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वसुनन्दि-श्रावकाचार माध्यस्थ्यभावनासे सुवासित होना ही चाहिये। जो देव, धर्म, मन्त्र, औषधि, अाहार आदि किसी भी कार्यके लिए जीवघात नहीं करता, न्यायपूर्वक श्राजीविका करता हुआ श्रावकके बारह व्रतौका और ग्यारह प्रतिमाश्रोका आचरण करता है, उसे चर्याका आचरण करनेवाला नैष्ठिक आवक कहते हैं। जो जीवनके अन्तमे देह, श्राहार श्रादि सर्व विषय-कषाय और प्रारम्भको छोड़कर परम समाधिका साधन करता है, उसे साधक श्रावक कहते है । श्रा० जिनसेनके पश्चात् प० आशाधरजीने, तथा अन्य विद्वानोने इन तीनोको ही आधार बनाकर सागार-धर्मका प्रतिपादन किया है।
६-वसुनन्दि-श्रावकाचारकी विशेषताएँ
वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्ययन का अन्तः अवगाहन करने पर कई विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं और उनपर विचार करनेसे अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं :
१-जब कि श्रा० वसुनन्दिके सामने समन्तभद्रका रत्नकरण्डक, जिनसेनका श्रादिपुराण, सोमदेवका उपासकाध्ययन और अमितगतिका श्रावकाचार श्रादि श्रावकधर्मका वर्णन करनेवाला विस्तृत साहित्य उपस्थित था, तो फिर इन्हें एक और स्वतन्त्र श्रावकाचार रचनेकी आवश्यकता क्यो प्रतीत हुई ?
२-जब कि विक्रमकी पहिली दूसरी शताब्दीसे प्रायः जैन-साहित्य संस्कृत भाषामे रचा जाने लगा और ११ वी १२ वीं शताब्दीमे तो सस्कृत भाषामें जैन-साहित्यका निर्माण प्रचुरतासे हो रहा था, तब इन्होने प्रस्तुत उपासकाध्ययनको प्राकृत भाषामे क्यो रचा ? खासकर उस दशामे, जब कि वे अनेक ग्रन्थोके संस्कृतटीकाकार थे। तथा स्वय भी प्रतिष्ठा-पाठका निर्माण संस्कृत भाषामे ही किया है !
३-जब कि श्रा० वसुनन्दिके सामने स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्डक विद्यमान था और जिसकी कि सरणिका प्रायः सभी परवर्ती श्रावकाचार-रचयिताश्रोने अनुसरण किया है, तब इन्होने उस सरणिको छोड़कर ११ प्रतिमाओंको अाधार बनाकर एक नई दिशासे क्यों वर्णन किया ?
४-जब कि वसुनन्दिके पूर्ववर्ती प्रायः सभी श्रावकाचार-रचयितानोने १२ व्रतोंके वर्णन करनेके पूर्व श्राठ मूलगुणोंका वर्णन किया है तब इन्होंने आठ मूलगुणोंका नामोल्लेख तक भी क्यों नहीं किया ?
५-जब कि उमास्वाति और समन्तभद्रसे लेकर वसुनन्दिके पूर्ववर्ती सभी आचार्योंने १२ व्रतोंके अतीचारोंका प्रतिपादन किया है तब इन्होंने उन्हें सर्वथा क्यों छोड़ दिया ? यहाँ तक कि 'श्रतीचार' शब्द भी समग्र ग्रन्थमें कहीं भी प्रयुक्त नहीं किया ?
१-स्यान्मैच्याद्युपहितोऽखिलवधत्यागो न हिंस्यामहं,
धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झतः । सूनौ न्यस्य निजान्वयं गृहमथो चर्या भवेत्साधनम्, त्वन्तेऽन्नेहतनूजमनाद्विशदया ध्यात्याऽऽत्मनः शोधनम् ॥१९॥ पाक्षिकादिभिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्टो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥२०॥
-सागारधर्मामृत अ० १ २-देशयमध्नकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकायकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः॥१॥
-सागारध० अ०३ ३-देहाहारहितत्यागाद् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् । यो जीवितान्ते सम्प्रीतः साधयत्येष साधकः ॥१॥
-सागारध०अ०८