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________________ दानफल-वर्णन १०५ वर बहुल परिमलामोयमोइयासामुहाउ मालाम्रो । मालादुमा पयच्छंति विविहकुसुमेहिं रइयायो ॥२५७॥ मालांग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारके पुष्पोंसे रची हुई और प्रवर, बहुल, परिमल सुगंधसे दिशाओंके मुखोंको सुगंधित करनेवाली मालाओंको देते है ॥ २५७ ॥ उक्किहभोयभूमीसु जे रारा उदय-सुज-समतेया। छधणुसहस्सुत्तुंगा हुंति तिपल्लाउगा सव्वे ॥२५॥ उत्तम भोगभूमियोंमे जो मनुष्य उत्पन्न होते है, वे सब उदय होते हुए सूर्यके समान तेजवाले, छह हजार धनुष ऊंचे और तीन पल्यकी आयुवाले होते है ॥ २५८ ॥ देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु चत्तारि धणुसहस्साई। पल्लाणि दुरिणा आऊ पुरिएदुसमप्पहा पुरिसा ॥२५॥ मध्यम भोगभूमियोंमें देहकी ऊंचाई चार हजार धनुष है, दो पल्यकी आयु है, और सभी पुरुष पूर्णचन्द्रके समान प्रभावाले होते हैं ॥ २५९ ॥ दोधणसहस्सुत्त गा मणया पल्लाउगा जहण्णास। उत्तत्तकणयवण्णा हवंति पुण्णाणुभावेण ॥२०॥ जघन्य भोगभूमियोंमें पुण्यके प्रभावसे मनुष्य दो हजार धनुष ऊंचे, एक पल्यकी आयुवाले और तपाये गये स्वर्णके समान वर्णवाले होते है ॥२६॥ जे पुण कुभोयभूभीसु सक्कर-समसायमट्टियाहारा । फल-पुप्फाहारा केई तत्थ पल्लाउगा सव्वे ॥२६॥ जो जीव कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते है, उनमें से कितने ही वहांपर स्वभावतः उत्पन्न होनेवाली शक्करके समान स्वादिष्ट मिट्टीका आहार करते है, और कितने ही वृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले फल-पुष्पोंका आहार करते है और ये सभी जीव एक पल्यकी आयुवाले होते है।।२६१॥ जायंति जुयल-जुयला उणवरणदिणेहिं जोवणं तेहिं । समचउरससंठाणा वरवजसरीरसंघयणा ॥२२॥ बाहत्तर-कलसहिया चउसद्विगुणरिणाया तणुकसाया। बत्तीसलक्खणधरा उज्जमसीला विणीया य ॥२६३॥ पवमासाउगि सेसे गभं धरिऊण सूइसमयम्हि । सुहमिचुणा मरित्ता शियमा देवत्तु पावंति ॥२६॥ भोगभूमिमें जीव युगल-युगलिया उत्पन्न होते है और वे उनचास दिनोंमें यौवन दशाको प्राप्त हो जाते है। वे सब समचतुरस्र संस्थानवाले और श्रेष्ठ वज्रवृषभशरीरसंहननवाले होते हैं ॥ २६२ ॥ वे भोगभूमियां पुरुष जीव बहत्तर कला-सहित और स्त्रियां चौसठ गुणों से समन्वित, मन्दकषायी, बत्तीस लक्षणोंके धारक, उद्यमशील और विनीत होते हैं ॥ २६३ ॥ नौ मास आयके शेष रह जानेपर गर्भको धारण करके प्रसूति-समयमे सुख मृत्युसे मरकर नियमसे देवपनेको पाते है ॥ २६४ ॥ जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्स । जायंति दाणफलो कप्पेसु महड्डिया देवा ॥२६॥ १ब, बहल । २ इ. सहसा तुंगा। ३ म. उत्तमकचावरणा। . इ-मट्टियायारा। ५म.-संहाणा। ६ इ. वायत्तर, भ. ब. बावत्तरि । ७. इसूय० ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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