाग रोकते हैं।-संपादक.
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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