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योगनिरोध-वर्णन
१४१ सयोगिकेवली अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण आयुके शेष रह जानेपर (शेष कर्मोंकी स्थितिको समान करनेके लिए) आठ समयोंके द्वारा दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, पुनः प्रतर, कपाट, दंड और निज देह-प्रमाण, इस प्रकार आत्म-प्रदेशोंका प्रसारण और संवरण करते हैं। तब सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तमें अघातिया कर्म सदृश स्थितिवाले हो जाते है ॥५३१-५३२॥
बायरमण-वचिजोगे रुंभइ तो थूलकायजोगेण । सुहमेण तं पि रुंभइ सुहमे मण-वयणजोगे य ॥५३३॥ तो सुहुमकायजोगे वहतो झाइए तइयसुक्कं ।
रुभित्ता तं पि पुणो अजोगिकेवलिजिणो होइ ।।५३४॥ तेरहवें गुणस्थानके अन्तमे सयोगिकेवली जिनेन्द्र बादरकाययोगसे बादर मनोयोग और बादर वचनयोगका निरोध करते हैं। पुनः सूक्ष्म-काययोगसे सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करते है। तब सूक्ष्म काययोगमे वर्तमान सयोगिकेवली जिन तृतीय शुक्लध्यानको ध्याते है और उसके द्वारा उस सूक्ष्म काययोगका भी निरोध करके वे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली जिन हो जाते है ॥५३३-५३४॥ •
बावत्तरि पयडीओ चउत्थसुक्केण तस्थ घाएइ। दुचरिमसमयम्हि तो तेरस चरिमम्मि णिहवइ ॥५३५॥ तो तम्मि चेव समये लोयग्गे उगमणसम्भात्रो।
संचिहइ असरीरो पवरहगुणप्पो णिच्चं ॥५३६॥ उस चौदहवें गुणस्थानके द्विचरम समयमें चौथे शुक्लध्यानसे बहत्तर प्रकृतियोंका घात करता है और अन्तिम समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाश करता है। उस ही समयमें ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला यह जीव शरीर-रहित और प्रकृष्ट अष्ट-गुण-सहित होकर नित्यके लिए लोकके अग्र भागपर निवास करने लगता है -॥५३५-५३६।।
सम्मत्त णाण दंसण वीरिय सुहम तहेव अवगहणं ।
अगुरुलहुमव्वाबाह सिद्धाणं वणिया गुणटुंदे ॥५३७॥ सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व, ये सिद्धोंके आठ गण वर्णन किये गये हैं ॥५३७।।
जं किं पि सोक्खसारं तिसु वि लोएसु मणुय-देवाणं ।
तमणंतगुणं पि ण एयसमयसिद्धाणुभूयसोक्खसमं ॥५३८।। तीनों ही लोकोंमे मनुष्य और देवोंके जो कुछ भी उत्तम सुखका सार है, वह अनन्तगुणा हो करके भी एक समयमे सिद्धोंके अनुभव किये गये सुखके समान नहीं है ॥५३८॥
सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमहमए ।
भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ॥५३॥ (उत्तम रीतिसे श्रावकोंका आचार पालन करनेवाला कोई गृहस्थ) तीसरे भवमे सिद्ध होता है, कोई क्रमसे देव और मनुष्योंके सुखको भोगकर पांचवें, सातवें या आठवें भवमें सिद्ध पदको प्राप्त करते हैं ॥५३९॥
* म और इप्रतिमें ये दो गाथाएं और अधिक पाई जाती हैं:
मोहक्खएण सम्म केवलणाणं हणेइ अण्णाणं । केवलदसण देसण अणंतविरियं च अन्तराएण ॥१॥ सुहुमं च णामकम्म पाउहणणेण हवइ अवगहण । गोयं च गुरुलहुयं अवाबाहं च वेयणीयं च ॥२॥