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वसुनन्दि-श्रावकाचार करनेके लिए ग्रन्थकारने अपने इस ग्रन्थका नाम भी उपासकाध्ययन रक्खा, और सातवें अंगके समान ही ग्यारह प्रतिमाओंको श्राधार बनाकर श्रावक धर्मका प्रस्तुत ग्रन्थमें वर्णन किया ।
यद्यपि इस ग्रन्थमें प्रायः श्रावकके सभी छोटे-मोटे कर्त्तव्योका वर्णन किया गया है, तथापि सात व्यसनोंका और उनके सेवनसे प्राप्त होनेवाले चतुर्गति-सम्बन्धी महा दुःखोंका जिस प्रकार खूब विस्तारके साथ वर्णन किया गया है, उसी प्रकारसे दान, दान देनेके योग्य पात्र, दातार, देय पदार्थ, दानके भेद और दानके फलका; पंचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधानोंका, पूजनके छह भेदोंका और बिम्ब-प्रतिष्ठाका भी विस्तृत वर्णन किया गया है। ग्रन्थ की भाषा सौरसेनी प्राकृत है जिसे कि प्रायः सभी दि० ग्रन्थकारोंने अपनाया है।
३-ग्रन्थका परिमाण प्राचार्य वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थका परिमाण प्रशस्तिकी अन्तिम गाथा द्वारा छह सौ पचास (६५०) सूचित किया है, मुद्रित प्रतिमें यह प्रमाण अनुष्टुप् श्लोकोंकी अपेक्षा कहा गया है। परन्तु प्रतिपरिचय में जो पृष्ठ, प्रति पृष्ठ पंक्ति, और प्रतिक्ति-अक्षरसख्या दी है, तदनुसार अधिकसे अधिक अक्षरसंख्यासे गणित करनेपर भी ग्रन्थका परिमाण छह सौ पचास श्लोक प्रमाण नहीं पाता है। उक्त सर्व प्रतियोका गणित इस प्रकार है :
प्रति पत्र पंक्ति अक्षर योग श्लोक प्रमाण म ३७४१०४३५ % १२६५०३२ %3D ४०५ ध ४८४ ६४४१ = ११८०८:३२% ३६६ प १४४१५४५६ - ११७६०३२%3D३६७॥ ब ४१४६४३६ % १३२८४-३२ = ४१५
ऐसी दशामें स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि ग्रन्थकारने अपने ग्रन्थका स्वयं जो परिमाण दिया है, वह किस अपेक्षासे दिया है ? यह प्रश्न उस अवस्थामें और भी जटिल हो जाता है जब कि सभी प्रतियोमें 'छच्चसया पण्णासुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाणं पाठ एक समान ही उपलब्ध है। यदि यह कल्पना की जाय, कि ग्रन्थकारने उक्त प्रमाण अपने ग्रन्थकी गाथा-संख्याओंके हिसाबसे दिया है सो भी नहीं बनता, क्योंकि किसी भी प्रतिके हिसाबसे गाथाओंका प्रमाण ६५० नहीं है, बल्कि भ, ध, प प्रतियोंके अनुसार गाथाओंकी संख्या ५४६ और इतथा ब प्रतियोंके अनुसार ५४८ है। और विभिन्न प्रतियोंमे उपलब्ध प्रक्षिप्त गाथाश्रोको भी मिलाने पर वह संख्या अधिकसे अधिक ५५२ ही होती है।
मेरे विचारानुसार स्थूल मानसे एक गाथाको सवा श्लोक-प्रमाण मान करके ग्रन्थकारने समग्र ग्रन्थका परिमाण ६५० कहा है । संभवतः प्रशस्तिकी ८ गाथाओंको उसमें नहीं गिना गया है।
अब हम विभिन्न प्रतियोंमें पाई जानेवाली गाथाओंकी जाँच करके यह निर्णय करेंगे कि यथार्थमे उन गाथाओंकी संख्या कितनी है, जिन्हें कि श्रा० वसुनन्दिने स्वयं निबद्ध किया है ? इस निर्णयको करनेके पूर्व एक बात और भी जान लेना आवश्यक है, और वह यह कि स्वयं ग्रन्थकारने भावसंग्रहकी या अन्य ग्रन्थोंकी जिन गाथाओंको अपने ग्रन्थका अंग बना लिया है, उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थ की ही मूल गाथाएँ मान लिया जाय, तब भी कितनी और प्रक्षिप्त गाथाओंका समावेश मूलमें हो गया है ? उक्त निर्णयके लिए हमें प्रत्येक प्रतिगत गाथाओंकी स्थितिका जानना आवश्यक है।
(१) ध और प प्रतियोंके अनुसार गाथाओंकी संख्या ५४६ है। इस परिमाणमें प्रशस्तिसम्बन्धी ८ गाथाएँ भी सम्मिलित हैं। इन दोनों प्रतियोंमें अन्य प्रतियोंमें पाई जानेवाली कुछ गाथाएँ नहीं हैं; जिन पर यहाँ विचार किया जाता है :
झ और ब प्रतियोंमें गाथा नं० १८१ के बाद निम्न दो गाथाएँ और भी पाई जाती हैं :