________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार
६-उपासक या श्रावक
गृहस्थ व्रतीको उपासक, श्रावक, देशसंयमी, आगारी आदि नामोंसे पुकारा जाता है। यद्यपि साधारणतः ये सब पर्यायवाची नाम माने गये हैं, तथापि यौगिक दृष्टिसे उनके अर्थोमे परस्पर कुछ विशेषता है। यहा क्रमशः उक्त नामोके अर्थोंका विचार किया जाता है।
'उपासक पदका अर्थ उपासना करनेवाला होता है। जो अपने अभीष्ट देवकी, गुरुकी, धर्मकी उपासना अर्थात् सेवा, वैयावृत्त्य और आराधना करता है, उसे उपासक कहते हैं। गृहस्थ मनुष्य वीतराग देवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा-वैयावृत्त्यमे नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थ धर्मकी आराधना करते हुए उसे यथाशक्ति धारण करता है, अतः उसे उपासक कहा जाता है। 'श्रावक' इस नाम की निरुक्ति इस प्रकार की गई है :
'श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः।
ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति। (अभिधान राजेन्द्र 'सावय' शब्द) इसका अभिप्राय यह है कि 'श्रावक' इस पद में तीन शब्द हैं। इनमें से 'श्रा' शब्द तो तत्त्वार्थश्रद्धान की सूचना करता है, 'व' शब्द सप्त धर्म-क्षेत्रों मे धनरूप बीज बोने की प्रेरणा करता है और 'क' शट किष्ट कर्म या महापापों को दूर करने का संकेत करता है। इस प्रकार कर्मधारय समास करने पर श्रावक यह नाम निष्पन्न हो जाता है। कुछ विद्वानों ने श्रावक पद का इस प्रकार से भी अर्थ किया है :
अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामागारिणां च सामाचारी शृणोतीति श्रावकः ।
-श्रावकधर्म प्र० गा०२ अर्थात् जो सम्यक्त्वी और अणुव्रती होने पर भी प्रतिदिन साधुओ से गृहस्थ और मुनियों के प्राचारधर्म को सने, वह श्रावक कहलाता है। कुछ विद्वानों ने इसी अर्थ को और भी पल्लवित करके कहा है:
श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् ।
कृतत्वपुण्यानि करोति संयमं तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ॥ अर्थ-जो श्रद्धालु होकर जैन शासन को सुने, दीन जनो में अर्थ का वपन करे अर्थात् दान दे, सम्यग्दर्शन को वरण करे, सुकृत और पुण्य के कार्य करे, संयम का आचरण करे उसे विचक्षण जन श्रावक कहते हैं।
उपर्युक्त सर्व विवेचन का तात्पर्य यही है कि जो गुरुजनों से आत्म-हित की बात को सदा सावधान होकर सुने, वह श्रावक कहलाता है।
परलोयहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेइ उवजुत्तो। अइतिव्वकम्मविगमा सुक्कोसो सावगो एत्थ ॥-पंचा.१ विव० अवाप्तदृष्टयादिविशुद्धसम्पत्परं समाचारमनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः॥
(अभिधान राजेन्द्र, 'सावय' शब्द)