Book Title: Vasunandi Shravakachar
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 129
________________ १३६ वसुनन्दि-श्रावकाचार धूपसे पूजा करनेवाला मनुष्य चन्द्रमाके समान धवल कीर्तिसे जगत्त्रयको धवल करनेवाला अर्थात् त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाणका सुखरूप फल पानेवाला होता है ॥४८८॥ घंटाहिं घंटसघाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि । ___ संकीदइ सुरसंघायसेविप्रो वरविमाणेसु ॥४८९॥ जिनमन्दिरमें घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घंटाओंके शब्दोंसे आकुल अर्थात् व्याप्त, श्रेष्ठ विमानोंमें सुर-समूहसे सेवित होकर प्रवर-अप्सराओंके मध्यमे क्रीड़ा करता है ॥४८९॥ छत्तेहि' एयछत्तं भुंजइ पुहवी सवत्तपरिहीणों'। चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं ॥४९०॥ छत्र-प्रदान करनेसे मनुष्य, शत्रुरहित होकर पृथिवीको एक-छत्र भोगता है। तथा 'चमरोंके दानसे चमरोंके समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं ॥४९०॥ अहिंसेयफलेण णरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि । खीरोयजलेण सुरिंदप्पमुहदेवेहिं भत्तीए ॥४९१॥ जिनभगवान्के अभिषेक करनेके फलसे मनुष्य सुदर्शनमेरुके ऊपर क्षीरसागरके जलसे सुरेन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा भक्तिके साथ अभिषिक्त किया जाता है ॥४९१॥ विजयपडाएहिं णरो संगाममुहेसु विजइश्रो होइ । छक्खंदविजयणाहो णिपडिवक्खो जसस्सी' य ॥४९२॥ जिन-मन्दिरमें विजय-पताकाओंके देनेसे मनुष्य संग्रामके मध्य विजयी होता है । तथा षट्खंडरूप भारतवर्षका निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है ॥४९२॥ किं जंपिएण बहुणा तीसु वि लोएसु किं पिजं सोक्खं । पूजाफलेण सव्वं पाविज्जइ णत्थि सदेहो ॥४१३॥ अधिक कहनेसे क्या लाभ है, तीनों ही लोकोंमें जो कुछ भी सुख है, वह सब पूजाके फलसे प्राप्त होता ह, इसमे कोई सन्देह नहीं है ॥४९३॥ अणुपालिऊण एवं सावयधम्मं तोवसाणम्मि । सल्लेहणं च विहिणा काऊण समाहिणा कालं ॥४९॥ सोहम्माइसु जायइ कप्पविमाणेसु अच्चुयंतेसु । उववादगिहे कोमलसुयंधसिलसंपुडस्संते" ॥४१५॥ अंतोमुहुत्तकालेण तो पज्जत्तियो समाणेइ । दिन्वामलदेहधरो जायइ णवजुब्वणो चेव ॥४९॥ समचउरससंठाणो रसाइधाऊहिं वज्जियसरीरो। दिणयरसहस्सतेश्रो णवकुवलयसुरहिणिस्सासो ॥४९७॥ इस प्रकार श्रावकधर्मको परिपालन कर और उसके अन्तमे विधिपूर्वक सल्लेखना करके समाधिसे मरण कर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त कल्पविमानोंमें उत्पन्न होता है। वहाँके उपपादगृहोंके कोमल एवं सुगंधयुक्त शिला-सम्पुटके मध्य में जन्म लेकर अन्तर्मुहुर्त काल द्वारा अपनी छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्तके ही भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक एवं नवयौवनसे युक्त हो जाता है। वह देव १. छत्तिहिं । २ सपनपरिहीनः। ३ ब. जसंसी। ४ भ. प. संपुडस्संतो।

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