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वसुनन्दि-श्रावकाचार
तिविहा दब्वे पूजा सञ्चित्ताचित्तमिस्सभेएण । पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा' जहाजोग्गं ॥४४९॥ तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्स वि अचित्तपूजा सा ।
जा' पुण दोण्हं कीरइ णायब्वा मिस्सपूजा सा १४५०॥(१) द्रव्य-पूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदिका यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन, तीर्थ कर आदिके, शरीरकी, और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदिपर लिपिबद्ध शास्त्रकी जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है। और जो दोनोंका पूजन किया जाता है वह मिश्रपूजा जानना चाहिए ॥४४९-४५०॥
अहवा आगम-णोागमाइभेएण बहुविहं दव्वं ।
णाऊण दवपूजा कायवा सुत्तमग्गेण ॥४५१॥ अयवा आगमद्रव्य, नो आयमद्रव्य आदिके भेदसे अनेक प्रकारके द्रव्यनिक्षेपको जानकर शास्त्र-प्रतिपादित मार्गसे द्रव्यपूजा करना चाहिए ॥४५१॥
क्षेत्र-पूजा जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु ।
णिसिहीसु खेत्तपूजा पुब्वविहाणेण कायच्या ॥४५२॥(२) जिन भगवान्की जन्मकल्याणकभूमि, निष्क्रमणकल्याणकभूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थचिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण-भूमियोंमें पूर्वोक्त विधानसे क्षेत्रपूजा करना चाहिए, अर्थात् यह क्षेत्रपूजा कहलाती है ॥४५२॥
काल-पूजा गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण-णाण-णिव्वाणं । जम्हि दिणे संजाद जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ॥४५३।। इच्छुरस-सपिप-दहि-खीर-गंध-जलपुण्णविविहकलसेहिं । णिसिजागरणं च संगीय-णाडयाईहिं कायब्वं ॥४५॥ गंदीसरहदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु ।।
जं कीरह जिणमहिमं विपणेया कालपूजा सा ॥४५५।।(३) जिस दिन तीर्थङ्करोंके गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन इक्षुरस, घृत, दधि, क्षीर, गंध और जलसे परिपूर्ण विविध अर्थात् अनेक प्रकारके कलशोंसे, जिन भगवान्का अभिषेक करे तथा संगीत, नाटक आदिके द्वारा जिनगुणगान करते हुए रात्रि-जागरण करना चाहिए। इसी प्रकार नन्दीश्वर १ ब. घ. पुज्जा । २ ध. जो। ३ प. प. संजायं ।
(१) चेतनं वाऽचेतनं वा मिश्रद्व्यमिति त्रिधा ।
साक्षाज्जिनादयो द्रव्यं चेतनाख्यं तदुच्यते ॥२२०॥ तद्वपुर्द्रव्यं शास्त्रं वाऽचित्तं मित्र तु तवयम् ।
तस्य पूजनतो द्रव्यपूजनं च विधा मतम् ॥२२॥ (२) जन्म-निःक्रमणज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम् ।
निषिध्यास्वपि कर्त्तव्या क्षेत्रे पूजा यथाविधि ॥२२२॥ (३) कल्याणपंचकोत्पत्तियस्मिन्नन्हि जिनेशिनाम् ।
तदन्हि स्थापना पूजाऽवश्यं कार्या सुभक्तितः ॥२२३॥ पर्वण्यष्टाह्निकेऽन्यस्मिन्नपि भक्त्या स्वशक्तितः । महामहविधानं यतत्कालार्चनमुच्यते ॥२२४॥-गुण० श्रा