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वसुनन्दि-श्रावकाचार तदनुसार भाड़के भुंजे चना, मक्का, जुवार, गेहूँ आदि या पानीमे उबले अन्न धुंधरी आदि ही खाये जा सकते हैं। कुछ लोगोंकी व्याख्याके अनुसार नीरस दो अन्नोके संयोगसे बनी खिचड़ी, सत्तू आदि खाये जा सकते हैं।
इस विषयका स्पष्टीकरण पं० आशाधरजीने अपने सागार धर्मामृतमे इस प्रकार किया है
निर्विकृति:-विक्रियेते जिह्वा-मनसी येनेति विकृतिोरसेक्षुरस-फलरस-धान्यरसभेदाच्चतुर्धा । तत्र गोरसः क्षीर-धृतादिः, इक्षुरसः, खण्ड-गुडादि, फजरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैल-मण्डादिः। अथवा यद्येन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । विकृतेर्निष्क्रान्तं भोजनं निर्विकृति ।
-सागा० ध० अ० ५ श्लोक ३५ टीका ' अर्थात्-जिस भोजनके करनेसे जिह्वा और मन विकारको प्राप्त हो उसे विकृति कहते हैं। इसके चार भेद हैं:-गोरस विकृति, इक्षुरसविकृति, फलरसविकृति और धान्यरस विकृति । दूध, दही, घी, मक्खन आदिको गोरस विकृति कहते हैं । गुड़, खांड, शक्कर, मिश्री आदिको इक्षुरस विकृति कहते हैं। अंगर, अनार, श्राम. सन्तरे, मौसम्मी आदि फलोंके रसको फलरस विकृति कहते हैं और तेल, मांड आदिको धान्यरस विकृति कहते हैं। इन चारों प्रकारकी विकृतियोंसे यहाँ तक कि मिर्च मसालेसे भी रहित बिलकुल सात्त्विक भोजनको निर्विकृति भोजन कहा जाता है।
गाथा नं० २६५ एयहाण एकस्थान या एकासन व्रत
एयहाण शब्दका अर्थ एक स्थान होता है। भोजनका प्रकरण होनेसे उसका अर्थ होना चाहिए एक स्थानका भोजन, पर लोक-व्यवहारमै हमें इसके दो रूप देखने में आते हैं। दिगम्बर-परम्प गके प्रचलित रिवाजके अनुसार एयहाणका अर्थ है एक बार थालीमें परोसे गये भोजनका ग्रहण करना अर्थात् दुबारा परोसे गये भोजनको नहीं ग्रहण करना। पर इस विषयका प्ररूपक कोई दि० आगम-प्रमाण हमरे देखने में नहीं आया।
ताम्बर आगम परम्पराके अनुसार इसका अर्थ है--जिस प्रकारके आसनसे भोजनके लिए बैठे, उससे दाहिने हाथ और मुंहको छोड़कर कोई भी अंग-उपोगको चल-विचल न करे। यहां तक कि किसी अंगमें खुजलाहट उत्पन्न होने पर उसे दूर करनेके लिए दूसरा हाथ भी उसको नहीं उठाना चाहिए ।
जिनदास महत्तरने आवश्यक चूर्णिमे इसकी व्याख्या इस प्रकार की है :एकट्ठाणे ज जथा अंगुवंग, ठवियं तहेव समुद्दिसितव्वं, प्रागारे से अाउंटण-पसारणं नथि । श्राचार्य सिद्धसेनने प्रवचनसारकी वृत्तिमें भी ऐसा ही अर्थ किया है :
एक-अद्वितीय स्थान-अंगविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थानप्रत्याख्यानम् । तद्यथा-भोजनकालेऽङ्गोपाङ्ग स्थापितं तस्मिंस्तथा स्थित एव भोक्तव्यम् । मुखस्य हस्तस्य च अशक्यपरिहारत्वञ्चलनमप्रतिषिद्धमिति ।
भावार्य-भोजन प्रारम्भ करनेके समय अपने अंग-उपांर्गोको जिस प्रकारसे स्थापित किया हो और जिस श्रासनसे बैठा हो, उसे उसी स्थितिमें रहकर और उसी बैठकसे बैठे हुए ही भोजन करना चाहिए । ग्रास उठानेके लिए दाहिने हाथका उठाना और ग्रास चबानेके लिए मुखका चलाना तो अनिवार्य है। एकासनसे एकस्थानव्रतका महत्त्व इन्हीं विशेषताओंके कारण अधिक है।
एक-भक्त या एकात्त
एक + भक्त अर्थात् दिनमें एक बार भोजन करनेको एकभक्त या एकाशन कहते हैं। एकात्तका भी यही अर्थ है एक अत्त अर्थात् एक बार भोजन करना । दि० और श्वे० दोनों परम्पराओंमे इसका समान ही अर्थ किया गया है।
आवश्यक चूर्णिमें जिनदास महत्तर कहते हैं :एगासणं नाम पूता भूमीतो न चालिज्जति, सेसाणि हत्थे पायाणि चालेजावि। श्रावश्यक वृत्तिमें हरिभद्रसूरि कहते हैंएकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचलनेन भोजनम् ।