Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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१७८
वसुनन्दि-श्रावकाचार
स्त्री-सेवा
। इन्द्रक
इत्थिसेवा इंद इंद्भइ इंदिय इयर
स्त्री-सेवन ( देवोंका स्वामी । स्वर्ग वा नरकका मध्यवर्ती विमान गौतम गणधर जाननेका द्वार दूसरा
इन्द्रभूति इन्द्रिय
इतर
दूसरेपर प्रभाव डालनेवाली ऋद्धि विशेष ५१३
ईसत्त ईसरिय
ईशत्व ऐश्वर्य
उकत्तण उक्कस्स
उत्कर्तन उत्कर्ष उत्कृष्ट
उकिट्ठ
उच्चत्व उच्चस्थान उत्थापयित्वा
उच्चार
उच्चार्य उचित
उत्साह
४१५
उग्ग उच्चत्त उच्चठ्ठाण *उच्चाइऊण उच्चार *उच्चारिऊण उचिय उच्छाह उच्छि ? ভজাম্ব उजम उज्जल उज्जवण उज्जाण उज्जोय उट्टरी *उद्वित्ता
काटना उत्तम, गर्व उत्तम, श्रेष्ठ
२५८ तीव्र, तेज, प्रबल
४३८ ऊँचापना ऊँचा आसन
२२५ ऊँचा उठाकर मल, उच्चारण, उच्चार (दे०)निर्मल,स्वच्छ ३३६ उच्चारण कर
४६४ योग्य, अनुरूप
४५५ उत्कठा, उत्सुकता, पराक्रम, सामर्थ्य जूठा उद्युक्त, प्रयत्नशील
५१८ उद्योग, प्रयत्न
२६३ निर्मल, स्वच्छ
३३२ ब्रतका समाप्ति-कार्य
३५८ उपवन, बगीचा प्रकाश, उद्यम ऊँचा करना उठाकर ऊपर उपरितन भुवन, ऊपरका लोक ऊपर जाना
५३६ उनचास
३६२
१२६
उच्छिष्ट उद्यत उद्यम उज्ज्वल उद्यपन, उद्यापन उद्यान उद्योत, उद्योग उत्थान उत्थाय ऊर्ध्व ऊर्ध्वलोक ऊर्ध्वगमन ऊनपंचाशत उष्णा उक्त
२५६
२८७
४६१
उडलोय उड्डगमण उगवण्ण उरह
१६२
उत्तप्त
उत्तत्त उत्तमंग उत्तुंग उदयागय
उत्तमांग उत्तुंग उदयागत
कहा हुआ संतप्त शिर, श्रेष्ठ अग ऊँचा, उन्नत उदयमें आया हुआ
२८६ २६० ४६३ २५८

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