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वसुनन्दि-श्रावकाचार . जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसयत जीव हैं, वे तीनों प्रकारके पात्रोंको दान देने के फलसे स्वर्गोमें महद्धिक देव होते है ॥ २६५ ॥
अच्छरसयमज्मगया तत्थाणुहविऊण विविहसुरसोक्खं ।
तत्तो चुया समाणा' मंडलियाईसु जायते ॥२६॥ वहांपर सैकड़ों अप्सराओंके मध्यमे रहकर नाना प्रकारके देव-सुखोंको भोगकर आयुके अन्तमे वहासे च्युत होकर मांडलिक राजा आदिकोंमे उत्पन्न होते है ॥ २६६ ॥
तत्थ वि बहुप्पयारं मणुयसुहं भुंजिऊस शिविग्छ । विगदभया' वेरग्गकारणं किंचि दहण ॥२६॥ पडिबुद्धिऊण चइऊण शिवसिरि संजर्म च वित्तण । उप्पाइऊण गाणं केई गच्छंति णिब्वाणं ॥२६॥ अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण ।
सत्तट्ठभवेहि तो करंति कामक्खयं णियमा ॥२६९॥ वहांपर भी नाना प्रकारके मनुष्य-सुखोंको निर्विघ्न भोगकर भय-रहित होते हुए वे कोई भी वैराग्यका कारण देखकर प्रतिबुद्धित हो, राज्यलक्ष्मीको छोड़कर और संयमको ग्रहण कर कितने ही केवलज्ञानको उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होते है और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्वको पुनः पुन प्राप्तकर सात-आठ भवके पश्चात् नियमसे कर्मक्षयको करते है ॥ २६७-२६९ ॥
एवं पत्तविसेस दाणविहाणं फलं च णाऊण ।
अतिहिस्स संविभागो कायम्वो देसविरदेहि ॥२७॥ इस प्रकार पात्रकी विशेषताको, दानके विधानको और उसके फलको जानकर देशविरती श्रावकोंको अतिथिका संविभाग अर्थात् दान अवश्य करना चाहिए ॥ २७० ॥
सल्लेखना-वर्णन धरिऊण वत्थमेतं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स बोसरणं ॥२७॥ जं कुणइ गुरुसयासन्मि' सम्ममालोइऊण तिविहेण ।
सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावय भणियं ॥२७२॥ वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रहको छोड़कर अपने ही घरमें अथवा जिनालयमें रहकर जो श्रावक गुरुके समीपमें मन-वचन-कायसे अपनी भले प्रकार आलोचना करके पानके सिवाय शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययनसूत्रमें सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है ॥ २७१-२७२ ॥
एव वारसमेयं वयठाणं वपिणयं मए विदियं ।
सामाइयं वइंज' ठाणं संखेवो वोच्छं ॥२७॥ इस प्रकार बारह भेदवाले दूसरे व्रतस्थानका मैने वर्णन किया। अब सामायिक नामके तीसरे स्थानको मै संक्षेपसे कहूंगा ॥ २७३ ॥
इ.समाया, म. समासा।२५. जायंति। ३. विगदब्मयाह । ४ब. लहियो। ५प. विरएहिं। ६इ. पयासिम्मि। ७ इ. विइयं, ब. बीयं । इ. तइयं,-म. तिदीयं ।