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वसुनन्दि-श्रावकाचार
चिट्ठज्ज जिणगुणारोवणं कुणंतो जिणिंदपडिबिंवे । इढविलग्गस्सुदए चंदणतिलयं तो दिज्जा ॥४१८॥ सवावयवेसु पुणो मंतण्णासं कुणिज्ज पडिमाए । विविहच्चणं च कुज्जा कुसुमेहिं बहुप्पयारेहिं ॥४१६॥ दाऊण मुहपडं धवलवत्थजुयलेण मयणफलसहियं । अक्खय-चरु-दीवेहि य धूवेहिं फलेहिं विविहेहिं ॥४२०॥ बलिवत्तिएहिं जावारएहि य सिद्धत्थपण्णरुक्खेहिं ।
पुव्वुत्तुवयरणेहि य' रएज्ज पुज्ज सविहवेण ॥४२१॥ इस प्रकार आकरशुद्धि करके पुनः क्षोभित हुए समुद्रके समान गर्जना करते हुए उत्तमोत्तम भेरी, करड, काहल, जयजयकार शब्द, घटा और शखोंके समूहोंसे, गुल-गुल शब्द करते हुए तबलोंसे, झम-झम शब्द करते हुए कसतालोंसे, घुम-घुम शब्द करते हुए नाना प्रकारके ढोल, मृदंग, हुड़ क्क आदि मुख्य-मुख्य बाजोंसे, सुर-आलाप करते हुए सधिबधादिकोंसे अर्थात् सारंगी आदिसे, और नाना प्रकारके गीतोंसे, सुरम्य वीणा, बाँसुरीसे तथा सुन्दर आणक अर्थात् वाद्यविशेषके शब्दोंसे नाना प्रकारके हाव, भाव, विभ्रम, विलास तथा हाथ, पैर और शरीरके विकारोंसे अर्थात् विविध नृत्योंसे नाचते हुए नौ रसोंको प्रकट करनेवाले नाना नाटकोंसे, स्तोत्रोंसे, मांगलिक शब्दोंसे, तथा उत्साह-शतोसे अर्थात् परम उत्साहके साथ मधुरभाषी, धर्मानुराग-रक्त और भक्तिसे उत्सवको देखनवाले चातुर्वर्ण सघके सामने, जिसके ऊपर श्वेत आतपत्र (छत्र ) तना है, और श्वेत चामरोके ढोरनेसे व्याप्त है सर्व अंग जिसका, ऐसी जिनप्रतिमाको वह प्रतिष्ठाचार्य अपने मस्तकपर रखकर और जिनेन्द्रगृहकी प्रदक्षिणा करके, पूर्वोक्त वेदिकाके मध्य-स्थित सिहासनपर विधिपूर्वक प्रतिमाको स्थापित कर, जिनेन्द्र-प्रतिबिम्बमे अर्थात् जिन-प्रतिमामे जिन-भगवान्के गुणोंका आरोपण करता हुआ, पुनः इष्ट लग्नके उदयमें अर्थात् शुभ मुहूर्तमें प्रतिमाके चन्दनका तिलक लगावे । पुनः प्रतिमाके सर्व अंगोपांगोंमें मत्रन्यास करे और विविध प्रकारके पुष्पोंसे नाना पूजनोको करे। तत्पश्चात् मदनफल (मैनफल या मैनार) सहित धवल वस्त्र-युगलसे प्रतिमाके मुखपट देकर अर्थात् वस्त्रसे मुखको आवृत कर, अक्षत, चरु, दीपसे, विविध धूप और फलोंसे, बलि-वत्तिकोंसे अर्थात् पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियोंसे जावारकोंसे, सिद्धार्थ (सरसों) और पर्ण वृक्षोंसे तथा पूर्वोक्त उपकरणोंसे पूर्ण वैभवके साथ या अपनी शक्तिके अनुसार पूजा रचे ॥४११-४२१॥
रत्तिं जग्गिज्ज' पुणो तिसट्टि सलायपुरिससुकहाहि ।
सघेण समं पुज्ज पुणो वि कुजा पहायम्मि ॥४२२॥ पुनः संघके साथ तिरेसठ शलाका पुरुषोंकी सुकथालापोंसे रात्रिको जगे अर्थात् रात्रिजागरण करे और फिर प्रातःकाल संघके साथ पूजन करे ॥४२२।
एवं चत्तारि दिणाणि जाव कुज्जा तिसंझ जिणपूजा ।
___ *नेत्तुम्मोलणपुज्जं चउत्थण्हवणं तो कुजा ॥४२३॥ इस प्रकार चार दिन तक तीनों संध्याओंमें जिन-पूजन करे। तत्पश्चात् नेत्रोन्मीलन पूजन और चतुर्थ अभिषेक करे ॥४२३॥
म. जुवारेहि । २ध, प. परए। ३ ब. ब. जग्गेज्ज । प. जगोज, ४ ब. तेसटाठि ।
विदध्यात्तेन गन्धेन चामीकरशलाकया। चक्षुरुन्मीलनं शक्रः पूरकेन शुभोदये ॥४१॥-वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ