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विनय-वर्णन
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ग्यारहवें प्रतिमास्थानमें उपासकाध्ययन-सुत्रके अनुसार संक्षेपसे मैने उद्दिष्ट आहारके त्यागी दोनों प्रकारके श्रावकोंका वर्णन किया ॥ ३१३ ॥
रात्रिभोजनदोष-वर्णन एयारसेसु पढमं वि' जदो णिसिभोयणं कुणंतस्स ।
ठायां या ठाई तम्हा णिसिभुत्तिं परिहरे णियमा ॥३१॥ चूंकि, रात्रिको भोजन करनेवाले मनुष्यके ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे पहली भी प्रतिमा नही ठहरती है, इसलिए नियमसें रात्रिभोजनका परिहार करना चाहिए ॥ ३१४ ॥
चम्महि-कीड-उंदुर-भुयंग-केसाइ असणमज्झम्मि ।
पडियं ण किं पि पस्सइ भुंजइ सव्यं पि णिसिसमये ॥३१५॥ भोजनके मध्य गिरा हुआ चर्म, अस्थि, कीट-पतंग, सर्प और केश आदि रात्रिके समय कुछ भी नहीं दिखाई देता है, और इसलिए रात्रिभोजी पुरुष सबको खा जाता है ॥ ३१५ ॥
दीउज्जोयं जइ कुणइ तह वि चउरिदिया अपरिमाणा ।
णिवडंति दिहिराएण मोहिया असणमज्झम्मि ॥३६॥ यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिरागसे मोहित होकर भोजनके मध्यमें गिरते हैं ॥ ३१६ ॥
इयएरिसमाहारं भुजतो आदणासमिह लोए।
पाउणइ परभवम्मि चउगइ संसारदुक्खाई॥३१७॥ इस प्रकारके कीट-पतंगयुक्त आहारको खानेवाला पुरुष इस लोकमें अपनी आत्माका या अपने आपका नाश करता है, और परभवमें चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंको पाता है ॥ ३१७॥
एवं बहुप्पयारे दोस णिसिभोयणम्मि णाऊण ।
तिविहेण राइभुत्ती परिहरियव्वा हवे तम्हा ॥३१॥ इस प्रकार रात्रिभोजनमें बहुत प्रकारके दोष जानकरके मन, वचन, कायसे रात्रि भोजनका परिहार करना चाहिए ॥ ३१८॥
श्रावकके अन्य कर्तव्य विणो विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं ।
सत्तीए जहजोगं कायर्व देसविरएहिं ॥३१९॥(6) देशविरत श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्त्य, कायक्लेश और पूजन-विधान करना चाहिए ॥ ३१९ ॥
विनयका वर्णन दसण-णाण'चरित्ते तव उवयारम्मि पंचहा विणश्रो । पंचमगइगमणथं कायम्वो देसविरएण ॥३२०॥(२)
१ ब. पि । २ ब. वाइ। ३ ब. दुदुर । ध. दुंदुर । ४ ध, प्पयारे । ५ ध. दोसे । ६ ध. गमणत्थे।
(१) विनयः स्याद्वैयावृत्त्यं कायक्लेशस्तथार्चना ।
कर्तव्या देशविरतेयथाशक्तिं यथागमम् ॥१९०॥ (२) दर्शनज्ञानचारित्रैस्तपसाऽप्युपचारतः।
विनयः पंचधा स स्यात्समस्तगुणभूषणः ॥१९॥