Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 212
________________ २२० वसुनन्दि-श्रावकाचार ८५४ . सगीत संघात सयम संयुत संयोग संस्थाप्य सन्निभ गायन समूह यम-नियम सयुक्त सप्राप्ति स्थापन करके सदृश २२१ २५७ २७६ ४७२ संतप्त अति सताप युक्त १८०-१०२ संगीय संघाय संजम संजय संजोय *संठाविऊण संणिह संतट्ट संतत्त संताविय संथार संदेह संधाण संधिबन्ध संपण्ण संपुण्ण संपत्त संपाविय संपुड “संपुडंग संभूसिऊण संतापित संस्तर सन्देह सन्धान सन्धिबन्ध सम्पन्न सम्पूर्ण सम्प्राप्त .सप्लावित, सम्प्राप्य संपुट संपुटांग संभूष्य सम्मोह संयोगज संवत्सर संवर संवरण सवेग संसारस्थ संसिक्त संश्रित सताप युक्त विस्तर शका अचार एक वाद्य-विशेष समाप्त सम्यक् प्रकार पूर्ण हस्तगत ओत-प्रोत, अच्छी तरह पाकर दो समान भागोका जोड़ना जुडा हुआ अग आभषित होकर मोहित करना सयोग-जनित ४६५ ३६६ सम्मोह १६८ वर्ष १०३ १२५ ४३२ संयोयज संवच्छर संवर संवरण संवे संसारत्थ संसित्त संसिय कस्रिव रोकना सकुचित वैराग्य ससारी सिंचा हुआ, व्याप्त आश्रित ११ ५८ २०२ हणिऊण हत्वा मार कर ठोड़ी, दाढ़ी ५२५ ४६१ हाथ हथणापुर *हम्ममाण हस्त हस्तिनापुर हन्यमान १८० धर *हरिऊण हरिय हृत्वा हरित प्राचीन पांडव-पुरी मारा जाता हुआ धारण करना हर करके हरा वर्ण भलाई हरा हुआ २६३ १०२ २६५ हिय. हित

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