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आपकश्रेणि वर्णन इस प्रकार वह मुनि तपश्चरण करके, तथा प्रासुक स्थानमें जाकर और पर्यकासन बाँधकर अथवा कायोत्सर्गसे स्थित होकर, यदि वह क्षायिक-सम्यग्दृष्टि है, तो उसने पहले ही अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक, इन सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है, अतएव देवायु, नारकायु और तिर्यगायु इन तीनों प्रकृतियोंको उसी भवमे नष्ट अर्थात् सत्त्व-व्युच्छिन्न कर चुका है। और यदि वह वेदकसम्यग्दृष्टि है, तो प्रमत्त गुणस्थानमे, अथवा अप्रमत्त गुणस्थानमे धर्मध्यानका आश्रय करके उक्त सातों ही प्रकृतियोंका नाश करता है । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें सैकड़ों परिवर्तनोंको करके, क्षपक श्रेणिके प्रायोग्य सातिशय अप्रमत्त संयत होकर क्षणमात्रमे विशोधिको आपूरित करके और प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको और शुक्लध्यानको प्राप्त होकर कषायोके क्षपण करनेके लिए उद्यत वह वीर अपूर्वकरण संयत हो जाता है ॥५१४-५१८॥
एक्केक्क ठिदिखंड पाडइ अंतोमुहत्तकालेण । ठिदिखडपडणकाले अणुभागसयाणि पाडेइ ॥५१९।। गच्छइ विसुद्धमाणो पडिसमयमणंतगुणविसोहीए। .
अणियद्विगुणं तत्थ वि सोलह पयडीयो पाडेइ ॥५२०।। अपूर्वकरण गुणस्थानमे वह अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा एक एक स्थितिखंडको गिराता है। एक स्थितिखडके पतनकालमें सैकड़ों अनुभागखंडोंका पतन करता है। इस प्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है। वहॉपर पहले सोलह प्रकृतियोंको नष्ट करता है ॥५१९-५२०॥
विशेषार्थ-वे सोलह प्रकृतियाँ ये है-नरकगति, नरकगत्यानपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत, आतप, एकेन्द्रियजाति, साधारण, सूक्ष्म और स्थावरं । इन प्रकृतियोंको अतिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागमे क्षय करता है।
अट्ट कसाए च तयो णधुसयं तहेव इस्थिवेयं च । छएणोकसाय पुरिसं कमेण कोह पि संछुहइ ॥५२॥ कोहंमाणे माण मायाए तं पि छुहइ लोहम्मि ।
बायरलोह पितो कमेण णिट्ठवह तस्थेव ॥५२२॥ .. सोलह प्रकृतियोंका क्षय करनेके पश्चात् आठ मध्यम कषायोंको, नपुसकवेदको, तथा स्त्रीवेदको, हास्यादि छह नोकषायोंको और पुरुषवेदका नाश करता है और फिर क्रमसे संज्वलन क्रोधको भी संक्षुभित करता है। पुनः संज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें, संज्वलनमानको संज्वलन मायामें और संज्वलन मायाको भी बादर-लोभमे संक्रामित करता है । तत्पश्चात् क्रमसे बादर लोभको भी उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमे निष्ठापन करता है, अर्थात् सूक्ष्म लोभरूपसे परिणत करता है ॥५२१-५२२॥
अणुलोह वेदंतो संजायइ सुहुमसंपरायो सो। खविऊण सहुमलोहं खीणकसानो तो होइ ॥५२३॥ तत्थेव सकमाणं विदिय पडिवजिऊण तो तेण । णिहा-पयलाउ दुए दुचरिमसमयम्मि पाडेइ ॥५२॥
१ब. कंड। २ ब. कंड।
म. लोहम्मि । प. लोयम्मि ।