Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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१९६
वसुनन्दि-श्रावकाचार
१७३
दह दहि दहिमुह *दाऊण दाडिम
३७३
दाण
दश दद्धि दधिमुख दत्वा दाडिम दान दानविधान दातव्य दातार द्वार, स्त्री दारुण दापयित्वा दासत्व दक्षिण
दाणविहोण दायव्व दाथार दार दारुण
दाविऊण दासत्तण दाहिण
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दस सख्या दही नन्दीश्वरस्थ गिरिविशेष दे करके अनार त्याग, दानके भेद देने योग्य वस्तु देनेवाला दरवाजा, नारी भयकर दिलाकर दासपना दाहिना देखा हुआ नजर, निरीक्षण मजबूत दिनको प्रतिमावत होकर ध्यान करना
२२० ३६८ १८१ ४४४
६१
दिट्ठ
दिट्टि
दृष्टि
४६९ २५२ ३१६ ४६७
दिढ दिणपडिमा ज्योग दियर दिण्ण
दिनप्रतिमा योग दिनकर
३१२
सूर्य
८६७ २८०
दिण्ह
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३३२
दियंत दिव्य दिल, दिसा दीउज्जोय दीणमुह
२५४
दिवस दिगंत दिव्य दिग दिशा दीपोद्योत दीनमुख (दीप द्वीप दीपद्रुम दीपाग
दिया हुआ दिन दिशान्त स्वर्गीय, अनुपम दिशा दीपकोंका प्रकाश करुण-वदन दीपक द्वीप, टापू प्रकाश करनेवाला कल्पवृक्ष
२७४ ३१६ १४२ २२८ २१४
दीव
दीवदुम
२५५
दीवंग
दीह
दीर्घ
२५१ १३०
दुक्ख दुग्गा दुगंध
आयत, लम्बा कष्ट कुगति बुरी गंध उपान्त्य, अन्तिम क्षणसे पूर्वका समय खोटा मन द्वेषयुक्त, दो में स्थित
दुःख दुर्गति दुर्गन्ध द्विचरम दुश्चित्त दुष्ट, द्विष्ठ
दुचरिम दुञ्चित्त
१६६ ५२४ १२३ १८० ४३४
दुग्ध
दूध
२५
दुण्णि
दुष्परिणाम .. दुरायार
दुष्परिणम दुराचार
३२६
दुर्विवाक दुष्ट आचरण भूमर, भवरा
द्विरेफ,
१४२
४७०

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