Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 125
________________ १३२ वसुनन्दि-श्रावकाचार तस्सुवरि सिद्धणिलयं जह सिहरं जाण उत्तमंगम्मि । एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पि पिंडत्थं ॥४६३ ॥ अथवा, अपने नाभिस्थानमे मेरुपर्वतकी कल्पना करके उसके अधोविभागमें अधोलोकका ध्यान करे, नाभिपार्श्ववर्ती द्वितीय तिर्यग्विभागमें तिर्यग्लोकका ध्यान करे। नाभिसे ऊर्ध्वभागमें ऊर्ध्वलोकका चिन्तवन करे ? स्कन्धपर्यन्त भागमें कल्पविमानोंका, ग्रीवास्थानपर नवग्रैवेयकोका, हनुप्रदेश अर्थात् ठोड़ीके स्थानपर नव अनुदिशोंका, मुखप्रदेशपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिका ध्यान करे। ललाट देशमें सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमागमें लोकशिखरके तुल्य सिद्धक्षेत्रको जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देहका ध्यान किया जाता है, उसे भी पिडस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४६०-४६३॥ पदस्थ-ध्यान जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेडिमंतपयममलं । एयक्खरादि विविहं पयत्थझाणं मुणेयध्वं ॥४६४॥(१) एक अक्षरको आदि लेकर अनेक प्रकारके पच परमेष्ठीवाचक पवित्र मंत्रपदोंका उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४६४॥ विशेषार्थ--ओं यह एक अक्षरका मंत्र है। अर्ह, सिद्ध ये दो अक्षरके मंत्र है। ओं नमः यह तीन अक्षर का मत्र है। अरहंत, अर्ह नमः, यह चार अक्षरका मंत्र है। अ सि आ उ सा यह पाँच अक्षरका मंत्र है। ओं नमः सिद्धेभ्यः यह छह अक्षरका मंत्र है। इसी प्रकार ओं, ह्री नमः, ऊं ह्री अर्ह नमः, ओं ह्री श्री अर्ह नमः, अर्हत, सिद्ध, अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नमः, इत्यादि पंचपरमेष्ठी या जिन, तीर्थ कर वाचक नामपदोंका ध्यान पदस्थ ध्यानके ही अन्तर्गत है। सुगणं अयारपुरो माइज्जो उड्ढरेह-बिंदुजुयं । पावंधयारमहणं समंतश्रो फुरियसियतेयं ॥४६५॥(२), पापरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला और चारों ओरसे सूर्यके समान स्फुरायमान शुक्ल तेजवाला ऐसा तथा ऊर्ध्वरेफ और बिन्दुसे युक्त अकारपूर्वक हकारका, अर्थात् अर्ह इस मंत्रका ध्यान करे ॥४६५॥ असि आउ सा सुवण्णा झायब्वा पंतसत्तिसंपरणा। चउपत्तकमलमज्झे पढमाइकमेण णिविसिऊणं ॥४६६॥(३) चार पत्रवाले कमलके भीतर प्रथमादि क्रमसे अनन्त शक्ति-सम्पन्न अ, सि, आ, उ, सा इन सुवर्णों को स्थापित कर ध्यान करना चाहिए। अर्थात् कमलके मध्यभागस्थ कर्णिका में अं (अरहंत) को, पूर्व दिशाके पत्रपर सि (सिद्ध) को, दक्षिण दिशाके पत्रपर आ (आचार्य) को पश्चिम दिशाके पत्रपर उ (उपाध्याय) को और उत्तर दिशाके पत्रपर सा (साधु) को स्थापित कर उनका ध्यान करे ॥४६६॥ ते चिय वण्णा अदल पंचकमलाण मज्झदेसेसु । णिसिऊण सेसपरमेट्ठि अक्खरा चउसु पत्तेसु ॥४६७॥ (१) एकाक्षरादिक मंत्रमुच्चार्य परमष्ठिनाम् । क्रमस्य चिन्तनं यत्तत्पदस्थध्यानसंज्ञकम् ॥२३२॥ (२) अकारपूर्वक शून्यं रेफानुस्वारपूर्वकम् । पापान्धकारनिर्णाशं ध्यातव्यं तु सितप्रभम् ॥२३३॥ (३) चतुर्दलस्य पद्मस्य कर्णिकायंत्रमन्तरम् । पूर्वादिदिक्क्रमान्भ्यस्य पदाधक्षरपंचकम् ॥२३॥-गुण० श्राव.

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